हाल ही में मुम्बई में 102वीं भारतीय विज्ञान कांग्रेस आयोजित हुई है । हर वर्ष होने वाले इस आयोजन का उद्देश्य देश भर के वैज्ञानिकों को परस्पर संवाद करने और दुनिया भर में विज्ञान की प्रगति के बरक्स अपनी उपलब्धियों को नापना, जोखना और युवा पीढ़ी को यह संदेश देना है कि केवल विज्ञान और तकनीक की मदद से ही देश आगे तरक्की कर सकता है । विज्ञान कांग्रेस को हर वर्ष प्रधानमंत्री जी संबोधित करते हैं और पूरे देश में इसका बहुत सकारात्मक संदेश भी जाता है । विज्ञान और अध्यात्म और प्राचीन भारत में विज्ञान जैसे अनेक गंभीर विमर्शों के बीच ऐसे आयोजन में युवा वैज्ञानिकों द्वारा किये गये नये-नये आविष्कारों पर ध्यान लोगों का ज्यादा जाता है क्योंकि ये आविष्कार उनको परस्पर हर क्षेत्र में और बेहतर करने की प्रेरणा देते हैं । इस वर्ष के जिन आविष्कारों ने पूरे देश और दुनिया का ध्यान खींचा है उनमें रोजमर्रा की जिंदगी के अनेकों उपकरण शामिल हैं । फसलों पर कीटनाशक छिड़कना एक जोखिम का काम होता है । महाराष्ट्र की अंजली गोटे ने एक साईकिल पम्प से इससे छिड़काव करना आसान बनाया है । यह उपकरण बहुत सस्ता भी है और किसानों के स्वास्थ्य के लिए भी घातक नहीं । कुछ विद्यार्थियों ने एक ऐसा सैंडिल बनाया है जिसे महिलाएं सुरक्षा के लिए भी इस्तेमाल कर सकती हैं । इस सैंडिल में एक उच्च क्षमता का करंट दौड़ता है । ऐसा ही एक उपकरण नेत्रहीन विद्यार्थियों के लिए ईजाद किया गया है । कानपुर के छात्रों ने केंसर रोग पता करनेकी एक सरल विधि खोजी है तो प्रोफसर राम सब्रह्मण्यम ने भवन निर्माण की सस्ती सामग्री ।
दुनिया भर के नौजवानों की तरह हमारे देश के नौजवानों में भी मेहनत और प्रतिभा की कमी नहीं है । हर वर्ष होने वाले राष्ट्रपति भवन के आयोजन में भी विज्ञान और देसी आविष्कारों के सैंकड़ों नमूने हर वर्ष देखने को मिलते हैं । यह आयोजन आई.आई.एम. अहमदाबाद के प्रोफेसर अनिल गुप्ता ‘इनोवेशन फाउंडेशन’ के तहत करते हैं । पिछले वर्षों के कुछ आविष्कार लगातार ध्यान खींचते हैं जैसे- व्यायाम करने वाली मशीन को कपड़े धोने की मशीन से जोड़ दिया गया । यानि कि व्यायाम भी हो गया और कपड़े भी धुल गये । ऐसे ही कुछ आविष्कार थे जिसमें ग्रामीण क्षेत्र में ऊर्जा की बचत हो सकती है और साधारण सी घरेलू तकनीकों से कैसे खाने को गरम या ठंडा बनाकर रखा जा सकता है । दरअसल इन सब बातों का प्रचार एक वैज्ञानिक चेतना फैलाने के लिए जरूरी है । वैज्ञानिक चेतना से मनुष्य के जीवन को निरंतर बेहतर बनाया जा सकता है ।
विज्ञान ने हजारों वर्षों की अपनी यात्रा में उत्तरोत्तर मनुष्य के जीवन को बेहतर बनाया है । याद कीजिए तीन सौ वर्ष पहले जब कोई हड्डी टूट जाती थी या चोट लग जाती थी तो कैसे खपच बनाकर उसे ठीक करने की कोशिश की जाती थी । आज विज्ञान की मदद से बिना दर्द के न केवल हड्डी जोड़ी जाती हैं बल्कि आपके दिल, दिमाग, गुर्दे को बदलना भी संभव है । विज्ञान ने मनुष्य जीवन को बिना किसी जाति, धर्म, क्षेत्र के भेदभाव के आसान बना दिया है । क्या पांच सौ वर्ष पहले एक गरीब आदमी के लिए इतनी आसानी से एक जगह से दूसरी जगह जाना संभव था ? राजा महाराजा भी पालकी और रथों में चलते जरूर थे लेकिन क्या इतनी जल्दी और इतने आराम से पहुंच सकते थे ? आज मोबाईल के बूते आप पूरी दुनिया भर में अपने बच्चों, मित्रों, रिश्तेदारों से बतिया सकते हैं । क्या आपको नहीं लगता कि विज्ञान से अधिक जनतांत्रिक दूसरा औजार नहीं है ?
जो यूरोप पांच-छह सौ वर्ष पहले लगभग गुमनामी में था इसी विज्ञान के बूते आज उसके आविष्कार पूरी दुनिया को बेहतर बना रहे हैं । लगभग नब्बे प्रतिशत आविष्कार यूरोपीय सभ्यता की देन हैं । यहां प्रश्न यूरोप की प्रशंसा या बुराई का नहीं है जितना वैज्ञानिक चेतना पर उंगली रखना है जिससे पूरे समाज का जीवन बेहतर बनता है । इस बार की विज्ञान कांग्रेस में भारतीय प्राचीन विधा और ज्ञान-विज्ञान की भी खूब चर्चा हुई । इसे कहीं से भी बुरा नहीं कहा जा सकता । लेकिन अब वक्त आ गया है कि हम उस चर्चा से आगे बढ़ें । अतीत सिर्फ गर्व के लिए नहीं होता हमें उससे प्रेरणा लेकर उस चेतना को आगे बढ़ाने की जरूरत है जिससे दुनिया हमारे आविष्कार और हमारे वैज्ञानिकों को वैसे ही जाने जैसे आज हम मैडम क्यूरी, रदरफोर्ड, न्यूटन, हार्वे, डार्विन, मेंडेल, मेक्सप्लांक जैसे हजारों हजार वैज्ञानिकों को जानते हैं । हमारे आर्यभट्ट, जगदीश चंद्र बसु, ब्रह्म गुप्त, भास्कर जैसे प्राचीन वैज्ञानिकों की उपलब्धियॉं भी कम नहीं हैं । लेकिन सोचने की जरूरत है कि धीरे-धीरे यह वैज्ञानिक चेतना किन कारणों से बुझती चली गई । कहीं हमारे स्कूलों, विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम, पढ़ाने का ढंग तो जिम्मेदार नहीं ? रटन्त और परीक्षा की बजाये हमें प्रयोग और प्रश्नाकुल शिक्षा को बढ़ाना होगा । जहां यूरोप धार्मिकता के सभी प्रतीकों को पृष्ठभूमि में रखते हुए विज्ञान की बदौलत आगे बढ़ता गया, वैसा एशिया के ज्यादातर समाजों में नहीं हो पाया । हमारे देश में तो और उलटा हुआ । यहां अंधविश्वास और बाबावाद उतना ही हावी होता गया । ऐसे अंधविश्वासों के खिलाफ समय-समय पर आवाज उठाई तो जाती रही है लेकिन उसे और तेज करने की जरूरत है । पूना के नरेन्द्र दाभोलकर ने इन्हीं सब कुरीतियों के खिलाफ आवाज उठाई थी । लेकिन उन्हें अगस्त, 2013 में अपनी जान से हाथ धोना पड़ा । फिर भी उनकी सहादत खाली नहीं गई । काले जादू के खिलाफ महाराष्ट्र सरकार ने कानून बना दिया है और उस पर पालन भी शुरू हो गया है । विज्ञान कांग्रेस की सार्थकता इसी में है कि हम नये-नये आविष्कारों के साथ-साथ स्कूल कॉलेजों और समाज में वह चेतना भी जगाएं जिससे धर्म किसी भी आवरण में शोषण का औजार नहीं बने । विज्ञान इन्हीं अर्थों में नये समाज में ईश्वर की भूमिका निभा रहा है और विज्ञान कांग्रेस का यही सबसे बड़ा संदेश है । भारत के पिछड़ेपन को केवल विज्ञान से ही दूर किया जा सकता है ।