महिलाओं और बच्चियों पर बढ़ रहे हादसे बैचेन करने वाले हैं । पिछले दिसंबर में दामिनी कांड के बाद तुरत-फुरत जस्टिस वर्मा की नुमाइंगदी में एक कमेटी बनी और उसकी सिफारिशों के आधार पर संसद में कानून भी पास कर दिया । लेकिन उसका असर शायद ही देखने को मिल रहा हो । यहां तक जिन दिनों लोग सड़कों पर विरोध जता रहे थे इंडिया गेट से लेकर मणिपुर, तमिलनाडू तक ऐसी वारदातों के खिलाफ आवाजें उठ रही थीं तब भी शायद ही कोई दिन ऐसा गया होगा जब स्त्रियों के खिलाफ बलात्कार आदि की घटनाओं में कमी आई हो । किसी भी दिन का अखबार उठा लीजिए नमूने के तौर पर । हाल ही में एक दिन की जो घटनाएं हुई वे हैं दिल्ली के रोहिणी क्षेत्र में 11वीं कक्षा के छात्रों ने अपनी शिक्षिका के साथ छेड़खानी की । हरियाणा से लगे एक और स्कूल के शिक्षक ने आठवीं के विद्यार्थी के साथ व्यभिचार किया । एक नेपाली युवती का अपहरण करके गुड़गांव ले गये और फिर वह बेहोशी की हालत में दिल्ली के गुरूद्वारे के पास मिली । ये सब घटनाएं उसी दिन की हैं जिस दिन जयपुर में हुए एक रोड़ हादसे में कन्हैया नाम के एक व्यक्ति की पत्नी और बच्ची ने दम तोड़ दिया था । आपने टी.वी., अखबार में तस्वीर देखी होंगी कि वह युवक मदद की गुहार लगाते-लगाते बेहोश हो गया । लेकिन वहां से गुजर रहे वाहन, एक भी कार एक पल के लिए भी उसके पास नहीं रुकी । अंतत: कुछ मजदूरों ने अस्पताल पहुंचाया जहॉं मॉं और बेटी ने दम तोड़ दिया । यहां भी कार वालों का व्यवहार वैसा ही था जैसा दिल्ली के दामिनी कांड के वक्त । दामिनी के मित्र की गुहार पर भी कोई कार वाला मदद के लिये नहीं आया था ।
क्या तस्वीर बन रही है 21वीं सदी के भारत की दुनिया के सामने ? सुना है कई देशों ने अपने नागरिकों को भारत न जाने की सलाह तक जारी कर दी हैं । और यह भी कि यदि जाएं तो क्या-क्या सावधानियां बरतें । कई सदियों तक जो देश साधु-संतों और सपेरों का माना जा रहा था वही अब ‘बलात्कारी देश’ के रूप में जाना जा रहा है । क्या यह गलत प्रचार है ? याद कीजिए एक पखवाड़े पहले ही आगरा के एक होटल में एक अंग्रेज युवती के साथ होटल के मालिक ने जबरदस्ती करने की कोशिश की थी और अंतत: महिला होटल की मंजिल से छलांग लगा दी । क्षत-विक्षत हालत में उसकी तकलीफ भरा बयान यह था कि आधे घंटे तक गुहार लगाने के बाद भी चारों तरफ तमाशा देख रहे लोगों में कोई मदद के लिए सामने नहीं आया । क्या धरती पर कोई और मुल्क ऐसा होगा जहां की जनता इतनी अनैतिक और संवेदन शून्य हो जाए । स्विटजरलैंड के उस नौजवान दंपत्ति का अपराध सिर्फ यही था कि वह साईकिल से हिन्दुस्तान की यात्रा पर निकला था । लेकिन मध्य प्रदेश में दरिंदों ने उस युवती और दंपत्ति के सारे भ्रम तोड़ दिये फिर कभी हिन्दुस्तान न आने के लिए ।
समस्या इतनी गंभीर और विकराल हो चुकी है जितना बड़ा यह देश । इसकी भयावहता और भी ज्यादा है हिंदी राज्यों में । विशेषकर दिल्ली से सटे हरियाणा, पंजाब, राजस्थान, उत्तर प्रदेश से लेकर बिहार तक । यों देश के बाकी हिस्सों में भी छुट-पुट घटनाओं की खबर मिलती रहती है लेकिन दिल्ली के आसपास के क्षेत्र ने तो सारी सीमाएं लांघ दी हैं । कानून है या नहीं इसका शायद ही कोई अहसास इनके चेहरे पर हो । वे पढ़े हो या अनपढ़, कार वाले अमीर हैं या गरीब स्त्रियों के प्रति उनके हिंसक व्यवहार की कोई सीमा नहीं । इसके कई आयाम हैं और इसीलिए निदान के तुरंत कदमों के अलावा कुछ दूरगामी कदमों के बारे में भी सोचना होगा । ध्यान दीजिए दिल्ली से सटे हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, पंजाब या राजस्थान वे क्षेत्र है जहां स्त्रियों की संख्या प्रति हजार देश में सबसे कम है । हरियाणा और पंजाब में तो निम्नतम । जबकि प्रति व्यक्ति आय में हरियाणा, पंजाब, दिल्ली अव्वल नंबर पर है । सीधे-सीधे यह प्रश्न गरीबी का नहीं सामाजिक विकार का है जहां लड़कियों के प्रति सबसे अधिक भेदभाव किया जाता है । या तो जन्म से पहले ही भू्र्ण हत्या, यदि पैदा हो गई तो फिर परत-दर-परत भेदभाव । न स्कूल भेजा जा रहा, न लड़कों के बराबर उसकी परवरिश की जाती । न जीवन साथी चुनने की आजादी और तो और मध्यकालीन विरासत से चली आ रही खांपों के प्रधान और मुल्ले यह फैसला करते हैं कि वे कपड़े क्या पहने और मोबाईल की इजाजत उन्हें दी जाए या नहीं । दुखद पक्ष यह है कि केन्द्र की सत्ता इन क्षेत्रों के हाथ भर के फासले पर है लेकिन वह टुकुर-टुकुर देखती रहती है । उतना ही घृणित पक्ष उन लेखकों, बुद्धिजीवियों, प्राध्यापकों का है जो विरोध में सड़कों पर तो उतरे ही नहीं प्रकारांतर से सत्ता के साथ बचाव या चुप्पी की मुद्रा में खड़े दिखते हैं । बहुत-से-बहुत हुआ तो दिल्ली के ही किसी संस्थान में सरकारी पैसे से कोई सेमिनार कर दिया । झिलमिलाती अंग्रेजी के शीर्षकों के साथ । यथा ‘मूल्य और शिक्षा’ या ‘प्राचीन भारतीय संस्कृति में स्त्री’ आदि-आदि । वक्त आ गया है जब शब्दों की बाजीगरी से आगे जाकर स्कूल, कॉलिजों में उनके बीच उन्हीं की भाषा में बात करनी होगी ।
बैचेनी के इस दौर में हाल ही में एक ऐसे ही सेमिनार में शिरकत करने का बुलावा मिला । लेकिन हफ्ते भर तक आत्मा बहुत अफसोस से गुजरती रही कि स्त्री बलात्कार के संदर्भ में ऐसे सेमिनार का क्या कोई अर्थ है ? यह आयोजन एक गैर सरकारी संगठन का था लेकिन सरकारी प्रयास से हजार गुना फूहड़ और बनावटी । एन.जी.ओ. की निगाहें इस दौर में ‘कॉरपोरेट सोशल रिसपांसिबिलिटी’ की मद पर हैं जिसे सरकार ने अनिवार्य बना दिया है । जो लोग बुलाए गये थे वे सभी भारतीय संस्कृति की ऐसी दुहाई दे रहे थे जैसे अतीत में इस देश की स्त्री दुनिया की सबसे सुखी जीवों में होती हो । जब उन्हें याद दिलाया गया कि जो अतीत स्त्रियों को जीते जी सती बना देता हो, जिस पर मंदिरों में जाने की पाबंदी हो, जिस अतीत के राजा दस-बारह स्त्रियों को रानी और एक को पटरानी बना कर रखते हों, क्या उस पर स्त्री को सम्मान देने का यकीन कर सकते हैं ? जो अतीत बाल विवाह में यकीन रखता हो जहां पंद्रह-बीस वर्ष की विधवाओं को सारी उम्र सिर मुड़ा करके एकांत में अपना जीवन जीना पड़ता हो, जहां धर्म के नाम पर वृंदावन में हजारों स्त्रियों का देह शोषण होता हो, वैसा अतीत हमें नहीं चाहिए ।
मौजूदा हालातों में जो स्त्रियों और लड़कियों के साथ हो रहा है उससे मुक्ति तभी संभव है जब समाज देवी और दासी के रूप में नहीं उन्हें बराबरी का दर्जा दे । देश के जिन हिस्सों में बंगाल, गुजरात, केरल में ऐसा है वहां स्त्रियों के प्रति हिंसा इतनी ऊचाइंयों पर नहीं पहुंची । हमें उन्हीं पगडंडियों से विकल्प तलाशना होगा । पहला विकल्प – समाज या परिवार खुद इस जिम्मेदारी को लें । जैसे जिस दिन ये खबरें आती हैं तो अभिभावक बच्चे-बच्चियों के साथ बात करें । ये प्रसंग छिपाने के नहीं बल्कि सामने रखकर समझने और समझाने के हैं । बराबरी के जीवन की ये अनिवार्य बातें हैं । तो फिर इन्हें बच्चों को कौन सिखाएगा ? क्या बच्चों को यह सिखाने की जरूरत नहीं कि शिक्षिका के साथ क्या बरताव किया जाना चाहिए । इन्हें गुरूभक्ति की खुराक ज्यादा मत दीजिए लेकिन इतना तो कहा ही जा सकता है कि स्त्री-पुरुष की दोस्ती क्या होती है ? और क्या होता है सही आचरण । मर्यादाओं की नैतिकता आदि । किसी लड़की के चेहरे पर तेजाब फैंकने की घटना के मद्देनजर यदि बच्चों को यह बताया जाए कि किसी के प्रति जबरदस्ती क्या किसी चोरी से कम बड़ा अपराध है ? और यदि कल कोई लड़की आपके चेहरे पर भी तेजाब फैंकें तब ? और यह भी कि क्या दंड मिलेगा । न तुम्हें हम बचाएंगे, न तुम्हारे शिक्षक या दोस्त । अभिभावकों, मॉं-बाप को सैक्स शिक्षा की ग्रंथियों से ऊपर उठकर स्वयं बच्चों को इन बुराईयों से रुबरू कराना होगा और यही पाठ स्कूलों में दोहराने की जरूरत है । पाठ्यक्रम में शामिल उन सारे पाठों, अध्यायों को एक तरफ रखते हुए क्योंकि जीवन के पाठ से महत्वपूर्ण कुछ भी नहीं है । अखबार और ऐसी खबरों की घटनाओं पर क्लास में विमर्श करना ही होगा । स्कूल के प्रिंसिपल और शिक्षक यह सभी की सामूहिक जिम्मेदारी है कि उनके स्कूल का कोई छात्र ऐसा न करे । यह फुटबाल बंद होनी चाहिए जिसमें घर, स्कूल पर अपनी जिम्मेदारी फैंक देता है और स्कूल, घर की तरफ । स्कूल के पाठ्यक्रम को भी बदलने की जरूरत है । उसे संस्कृति के नाम पर धर्म, पूजा, नमाज से मुक्त करके तर्कशील बनाना होगा, संवेदनशील बनाना होगा । चुन-चुनकर उन प्रसंगों, विवरणों को बाहर निकालना होगा जो किसी भी इशारे से लड़की या स्त्री के प्रति नीचा भाव या दुर्भावना दर्शाते हों । गॉंव-गॉंव में ऐसी समिति गठित की जायें जो भ्रूण हत्या या दहेज प्रथा पर निगरानी रख सके । जयपुर या दामिनी जैसे कांड में गुहार को सुनकर हमें तुरंत आगे बढ़ कर आने की शिक्षा देनी होगी । हमें बच्चों को बताना है कि क्लास में अव्वल आने या ज्यादा नंबर आने से महत्वपूर्ण है ऐसे मौके पर किसी की मदद करना । एन.सी.ई.आर.टी. की नयी पाठ्य पुस्तकें इस उद्देश्य में एक सार्थक मदद कर सकती हैं ।
सबसे घातक है मीडिया, टी.वी., रेडियो । मीडिया को मनोरंजन के नाम पर परोसे गये कार्यक्रमों की समीक्षा करनी होगी । बाजार, विज्ञापन, सस्ती लोकप्रियता, टी.आर.पी. से कहीं महत्वपूर्ण है समाज या उसकी सुव्यवस्था । दिन-रात चलने वाले अश्लील गानों और आइटम डॉंस को देख-सुनकर वही होगा जो देश में हो रहा है । सरकार ने कानून तो बना दिये लेकिन मीडिया को इसको नियंत्रण में रखने का कोई प्रावधान इसमें नहीं रखा ।
सरकार को भी समझना होगा कि सिर्फ कानून के सहारे इन घटनाओं को नहीं रोका जा सकता और न पुलिस के भरोसे रहकर । उस पुलिस से कैसे उम्मीद कर सकते हैं जो खुद अमानवीय स्थितियों में काम करती हो । जिसकी भर्ती और प्रशिक्षण प्रणाली पर ही दाग और प्रश्न चिह्न लगे हों । जिनके सामाजिक संस्कार ही इतने स्त्री विरोधी हों कि आई.जी. स्तर का अधिकारी यह कहे कि मेरी लड़की किसी के साथ चली जाती तो मैं उसका कत्ल कर देता । सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न सरकारों के सामने यह रहना चाहिये कि जितनी पुलिस वी.आई.पी. सुरक्षा में रहती हैं उतनी समाज और नागरिकों की सुरक्षा में क्यों नहीं । प्रश्न और उनके समाधान उलझे हुए हैं लेकिन ऐसा नहीं कि कोई रास्ता न मिले । सिर्फ कानून बनाकर इन दागों से मुक्ति पाना असंभव है ।