भाषा के मसले पर दो खबरों ने पूरे देश का ध्यान खींचा है । पहली खबर- कर्नाटक के मुख्यमंत्री ने अपने प्रशासन को कहा है कि यदि फाइलों पर कन्नड़ भाषा में टिप्पणी नहीं हुई तो मैं उन फाइलों को वापस कर दूंगा । उन्होंने गैर कन्नड़ अधिकारियों से कन्नड़ सीखने और में पत्र व्यवहार करने का आग्रह किया है । मुख्यमंत्री ने तमिलनाडू का उदाहरण सामने रखते हुए अपनी भाषा और संस्कृति को बढ़ाने की भी अपील की है ।
लेकिन दूसरी खबर अपनी भाषा के उतने ही विरोध में कही जा सकती है । मातृभाषा में शिक्षा दिये जाने के मसले पर माननीय सुप्रीम कोर्ट के निर्णय में बहस और विवाद की बहुत गुंजाइश है । पांच सदस्यीय पीठ ने हाल ही में निर्णय दिया है कि सरकार प्राथमिक शिक्षा देने के लिए क्षेत्रीय भाषा अनिवार्य नहीं कर सकती । सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यीय बेंच के सामने यह मुद्दा पिछले वर्ष जुलाई में सौंपा गया था । क्योंकि भाषा का मसला बहुत नाजुक था इसी को देखते हुए सुप्रीम कोर्ट की दो सदस्यीय बैंच ने पांच सदस्यीय बेंच से जिन बातों पर विचार करने का आग्रह किया था वे थे :- पहली- मातृभाषा किसे माना जाए ? जहां, जिस परिवेश में बच्चा रहता है उसे या उनके मां-बाप की भाषा को ? दूसरी- और इसका निर्णय आखिर कौन करेगा ? और यह भी कि क्या विद्यार्थी या उनके मां-बाप को भाषा चुनने का अधिकार है ? तीसरी बात कि क्या मातृभाषा में जबरन पढ़ाने से किसी भी व्यक्ति के मूल अधिकारों का हनन होता है ? चौथी- क्या ये आदेश सरकारी मान्यता प्राप्त सरकारी और निजी दोनों स्कूलों पर लागू होंगे ? और अंतिम बात क्या संविधान की धारा 350ए के अनुसार अल्पसंख्यक समुदाय अपनी मातृभाषा का चुनाव कर सकते हैं ?
ताजा निर्णय ने किसी राज्य विशेष में रहने वाले अल्पसंख्यकों के भाषायी अधिकार को तो महत्वपूर्ण माना है लेकिन पलड़ा निजी स्कूलों की स्वतत्रंता और अंग्रेजी के प्रति ज्यादा झुका हुआ लगता है । इस निर्णय के अनुसार कर्नाटक के सरकारी स्कूलों में पहली से चौथी क्लास तक भले ही कन्नड़ माध्यम जारी रहे, निजी स्कूलों पर कन्नड़ भाषा नहीं थोपी जा सकती । दूसरे शब्दों में कहा जाए तो वहां अंग्रेजी बदस्तूर जारी रहेगी ।
इसके स्पष्टत: पूरे देश भर में भारतीय भाषाओं पर विपरीत असर पड़ेगा ।
शिक्षा में निजीकरण की हवा के चलते सरकारी स्कूल वैसे भी धीरे-धीरे कम होतेजा रहे हैं और इसका बहुत बड़ा कारणसारे देश के सामने निजी स्कूलोंद्वारा अंग्रेजी माध्यम का विकल्प रखा जाना है इस दावे के साथ कि भविष्य की नौकरियों तो सिर्फ अंग्रेजी से ही मिलेंगी । नौकरियोंके संदर्भ में बात कुछ सही हो सकतीहै लेकिन क्या यह देश की जनता में शिक्षाकेनामपरभेदभाव करनानहीं है ? क्या शिक्षाकीनीतियां सरकारी और निजी स्कूलोंमेंसमान नहीं होनी चाहिए ? जब दुनियाभर के शिक्षाविद् यह मानते हैं कि प्राथमिक शिक्षा अपनी भाषा में ही बच्चों के विकास के लिए जरूरी है तब इस पक्ष को नजरअंदाज करना किसी भी रूप में राष्ट्रहित में नहीं कहा जा सकता । कर्नाटक सरकार का अपनी भाषा में पढ़ाने का निर्णय सिर्फ पहली से चौथी क्लास तक ही तो था । उसके बाद तो अंग्रेजी का विकल्प आपके सामने था ही लेकिन अपने देश में अपनी भाषा के लिए इतनी भी जगह नहीं बचेगी ? इसका दूरगामी अंजाम यह होगा कि सरकारी स्कूलों में बच्चे और कम हो कर निजी स्कूलों में जाएंगे जहां मनमर्जी फीस वसूली जाती है और सरकारी जमीन और सुविधाएं लेने के बावजूद भी न पाठ्यक्रम पर सरकार का कोई नियंत्रण होता,न दूसरे कल्याणकारी पक्ष जैसे- शिक्षकों की भर्ती, वेतन आति में । निश्चित रूप से इससे न केवल कर्नाटक के समाज पर उलटा असर पड़ेगा दूसरे राज्यों में भी ऐसे ही अंग्रेजी स्कूलों की तरफ होड़ बढ़ेगी ।
कर्नाटक सरकार की तो तारीफ की जानी चाहिए कि उसने अपनी भाषा और संस्कृति की खातिर इस मुद्दे पर इतनी महत्वपूर्ण लड़ाई लड़ी । संक्षेप में वर्ष 1989 में कर्नाटक सरकार ने सभी प्राईमरी स्कूलों में कन्नड़ भाषा को अनिवार्य बनाने का एक आदेश दिया था जिसे 1993 में सुप्रीम कोर्ट की दो सदस्यीय पीठ ने भी बरकरार रखा । 1994 में थोड़ा संशोधित करते हुए कर्नाटक सरकार ने फैसला किया कि पहली से चार क्लास तक पढ़ाई का माध्यम कन्नड़ या उनकी मातृभाषा हो सकती है । यह कनार्टक सरकार का संविधान की धारा 350ए की रोशनी में लिया गया फैसला था जिससे कि भाषायी अल्पसंख्यक अपनी भाषाओं में बच्चों को पढ़ा सकें । कर्नाटक सरकार के इस निर्णय को हाईकोर्ट में चुनौती दी गई और 2008 में कर्नाटक हाईकोर्ट ने निर्णय किया कि यह आदेश निजी स्कूलों पर लागू नहीं होगा । आपको याद होगा न्यायालय की वह टिप्पणी जिससे पूरे देश में खलबली मची थी कि ‘बिना अंग्रेजी पढ़े तो चपरासी की नौकरी भी नहीं मिल सकती ।’ हाईकोर्ट के 2008 के फैसले के खिलाफ कर्नाटक सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर की । सुप्रीम कोर्ट में कर्नाटक सरकार का तर्क था कि बचपन में शिक्षा की भाषा बच्चे के लिए बहुत महत्वपूर्ण होती है । क्योंकि यही वे वर्ष हैं जब बच्चा सोचना,समझना सीखता है । भविष्य की बुनियाद उसकी इसी समझ पर है । इसलिए बिना अपनी भाषा के शिक्षा का कोई अर्थ नहीं है ।
इस संदर्भ में कर्नाटक सरकार के मुख्यमंत्री का यह बयान भारतीय भाषाओं के पक्ष को मजबूत करता है कि वे अंग्रेजी में लिखी हुई फाइलों को नहीं देखेंगे । देखा जाए तो पहली बार किसी मुख्यमंत्री का जनता के प्रति उसके सरोकारों को जाहिर करता है । यानि कि जनता ज्यादा सहजता से और ज्यादा लोकतांत्रिक ढंग से अपनी बात कह सके, अपनी समस्याओं के लिए राज्य के मुख्यमंत्री तक पहुंच बना सके । किसी भी दूसरी भाषा के चलते दलाल, वकील को तो पैसे ज्यादा देने ही पड़ते हैं वे अपने दु:ख दर्द को भी ढंग से व्यक्त नहीं कर पाते । कर्नाटक के ही पड़ोसी राज्य तमिलनाडू की पिछली डी.एम.के. सरकार ने भी ऐसे ही कदम उठाए थे जिसके तहत प्राथमिक शिक्षा तमिल में ही देना अनिवार्य किया गया है । सुप्रीम कोर्ट के ताजा निर्णय के बाद तमिलनाडू सहित दूसरे राज्यों में भी भारतीय भाषाओं के विरोध की बयार बह निकलेगी । अपनी भाषा के पक्ष पर तमिलनाडू की शिक्षा नीति बड़ी प्रेरणादायी रही है । वहां के इंजीनियरिंग कॉलेजों में 12वीं की परीक्षा के आधार पर ही दाखिले होते हैं न कि अखिल भारतीय परीक्षा के आधार पर जिसमें अनिवार्यत: अंग्रेजी का बोलबाला होता है । इसके अच्छे परिणाम निकले हैं और तमिलनाडू में तमिल माध्यम से विज्ञान की पढ़ाई करने वाले छात्रों की बड़ी संख्या इंजीनियरी, मेडिकल आदि की ऊंच शिक्षा में प्रवेश पा जाती है । शिक्षा के स्तर के हिसाब से भी देखा जाए तो क्या तमिलनाडू हिन्दी प्रदेशों से पीछे है जहां शिक्षा का माध्यम हिन्दी की बजाय लगातार अंग्रेजी की तरफ बढ़ रहा है । इस निर्णय के बाद तो अंग्रेजी और निजी स्कूलों की चॉंदी ही चॉंदी हो जाएगी ।
संघ लोक सेवा आयोग से लेकर शासन प्रशासन, शिक्षा,परीक्षा, नौकरियों में भारतीय भाषाओं पर लगातार खतरा मंडरा रहा है ।
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