हाल ही में अंडमान जाना हुआ । आजादी के साठ-पैंसठ वर्ष बाद । इतना आसान भी नहीं है वहां जाना । लेकिन वहां जाए बिना आजादी का अर्थ भी नहीं समझा जा सकता । सेल्यूलर जेल के सामने खड़े होकर आप भय, गुस्सा, गर्व, आत्मग्लानि, देश-प्रेम की कई लहरों पर चढ़ते-उतराते हैं । आजादी की चाह रखने वालों को कैसी-कैसी यातनाएं दी गईं । छह बाई छह फीट की मोटी दीवारों के गुफानुमा कमरे, लोहे के दरवाजे, जंजीरों से बांध कर दिन में अंडमान के जंगलों को साफ करना । सुनकर रौंगटे खड़े हो जाएं । एक बार वहां पहुंचे तो मुश्किल से ही कोई वापिस हिन्दुस्तान पहुंच पाता था । लेकिन काले पानी कहे जाने वाले इस तीर्थ में पहुंचने वालों की कमी कभी नहीं हुई । इन्हें ब्रिटिश साम्राज्य के अत्याचारों से आजादी चाहिए थी । आजादी, स्वराज, स्वाधीनता, लोकतंत्र जो भी कहें चाहिये था । दुनिया भर के मुल्कों में यह बयार बह रही थी और देखते-ही-देखते 1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम के बाद भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और उसके नेताओं – दादा भाई नैरोजी, राना डे, गोखले, तिलक, सांवरकर, जिन्ना, गांधी, जवाहर लाल, अम्बेडकर सुभाष चंद बोस, राजगोपालाचार्य, सरोजिनी नायडू, अब्दुल गफ्फार खान के नेतृत्व में स्वाधीनता की हिलोरे उठने लगीं । अनगिनत नाम अनगिनत नेता । इनमें से कुछ 1947 में आजादी देख पाए और ज्यादातर नहीं । आजादी मिली, मुक्ति के गीत गाए गये, जश्न मनाया गया । लेकिन क्या हम सचमुच आजाद हो पाएं ? क्या साठ वर्ष के बाद भी यह प्रश्न वैसे ही हमें नहीं घूर रहा कि समानता और जातिवाद, साम्प्रदायिकता, गैर-बराबरी के खिलाफ जिन मुद्दों को लेकर हमने आजादी हासिल की थी उन सबका क्या हुआ ? विशेषकर शिक्षा का प्रश्न जिसके बूते दुनिया भर की सभ्यताएं यहां तक पहुंची हैं । हम दुनिया का लोकतंत्र कहे जाने का दावा करते हैं लेकिन क्या सच्चे मायनों में यह लोकतंत्र है भी । क्या जिस देश की आधी आबादी पढ़ना-लिखना भी नहीं जानती हो, जिसे जीने का हक भी मुश्किल से हासिल हो रहा हो क्या लोकतंत्र में उसकी भागीदारी का कोई अर्थ है ?
यहां प्रसिद्ध इतिहासकार और दार्शनिक, पत्रकार राजमोहन गांधी का कथन याद आ रहा है कि भारतीय इतिहास की कई घटनाएं इस बात की गवाह हैं कि दुश्मन का मुकाबला करने के लिए तो हमारी एकता कई बार बनी लेकिन दुश्मन पर विजय पाने के बाद हम क्या करेंगे भावी मुकम्मिल योजना क्या हो यह विचार देश में मुकम्मिल ढंग से आगे नहीं बढ़ पाया । आजादी तो मिल गई लेकिन आजादी के बाद की दुनिया हम कैसे बनाएंगे उसके बारे में बहुत स्पष्टता नहीं थी । उन्होंने अपने एक भाषण में 1977 का भी उदाहरण दिया कि आपातकाल के बाद हम कांग्रेस को हराने में तो सफल हो गये लेकिन उसके बाद क्या करेंगे वह फिर स्पष्ट नहीं था ।
यों शुरूआत बहुत अच्छे कदमों से हुई । पहला कदम था बाबा साहेब अम्बेडकर, नेहरू, गांधी, राजेन्द्र प्रसाद मौलाना आजाद जैसे दिग्गजों की अगुआई में एक ऐसा संविधान बनाना जो पूरे सोच, सच्चे अर्थ में लोकतंत्र का प्रतीक था । आयरलैंड, अमेरिका, इंग्लैंड , यूरोप जैसे लोकतांत्रिक देशों की अधिकतर अच्छी बातें इस संविधान में शामिल की गईं और उन्हें भारतीय परिवेश में थोड़े बहुत संशोधन के साथ शामिल किया गया । कई बार तो यह संविधान अपने वक्त से भी आगे था । जैसे 1947 तक दुनिया के अधिकांश देशों में स्त्रियों को पुरुषों के बराबर वोट का अधिकार हासिल नहीं था । लोकतंत्र का झरना माने जाने वाले इंग्लैंड तक में भी स्त्रियों को वोट का अधिकार बीसवीं सदी के तीसरे दशक में हासिल हुआ । लेकिन भारत में आजादी के वक्त ही एक व्यक्ति एक वोट यानि समानता का मूल आधार हर नागरिक को मिला । बिना किसी धर्म, संप्रदाय, क्षेत्र, अमीर-गरीब में भेदभाव किये ।
लेकिन स्वाधीनता के इतने अनूठे हिंसा रहित संघर्ष के बाद हासिल किया गया यह लोकतंत्र क्या सचमुच अंतिम आदमी तक पहुंचा ? या आज 125 करोड़ की जनता इसका अर्थ समझती भी है ? या स्वाधीनता की जटाओं से निकली गंगा शीर्ष के दो-चार प्रतिशत अमीरों तक ही बहकर रुक गई है । आप किसी भी दिन का अखबार उठा लीजिए आपको असमानता की बेचैन करने वाली खबरें मिलेंगी । जून 11, 2014 की खबर । मुम्बई का अखबार ‘मिड-डे’ ।पांच वर्ष की सादियाशेख को कोई स्कूल दाखिला नहीं दे रहा । जहां भी जाती है उसे जवाब मिलता है आपके मां-बाप कितने पढ़े हैं यदि वे नहीं पढ़े तो दाखिला नहीं । यह सब शिक्षा के अधिकार के कानून के बावजूद है । क्या यह लोकतंत्र है ?यदि सादिया या सुमन की पिछली तीन-चार पीढ़ियां समानता, शिक्षा से वंचित रही तो क्या 21 वीं सदी के दूसरे दशक में भी उन्हें शिक्षा से वंचित रखा जाएगा ? दिल्ली समेत हर शहर में दाखिले के वक्त जो मारा-मारी रहती है वह किसी भी लोकतांत्रिक देश को शर्म से भर सकती है । हाल ही में एक मित्र के घर बैठा हुआ था । बेटी की उम्र पांच साल । मैंने पूछा कहां स्कूल जाती हो ? नन्हीं बालिका ने तुरंत रुंआासा होते हुआ जवाब दिया ‘कहीं नहीं जाती । दाखिला ही नहीं होता ।’ यानि उस बच्ची को कई बार तैयार करके स्कूलों के दरवाजे से लौटना पड़ा है और ये सब निशान उसके चेहरे और आवाज में शामिल हैं । अनंत कथाएं हैं । दिल्ली के ही कुछ सरकारी स्कूलों में गरीब परिवारों की लड़कियां इसलिए स्कूल जाना बंद कर देती हैं कि वहां टायलेट नहीं हैं । एक पिता ने बताया कि वो घर से पानी इसलिए पीकर नहीं जाती थी जिससे स्कूल में टायलेट भी न जाना पड़े । इससे बीमार हो गई और हमने घर बिठा लिया । ये कुछ तस्वीर दिल्ली की हैं जिसे देश की राजधानी कहा जाता है और जहां लालकिले पर हर साल बड़े-बड़े भाषण दिये जाते हैं । यानि कि आधी आबादी को तो शिक्षा में शामिल ही नहीं माना जाता और न ऐसी कोशिश की जा रही जैसे क्यूबा, वेनेजुएला या अफ्रीका के दूसरे देशों में की गई । लड़कियों की शिक्षा,मृत्यु दर के मामले में तो हम पाकिस्तान, बांग्लादेश से भी पीछे हैं । एक तरफ ये स्कूल हैं जहां न टायलेट हैं, न छत, न श्यामपट्ट न टीचर, न बैठने को पर्याप्त बैंच । और हैं भी एक-एक कक्षा में सौ से भी अधिक बच्चे । तथाकथित महान दुनिया का अकेला राष्ट्र जहां के बच्चे शिक्षा के बहाने रोटी (मिड-डे-मील) की जुगाड़ में स्कूल आते हैं । और दूसरी तरफ फुली एअरकंडीशंड, प्रति कक्षा बीस से तीस बच्चे, हर वर्ष पन्द्रह दिन विदेशी स्कूल के साथ सहशिक्षा । घोड़े की सवारी से लेकर हैलीकॉप्टर सिखाने की तैयारी । करोणों के लिये चंद सरकारी स्कूल भी नहीं । जो हैं भी तो उन्हें भी बंद करने की तैयारी हो चुकी है ।
ऐसी असमान शिक्षा से किस समानता की तरफ देश बढ़ रहा है ? क्या संविधान में शामिल समाजवाद शब्द का भावार्थ यही होना था ? क्या नक्सलवाद या दूसरे हिंसक उभार इसी असमानता को चुनौती नहीं है ?
आईए दिल्ली से 80 किलोमीटर दूर आपको उत्तर प्रदेश या हरियाणा के गांवों की तरफ ले चलते हैं । मेरठ विश्वविद्यालय का एक बड़ा कॉलेज खुर्जा । 1901 में स्थापित हुआ था । सौ वर्ष पूरे कर चुके इस कॉलेज में लगभग पंद्रह विषयों में स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम हैं । जीव विज्ञान, रसायन विज्ञान, कानून, गणित भाषाओं समेत । लेकिन लड़कियां की संख्या कभी भी दस-बीस प्रतिशत से ज्यादा नहीं रहती । इनमें भी अधिकांश हिन्दी, इतिहास जैसे विषयों में पढ़ती है । विज्ञान के पाठ्यक्रमों में कुछ अगर लड़कियां हैं तो वे शहर की हैं आसपास गांवों की एक भी नहीं । क्योंकि विज्ञान के पाठ्यक्रम में कुछ प्रयोगात्मक कक्षाएं भी होती हैं और कानून व्यवस्था और समाज की चारदीवारी के बीच लड़कियों को कॉलेज आना साठ साल की आजादी के बाद भी संभव नहीं हो पाया । पिछले बीस-तीस वर्षों में तो शिक्षा और भी बिगड़ी है और उत्तर प्रदेश, हरियाणा समेत यहां के अभिभावक इन महिलाओं/लडकियों को मोबाईल रखने तक की आजादी नहीं देना चाहते । दोनों ही धर्मों के मुल्ला और पंडित ये मानते हैं कि मोबाईल रखने से लड़कियां बिगड जाएंगी । लेकिन क्या लड़कों का बिगड़ना मंजूर है ? यहां तक कि इसी क्षेत्र के एक प्रसिद्ध विश्वविद्यालय अलीगढ़ के पुस्तकालय में छात्राओं को पुस्तकालय में बैठने की सुविधा हाल ही में हासिल हुई है । क्या दिल्ली से सिर्फ सौ किलोमीटर के घेरे में होने वाली असमानता की ये आवाजें दिल्ली तक नहीं पहुंचती ? या दिल्ली ने सुनना ही बंद कर दिया है । क्या शिक्षा के इन पहलुओं का सीधा संबंध दिल्ली में महिलाओं के खिलाफ हो रहे अधिकतर जघन्य अपराधों में प्रतिबिम्बित नहीं हो रहा ? क्या भ्रूण हत्या, दहेज दहन, तेजाब फैंकना जैसे जघन्य अपराध शिक्षा के इसी असमान मॉडल का संकेत नहीं है?
शिक्षा के संदर्भ में मुझे स्त्री शिक्षा का प्रश्न सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण लगता है । खुद महात्मा गांधी ने कहा है कि भारतीय स्त्री सीमाओं पर लड़ने वाले सैनिकों से भी बड़ी योद्धा होती है वह घर, परिवार, समाज सभी की संचालक है । हमारे वेद पुराण भी बार-बार सावित्री, गार्गी की बातें करते हैं लेकिन फिर शिक्षा या समाज के दूसरे पक्षों में उसे बराबरी से क्यों नहीं पढ़ाते ? क्यों स्त्रियों को आगे बढ़ाने का विचार, आंदोलन पिछले तीस सालों से एक नौटंकी में बदल गया है ? हिन्दी राज्य इस मामले में ज्यादा बड़े अपराधी हैं । केरल जैसे राज्यों से भी यह सीखा जा सकता है । 1990 के आसपास हुए सर्वेक्षण की याद ताजा करें तो देशभर में सबसे ज्यादा महिला इंजीनियर केरल में ही थीं । शायद आज भी नर्सिंग पेशे में केरल अव्वल नंबर पर है । नर्स का काम एक सेवा का काम है और यहां की नर्सें दुनिया भर में अपनी सेवा, कर्त्तव्य परायणता और निष्ठा का झंडा बुलंद किए हुए है । क्या हिन्दी भाषी राज्यों समेत अन्य राज्यों ने भी केरल से कुछ सीखा ? सही शिक्षा विशेषकर स्त्रियों की कैसे पूरे समाज के हित में है वह इसका बहुत अच्छा उदाहरण है लेकिन हमें यहीं संतोष नहीं कर लेना चाहिए । दुनिया भर में स्त्रियों की बराबरी और शिक्षा से तुलना करें तो केरल समेत हम कहीं नहीं ठहरते ।
कुछ वर्ष पहले शिक्षा के क्षेत्रों में कार्यरत एकलव्य संस्था ने भारतीय महिला वैज्ञानिकों पर एक कैलेंडर छापा था । मुझे खुद आश्चर्य हुआ कि हमारे चारों तरफ शायद ही कोई नामों को जानता था । वैसे हैं भी कितनी महिला वैज्ञानिक ? जब उन्हें कॉलेज, विश्वविद्यालय तक पहुंचने और पढ़ने में इतनी मुसीबतों का सामना करना पड़ता है तो वैज्ञानिक बनने की नौबत आएगी कैसे ? लौट फिर कर किसी से भी किसी महिला वैज्ञानिक का नाम पूछो तो मेरे दादाजी, पिताजी और स्वयं मेरी पीढ़ी भी रेडियम की आविष्कर्ता और दो बार नोबल पुरस्कार से सम्मानित मैडम क्यूरी का ही नाम लेते हैं । क्या हमारा लोकतंत्र साछ वर्ष के बाद मैडम क्यूरी की कोई छाया भी पैदा कर पाया ? यहां यह दर्ज करने में कोई हर्ज नहीं कि सुनीता विलियम वैज्ञानिक नहीं हैं अमेरिका में नौकरी कर रही मात्र इंजीनियर हैं । निश्चित रूप से पिछले दो-तीन दशकों में इस देश के आंकड़ों में इंजीनियरों की संख्या जरूर हर वर्ष लाखों से निकलकर करोड़ों तक पहुंच गई है । यह अलग विवाद का विषय है कि इतने इंजीनियर होने के बावजूद भी हम रक्षा, दवा, कृषि इन सारे क्षेत्रों में अभी सबसे पीछे क्यों हैं ? पिछले वर्ष के आंकड़ों में बताया गया है कि भारत दुनिया में हथियार आयातित करने वाले देशों में पहले स्थान पर है । चीन को भी पीछे छोड़ते हुए । जिस देश में इतने इंजीनियर पैदा होते हों, इतने नौजवान बेरोजगार हों तो क्या हम इन सभी क्षेत्रों में भी आत्मनिर्भर नहीं हो सकते ? गड़बड़ शिक्षा में भी है और लोकतंत्र के मौजूदा ढांचे में भी ।
पिछले दस वर्षों में संसद या संसद के बाहर शिक्षा के बदलाव को लेकर जितनी बहस और बातें हुई हैं उतनी पहले कभी नहीं । विदेशी विश्वविद्यालय शिक्षा सलाहकार बोर्ड विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता,उनके लिए ट्रिब्यूनल, नया पाठ्यक्रम, ग्रेडिंग प्रणाली, सी.सी.ई. परीक्षा से मुक्ति और न जाने क्या-क्या । देश की सबसे प्रतिष्ठित परीक्षा आई.आई.टी. की प्रवेश परीक्षा में भी हर साल परिवर्तन होते रहे । लेकिन नतीजा वही ढाक के तीन पात । हर वर्ष हमारे देश के मेधावी छात्र शिक्षा के लिए अमेरिका, आस्ट्रेलिया, इंग्लैंड, जर्मनी की तरफ कूच कर रहे हैं और इनमें चांदी हो रही है विदेशी विश्वविद्यालयों की । विदेशों में पढ़ने वाले छात्र न जाने कितना अरब रुपया भारत का विदेशी मुद्रा में ले जा रहे हैं । काश हम अपने स्कूल, विश्वविद्यालयों का स्तर भी कुछ सुधार पाते । यदि ये लाखों छात्र देश में ही पढ़ते तो क्या यह पैसा हमारी अर्थव्यवस्था के स्वास्थ्य के लिए ही ठीक नहीं रहता ? होस्टल, कपड़े, किताबें और न जाने रोजगार के कितने सिमाने खुलते । क्या हर पांच वर्ष में लोकतंत्र के नाटक में शामिल होने वाले किसी दल ने शिक्षा की इन विकृतियों को बदलने की कोशिश की ? क्या विदेशों की तरफ पढ़ने के लिए भागने वाली ये प्रवृत्तियां इस देश में भ्रष्टाचार को भी बढ़ाने का एक कारण नहीं है ? लाखों से बढ़कर अब करोड़ों की फीस देने के लिए भारत का मध्य वर्ग न जाने क्या-क्या नैतिक-अनैतिक दांव पेच आजमा रहा है । लेकिन फिर भी नतीजा शून्य । क्या अच्छी शिक्षा का दावा करते हुए विदेशों में पढ़े ये छात्र लौटकर अपने देश के विश्वविद्यालयों के लिए कुछ कर पाएं ? या कहें कि सत्ता ने उन्हें ऐसा मौका दिया ? ज्यादातर उन्हीं विदेशों में खप रहे हैं। निश्चित रूप से सूचना, तकनीकी के मोर्चे पर उन्होंने प्रतिष्ठा भी पाई है । लेकिन यह देश उनकी रचनात्मकता को समझने में क्यों बौना साबित हो रहा है ? आखिर हमारे विश्वविद्यालयों की प्रयोगशालाएं, शोध के स्तर क्यों गिरते जा रहे हैं ? चिकित्सा हो या विज्ञान के दूसरे क्षेत्र क्यों दुनिया के प्रसिद्ध जर्नलस में हमारा एक भी शोध पत्र शामिल नही हो पाता ? हमारे विश्वविद्यालय आई.आई.टी. या प्रबंधन संस्थान शिक्षा सर्वेक्षणों में क्यों वर्ष दर वर्ष नीचे गिरते जा रहे हैं ?
भारत में शिक्षा की बिगड़ती स्थिति को हाल ही में प्रसिद्धि पाए दो और वैज्ञानिकों के साक्षात्कार से समझा जा सकता है । क्रिकेट के खुदा कहे जाने वाले सचिन तेंडुलकर के साथ प्रसिद्ध वैज्ञानिक सी.एन.राव को भी ‘भारत रत्न‘ की उपाधि मिली है । उनका काम वाकई सराहनीय है । लेकिन इस अधकचरे लोकतंत्र के चलते जितने लोग सचिन और उसके बेमतलब के आंकड़ों के बारे में जानते हैं, क्या उसका सौवां भाग भी सी.एन. राव के बारे में जानते हैं ? यह प्राथमिकताओं का सवाल है और प्राथमिकता लोकतंत्र के कई खम्बे कार्यपालिका, विधायिका, मीडिया निर्मित करती है । खैर भारतीय शिक्षा के संदर्भ में सी.एन.राव ने कुछ पते की बातें कही हैं । उनका कहना है कि भारत में स्कूली शिक्षा और कॉलेज शिक्षा को बेहतर बनाने की जरूरत है और इसमें शिक्षकों को बड़ी भूमिका निभानी होगी । इससे पहले शिक्षक के चुनाव, भर्ती को उन्होंने उदाहरण देकर बताया । यूरोप के फिनलैंड या डेनमार्क में सबसे मुश्किल काम शिक्षक की नौकरी पाना है । क्योंकि शिक्षक की नौकरी के लिए उसे कई तरह की परीक्षाओं को पास करना होता है । क्या हमारे यहां इसका ठीक उल्टा नहीं है ? जब से शिक्षा को निजीकरण के हवाले किया गया है या लगातार किया जा रहा है तब से कोई भी शिक्षक बन सकता है और शिक्षा के नाम पर कुछ भी पढ़ाने का दावा कर सकते हैं । उसके लिए बस एक योग्यता बनी हुई है अंग्रेजी बोलना । इतनी ही महत्वपूर्ण बात तीन चार वर्ष पहले नोबल पुरस्कार से नवाजे भारतीय मूल के वैज्ञानिक वेंकटरमन ने कही थी । वेंकटरमन ने बड़ौदा विश्वविद्यालय से बी.एस.सी. तक पढ़ाई की थी उसके बाद वे अमेरिका चले गये और भौतिक विज्ञान, रसायन विज्ञान की सड़कों से गुजरते वहीं जीव रसायन जैसे क्षेत्र में प्रतिष्ठा अर्जित की, जिसके लिए उन्हें नोबल पुरस्कार से सम्मानित किया गया । यहां यह भी पक्ष गौर करने लायक है कि 1930 में सी.वी. रमन ही अकेले भारतीय मूल के वैज्ञानिक हैं जिनको नोबल पुरस्कार के योग्य समझा गया था । उसके बाद हरगोविंद खुराना, चंद्रशेखर और वेंकटरमन समेत सभी भारतीय मूल के जरूर हैं लेकिन विदेशी नागरिक हैं । यहां सहज ही यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि दुनिया के नौजवानों की तरह मेहनत और प्रतिभा तो भारतीय नौजवानों में भी है लेकिन मौजूदा लोकतंत्र या शिक्षा व्यवस्था इन्हें वह मौका नहीं दे पा रही जो विदेशी विश्वविद्यालय दे पाते हैं । इंडियन एक्सप्रेस को दिये एक साक्षात्कार में जब वेंकटरमन से यह प्रश्न पूछा गया तो उनका जवाब था कि अमेरिकी विश्वविद्यालय में दाखिले के वक्त न वे आपकी जाति जानना चाहते हैं, न धर्म । यह भी नहीं कि आप किस देश के हैं और किस विश्वविद्यालय में पढ़े हैं । उनकी कसौटी सिर्फ एक है कि आप की योजना क्या है ? किस क्षेत्र में काम करना चाहते हैं, और क्यों ? उसका प्रारूप क्या है ? उसके बाद विश्वविद्यालय आपको वे सब सुविधाएं जुटाएगा जो आपके काम को आगे ले जा सकता है ।
क्या इस कसौटी पर हमारे विश्वविद्यालय या शिक्षा व्यवस्था कहीं ठहरती हैं ?
पाठ्यक्रमों की बात नहीं ही की जाये तो अच्छा है । संविधान में सैक्यूलर वैज्ञानिक सोच को बढ़ाने का भी प्रावधान है । लेकिन जादू टौने,ज्योतिष, काला जादू ने ग्रामीण निरक्षरों की तो बात ही छोड़ो, तथाकथित पढ़े-लिखे, डिग्रीधारियों, इंजीनियर, डॉक्टरों को और ज्यादा चपेट में ले रखा है । क्या स्कूली स्तर पर वैज्ञानिक सोच को बढ़ाने के लिये कोई व्यवस्थित योजना हमारे पास है ? निजी स्कूल तो एन.सी.ई.आर.टी. के पाठ्यक्रम को भी परे सरकाकर मनमर्जी अवैज्ञानिक ढंग से लिखी किताबों को लगाकर इस पोंगापंथी को और बढ़ा रहे हैं । वैज्ञानिक सोच को बढ़ावा मिलता तो जाति और धर्म के सांचों को भी ढहाने में देर नहीं लगती । यह शिक्षा नहीं कुशिक्षा का प्रसार है ।
शिक्षा से जुड़ा हुआ एक और महत्वपूर्ण प्रश्न । किसी भी शिक्षा व्यवस्था के मूल में भाषा का बहुत महत्वपूर्ण योगदान है । थोड़ा ठहरकर सोचे तो अब तक जिस पतन की बातें हमने की हैं क्या उसके मूल में अपनी भाषा में पढ़ने-पढ़ाने की डगमगाती नीति नहीं है ? भविष्य में इस पक्ष पर शोध की जरूरत है कि आजादी के बाद अपनी भाषाओं में पढ़ने, पढ़ाने और विभिन्न क्षेत्रों में शोध की क्या स्थिति रही । शायद चौंकाने वाले आंकड़े सामने आ सकते हैं । पिछले वर्ष शांति स्वरूप भटनागर और दूसरे वैज्ञानिकों को मिलने वाले पुरस्कारों पर अगर नजर डाली जाए और उन वैज्ञानिकों के साक्षात्कार पढ़े जाएं तो वे स्वयं यह स्वीकार करते हैं कि उनकी पढ़ाई अपनी भाषा बांग्ला, मलयाली, मराठी या हिन्दी में हुई । शिक्षा के आईने में यह सबसे जरूरी प्रश्न है जिसे सबसे कम महत्व दिया जा रहा है । शिक्षा सिर्फ देश के विकास के लिए ही नहीं उसकी संस्कृति साहित्य के लिए भी उतनी ही अहम है और इससे भी ज्यादा बुनियादी बात यह है कि आम आदमी जिस भाषा में बोलता, पलता है आखिर शिक्षा उसे उसी भाषा में क्यों नहीं दी जानी चाहिए ? शिक्षा को अंग्रेजी का पर्याय आखिर क्यों बनाया जा रहा है । आपको याद होगा कुछ वर्ष पहले जापान के एक वैज्ञानिक को भौतिकी में पुरस्कार मिला था उसने अपने साक्षात्कार में कहा था कि न उसे अंग्रेजी आती है और न वह कभी जापान से बाहर गया । क्या हमारी सत्ता, बुद्धिजीवी,राजनीतिज्ञ इन उदाहरणों से सबक नहीं ले सकते ? और अपनी भाषाओं में पढ़ने-पढ़ाने, शोध के लिये आवाज नहीं उठा सकते ?
जिस अंग्रेजी के बिना इस देश का तीन प्रतिशत पढ़ा-लिखा वर्ग हाय-हाय करने लगता है क्या उन्हें पता है कि इंग्लैंड के पड़ोसी देश फ्रांस,पुर्तगाल, स्पेन, इटली, जर्मनी कहीं भी अंग्रेजी में शिक्षा नहीं दी जाती और इसके बावजूद विज्ञान, खेल कला साहित्य में वे उतने ही सिरमौर बने हुए हैं जब कि भारत जैसे देश पिछले साठ साल की कवायद के बाद और पीछे जा रहे हैं । 1980 में शिक्षा विद जे.पी. नाईक की एक रिपोर्ट आई थी जिसमें 1964-66 के बाद के शिक्षा और भाषा के संबंधों का लेखा जोखा प्रस्तुत किया गया था । उनका कहना था कि 1947 में आजादी के वक्त् भारतीय विश्वविद्यालयों में अपनी भाषाओं में शिक्षा की स्थिति ज्यादा अच्छी थी बजाय सत्तर के दशक में । उदारीकरण और ग्लोबलाईजेशन के पिछले बीस वर्ष तो भारतीय भाषाओं के लिए एक दु:स्वप्न की तरह रहें हैं और इसमें सबसे बड़ा योगदान मौजूदा शासन व्यवस्था का रहा है । शासन जो लोकतंत्र के नाम पर राज करता है ।
क्या किसी और देश में यह संभव है कि प्राईमरी के बच्चों को स्कूल प्रबंधन, शिक्षक अपनी भाषाओं में पढ़ने पर सरेआम दंड दें ? बच्चों को भी प्रताडि़त करें और उनके माता-पिता को भी । क्या यहां मानव अधिकार और बराबरी के अधिकार का उल्लंघन नहीं होता ? दिल्ली में बैठे बड़े-बड़े पत्रकार, बुद्धिजीवी क्यों इन प्रश्नों पर चुप्पी साध जाते हैं ? क्या किसी और देश में यह संभव था जो पिछले दिनों कुछ वर्ष पहले दिल्ली के एक अस्पताल में हुआ जब केरल की दो नर्सों को मलयाली भाषा में बात करने पर नौकरी से हाथ धोना पड़ा । क्या किसी और देश में ऐसा सुना है कि आवासीय कालोनियों के गेट कीपर की नौकरी के लिए वे अंग्रेजी का टेस्ट लें ? चार वर्ष पहले दिल्ली के ही एक और स्कूल में तीसरी क्लास की एक बच्ची की मौत पिटाई से हो गई थी । उसका कसूर सिर्फ इतना था कि वह अंग्रेजी में पाठ नहीं सुना पा रही थी । यह एक मजदूर की बेटी थी जिसे स्कूल भी भेजना बड़ी किस्मत से मयस्सर हुआ था । क्या अंग्रेजी भाषा को लादने के नाम पर देश की अधिसंख्यक जनता को उस लोकतंत्र से वंचित नहीं किया जा रहा ?
शिक्षा और भाषा के संबंध में तो पिछले तीन-चार वर्षों की घटनाएं तो और भी बड़े खतरे का संकेत दे रही हैं । आपको याद होगा प्रसिद्ध वैज्ञानिक दौलत सिंह कोठारी समिति की सिफारिश पर वर्ष 1979 से भारतीय प्रशासनिक सेवाओं की परीक्षा में अपनी भाषा में उत्तर लिखने की छूट मिली थी । भारतीय लोकतंत्र में इसे एक क्रांति से कम नहीं कहा जा सकता । इसका अंदाजा आप इन आंकड़ों से लगा सकते हैं कि जहां इस परीक्षा में बैठने वालों की संख्या मात्र दस वर्ष पहले 1970 में ग्यारह हजार थी, वर्ष 1979 में बढ़कर एक लाख (दस गुनी) हो गई । हिन्दी भाषा से चुने हुए लगभग पंद्रह प्रतिशत और बाकी भारतीय भाषाओं से चुने लगभग पांच प्रतिशत उम्मीदवार 2010 तक लगातार चुने जाते रहे हैं । इनमें अधिकतर वे हैं जो पहली पीढ़ी के शिक्षित हैं यानि कि उनके मां-बाप मजदूर, सफाई कर्मचारी, रिक्सा वाले, आदिवासी हैं । वे इन सेवाओं में शामिल हुए तो अपनी भाषाओं के माध्यम की छूट मिलने से और ऐसे भी कोई आंकड़े नहीं हैं कि अपनी भाषाओं में चुने हुए इन अधिकारियों की कार्यक्षमता अंग्रेजी वालों से कम हो । डॉ. कोठारी समिति के शब्दों को उदधृत किया जाए तो जिन अधिकारियों को भारतीय भाषाएं नहीं आती उन्हें नौकरशाही में आने का कोई हक नहीं है । इसीलिए प्रशासनिक सेवाओं की परीक्षा में अपनी भाषाओं के साथ अंग्रेजी के साथ-साथ भारतीय भाषाओं की सिफारिश की गई थी । लेकिन 2011 में भारतीय भाषाओं पर पहला प्रहार हो चुका है । नये ढांचे के अनुसार अब प्रारंभिक परीक्षा में ही अंग्रेजी थोप दी गई है जिसकी वजह से मुख्य परीक्षा में पहुंचने वाले भारतीय भाषाओं के छात्र जिनमें अधिकतर गरीब, पिछड़े, आदिवासी हैं, लगातार कम हो रहे हैं । 2014 के परिणाम बताते हैं कि जहां भारतीय भाषाओं से चुने जाने वाले छात्रों की संख्या वर्ष 2010 तक 15-20 प्रतिशत हुआ करती थी, वह घटकर 2-3 प्रतिशत तक आ चुकी है । ऐसे समय में कोठारी समिति के (1974-76) शब्द बार-बार याद आते हैं जब उन्होंने कहा था कि दिल्ली विश्वविद्यालय में इतिहास, राजनीति शास्त्र आदि विषय हिन्दी माध्यम से पढ़ने वालों की संख्या बीस तीस प्रतिशत है यदि इन्हें प्रशासनिक सेवाओं में माध्यम की छूट नहीं मिली तो यह उनके साथ अन्याय होगा । इसी का नतीजा था कि उन दिनों दिल्ली विश्वविद्यालय में अनुवाद विभाग खोला गया । मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश ग्रंथ अकादमी, राजस्थान ग्रंथ अकादमी समेत दूसरे राज्यों की अकादमियों ने अपनी भाषाओं में मौलिक पुस्तकें भी लिखवाई और अनुवाद भी कराए । यानि अस्सी के दशक में अपनी भाषाओं के संदर्भ में शिक्षा व्यवस्था एक उम्मीद बंधा रही थीं । आज ग्रामीण भारत पूरी तरह से गायब है । क्या यही लोकतंत्र है ?
न्याय की भाषा उर्फ न्यायालयों से भी ऐसे निर्णय आ रहे हैं जो भारतीय भाषाओं के पक्ष में नहीं कहे जा सकते । मई 2014 में दिल्ली के एक न्यायालय से एक प्रार्थी ने गुहार की थी कि विधि विषय में एल.एल.एम. की प्रवेश परीक्षा भी हिन्दी माध्यम से देने की अनुमति दी जाए । न्यायालय ने अनुरोध ठुकरा दिया है । वैसा ही निर्णय कर्नाटक में मात्रभाषा के मुद्दे पर रहा है । कर्नाटक राज्य चाहता था कि वहां के स्कूलों में कन्नण पढ़ाई जाए । 1990 के दशक में वहां के सभी स्कूलों में कन्नण अनिवार्य कर दी गई थी । नब्बे के बाद लगातार फलने-फूलने वाले निजी स्कूलों को यह पसंद नहीं था क्योंकि वे तो खाते-कमाते ही अंग्रेजी के नाम से हैं । मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा और पिछले ही महीने सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय ने भाषा के मुद्दे पर निराश किया है ।
आज वर्ष 2014 के शुरूआत में तो शिक्षा जगत पर गहरा कोहरा छाया हुआ है । दरअसल जब तक नौकरी, न्यायालय, प्रशासन में अपनी भाषाओं को तरजीह नहीं मिलती तब तक शिक्षा व्यवस्था लड़खड़ाती ही जाएगी । उम्मीद करते हैं कि नयी व्यवस्था, नयी सरकार परिवर्तन के जो नये संकेत दे रही है शायद शिक्षा में भी कुछ बेहतर बदलाव की शुरूआत हो । स्वाधीनता और लोकतंत्र जैसे शब्द तभी अपना अर्थ पाएंगे ।
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