Prempal Sharma's Blog
  • TV Discussions
  • मेरी किताबें
    • किताब: भाषा का भविष्‍य
  • कहानी
  • लेख
    • समाज
    • शिक्षा
    • गाँधी
  • औरों के बहाने
  • English Translations
  • मेरा परिचय
    • Official Biodata
    • प्रोफाइल एवं अन्य फोटो

स्‍कूली पाठ्यक्रम और समाज

Aug 01, 2014 ~ Leave a Comment ~ Written by Prempal Sharma

कल 31 जुलाई मुंशी प्रेमचंद का जन्‍मदिन था । हर वर्ष की तरह दिल्‍ली में हंस पत्रिका की ओर से एक गोष्‍ठी का आयोजन किया गया था । प्रमुख वक्‍ता थे अरुणा राय, देवी प्रसाद त्रिपाठी, योगेन्‍द्र यादव, अभय कुमार दुबे और मुकुल केशवन । मुकुल केशवन इतिहास के प्रोफेसर हैं । उन्‍होंने एक महत्‍वपूर्ण बात कही कि 1885 में जब कांग्रेस की स्‍थापना हुई उस समय यूरोप भाषाई और क्षेत्रीय अस्मिताओं के आधार पर संघर्षरत था । आगे चलकर यही दुश्‍मनी बढ़ते-बढ़ते प्रथम और द्वितीय विश्‍व युद्धतक ले गई लेकिन कांग्रेस ने भारतीय महाद्वीप की बहुलतावादी प्रकृति को समझते हुए ऐसा रास्‍ता अपनाया जिसमें सभी धर्म, सभी क्षेत्र और उनकी आकांक्षाएं समाहित हों । इसीलिए कभी कांग्रेस का अध्‍यक्ष तमिलनाडु से होता था कभी बंगाल से, कभी मुसलमान, कभी हिन्‍दू । आगे चलकर महात्‍मा गांधी के नेतृत्‍व में भी बहुलतावादी दृष्टि एक अहिंसक हथियार के साथ दुनिया के सामने एक मिसाल भी बनी । कह सकते हैं कि इस देश की प्रगति और विकास जरूर कुछ धीमा रहा हो लेकिन इतनी विविधताओं का देश वैसे नहीं टूटा जैसे रूस और पाकिस्‍तान । हमें बार-बार इतिहास से सबक लेने की जरूरत है ।

इसीलिए पाठ्यक्रम में जब भी बदलाव की बात सोची जाए तो सत्‍ता को इस देश की इसी बुनियादी विशेषता को ध्‍यान में रखने की जरूरत है । माना कि हम विश्‍वगुरू थे, महान थे; । उस वक्‍त भी पुष्‍पक विमान में उड़ते रहते थे और हमारी डॉक्‍टरी भी ऐसी कि हाथी का सिर आदमी के सिर पर लगाकर गणेशजी बना दिया । और भी बहुत सारे मिथक और पौराणिक कथाएं हमारे साहित्‍य में हैं । लेकिन ऐसी कथाएं सिर्फ हमारे ही साहित्य में नहीं हैं दुनिया के हर धर्म में और सम्‍प्रदाय में मिलती हैं लेकिन कथा और इतिहास में अंतर होता है और इसीलिए जब इतिहास पढ़ाया जाए तो ऐसी कथाएं उसमें शामिल न हों जो अपनी प्रशंसा करते-करते पड़ौसी को नीचा दिखाने लगे । पिछले बीस पच्‍चीस वर्षों में जब भी सत्‍ता बदलती है पता नहीं क्‍यों सबसे पहली बलि कम-से-कम पाठ्य पुस्‍तकों की दी जाती है । कई नारों के तहत कभी नैतिक शिक्षा की बात होती है तो कभी उस इतिहास को बदलने की जो अंग्रेजी इतिहासकारों ने लिखा है ।

यह तो सर्वविदित सत्‍य है कि हमारे देश में इतिहास लिखने की कोई बड़ी परम्‍परा नहीं मिलती । सबसे पहली इतिहास की पुस्‍तक कश्‍मीर के इतिहास पर ‘राजतरंगिनी’ है और उसके बाद पूरा शून्‍य । माना कि अंग्रेजों ने हमारा इतिहास अपनी दृष्टि के तहत लिखा होगा लेकिन निश्चित रूप से जिस इतिहास को आज हम जानते हैं वह अंग्रेजों ने ही हमें बताया । 1832 में इन्‍हीं अंग्रेजी विद्वानों, इतिहासकारों ने मौर्य साम्राज्‍य और अशोक महान के बारे में पहली बार भारतीय समाज को बताया । देश भर में फैले शिलालेख और उन पर उत्‍कीर्ण संदेशों करे जोड़कर देखा और फिर तत्‍कालीन संस्‍कृति पाली अपभ्रंश साहित्य की रोशनी में उसे समझा और तब ‘अशोक महान’ का जन्‍म हुआ । वैसा ही 1922 में सिंधू घाटी सभ्‍यता की खोज हुई । मौजूदा पाकिस्‍तान के एक प्रांत मोहनजोदड़ों और हड़प्‍पा में उन्‍होंने पाया कि चार-पांच हजार वर्ष पहले यहां कोई नागर सभ्‍यता थी । भांडे, ईंट और न जाने कैसे छोटी-छोटी चीजों को जोड़कर एक और खोर्ड हुई सभ्‍यता का जन्‍म हुआ । यह भी अंग्रेज इतिहासकारों का ही करिश्‍मा था । उनकी कुछ बातों से असहमति हो सकती है लेकिन वैज्ञानिक दृष्टि कहती है कि हमें प्रमाण के साथ अपनी बात कहनी होगी । किवदंतियों, कथाओं और धार्मिक आस्‍थाओं के आधार पर नहीं । यदि पाठ्यक्रम में परिवर्तन ऐसे पूर्वाग्रहों के साथ ‍किये जाते हैं तो यह पूरे देश और समाज के लिए नुकसानदायक साबित होता है ।

कुछ अखबारों में छपी खबरों पर यकीन किया जाए तो फिर से बच्‍चों की किताबों में परिवर्तन करने की आहटें आ रही हैं । लेकिन क्‍या इन पुस्‍तकों में लिखी बातें वैज्ञानिक तर्क पर खरी उतरती हैं ? एक पुस्‍तक में गांधारी के सौ पुत्रों का उल्‍लेख है, जिसमें गांधारी के एक अंश विशेष को सौ टुकड़ों में बांटकर देशी घी के किसी बरतन में रख दिया गया और सौ पुत्रों का जन्‍म हो गया । और निष्‍कर्ष देखिए कि अपनी बात को सही सिद्ध करने के लिए ऐसे लेखक नयी वैज्ञानिक तकनीक ‘स्‍टैम कोशिका’ को भी बीच में घसीट लाते हैं । आप किसी भी नये वैज्ञानिक उपकरण या खोज की बात कीजिए, वह चाहे मोबाईल हो या हवाई जहाज या कोई मनुष्‍य को जीवन देने वाली दवा, औषधि उनका कुतर्क तुरंत बोलेगा कि यह तो हजारों साल पहले हमारे यहां पहले से ही था । अफसोस की बात यह है कि यह हर नयी वैज्ञानिक खोज का इंतजार करते हैं और फिर अपने यहां होने का दावा । ऐसे अंधविश्‍वास या पोंगापंथी दुनिया के कई समाजों में होती है लेकिन इसका खतरनाक पहलू तब सामने आता है जब नन्‍हे-मुन्‍ने बच्‍चों के मस्तिष्‍क में शिक्षा के नाम पर ऐसी अवैज्ञानिक बातें भर दी जाएं । बच्‍चे वही बनते हैं जो उन्‍हें अपने चारों तरफ पढ़ाया, सिखाया जाता है । क्‍या यह अचानक है कि स्‍कूली पाठ्यक्रम में हम वैसी वैज्ञानिक दृष्टि नहीं पढ़ा पाए जिस पर चलते हुए वे दुनिया के बड़े वैज्ञानिकों की खोजों में अपने नाम लिख पाते ? शायद हमारे अंतिम नोबल पुरस्‍कार वैज्ञानिक सी.वी.रमण थे जिन्‍होंने 1930 में अंग्रेजी हुकूमत के दौरान पुरस्‍कार मिला था । उन्हीं दिनों के और प्रसिद्ध वैज्ञानिक हैं मेघनाथ साहा, सत्‍येन्‍द्र नाथ वसु, जगदीस चन्‍द्र बोस आदि । आजादी के बाद हर गोविन्‍द खुराना, चन्‍द्र शेखर, वैंकट रामकृष्‍णन को भी नोबल पुरस्‍कार वैज्ञानिक उपलब्धियों पर दिया गया लेकिन तब तक वे सभी भारत छोड़कर विदेशी नागरिक बन चुके थे ।

इसलिए अतीत राग एक सीमा से आगे यदि पाठ्यक्रम में शामिल किया गया तो शिक्षा के उद्देश्‍य को भी खत्‍म कर देगा । सही शिक्षा वह होती है जो आपको सोचने,संदेह करने, संवाद करने और शोध की दिशा में ले जाती है । वह चाहे सामाजिक रूढि़यां हों या वैज्ञानिक सत्‍य अथवा चिकित्‍सा और इतिहास में नयी प्रस्‍थापनाएं । पिछले पांच सौ वर्ष का इतिहास गवाह है कि हमारा समाज और शिक्षा इस पैमाने पर खरे नहीं उतरे । हो सकता है अतीत में हमारी ऐसी उपलब्धियां हों लेकिन कुछ हजार साल पहले की उन उपलब्धियों की टोपी पहने आप कब तक नाचते रहेंगे । तीन सौ वर्ष पहले चेचक भारतीय महाद्वीप में भी होती थी और यूरोप में भी । इलाज खोजा तो जीनर नामक यूरोपीय डॉक्‍टर ने । हम तो चेचक माता की ही पूजा करते रहे और मरते रहे । हैजा और प्‍लेग भी सदियों से हमारी हजारों जानों को लीलता रहा । इलाज खोजा तो उसी यूरोप ने जिसकी एक-एक चीज को हम गाली देते हैं । मलेरिया की खोज डॉक्‍टर रोनाल्‍ड रॉस ने 1920 में भारत भूमि पर की । डॉक्‍टर रोनाल्‍ड रॉस एक अंग्रेजी डॉक्‍टर थे । फौज में नौकरी करते थे उन्होंने देखा कि यहां हजारों लोग बारिश के दिनों के बाद विशेष रूप एक तेज बुखार में मर जाते हैं । बहुत सीमित साधनों के बावजूद उन्‍होंने मलेरिया के जीवाणु को खोज निकाला । 1920 में उन्‍हें इसी खोज के लिए नोबल पुरस्‍कार भी दिया गया । आज दुनिया भर में ये दवाएं हजारों लोगों को जीवनदान दे रही हैं इसलिए वैज्ञानिक खोज या अनुसंधान पूरे समाज को लाभ पहुंचाते हैं जबकि अपने को श्रेष्‍ठ बतान, अपने इतिहास पर बार-बार गर्व करने या नैतिक शिक्षा के नाम पर गाय को खिलाने या सॉंप की पूजा करने की बातें परस्‍पर ऐसे विषैले वातावरण पैदा करते हैं जिनसे किसी भी समाज की शांति भंग हो सकती है ।

प्रसिद्ध शिक्षा विद कृष्‍ण कुमार की किताब ‘मेरा देश तेरा देश’ में ब्‍यौरेवार भारत और पाकिस्‍तान में पढ़ाए जाने वाले विषैले इतिहास के विवरण भरे पड़े हैं । भारत की किताबों में जहां जिन्‍ना और मुस्लिम लीग के खिलाफ पृष्‍ठ दर पृष्‍ठ रंगे हुए हैं तो पाकिस्‍तान की किताबों में गांधी, कांग्रेस या दूसरे नेताओं के खिलाफ । क्‍या आपको नहीं लगता कि‍ ऐसे इतिहास को पढ़कर ही दोनों देशों कीपीढि़यां परस्‍पर एक दूसरेके सामने तलवार खींचे खड़ी हैं ? क्‍या राष्‍ट्र, राष्‍ट्रभक्ति, अखंड भारत के नाम पर इतिहास पढ़ानेका अर्थ भविष्‍य की पीढि़यों को ऐसी अशांति और युद्ध में झोंकनाहोताहै ?क्या ऐसी शिक्षा में और तालिबानों की शिक्षा में कोई अंतर रहेगा ?

इसलिए सभी दलों के बुद्धिजीवियों, विचारकों को यह सोचने की जरूरत है कि सत्‍ता में आते ही वे कम से कम बच्‍चों की पाठ्य पुस्‍तकों पर तो रहम खाएं । यहां एक दल दोषी नहीं है । ये पाप भारतीय भूमि पर सभी दल कर रहे हैं कभी कोई चालीसा लिखवा रहा है तो वामपंथी सरकारें अपने पाठ्यक्रमों में इस देश के नायक गांधी, नेहरू, भगतसिंह  के बजाए माओ और लेनिन पर जोर देते हैं । दक्षिण पंथी दल लौट फिर कर अपनी महानता और पूर्वजों की स्‍तुति से आगे नहीं जा पाते । नये समाज की बुनियादी जरूरतें अच्‍छा मकान, शुद्ध पानी, अच्‍छी दवाएं, अस्‍पताल, शिक्षा, नौकरी है । हमें वे पाठ्यक्रम गढ़ने और बनाने होंगे जिनमें समाज की ये जरूरतें प्रतिबिम्बित हों । नैतिक शिक्षा या अतीतरागी पाठ्यक्रमों के दिन दुनियाभर में कब के लद गये ।

Posted in Lekh, Samaaj
Twitter • Facebook • Delicious • StumbleUpon • E-mail
Similar posts
  • बच्‍चों की पढ़ाई का ग्‍...
  • सरकारी स्‍कूल-सरकारी कर्मचारी
  • करूणानिधि: अपनी भाषा का पक्षधर
  • भारतीय भाषाओं का भविष्‍य
  • पुस्‍तक मेला- बढ़ते उत्‍...
←
→

No Comments Yet

Leave a Reply Cancel reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Prempal Sharma

प्रेमपाल शर्मा

जन्म:
15 अक्टूबर 1956, बुलन्द शहर (गॉंव-दीघी) उत्तर प्रदेश

रचनाएँ:
कहानी संग्रह (4)
लेख संग्रह (7)
शिक्षा (6)
उपन्यास (1)
कविता (1)
व्यंग्य (1)
अनुवाद (1)


पुरस्कार/सम्मान :
इफको सम्मान, हिन्दी अकादमी पुरस्कार (2005), इंदिरा गांधी राजभाषा पुरस्कार (2015)

संपर्क:
96 , कला कला विहार अपार्टमेंट्स, मयूर विहार फेस -I, दिल्ली 110091

दूरभाष:
011 -22744596
9971399046

ईमेल :
ppsharmarly[at]gmail[dot]com

Post Categories

  • Book – Bhasha ka Bhavishya (45)
  • Book – Shiksha Bhasha aur Prashasan (2)
  • Book Reviews (20)
  • English Translations (6)
  • Gandhi (3)
  • Interviews (2)
  • Kahani (14)
  • Lekh (163)
  • Sahitya (1)
  • Samaaj (38)
  • Shiksha (39)
  • TV Discussions (5)
  • Uncategorized (16)

Recent Comments

  • Ashish kumar Maurya on पुस्‍तकालयों का मंजर-बंजर (Jansatta)
  • Mukesh on शिक्षा जगत की चीर-फाड़ (Book Review)
  • अमर जीत on लोहिया और भाषा समस्या
  • Anil Sahu on शिक्षा: सुधार की शुरूआत (जागरण 3.6.16)
  • संजय शुक्ला on बस्ते का बोझ या अंग्रेजी का ? ( जनसत्‍ता रविवारीय)

Pure Line theme by Theme4Press  •  Powered by WordPress Prempal Sharma's Blog  

Multilingual WordPress by ICanLocalize