भाग – 1
प्रश्न: शिक्षा का मूल उद्देश्य आप क्या समझते हैं ?
उत्तर: चंद शब्दों में कहा जाए तो जो एक बेहतर नागरिक बनाए । ऐसा नागरिक जो अपनी मेहनत के बूते खा-कमा सके, जिसके जीवन और आचरण में सबके लिए बराबर का भाव हो । जाति, धर्म, क्षेत्र, राष्ट्रीयता से ऊपर जो समाज की बेहतरी के बारे में सोचने में समर्थ हो, संवेदनशील हो । तर्कशील, वैज्ञानिक सोच रखता हो ।
पता नहीं मेरी कही हुई बात कितने लोग समझ पाएंगे ? इसलिए मैं इसे कुछ उदाहरणों से समझाना चाहूंगा । आज सुबह मेरे एक परिचित ने अपनी बेटी और बेटे को पासपोर्ट के सिलसिले में मेरे दफ्तर भेजा था । बेटा बारहवीं की परीक्षा दे चुका है । स्वस्थ नौजवान लेकिन उसके साथ उसकी बड़ी बहन को आना पड़ा अपनी नवजात दो महीने की बच्ची को छोड़ कर । मैंने बेटे से कहा कि क्या तुम अकेले नहीं आ सकते थे ? इससे पहले कि बेटा जवाब देता बहन बोली कि हमने कभी अकेले भेजा नहीं है । पापा ने मुम्बई से फोन करके कहा कि तुम साथ चली जाना । इस बात के कई आयाम हैं । जिस बच्चे का पासपोर्ट बनाया जा रहा है उसे कुछ दिनों बाद विदेश भेजने की तैयारी है । लेकिन अपने ही देश में मां-बाप, समाज उसे घर से बीस किलोमीटर दूर दिल्ली की मैट्रो सेवा के बावजूद भी जाने की इजाजत नहीं दे रहे । आश्चर्य है कि इतने बड़े बच्चे अपनी मर्जी के कई कामों के लिए जिद करते हैं । यहॉं भी अकेले आने के लिए कर सकता था यानि कि हम कब तक बच्चों की ‘स्पून फीडिंग’ चम्मच से खिलाते रहेंगे । हमारी पूरी शिक्षा पद्धतियां ऐसी हैं । घर, समाज और स्कूल सभी जगह की । हमें एक स्वतंत्र, व्यक्तिव में नहीं ढलने देती हैं । यूरोप, अमेरिका की शिक्षा में जोर इस बात पर रहता है कि पंद्रह वर्ष तक होते-होते वे अपने बूते दुनिया को समझ सकें, घूम सकें । हम और हमारी सोच अठारह वर्ष क्या तीस-चालीस या पचास वर्ष तक भी ऐसा मौका नहीं देती । यह बच्चा अकेले आता तो कई शिक्षाएं एक साथ शुरु करता । खुद रास्ता तलाश करता, टिकट खरीदता, रेल भवन या सरकारी कार्यालय में पहुंचना आदि-आदि । हम रोज ऐसे उदाहरणों से गुजरते हैं । अचानक ही मां या पिता सुबह-सुबह दौड़े, बदहवास आते हैं कि आज फार्म भरने की अंतिम तिथि है । फार्म बेटे का है परेशान मां-बाप हैं । हम बच्चों को अपने पैरों पर खड़ा ही नहीं होने दे रहे ।
आखिर ऐसा क्यों ? क्योंकि हमारी शिक्षा एक अच्छा नागरिक बनाने की बजाए सिर्फ कुछ कक्षाएं पास करना, के जरिया भर हैं । अपने आसपास के जीवन से सीखने की बातों से एकदम दूर । उन्हें पांच-छह महाद्वीपों के बारे में बताया जाता है । दुनिया के बड़े-बड़े महासागरों के नाम पता होते हैं लेकिन उनकी स्कूली शिक्षा में न अपने जिले का नक्शा आता, न उसकी नदी, तालाब, नहर, प्राचीन इमारत, बाबली, इतिहास, भूगोल । अब तो उनसे उसकी भाषा, बोली भी छीनी जा रही है और जैसे-तैसे पहले से ही रटंतू पाठ्यक्रम के साथ अंग्रेजी और रटाई जा रही है । जो पीढ़ी तैयार हो रही है विशेषकर भारत के संदर्भ में वह शिक्षा के मूल उद्देश्य को ही खारिज करना है ।
और तो और वह एक स्वस्थ नागरिक भी नहीं बनने दे रही । अंग्रेजी का बोझ, भाषा का बोझ, परीक्षा का तनाव, देर-सवेर सोने-जगने से चेहरे पर छाई, अनिद्रा या बहुत कम उम्र में मधुमेह, हृदयघात, मोटापा जैसी बीमारियों की चपेट में । और पिछले दिनों से तो और भी खतरनाक प्रवृत्ति कि वे अवसाद के शिकार भी हो रहे हैं और हिंसक भी बनते जा रहे हैं ।
सही शिक्षा वह है जो इन सारे पक्षों का ध्यान रख पाए ।
महत्वपूर्ण यह नहीं है कि उनके पास बड़ी-बड़ी डिग्री हों,वे पी.एच.डी.,इंजीनियर, डॉक्टर हों । महत्वपूर्ण यह है कि वे कैसे ईमानदारी से समाज को चलाते या चलने देते हैं । पूरे यूरोप, अमेरिका, आस्ट्रेलिया की शिक्षा भारतीय शिक्षा की डिग्रियों की दौड़ से अपेक्षाकृत मुक्त है । कारपेंटर, नाई या सफाई कर्मचारी का जीवन स्तर या संतुष्टि वैसी ही है जैसे किसी विश्वविद्यालय या सिविल सर्वेंट की । शिक्षा का सही उद्देश्य यही होता है जो हर काम को बराबर सम्मान से देखे,समझे ।
प्रश्न: आज की शिक्षा व्यवस्था से आप कितना संतुष्ट हैं ? यह सवाल पूरी शिक्षा व्यवस्था के संदर्भ में है ।
उत्तर: कौन संतुष्ट हो सकता है ऐसी+
शिक्षा सेजो करोड़ों बेरोजगार पैदा कर रही हो?लाखों इंजीनियर डिग्री लेकर निकल रहे हैं हर वर्ष, लेकिन यह इंजीनियर शब्द का भी अपमान है । न इन्हें कील ठोकनी आती, न बिजली का तार लगाना । उतना भी नहीं जितना कि किसी कामगार मिस्त्री के बच्चे अपने धंधे से सीख लेते हैं । और तो और भाषा भी नहीं । अपनी भाषा से संपर्क छूट गया है और अंग्रेजी रातो-रात कैसे आ सकती है । आई.टी. सैक्टर में कुछनौकरियां का मिलना उतना ही संतोष दे सकता है जैसे कि सूरीनाम, फीजी के लिए भारतीय गन्ना मजदूरों का जाना । जब किसी भारतीय को अंतिम नोबल पुरस्कार 1930 में सी.वी.रमण को मिला हो तो यह संतोष की नहीं बहुत बड़े असंतोष की बात है । 2012 में दुनिया के दो सौसंस्थानों में भी न भारत का आई.आई.टी. है, न आई.आई.एम. । स्कूली शिक्षा की एक प्रतियोगिता में जहां पड़ौसी चीनसबसे आगे रहा भारत सिर्फ क्रिकिस्तान से आगे था । 76 देशों में 75वे नंबर पर । किस जागरूक नागरिक का खून नहीं खौल उठेगा शिक्षा की इस दुर्दशा पर ?
प्रश्न: हमारे देश में शिक्षा में असमानता है। मौटेतौर पर शिक्षा को दो भागों में बांटा जा सकता है– टाट–पट्टी वाली और दूसरी धनाढ्य वर्ग की। जब हमारे बच्चे इन अलग–अलग स्तरों पर पढ़ रहे हैं तो इससे सामाजिक–राजनीतिक व्यवस्थाओं पर क्या प्रभाव पड़ रहा है?
उत्तर: असामनता शिक्षा पैदा कर रही है। देखा जाए तो पहले कदम से। टाट-प़ट्टी वाला स्कूल साठ के दशक में भी था, सत्तर के दशक में भी था और आज भी है। यानी उस टाट-पट्टी में कोई विकास नहीं हुआ। न बिल्डिंग है, न टायलेट है, न पेड़ हैं, न पानी है। लड़कियों के लिए अलग से टायलेट की व्यवस्था नहीं है। इन स्कूलों को बुनियादी रूप से मजबूत करने के लिए कोई प्रयास नहीं हुआ, फिर चाहे कोई भी सरकार रही हो, चाहे सामाजिक न्याय के नाम पर लूटने-खाने वाले और सत्ता में आने वाले रहे हों। बुनियादी रूप से एक विभाजन तभी हो गया।
मैं डॉक्टर दौलत सिंह कोठारी का आभारी हूं। शिक्षा आयोग में उन्होंने समान शिक्षा की बात कही है। लेकिनऐसा नहीं हो पाया आज दिल्ली में तनाव सेगुजरते हुए बच्चे के स्कूल में दाखिले के लिए बीस-बीस किलोमीटर जा रहे हैं। हरदो-तीन किलोमीटर पर स्कूल होना चाहिये । अमेरिका में लगभग 90 प्रतिशत शिक्षा बराबर है। चाहे वो गवर्नर हो या टैक्सी ड्राइवर उनके बच्चे लगभग एक ही स्कूल में पढ़ रहे हैं। करीब दस साल पहले की बात है। एक दिन कनाडा में सभी लोग अचानक सड़कों पर आ गए। इसका कारण यह था कि अब तक जो 99 प्रतिशत शिक्षा समान थी, उसको सरकार कुछ निजीकरण करने जा रही थी। लोग सड़कों पर आ गए कि हम ऐसा नहीं होने देंगे। हमारे यहां उसे प्राइवेट करने के लिएघर के पास स्कूल से कई लाभ हैं। बच्चा पैदल ही स्कूल जा सकता है। कुछ बच्चे साइकिल से चले गए। ट्रांसपोर्ट की जरूरत नहीं पड़ी। भारत जैसे बहुभाषी और विभिन्न संस्कृति के देश में एक ही क्लास में अलग-अलग बच्चे बैठते हैं तो शिक्षा कितनी रोचक, बहुरंगी हो जाती है। शिक्षा एक सकरीइकहरीलाइन नहीं है। आप अलग-अलग अनुभवों से सीखते हैं। क्लास में आदिवासी बच्चा है तो वह अपनी परंपराओं की बात कर रहा है। अमीर के, नौकरशाह के, वकील के, जज के बच्चे एक ही क्लास में होंगे तो उनके अलग-अलग अनुभव होंगे। एक-दूसरे से कितना सीख सकते हैं। आपसी शिक्षा समझने के लिए भी और बराबरी के लिए भी। उस अमीर को भी पता है कि इसके घर में कैसी स्थितियां हैं। भविष्य की जो समझ बनेगी, वह एक बेहतर प्रशासक बन पाएंगे। संवेदनशील नागरिक बन पाएंगे। यूरोप के देशों की दुहाई देते हैं, जब वहां ऐसा हो रहा है तो यहां उलटे रास्ते क्यों चल रहे हो? जनता को यहीं जगाने की जरूरत है। वैसे ही सड़कों पर आने की जरूरत है कि हमें निजी स्कूल नहीं चाहिए। शायद वक्त आ गया है कि निजी स्कूलों के दरवाजे पर धरने दें और सरकार से सरकारी स्कूल के लिए कहें।
दूसरा एक और पक्ष है। अब दिल्ली के सरकारी स्कूलों में सरकारी कर्मचारी का बच्चा नहीं पढ़ता। मजदूरों और गरीबों के पढ़ते हैं। अगर आपके-हमारे बच्चे पढ़ते तो उन पर सुविधाओं का एक दबाव भी बनाते। पढ़ाई कैसी हो रही है आप शिक्षक के ऊपर ही नहीं छोड़ सकते। आपका भी तो दायित्व बनता है। बहुत दिनों बाद एक रोशनी की किरण नजर आई तमिलनाडु के कलेक्टर के उदाहरण से । वे पिछले साल बेटी के स्कूल में दाखिले के लिए गया। नौजवान लड़का। मद्रास में पढ़ा हुआ। लाइन में खड़ा हुआ। लंबी लाइन लगी थी। किसी ने पहचान लिया कि यह तो कलेक्टर है। हलचल मच गई। किसी ने पूछा तो उसने कहा कि मैं ऐसे ही स्कूलों में पढ़ा हुआ हूं। मैं चाहता हूं कि मेरी बेटी भी यहीं पढ़े। कहते हैं कि उस स्कूल का स्तर धीरे-धीरे सुधर रहा है। पढ़े-लिखों ने मान लिया कि उनका बेटा तो खास है अत: खास स्कूल में ही पढ़े । मेरी यहां बेचैनी सबसे ज्यादा है हिंदी प्रांत के बुद्धिजीवी और नौकरशाह से वे किसी ने किसी विशेष सुविधा की तलाश में रहते हैं। सरकारी स्कूल खराब है तो किसी और अच्छे स्कूल में जाएंगे। वह भी खराब है तो सांसद से सिफारिश लगवाएंगे। ट्रेन में रिजर्वेशन नहीं होता तो वीआईपी कोटा ले लेंगे। हवाई जहाज नहीं जा सकता तो हवाई पट्टी बनवा देंगे। यानी जनता की बुनियादी समस्याओं को सुलझाकर,बराबर करने के बजाए उसमें और असमानता को बढ़ा रहे हैं। पिछली ज्यादातर सरकारें इस असामनता को बढ़ा रही हैं। शिक्षा, भाषा भी उनके लिए एक हथियार है।
प्रश्न: निजी स्कूल हर तरह से मनमर्जी करते हैं । डोनेशन, फीस, शैक्षिक सत्र के दौरान कई तरह के चार्ज के रुप में तरह-तरह से वसूली की जाती है । इसके अलावा किताबों और यूनीफॉर्म को लेकर भी किसी नियम का पालन नहीं होता । हर साल इसमें बढ़ोतरी भी कर दी जाती है । लगता है कि सरकार का इन पर कोई नियंत्रण नहीं रहा । इस बारे में आपको क्या कहना है ?
उत्तर: बिल्कुल सही कहते हैं । दरअसल ये निजी स्कूल शिक्षा में किसी समाज को बदलने की सदभावना से नहीं आए । यह उनके लिए एक और मुनाफे का धंधा है और जब धंधे की बदौलत उन्हें समाज में सम्मान भी मिले, एडमिशन के लिए नेता, पत्रकार, रसूख वाले भी उनके द्वार पर चक्कर लगाएं, तो वे क्यों न इस धंधे में आएं । शिक्षा की बुनियादी बातें वे कभी नहीं करते, न सिखाते । वो विज्ञापित करते हैं कि उनके स्कूल एयर कंडीशनंड हैं, वे छुट्टियों में विदेश घुमाते हैं, अंग्रेजी का रौब आदि–आदि । और इसी के बूते वे पैसा वसूलते हैं । सरकार को तुरंत आगे आकर इस पर रोक लगाने की जरुरत है । निजी स्कूल को इजाजत तो दें लेकिन ऐसी मनमर्जी की नहीं जिसमें फीस पर कोई सीमा न रहे । इनमें पढ़ायी जाने वाली किताबों पर भी किसी संस्थागत बोर्ड का अंकुश जरूरी है ।
प्रश्न: पहले केवल छमाही और सालाना परीक्षाएं होती थीं । कुछ स्कूलों में तिमाही परीक्षा भी होती थीं । आज स्कूली शिक्षा में टेस्ट पर बहुत अधिक जोर दिया जाता है । परीक्षाएं भी होती ही हैं । क्या यह बच्चों पर अतिरिक्त दबाव डालना नहीं है ?
उत्तर: हमारी शिक्षा की कई खामियों में परीक्षा प्रणाली भी प्रमुख है । ऐसा लगता है कि स्कूल से लेकर स्नातकोत्तर तक परीक्षा ही शिक्षा का पर्याय हो चुकी है । इसके बहुत भयानक परिणाम आ रहे हैं । एक तरफ दिल्ली के मध्यम वर्ग के बच्चों में एक-एक नंबर की गला काट प्रतियोगिता, होड़ तो दूसरी तरफ उत्तर प्रदेश, बिहार जैसे राज्यों में परीक्षा के समय नंबरों की दौड़ में नकल के अजीबों-गरीब कारनामे । यानि कि परीक्षा, शिक्षा, भ्रष्टाचार और बेईमानी की जननी । ऐसा इसी देश में संभव है । क्या बेईमानी का पहला कदम बच्चा नकल से नहीं सीखता ?
परीक्षा के तनाव, नकल इन्हीं सबसे बचने की तलाश में अंकों के स्थान पर पिछले दिनों ग्रेडिंग प्रणाली शुरु की गई । लेकिन उसका भी कम विरोध नहीं हुआ । साल के अंत या छह महीने के बाद सिर पर भारी तनाव से बचने के लिए । यह भी सोचा गया बीच-बीच में हल्की-फुल्की परीक्षा होती रहे । लेकिन दिल्ली के निजी अमीर स्कूलों ने उसमें भी विकृति पैदा कर दी । अधिकांश स्कूल हर मंडे टेस्ट रख देते हैं । मानो बच्चों को अनुशासित या काबू में सिर्फ ऐसे टेस्ट या परीक्षा से ही रखा जा सकता है । हर समय उन्हें एक डर में रखना, आतंकित करना । परीक्षा-दर-परीक्षा । कापी देखी जा रही हैं, नंबर बताए जा रहे हैं । जीवन, समाज या कोई विषय की क्या समझ बनी है कभी दूर-दूर तक भी न शिक्षक को अवकाश है और अफसोस, न अभिभावकों को । इसमें अभिभावक शिक्षकों से ज्यादा जिम्मेदार है बच्चों पर परीक्षा का बोझ डालने के लिये । वे खुद स्कूल में जाकर ऐसे टेस्टों को बढ़ाने की वकालत करते हैं और एक-एक नंबरों के लिए शिक्षक से झगड़ा भी । परीक्षा का अतिरिक्त आतंक शिक्षा प्रणाली के लिए ही नहीं, पूरे समाज के लिए घातक है ।
नकल से आगे बढ़े, पढ़े बच्चों को कौन सी नैतिक शिक्षा ईमानदार बना सकती है ?
प्रश्न: शिक्षा अधिकार अधिनियम 2009 के अंतर्गत यह प्रावधान कर दिया गया है कि किसी भी बच्चे को अब कक्षा 1 से 8 तक किसी कक्षा में अनुतीर्ण नहीं किया जायेगा । इस पर अधिकांश शिक्षकों की प्रतिक्रिया है कि जब बच्चे को यह पता है कि अब फेल होना ही नहीं है तो वह पढ़ाई के प्रति अधिक लापरवाह हो जायेगा जिसका शिक्षा की गुणवत्ता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा । इस प्रावधान को आप किस तरह देखते हैं ? और
उत्तर: परीक्षा का प्रश्न भारतीय संदर्भ में बहुत पेचीदा बन गया है । यहां शिक्षा, समझ और एक अच्छा नागरिक बनाने के लिए नहीं दी जाती । वह क्लास में फर्स्ट, सैकिंड या पिछले दिनों से अस्सी प्रतिशत, नब्बे प्रतिशत की चूहॉं दौड़ में शामिल होने के लिए होती है । इसके नतीजे बहुत भी खराब रहे । ट्यूशन, कोचिंग सेंटरों की बाढ़ और बच्चों पर पढ़ाई का जरूरत से ज्यादा बोझ । समझ की बजाए रटंत पर जोर । लेकिन पिछले दिनों एन.सी.ई.आर.टी., सी.बी.एस.सी ने मिलकर दसवीं तक परीक्षा न करने का फैसला लिया । एक सतत् मूल्यांकन की पद्धति लागू की गई । इसके अच्छे परिणाम तो हुए हैं लेकिन दुष्परिणाम भी सामने आ रहे हैं । सतत् मूल्यांकन को बेहतर बनाया जाए तो अच्छा रहेगा और दसवीं की परीक्षा को तो अनिवार्य मेरी समझ से होना ही चाहिए । यह इसलिए भी जरूरी है कि मौजूदा बेरोजगारी के युग में आखिर आप परीक्षाओं से बच तो नहीं सकते । अभी हमारा समाज यूरोप, अमेरिका के उस स्तर तक नहीं पहुंचा कि जहां बिना डिग्री देखे, आपकी प्रतिभा को पहचान कर कोई नौकरी आपको दे देगा । सरकारी स्कूलों के लिए तो यह और भी जरूरी लगता है । परीक्षा न होने की वजह से सरकारी स्कूलों के नवीं के बाद के बच्चों में एक अलग लापरवाही पैदा हो रही है । अव्यवस्था तक बढ़ रही है । जिस देश में नर्सरी के दाखिले में परीक्षा ली जाती हो वहां इस पर पुनर्विचार की जरूरत है । सुधार तो चाहिये ही ।
प्रश्न: आज की शिक्षा में कोचिंग संस्थानों की भूमिका इतनी महत्वपूर्ण क्यों होती जा रही है ? कोचिंग संस्थानों का शिक्षा में क्या योगदान है ?
उत्तर : कोचिंग संस्थानों की बात किये बिना मौजूदा शिक्षा व्यवस्था की तस्वीर अधूरी रहती है । अभी तक जितनी बातें हुईं उस अव्यवस्था के कारण ही ट्यूशन या कोचिंग संस्थान आगे आ रहे हैं । मैं निजी स्कूल या कोचिंग संस्थानों में कोई ज्यादा अंतर नहीं पाता । दोनों के उद्देश्य कम-से-कम भारतीय परिस्थितियों में एक से ही हैं । रटंत को बढ़ावा और ज्यादा-से-ज्यादा मुनाफा । कोचिंग संस्थान ऐसे समाज की कल्पना को साकार करते हैं जिसके लिए शिक्षा या पढ़ना सिर्फ नम्बरों की दौड़े है । शिक्षा के पूरे ढॉंचे में परिवर्तन किये बिना कोचिंग पर रोक लगा पाना मुश्किल है । इसका साक्षात उदाहरण पिछले दस वर्षों में आई.आई.टी. की परीक्षा में बार-बार हुए परिवर्तन से है । हर परिवर्तन के बावजूद भी कोचिंग संस्थान उतने ही फल फूल रहे हैं । शिक्षा में बदलाव सिर्फ प्रवेश परीक्षा से नहीं आ जाएगा कक्षा के अंदर भी शिक्षण पद्धतियों में बदलाव की दरकार है और तुरंत । अब और इंतजार करना देश को डूबो देगा ।
प्रश्न: आज बच्चों की रचनाशीलता लगातार कम होती जा रही है । बच्चों की रचनाशीलता की वृद्धि के लिए आप क्या किये जाने की आवश्यकता महसूस करते हैं ?
उत्तर: बच्चे की रचनात्मकता निश्चित रूप से कम हो रही है । दुनिया भर के सर्वेक्षण कम-से-कम भारतीय विद्यार्थियों के बारे में तो यही कह रहे हैं । बार-बार कहने की जरूरत नहीं । रटंत पर कम ध्यान दिया जाए । नंबरों की चूहॉं दौड़ ही जिंदगी में सब कुछ नहीं है और सबसे बुनियादी बात स्कूल ‘समानता’ की शिक्षा दे । जिसमें गरीब, अमीर एक ही छत के नीचे पढ़ते हों । मौजूदा ढॉंचे में अमीरों के स्कूल, निजी स्कूलों को कम करके । कनाड़ा या दूसरे देशों की तर्ज पर कॉमन स्कूल सिस्टम को बढ़ाने की जरूरत है । बच्चे सिर्फ शिक्षक और पाठ्यक्रम से ही नहीं सीखते, अपने सहपाठियों से भी सीखते हैं । एन.सी.एफ. 2005 में बार-बार इस बात को रेखांकित किया गया है कि बच्चे सिर्फ ज्ञान के ग्राहक ही नहीं हैं वे उसके सृजक भी हैं । अपनी बोली, भाषा, अनुभव, परिवेश के साथ परस्पर सीखते हुए ।
और सबसे महत्वपूर्ण बात रचनात्मकता के लिए उनकी शिक्षा उनकी अपनी मातृभाषा में दी जाए । कम-से-कम प्राईमरी शिक्षा जब तक उनकी अपनी भाषा में नहीं दी जाती, आप बचपन में ही बच्चें की रचनात्मकता को खत्म कर देते हैं ।
प्रश्न: कहीं ऐसा तो नहीं कि हमारी प्रारंभिक शिक्षा बच्चों में आत्मविश्वास ही पैदा नहीं कर पाती और माता–पिता को हस्तक्षेप करना पड़ता हो । और हमारे यहां प्राय: बच्चों को क्या पढ़ना है और क्या नहीं, यह अभिभावक तय करते हैं । यह स्थिति किस तरह घातक है ?
उत्तर: बिल्कुल सही फरमाया । लगभग अस्सी प्रतिशत बच्चे क्या पढ़ाई करें इसका फैसला उनके मॉं-बाप करतेहैं और यह प्रवृत्ति पढ़े-लिखे मॉं-बापों में और भी ज्यादा है । उनमें एक गरुर अपने ज्ञान का भी जो होता है । इस हिसाब से ग्रामीण बच्चे खुशकिस्मत हैं । क्योंकि उनके मॉं-बाप ज्ञानके बोझ से कम-से-कम मुक्त तो हैं । लड़कियोंके मामले में तो यह और भी खतरनाक है उन्हें तो पहनने,ओढ़ने,चलने, कुछ भी करने के लिए मॉं-बाप से पूछना पड़ता है । अपनी मर्जी से पढ़ाई या विषय के बारे में तो वे शायद ही कह पाएं । विशेषकर हिंदी प्रांतों में वे हिंदू हों या मुसलमान । इस लिहाज से मुझे केरल,बंगाल या दक्षिण के राज्य बेहतर लगते हैं । जहां स्त्री अपेक्षाकृत ज्यादा आजाद है । लेकिन मॉं-बाप का अंकुश वहां भी है । मुझे याद आता है मद्रास के कॉलेज का एक अनुभव । हिंदी साहित्य की स्नातकोत्तर छात्रा से जब बात हुई तो उनमें अधिकांश के जवाब यही थे कि हम जो विषय पढ़ रहे हैं वे इसलिए कि मॉं या पिताजी ऐसा चाहते हैं । पीढ़ी-दर-पीढ़ी बोझ को ढोते हुए ।
प्रश्न: बच्चे पाठ्यक्रम के अलावा कोई और किताब नहीं पढ़ना चाहते हैं । उनकी प्राथमिकता में टीवी और इंटरनेट है । ऐसे में बच्चों को किताबों से कैसे जोड़ा जा सकता है ?
उत्तर: आप बच्चों को ही क्यों दोष देते हो । क्या अधिकांश माता-पिता भी सिर्फ पाठ्यक्रम की किताबों को पढ़कर बड़े नहीं हुए ? मैं सैंकड़ों अधिकारियों, कर्मचारियों को जानता हूं जो नौकरी में आने के बाद पढ़ना-लिखना लगभग बंद कर चुके हैं । अखबार भी मुश्किल से पढ़ते हैं । तो इसी का असर बच्चों पर फैलता है । आप घर पहुंच कर सीधे टेलीविजन खोल ले या इंटरनेट पर बैठ जाएं या दूसरे क्लबों में ताश खेलें, गप्पे मारे और उम्मीद करें कि बच्चे किताबों पर लगे रहे तो यह कभी नहीं हो सकता । बच्चे सबसे पहला पाठ अपने अभिभावकों, अपने आसपास की दुनिया से सीखते हैं ।
इस तर्क का कोई अर्थ नहीं कि अभिभावक क्यों पढ़ें ? उन्हें कौन सी परीक्षा देनी है ? पढ़ना, किताबों से जुड़ाव सिर्फ परीक्षा के लिए ही नहीं होना चाहिए । किताबें चाहे वो किसी भी विषय की हों, कहानी, साहित्य, विज्ञान, कला, इतिहास जिसमें भी रूचि हो यदि आपके ड्राइंग रुम में, आपकी बातचीत में उनका जिक्र होगा तो आप मानिये कि बच्चे भी उन्हें उतने ही चाव से पढ़ेंगे । मैं एक छोटा-सा उदाहरण देना चाहूंगा । पिछले दिनों एक मित्र आए और उन्होंने बताया कि आपकी दी हुई किताबों से मेरे बच्चे में चुपचाप एक रूचि पैदा होती चली गई है । किताबें क्या मैं उनको हर दूसरे-तीसरे महीने चकमक, संदर्भ, नंदन, बालहंस आदि ऐसी किताबें दे देता था और देता भी तभी था जब मॉं-बाप लेने में रूचि रखते थे । कई विचित्र अनुभव हैं । आप मॉ-बाप को देना भी चाहें तो वे ऐसा जताते हैं जैसे कोई फालतू चीज उनको दी जा रही है । कई मॉं-बाप तो साफ-साफ मना कर देते हैं कि ‘बच्चों का कोर्स ही खत्म नहीं होता इन्हें कब पढ़ेंगे ?’ समझाने के बावजूद भी कि हर समय पूरे वर्ष, कोर्स की किताबें कोई बच्चा नहीं पढ़ सकता । और बच्चों को भी रिलेक्स होने के लिए, आनंद के लिए कुछ चाहिए होता है । लेकिन वे नहीं मानते । कम-से-कम शहरों का मध्यवर्ग लगातार बच्चों को कोचिंग और ट्यूशन की तरफ धकेलता, तो यही मानता है और इसका अंजाम है कि बच्चे धीरे-धीरे किताबों की दुनिया से दूर हो जाते हैं और किताबों की दुनिया से दूरी का मतलब पाठ्यक्रम भी ठीक से पढ़ने में असमर्थ रहना । इससे उनका पूरा व्यक्तिव और अभिरूचियों बुरी तरह प्रभावित हो रही हैं । कोर्स की किताबों के साथ-साथ अपनी भाषा में उनकी अभिरूचियों की दूसरी किताबों, कहानी, यात्रा, रोमांच, फिल्म…. से ही उन्हें किताबों की दुनिया में वापस लाया जा सकता है ।
प्रश्न: बच्चों को जो किताबें पढ़ाई जा रही हैं उनसे आप कितना संतुष्ट हैं ? आप उन किताबों में क्या बदलाव करना चाहेंगे ?
उत्तर: पहले तो आपके प्रश्न के उत्तरमें ही मैं प्रश्न खड़ा करना चाहूंगा कि क्या आप किन बच्चों की बात कर रहे हैं? सरकारी स्कूलों के बच्चे और उनकी किताबें ? केन्द्रीय विद्यालय की किताबें ? राज्य सरकारों की किताबें या पिछले दिनों लगातार बढ़ते जा रहे अंग्रेजीदॉं महंगे स्कूलों के बच्चे और उनके पाठ्यक्रम ? इसके अलावा धार्मिक संस्थानों या मदरसों द्वारा चलाए जा रहे स्कूल और उनकी किताबें ?
अफसोस होता है कि हमने शिक्षा को इतना कम महत्व दिया है । एक स्कूल धर्म शिक्षा पढ़ा रहा है तो दूसरा सारा ध्यान नकली नैतिकताओं पर दे रहा है तो अधिकांश निजी स्कूल सिर्फ अंग्रेजी या विदेशी भाषा पर । यह आजादी का कितना बड़ा अपमान है जिसमें कुछ स्कूल अभिभावकों को लिखित में यह कहने की जुर्रत करते हैं कि घर पर सिर्फ अंग्रेजी में ही बोलें और बच्चा स्कूल में हिंदी नहीं बोले या अपनी भाषा बोलने पर जुर्माना लगाया जाए । इसे तुरंत न रोका गया तो देश न जाने कितने टुकड़ों में बंटेगा । क्योंकि बचपन में पढ़ाया गया यही इतिहास सदा के लिए हमारे मस्तिष्क को सांप्रदायिक बना देता है ।
इन किताबों का विकल्प एन.सी.ई.आर.टी. का नया पाठ्यक्रम है। इस पाठ्यक्रम की बाईबिल राष्ट्रीय पुनश्चर्या पाठ्यक्रम 2005 एन.सी.एफ. (नेशनल करिकुलम फ्रेमवर्क)कहा जा सकता है । देश में प्रचलितशिक्षा की बहुलता वादी सभी प्रवृत्तियां इसमें शामिल हैं । प्रश्न, अभ्यास, कार्टून, क्लास से बाहर किये जाने वाले कार्यकलाप । एक-से-एक नयी प्रविधियों का आविष्कारकहा जा सकता है यह पाठ्यक्रम । इसका अर्थ यह कतई नहीं कि सारा भारत एक हीपाठ्यक्रम पढ़ेगा । एन.सी.एफ. 2005 की प्रस्तावना और निवेदन यही है कि सभी राज्य अपने-अपने ढंग से एन.सी.एफ. 2005 की रोशनी में ऐसे-ऐसे पाठ्यक्रम बनाए जिनमेंस्थानीय बोली, भाषा, विविधता का ध्यान रखा जाए । बच्चे को ज्ञान की प्रक्रिया में शामिल माना जाए आदि-आदि ।
लेकिन अफसोस की बात यह है कि एन.सी.ई.आर.टी. की किताबें उन सरकारी स्कूलों, केन्द्रीय विद्यालयों तक भी मुश्किल से ही प्रवेश पा रही हैं । कभी उपलब्ध नहीं हो पाती तो कभी कार्टून विवाद या केन्द्र राज्यों के झगड़ें और सबसे बड़ी बात तो निजी स्कूलों की मुनाफाखोरी । यदि एन.सी.ई.आर.टी. की सस्ती किताबें स्कूलों में लगाई गई तो निजी स्कूलोंको मुनाफा कहां से आएगा? इस षड़यंत्र के चलते बच्चों के दिमाग में जो गलत शिक्षा का भूसा भरा ही जा रहा है उनके मॉं-बाप की जेब भी खाली हो रहीहै । कम-से-कम पहले वर्ष के लक्ष्य के रूप में दिल्ली के स्कूल या केन्द्र सरकारों के स्कूलों में तो एन.सी.ई.आर.टी. अनिवार्य कर ही देना चाहिए । कई और राज्यों ने भी एन.सी.एफ. 2005 के अनुसार बदलाव किये हैं बिहार राज्य उनमें सबसे अग्रणी है ।
प्रश्न: जो शिक्षा दी जा रही है वह बेहद किताबी है । न तो उसे परिवेश से जोड़ा जा रहा है और न ही उसमें समाज की समस्याएं हैं । बच्चों में वैज्ञानिक सोच भी विकसित नहीं हो रही है । इस स्थिति को कैसे बदला जा सकता है ?
उत्तर: जैसे अभी कहा शिक्षा को किताबों से निकालकर समाज और परिवेश से जोड़ने की जरुरत है । ‘एन.सी.एफ-2005’ में भी इस बात को रेखांकित किया गया है कि स्कूल के अंदर की दुनिया और बाहर की दुनिया में कोई फासला न हो । इसका खुलासा करें तो यदि स्कूल के बाहर संथाली बोली जाती है, मराठी बोली जाती है तो स्कूल की भी भाषा वही होनी चाहिए । यदि स्कूल ग्रामीण क्षेत्र में है जहां खेत, किसानी के काम होते हैं तो खेती, किसानी की कुछ शिक्षा उस स्कूल के अंदर भी हो । लेकिन हमारे देश के ज्यादातर स्कूलों में, विश्वविद्यालयों में ऐसा नहीं है । समाज कुछ, शिक्षा कुछ । इसका बहुत अच्छा उदाहरण हमारे प्रतिष्ठित आई.आई.टी. या आई.आई.एम. जैसे संस्थानों के पाठ्यक्रमों से समझा जा सकता है । सारी दुनिया जानती है कि हमारे सर्वश्रेष्ठ मेधावी छात्र इन संस्थानों में पढ़ने आते हैं । लेकिन देश की शायद ही कोई समस्या इनके पाठ्यक्रम, इनके केस अध्ययनों में शामिल हो । इसीलिए न उन समस्याओं का अध्ययन होता, न उन पर शोध । इससे न इन छात्रों को लाभ होता, न संस्थान और समूचे देश को ।
वैज्ञानिक सोच का पहला चरण भी स्कूल की इसी शिक्षा से शुरु होता है । कल्पना करें कि किसी आदिवासी इलाके में किसी बच्चे को कोई चेचक जैसी बीमारी हो जाती है । ऐसी किसी भी बीमारी के बारे में प्रचलित धारणा अंधविश्वास होते हैं जो किसी देवी-देवता, भूत प्रेत से जोड़ दिये जाते हैं । काश ! स्कूली शिक्षा या उनके शिक्षक उसी समय इन बीमारियों को होने की वैज्ञानिक, तर्कशील व्याख्या करें तो बच्चे भी अपनी सोच वैसी ही विकसित करेंगे । दुर्भाग्य से अभी भी इस देश में सॉंपों के काटने पर डॉक्टर के बजाय किसी झाड़-फूंक वाले बाबा आदि की तरफ भागते हैं और हर वर्ष हजारों लोगों की जान चली जाती है । स्कूली स्तर पर अपने आसपास के परिवेश, समाज की एक-एक घटना पर विस्तार से बच्चों से बात की जानी चाहिए । पाठ्यक्रम पूरा होने की चिंता को परे रखकर और बच्चों की बोली, भाषा में ही । फिर देखिए उसके बाद बच्चों की रचनात्मकता कैसे बाहर आती है ।
दुनिया का हर बच्चा समान रूप से मेधावी, संभावनाशील होता है ।
प्रश्न: पाठ्यक्रम बनाना, पाठ्य पुस्तक बनाना और पढ़ाना, ये तीनों काम आज की शिक्षा में बिल्कुल अलग–अलग हैं । इस विभाजन काशिक्षा पर क्या सकारात्मक या नकारात्मक प्रभाव पड़ता है? आप की समझ से इसमें किस तरह का सुधार होना चाहिए ?
उत्तर: वाकई यह विभाजन बना हुआ है ।पिछले दिनोंएन.सी.ई.आर.टी. की भाषा विभाग की अध्यक्ष प्रोफेसर चन्द्रा सदायत औरप्रोफेसर संध्या ने भी इस मुद्दे को उठाया था । यह जानकर आश्चर्य हुआ कि जितनीउदारता से एन.सी.ई.आर.टी. संस्थान पाठ्यक्रमबनाने में दिल्ली विश्वविद्यालय के प्राध्यापकों को शामिल करता है दिल्ली विश्वविद्यालय ने कभी भी अपने किसी भी पाठ्यक्रम को बनाते वक्त एन.सी.ई.आर.टी. के प्रोफेसरों का नशामिल किया, न कोई राय मांगी । यह दुर्भाग्यपूर्ण है । कम-से-कम अकादमिक जगत में । इनकी परस्पर भागीदारी बढ़नी चाहिए ।न केवल दिल्ली विश्वविद्यालय केसभी विभाग, जे.एन.यू. और जामिया मिलिया और देश के बाकी विश्वविद्यालयों को भीपाठ्यक्रम बनाते वक्त इस बात का ध्यान रखें । तसल्ली की बात यह है कि प्रोफेसरयशपाल और प्रोफेसर कृष्ण कुमार के समय बनाए गये पाठ्यक्रम में विश्वविद्यालय केप्रोफेसर से लेकर माध्यमिक और प्राथमिक शिक्षक तो शामिल थे ही एकलव्य, दिगंतर, बोध, समांतर, राज्य बोर्ड के प्रतिनिधियों समेत मेरे जैसे शिक्षा पर कभी-कभी लिखने वाले लोगों को भीशामिल किया गया और सही रास्ता भी यही है । पाठ्यक्रम की इस पूरी प्रक्रिया कोखाने में बांटकर नहीं देखाजा सकता ।
प्रश्न: प्राथमिक शिक्षा में सुधार के बुनियादी सवाल क्या–क्या हो सकते हैं? इस सुधार की राह में बड़ी बाधाएं कौन–कौनसी हैं?
उत्तर: प्राथमिक शिक्षा में सुधारका पहला कदम- बस्ते का बोझ कम-से-कम हो ।
दूसरा – विदेशी भाषा कतई नहीं । यहां तक कि घरेलू बोल चाल की भाषा और बोलियों का प्रचलन बढ़े तो बच्चे और जल्दी सीखेंगे और पढ़ेंगे ।
तीसरा – खेल खेल में शिक्षा दी जाए ।होम वर्क, प्रोजेक्ट जैसे बनावटी साधनों से नहीं । बच्चे स्कूल आने के लिए उत्साहित हों न कि स्कूल आने से डरे । रवीन्द्र नाथ ठाकुर के शब्दों में हमारी पाठशालाएं जेल बन चुकी हैं जहां बच्चे आने से डरते हैं । प्राथमिक स्तर पर हरेक स्कूल का बीच-बीच में सर्वेक्षण करनाचाहिए कि कितने बच्चे स्कूल आने से डरते हैं और फिर क्या कदम उठाए जा सकते हैंबच्चों को खुश रखने के लिए ।
याद रखिए एक बच्चे की खुशी शिक्षा का सबसे बड़ा पुरस्कार है ।
इस सुधार की सबसे बड़ी बाधाहै इस देश में उभरा नया अंग्रेजीदॉं मध्य वर्ग । यदि उनके बच्चों को होमवर्कनहीं मिले तो वे उल्टे स्कूल से शिकायत करते हैं । आरोप लगाते हुए कि आप होमवर्ककम क्यों देते हैं । उन स्कूलों से तुलना करते हुए जहां बस्ते का बोझ ज्यादा है । और उन अमीरों के सुझाव निजी स्कूल मान भी लेते हैं और फिर दौड़ शुरू होती है । फीस भी ज्यादा, बस्ते का बोझ भी ज्यादा । ऐसे में बच्चे तनाव में न आए या स्कूल जाने से डरे तो क्या आश्चर्य ?
प्रश्न: आप एन.सी.ई.आर.टी. की किताबों की बहुत प्रशंसा करते हैं । क्या खासियत है ?
उत्तर: कई कारण हैं । पहला – आजादी के बाद मुझे लगता है कि पाठ्यक्रम के संबंध में इतना सुव्यवस्थित चिंतन कभी नहीं हुआ । जाने-माने शिक्षाविद, लेखक कृष्ण कुमार वर्ष 2004 में निदेशक बनाए गए । जाने-माने वैज्ञानिक, प्रोफेसर यशपाल पाठ्यक्रम समिति के अध्यक्ष बने और फिर लगभग अठारह समूहों ने परस्पर और अलग-अलग बैठकों में विषयवार अपनी दृष्टि सामने रखी जो ‘राष्ट्रीय पाठयचर्या की रूप रेखा 2005’ के रूप में सामने आई । आप पढ़िये तो सही एन.सी.एफ. (National Curriculam Fremwork 2005) को । पहली बार स्कूली जीवन को बाहर के जीवन से जोड़ने की बात कही गई है । रटंत का विरोध किया है । पाठ्य पुस्तक सिर्फ परीक्षा देने के लिए नहीं होतीं और सबसे बड़ी बात कि बच्चों को सीखने की पूरी प्रक्रिया में भागीदार माना जाए । उन्हें ज्ञान की निर्धारित खुराक का ग्राहक मानना छोड़ दें ।
देश भर के जाने-माने प्रोफेसर, शिक्षाविद अलग-अलग विषय के सलाहकार बनाए गये । तीन-चार वर्षों तक बहुत मेहनत के बाद पुस्तकें सामने आईं । क्या इससे पहले कभी पाठ्य पुस्तकों में कार्टून जैसी विधा का रचनात्मक उपयोग हुआ ? क्या इससे पहले विश्व विख्यात प्रोफेसर स्कूली पाठ्यक्रम के साथ जोड़े गये ? मेरा तो मानना है कि सिर्फ स्कूली बच्चे नहीं हर अभिभावक को आपको एन.सी.ई.आर.टी. के नये पाठ्यक्रम की किताबें पढ़नी चाहिए और सिर्फ अपने विषय की ही नहीं दूसरे विषयों की भी । ये किताबें बहुत चुपके से समानता का दर्शन सिखाती हैं । जाति, धर्म के भेद को नकारती हैं । तर्क क्षमता बढ़ाकर वैज्ञानिक सोच पैदा करती हैं । खुशी की बात यह है कि देश के ज्यादातर राज्यों ने ‘एन.सी.एफ.- 2005’ की रोशनी में किताबें बनानी शुरू की हैं ।
लेकिन ठीक उसी वक्त शिक्षा निजी हाथों में जा रही है और उसका दुष्परिणाम यह होगा कि निजी स्कूल तो मुनाफे के लिए सामने आते हैं और उस मुनाफे के चक्कर में वे एन.सी.ई.आर.टी. की कम कीमतों की किताबों को नहीं लगाते । एन.सी.ई.आर.टी. व्यवस्था की भी कुछ खामियां रहीं होंगी जो कभी-कभी समय से किताबें उपलब्ध नहीं करा पाती । हर सरकारी, निजी स्कूलों में यदि ये किताब लगाए तो अभी भी शिक्षा के परिदृश्य को बदला जा सकता है ।
प्रश्न: प्राथमिक शिक्षा, माध्यमिक शिक्षा तथा उच्च शिक्षा में व्याप्त अराजकता के समाधान अलग-अलग होंगे या एक ही पद्धति से पूरी शिक्षा व्यवस्था में सुधार किया जा सकता है ।
उत्तर: प्राथमिक से लेकर उच्चशिक्षा तक- एक निरंतरता की प्रक्रिया है। जो बीज प्राथमिक शिक्षा के रूप में बोए जाएंगे उच्च शिक्षा की फसल भी वैसी ही होगी । अब तीनों क्षेत्र ही दुर्गति में हैं । जब पांचवी तक के बच्चे पहली, दूसरी की किताब न पढ़ पा रहे हों तो माध्यमिक शिक्षा का उन के लिए क्या अर्थ है ? जनवरी 2013 में प्रकाशित‘प्रथम’ की रिपोर्ट में फिर यह रेखांकित किया गया है कि प्राईमरी शिक्षा बरबादी की तरफ बढ़ रही है । बावजूद इसके कि पिछले दिनों कुछ विदेशी पैसा, विश्व बैंक आदि की मदद से स्कूलों की इमारतें ठीक हुई हैं, बालिकाओं के लिए अलग टायलेट बने हैं, स्कूलों में नामांकन बढ़ा है लेकिन सीखने-सिखाने का स्तर गिर रहाहै । निश्चित रूप से हमें शुरूआत प्राथमिक शिक्षा से करनी होगी । यदि संभव हो सके तो उनकी तनख्वाह भी उतनी हो जितनी कि कॉलिज के शिक्षकों की और भर्ती भी उतने ही अच्छे पैमानों से हो । प्राथमिक शिक्षा को टालू ढंग से कमजोर, अक्षम शिक्षकों के हवाले करना समस्या को बढ़ाना है ।
लेकिन इसका समाधान निजी स्कूलोंको बढ़ावा देना नहीं होगा जैसा कि प्रथम आदि की रिपोर्ट के बाद हर बार सरकारीरवैया सामने आता है । सरकारी स्कूल या सरकारी शिक्षक को प्राईमरी से लेकर उच्चशिक्षा तक सक्षम, जिम्मेदार बनाना होगा ।
प्रश्न: हमारे शिक्षाशास्त्री में बदलाव के तो ढेर सारे उपाय सुझाते हैं किंतु शिक्षकों की चयन प्रक्रिया में हो रही गड़बडि़यों पर चुप्पी साध लेते हैं । बिना योग्य शिक्षक के शिक्षा में किसी भी तरह का बदलाव कैसे संभव है ?
उत्तर: वाकई शिक्षक की चयन प्रक्रिया भी उतना ही महत्वपूर्ण कदम है । क्या नकल से अर्जित डिग्री और सिफारिश, रिश्वत देकर बना शिक्षक शिक्षा को बिगाड़ेगा या बनाएगा ? 2013 की शुरूआत हरियाणा राज्य में शिक्षकों की भर्तीमें गड़बड़ी, घोटाले की खबरों से हुई है । कई राजनेता और अफसर जेल भेज दिये गये हैं । यह एक राज्य की कहानी नहीं है । बार-बार और कुछ राज्यों में तोलगातार हो रहा है । उत्तर प्रदेश,बिहार समेत दिल्ली के कॉलिजों में भी शिक्षकों के हजारों पद खाली पड़े हैं । कहीं चयन प्रक्रिया को लेकर मामला न्यायालय में है तो कहीं चयन बोर्ड के सदस्यों की आपसी खींचतान । संघ लोक सेवा आयोग द्वारा एक भारतीय शिक्षक सेवा की शुरूआत क्यों नहीं हो सकती ? क्यों कोई राजनीतिक पार्टी, शिक्षक संगठन या छात्र संगठन ऐसी मांग नहीं करते ?
क्योंकिस्कूल कॉलिज या उनमें पढ़ाने वाले शिक्षक सबएक निजी धंधे की शक्ल ले चुके हैं । मेरा स्कूल, कॉलिज तो मेरे ही बेटे-बेटी उसमें शिक्षक, प्राध्यापक या कुलपति बने । क्या आप इसे लोकतंत्र कहेंगे ? क्या लोकतंत्र की बुनियाद ही इससे खराब नहीं होगी ? यहां सामाजिक न्याय की दुहाई देने वालों को भी सोचनेकी जरूरत है । यदि सरकारी स्कूल या संस्थाएं खत्म हुई तो सरकारी आरक्षण के तहत मिलनेवाली नौकरियां भी खत्म हो जाएंगी ।इसलिए इन नेताओं को भी तुरंत निजीकरण के खिलाफ सड़कों पर उतरने की जरूरत है लेकिन एक उद्देश्य के साथ कि हम शिक्षक संस्थानों को बेहतरबनाएंगे ।
प्रश्न: आपकी दृष्टि में सीखने–सिखानेकी प्रक्रिया के दौरान एक शिक्षक को किस बात पर सबसे अधिक ध्यान दिया जाना चाहिए?
उत्तर: बहुत उपदेश नहीं देना चाहूंगा पहला- शिक्षकको पढ़ाते वक्त बच्चों के साथ एक दोस्ताना, बराबरी के व्यवहार पर उतरना जरूरी है । शिक्षक को चाहिए कि बच्चों को ज्यादा-से-ज्यादा प्रश्नपूछने के लिए उत्साहित करें । शिक्षक को यह भी देखने की जरूरत है कि हर बच्चे कीप्रतिभा और क्षमताएं अलग-अलगहोती हैं । जो बच्चा गणित या अंग्रेजी में कमजोर है जरूरी नहीं कि वह दूसरेविषयों में अच्छा न कर पाए । संगीत, कला, विज्ञान, सामाजिक विषय सभी बच्चों के लिए बराबर का दर्जा रखते हैं ।
प्रश्न: बच्चे को शिक्षा किस उम्र से देनी चाहिए। हमारे यहां स्थिति यह हो गई है कि बच्चे के दो–ढाई साल का होते ही पढ़ाई का चक्कर शुरू हो जाता है।
उत्तर: मैं जहां रहता हूं, वहां एक किरायेदार पुर्तगाल के थे। मैं एक दिन पूछ बैठा कि आपके यहां किस भाषा में पढ़ाई होती है। उन्हें आश्चर्य हुआ कि मैं क्या प्रश्न कर रहा हूं। बोले कि पुर्तगाली में जैसे हम दक्षिण भारत के सभी लोगों को मद्रासी मान लेते हैं, उसी तरह सारे यूरोप की भाषा को अंग्रेजी मान लेते हैं। कोई और ऐसा देश नहीं है जो प्राइमरी शिक्षा अपनी भाषा में न देता हो। जिस अमेरिका के पीछे-पीछे आप दौड़ रहे हैं, जब वहां अपनी भाषा में पढ़ाई होती है तो आप इस बुनियादी बात को क्यों नहीं लागूकरते।
बात कुछ व्यक्तिगत हो जाती है, फिर कहना चाहता हूं । पिछले दिनों मेरी किताब प्रकशित हुई ‘भाषा का भविष्य’। कुछ दोस्तों के साथ बैठे हुए थे। मेरा एक दोस्त विदेश मंत्रालय में है। उसकी पोस्टिंग करीब 14 देशों में रही। उनकी पत्नी अच्छी-पढ़ी लिखी है। उन्होंने कहा कि मुझे अच्छा लग रहा है कि आपने पहली बार बुनियादी बात कही है। वह बोलीं कि मैं जिस देश में जाती हूं, वहां उसी देश की भाषा में बच्चों की पढ़ाई होती है। लेकिन दिल्ली में जब भी पोस्टिंग हुई, मैं बच्चों के स्कूल में गई वहां अंग्रेजी थी। इन सारी बातों की तरफ आंखें बंद कर पूरे देश का मध्य वर्ग, सत्ता वर्ग अंग्रेजी पढ़ और पढ़ा रहा है और उसकी होड़ा-होड़ी हिंदी बुद्धिजीवी अंग्रेजी की वकालत कर रहा है। हिंदी बुद्धिजीवी तो और भी अपराधी है, वह खाता और बात तो हिंदी की करता है, लेकिन उनके बच्चों के मॉडल भी अंग्रेजी की तरफ होते हैं। यह बेहद खतरनाक स्थितिहै। दुनिया में सैकड़ों सालों से यह प्रतिस्थापना है कि अपनी भाषा के बिना ज्ञान नहीं आ सकता।
रही बात उम्र की तो मैं इस बात को कह चुका हूं । पांच-छ: वर्ष से पहले नहीं भेजना चाहिये । और स्कूल भी पास में हो । खेल-खेल में उनकी बोली में सिखाने वाला । बिना किसी होमवर्क, और परीक्षा के ।
प्रश्न: क्या आप कोई ऐसा उदाहरण दे सकते हैं कि बच्चा पहले अंग्रेंजी माध्यम के कारण ठीक से पढ़–समझनहीं पा रहा हो और जब उसे अपनी भाषा में पढ़ने का अवसर मिला तो यह उसके संपूर्ण विकास में सहायक हुआ हो ।
उत्तर: एक-दोनहीं हजारों उदाहरण ऐसे हैं । अभी कुछ दिनों पहले मेरी एक परिचित स्कूटर चालकश्री अशोक से बात हो रही थी । उसके दो बच्चे हैं बेटा सातवीं में बेटी छठी में ।इस परिचय की भी एक दास्तान है । बेटे को दिल्ली के हर अमीर की तरह अशोक ने भी निजी स्कूल में दाखिल करा रखा था । उसकी फीस ज्यादा थी और यह खर्च उठाने में इसकी हैसियत दूसरे बच्चे को भी उस स्कूल में पढ़ाने की नहीं थी इसलिए यह पड़ौस के सरकारी स्कूल में दाखिले के लिए गया । दिल्ली के त्रिलोकपुरी इलाके में प्रिंसिपल ने मना कर दिया कि हमारे पास पहले ही ज्यादा बच्चे हैं । पास के दूसरे सरकारी स्कूल ने भी मना कर दिया इसी आधार पर । बावजूद इसके कि अशोक गरीब भी है और दलित भी । हार कर मुझे हस्तक्षेप करना पड़ा और सरकारी स्कूल में दाखिला हो गया ।
यानि कि बेटी सरकारी स्कूल में पढ़ती है और बेटा निजी स्कूल में जहां माध्यम अंग्रेजी है । मैंने पूछा कि पढ़ने में कौन बच्चा बेहतर है । उसने संकोच से बताया कि बेटी ज्यादा अच्छा पढ़ती है । क्यों ? क्यों का जवाब तो वह नहीं दे पा रहा था लेकिन आप सब समझ सकते हैं कि बुनियादी बुद्धिमता के विमर्श में जाए बिना भी जाहिर है कि बेटियों को हमारे समाजों में अभी भी दोयम दर्जे का माना जाता है । मुझे बच्चों के साथ बातचीत से खुद यह अहसास हुआ कि बेटी अपनी भाषा में किताबें रुचि से पढ़ती है जबकि बेटा अंग्रेजी की किताबों को जबरन और इसीलिए पढ़ने में उतना मेधावी नहीं है । अंग्रेजी बेहतर भले ही बोल लेता हो । यहां स्पष्ट कारण था कि सरकारी स्कूल में उसकी भाषा माध्यम माहौल वैसा ही था जैसा कि शिक्षा के लिए एक बच्चे को चाहिए । और इसीलिये बेटी पढ़ने में बेहतर थी, उत्साही थी । दुनिया भर के अनुभव बार-बार यही बात कहते हैं ।
एक औरबच्चे को मैं जानता हूँ जो नवीं तक दिल्ली के एक और विख्यात निजी स्कूल में थालेकिन सबसे पीछे रहता था जब उसे वहां से निकालकर पड़ौस के सरकारी स्कूल में माता-पिता की अनिच्छाके बावजूद भी दाखिल करा दिया गया तो वही बच्चा अपनी क्लास में दसवीं की परीक्षा में प्रथम आया । यानि विदेशी भाषा का दबाव या रटंत किस ढंग से बच्चे की पढ़ाई पर असर डालते हैं ये उदाहरण मैंने इसलिए गिनाएं ।
स्कूल छोड़कर पढ़ाई बीच में ही बंद करने वाले बच्चे या बड़ों से बात कीजिए आप खोज कर पाएंगे कि इसकी मुख्य वजह अंग्रेजी रही और ऊपर से शिक्षक द्वारा डांट फटकार और पिटाई । अभी तीन वर्ष पहले की घटना याद कीजिए शिक्षिका की डांट से तीसरी क्लास की एक बच्ची बेहोश हो गई और बाद में दुखद मृत्यु भी । उसका अपराध सिर्फ इतना था कि शिक्षिका/शिक्षक उसे अंग्रेजी की कुछ लाइनें सुनाने को कह रही थीं ।न सुनाने पर उसे डांटा पीटा और फिर धूप में खड़ा कर दिया। इस बच्चे के मॉं-बाप मजदूर थेजो कुछ वर्ष पहले दिल्ली आए थे । ऐसे माहौल में अंग्रेजी कितनी बड़ी त्रासदी बन जाती है इन उदाहरणों से समझा जा सकता है ।
प्रश्न: बच्चों में मूल्यों के विकास में आप परिवार की भूमिका अधिक देखते हैं या स्कूल की और क्यों ?
उत्तर: शिक्षा में मूल्यों की बात जरूरत से ज्यादा ही लोग करते हैं । जिसे देखो वही मूल्य, मूल्य नैतिक मूल्य की दुहाई दे रहा है । मेरे हिसाब से मूल्यों की जगह नागरिक होना चाहिए । ऐसा नागरिक जो तार्किक हो, संवेदनशील हो, परिवार-समाज और राष्ट्र को टुकड़ों में न बांट कर एक समग्रता में देखने की क्षमता रखता हो । आजादी की लड़ाई के समय हथियार उठाना, देशभक्ति एक बड़ा मूल्य हो सकता है, लेकिन आज नहीं । कुछ लोग नयी पाठ्य पुस्तकों को देखकर इस बात का रोना रोते हैं कि इसमें देशभक्ति की कहानी, कविताएं नहीं हैं । क्या बेईमानी, भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई कम बड़ा मूल्य है ? क्या समानता और बराबरी के हक के लिए आगे आना और प्रयास करना, सीमाओं पर लड़ने वाले जवान से कम महत्वपूर्ण है ? यदि हम अपना काम निष्ठा से करते हैं, ईमानदारी से करते हैं तो यह मूल्य उन सारे मूल्यों से बड़ा है जो मंदिर, मस्जिद, गिरजाघरों में जाने और माथा टेकने की दुहाई देते हैं । इसीलिए ऐसे मूल्यों के विकास में अभिभावक, परिवार और स्कूल की बराबर की भूमिका है । घर में आप बेईमान हों तो क्या उसे स्कूल ठीक कर सकता है ?
प्रश्न: भविष्य की शिक्षा को लेकर आपके क्या–क्या स्वप्न हैं ?
उत्तर: मेरा भी भविष्य का वैसा ही स्वप्न है जो आपने क्यूबा में बताया । यदि देश के हर नागरिक की संभावनाओं का पूरा फायदा उठाना है तो उसे ऐसी शिक्षा दी जानी चाहिए जो उसे और रचनात्मक, सक्षम, स्वाबलंबी बनाए । यूरोप, इंग्लैंड की शिक्षा के बूते ही आज वहां बेहतर समृद्धि, खुशहाली है और सबसे महत्वपूर्ण बात कि बराबरी है । अमेरिका,फिनलैंड, आस्ट्रेलिया से लेकर पिछले दिनों लैटिन अमेरिका के राष्ट्र वेनेजुएला में हुए परिवर्तन भी स्वागत योग्य कहे जा सकते हैं । यदि एक वाक्य में कहा जाए तो मैं कहूंगा सही शिक्षा वही है जो हमें बराबरी का मान सम्मान और अवसर दिलाए ।
प्रश्न: सही शिक्षा के अभाव में धार्मिकता और धर्मांधता भी बढ़ रही है जो 20वीं सदी के भारत के लिए एक प्रतिगामी कदम कहा जाएगा । इसे कैसे रोकें ।
उत्तर: बहुत दुभाग्यपूर्ण है यह पूरे देश के लिए कहां तो आजादी के बाद वैज्ञानिक चेतना का प्रचार-प्रसार होना चाहिए था और कहां उल्टे धर्मांधता बढ़ रही है । जयंत नर्लीकर एक जाने-माने वैज्ञानिक और विज्ञान लेखक हैं वे लिखते हैं चालीस-पचास साल पहले वाली पीढ़ी अपने बच्चों की शादी उतनी ग्रह, नक्षत्र और जन्म कुंडली मिलाकर नहीं करती थी जितनी कि 20वीं सदी की पीढि़यां । उन्होंने तो अपने अंधविश्वासों में कंप्यूटर से बनाई हुए कुंडलियों को भी शामिल कर लिया है । कंप्यूटर का आविष्कार करने वालों ने कभी सोचा भी नहीं होगा कि इसका ऐसा दुरुपयोग भी हो सकता है ।
लेकिन इसमें गलती उस सामान्य जनता की नहीं है जितनी कि हमारी पूरी शिक्षा व्यवस्था की । मेरी ननिहाल अलीगढ़ के पास खैर कस्बे के एक गॉंव में है । पिछले दिनों एक शादी समारोह में मैंने पूछा कि अमुक मामा क्यों नहीं आए तो जो उत्तर मिला वह बहुत चिंताजनक है । उन्होंने बताया कि आजकल वे गॉंव-गॉंव सत्संग कराने में व्यस्त रहते हैं । ये मामा अध्यापक रहे हैं । उन्होंने यह भी जोड़ा कि आसपास के दस-बीस गॉंव में बारी-बारी से सत्संग या जागरण होता है । कभी-कभी दो-तीन दिन से भी ज्यादा । कभी-कभी दूसरे जिलों तक भी जाते हैं । यानि एक अध्यापक जो गॉंव की शिक्षा में योगदान दे सकता है वह धर्मांधता को बढ़ाने में लगा है । ऐसे पैसे वाले सरकारी कर्मचारी या धन्ना सेठों की भी कमी नहीं है जो धर्म के नाम पर ऐसे सत्संगों के लिए पैसा देते हैं और ज्यादातर मामलों में पैसा बेईमानी से कमाया हुआ होता है ।
यहां धर्म का इस्तेमाल एक बदलाव के लिए भी किया जा सकता है । जनता को अच्छी बातें, अच्छे कामों के लिए प्रेरित करने के लिए । जैसे पिछले दिनों एक दोस्त मुझे लगभग जबरन एक श्री कृष्ण के नाम से चलने वाले एक भव्य मंदिर में ले गये । जो संत नाम का प्राणी प्रवचन दे रहा था उसमें शायद ही कोई सार तत्व की बात हो ।चलो यह उनका काम है लेकिन काश इस कथा की समाप्ति पर वे जनता को यही संदेश दें कि लड़के लड़कियों में भेद मत करो, ईश्वर ने दोनों को ही इस पृथ्वी पर रहने का अवसर दिया है । या दहेज न लें, न दें । या यह प्रतीज्ञा लें कि वे नदियों में कोई फूल या ऐसी सामग्री नहीं डालेंगे जिससे कि नदियां प्रदूषित हों । काश ! सभी से ऐसी प्रतीज्ञा ले ली जाए कि जो इसका उल्लंघन करेगा फिर सत्संग में न आए । लेकिन मेरी उम्मीद के हिसाब से किसी सत्संग की समाप्ति पर शायद ही ये बातें कभी सुनने को मिलें । नतीजा ज्यादातर जनता कभी सत्संग में भाग रही है तो कभी कांवडि़ये सड़कों पर उत्पाद मचा रहे हैं । अपना भी नुकसान देश और समाज का भी ।
प्रश्न: वैज्ञानिक सोच कैसे विकसित हो ? बच्चे कैसे तर्कशील बनें ?
उत्तर: बहुत आसान है । वैज्ञानिक सोच के लिए यह कतई जरूरी नहीं कि वे विज्ञान की किताबें फिजिक्स, कैमिस्ट्री, बायो कैमिस्ट्री, इंजीनियरी पढ़ें । विषय के रूप में इन्हें पढ़ने की मनाही नहीं है । हम चाहते हैं कि वे तर्कशील बनें, चीजों को समझें, संदेह करें आसपास की घटनाओं पर और फिर स्वयं निष्कर्ष निकाले । शिक्षा, पाठ्यक्रम, शिक्षक, अभिभावक यहां एक केटलिस्ट या उत्प्रेरक की तरह काम कर सकते हैं ।
मैं एक उदाहरण दूंगा । आज से तीन वर्ष पहले जिनेवा में एक प्रयोग चल रहा था । मीडिया में, टेलीविजन में चारों तरफ चर्चा थी । प्रयोग था ब्रह्मांड के रहस्य को जानने का कि लाखों करोड़ों वर्ष पहले पृथ्वी पर जीवन कैसे शुरू हुआ ? बिग बैंग, गॉड पार्टिकल, जैसे शब्द बार-बार चर्चा में आए । सारी दुनिया के वैज्ञानिक लगे हुए थे इस रहस्य को एक प्रयोग, तर्क से जानने के लिये । अखबारों में, प्रयोगशालाओं के चित्र और सारी बातें विस्तार से आ रही थीं ।
देखा जाए तो ये हमारे लाखों छात्रों के लिए, स्कूल से लेकर स्नातकोत्तर तक एक मौका था दुनिया को समझने का, विज्ञान को समझने का, डार्विन के विकासवाद को समझने का । कुछ जागरूक मां-बाप, अभिभावकों ने, शिक्षकों ने समझा भी होगा । लेकिन कुछ दुखद, भयानक सूचनाएं भी मिलीं । जिस दिन यह प्रयोग होना था उस दिन ढेर सारे अखबारों ने यह डर पैदा किया कि दुनिया खत्म हो जाएगी । बहुत जोर की आवाज होगी, अंधेरा हो जाएगा । अनेकों तरह के डर फैलाए गए । मंदिरों, मस्जिदों, धार्मिक स्थानों पर कीर्तन शुरू हो गये, घंटे बजने लगे । कितनी पीड़ा होती है 21वीं सदी में भारत की ऐसी तस्वीर देखकर । कभी गणेश की मूर्ति दूध पीने लग जाती है तो कभी मुम्बई के किनारे मीठा पानी निकलने को ‘खुदा का करिश्मा’ मान लिया जाता है । किसी पेड़ की शक्ल हनुमान से मिलने लग जाती है तो अगले दिन वहां भक्तों की भीड़ उमड़ पड़ती है । हमें बच्चों को एक तर्क से समझाने की जरूरत है कि ऐसा क्यों हुआ ? यहां आधुनिक विज्ञान के नियम, व्याख्या हमारी मदद कर सकते हैं । विज्ञान, चिकित्सा के नये-नये कारनामे, हमारी पीढि़यों का जीवन बेहतर कर सकते हैं । उन्हें बीमारियों, कुपोषण से मुक्ति दे सकते हैं ।
हमें कुछ बुनियादी बातों से मुक्ति चाहिए । हर लिखी हुई या कहीं हुई बात हम सदा के लिए सच क्यों माने ? धर्म और विज्ञान में यही अंतर होता है । धर्म, धर्म की किताबें उसकी आयतें, श्लोक इस बात पर जोर देते हैं कि सिर्फ वही सत्य है उसके खिलाफ जाना वे धर्म के खिलाफ मानते हैं ।
जबकि विज्ञान इस बात पर जोर देता है कि अंतिम सच जैसी कोई बात नहीं होती । नये तथ्यों की रोशनी में नयी जानकारी के अनुसार सत्य परिवर्तनशील है । इसलिए धर्म जहां कट्टर बनाता है विज्ञान लचीला, प्रगतिशील ।
वैज्ञानिक सोच रखने वाला व्यक्ति ज्यादा मानवीय और संवेदनशील होता है । अच्छा नागरिक भी । और ऐसे नागरिक ही अच्छा देश बनाते हैं ।
प्रश्न: आप धर्म या नैतिकता की शिक्षा के खिलाफ क्यों हैं ? नैतिकता तो शिक्षा का एक महत्वपूर्ण मूल्य है ।
उत्तर: दरअसल धर्म के माने हर व्यक्ति के लिए अलग-अलग होते हैं । मेरे लिए बच्चों को अपने परिवेश की जानकारी भाषा, भूगोल, परंपरा, संसाधनों की समझ ज्यादा जरूरी हैं । बजाय कि धर्म और शास्त्र की बहसों के । मैं अपने बचपन को याद करूं या आप भी करें । हम बचपन में सत्यनारायण की कथा या सत्संग, भजन, कीर्तन में जबरन भेजे जाते थे । आज भी यही हो रहा है । न हमारी रूचि होती थी उन दिनों, न आप गौर करेंगे आज के बच्चों में । वे पालती मार के अनुशासन में बैठे जरूर होते हैं प्रसाद मिलने तक । यहां शिक्षाविद गीजू भाई बहुत स्पष्ट कहते हैं कि आखिर इस अबोध उम्र में भगवान या देवी-देवता इन बच्चों के बीच कहां से आ गया ? यह सिर्फ हिंदू धर्म तक ही नहीं सभी धर्मों में समान बुराई के रूप में मौजूद है । हमारा देश तो वैसे भी धर्मनिरपेक्ष है । इसलिए धर्म के आसपास की शिक्षा जितनी कम हो उतना ही सबके हित में है । और इसे सभी धर्मों पर कड़ाई से लागू करने की जरूरत है ।
लेकिन कुछ लोग इसी धर्म शिक्षा को नैतिकता से जोड़ते हैं । कई बार उनकी नैतिकता में देशभक्ति, पूजा, नमाज जैसे कार्यकलाप बातें और जुड़ जाती हैं । मेरा मानना है कि देशभक्ति का मतलब सिर्फ पड़ौसी देशों से लड़ाई और उसके गीत गाना नहीं है । क्या किसी खाने वाले तेल में कोई दूषित चीज मिलाने से रोकना कम बड़ी देशभक्ति है ? क्या अपने काम को निष्ठा से करना, समय पर पहुंचना, स्कूल के अध्यापक द्वारा मन से बच्चों को पढ़ाना कम बड़ा नैतिक मूल्य है ? आप धर्म, नैतिकता की बड़ी-बड़ी बातें करते हैं लेकिन किसी मनुष्य को उसके धर्म या जाति के आधार पर छुआछात बरतना या उसे कमतर मानना कम बड़ा देशद्रोह है ? इतने अच्छे हिंदू धर्म में जिसमें पर्याप्त लचीलापन है, पूजा पद्धति से लेकर अलग-अलग ग्रंथों तक को मानने की आजादी है उसी में दुनिया की सबसे बड़ी बुराई जाति प्रथा है । क्या जाति प्रथा का विरोध करना कम बड़ा नैतिक मूल्य है ?
मुझे प्रेमचंद का एक वाक्य याद आ रहा है । वे कहते हैं कि मैं साम्प्रदायिकता और जातिवाद का विरोध, उससे घृणा करता रहूंगा भले ही आप घृणा करना अपराध मानते हों ।
प्रश्न: इस समय देश महिलाओं, बच्चियों पर बढ़ते बलात्कार, हिंसा के रूप में ऐसी समाजिक विकृतियों सतह पर आयी हैं कि दुनिया के सामने हमारा सर शर्म से झुक रहा है । शिक्षा की क्या भूमिका हो सकती है ऐसे दौर में ।
उत्तर: इसका इलाज भी अच्छी शिक्षा से ही संभव है । मौजूदा हालातों में जो स्त्रियों और लड़कियों के साथ हो रहा है उससे मुक्ति तभी संभव है जब समाज देवी और दासी के रूप में नहीं उन्हें बराबरी का दर्जा दे । देश के जिन हिस्सों में बंगाल, गुजरात, केरल में ऐसा है वहां स्त्रियों के प्रति हिंसा इतनी ऊचाइंयों पर नहीं पहुंची । हमें उन्हीं पगडंडियों से विकल्प तलाशना होगा । पहला विकल्प – समाज या परिवार खुद इस जिम्मेदारी को लें । जैसे जिस दिन ये खबरें आती हैं तो अभिभावक बच्चे-बच्चियों के साथ बात करें यह भी शिक्षा की ही बात है । ये प्रसंग छिपाने के नहीं बल्कि सामने रखकर समझने और समझाने के हैं । बराबरी के जीवन की ये अनिवार्य बातें हैं । तो फिर इन्हें बच्चों को कौन सिखाएगा ? क्या बच्चों को यह सिखाने की जरूरत नहीं कि शिक्षिका के साथ क्या बरताव किया जाना चाहिए । इन्हें गुरूभक्ति की खुराक ज्यादा मत दीजिए लेकिन इतना तो कहा ही जा सकता है कि स्त्री-पुरुष की दोस्ती क्या होती है ? और क्या होता है सही आचरण । मर्यादाओं की नैतिकता आदि । किसी लड़की के चेहरे पर तेजाब फैंकने की घटना के मद्देनजर यदि बच्चों को यह बताया जाए कि किसी के प्रति जबरदस्ती क्या किसी चोरी से कम बड़ा अपराध है ? और यदि कल कोई लड़की आपके चेहरे पर भी तेजाब फैंकें तब ? और यह भी कि क्या दंड मिलेगा । न तुम्हें हम बचाएंगे, न तुम्हारे शिक्षक या दोस्त । अभिभावकों, मॉं-बाप को सैक्स शिक्षा की ग्रंथियों से ऊपर उठकर स्वयं बच्चों को इन बुराईयों से रुबरू कराना होगा और यही पाठ स्कूलों में दोहराने की जरूरत है । पाठ्यक्रम में शामिल उन सारे पाठों, अध्यायों को एक तरफ रखते हुए क्योंकि जीवन के पाठ से महत्वपूर्ण कुछ भी नहीं है । ऐसी खबरों की घटनाओं पर क्लास में विमर्श करना ही होगा । स्कूल के प्रिंसिपल और शिक्षक यह सभी की सामूहिक जिम्मेदारी है कि उनके स्कूल का कोई छात्र ऐसा अपराधन करे । यह फुटबाल बंद होनी चाहिए जिसमें घर, स्कूल पर अपनी जिम्मेदारी फैंक देता है और स्कूल, घर की तरफ । स्कूल के पाठ्यक्रम को भी बदलने की जरूरत है । उसे संस्कृति के नाम पर धर्म, पूजा, नमाज से मुक्त करके तर्कशील बनाना होगा, संवेदनशील बनाना होगा । चुन-चुनकर उन प्रसंगों, विवरणों को बाहर निकालना होगा जो किसी भी इशारे से लड़की या स्त्री के प्रति नीचा भाव या दुर्भावना दर्शाते हों । गॉंव-गॉंव में ऐसी समिति गठित की जायें जो भ्रूण हत्या या दहेज प्रथा पर निगरानी रख सके । जयपुर या दामिनी जैसे कांड में गुहार को सुनकर हमें तुरंत आगे बढ़ कर आने की शिक्षा देनी होगी । हमें बच्चों को बताना है कि क्लास में अव्वल आने या ज्यादा नंबर आने से महत्वपूर्ण है ऐसे मौके पर किसी की मदद करना । एन.सी.ई.आर.टी. की नयी पाठ्य पुस्तकें इस उद्देश्य में एक सार्थक मदद कर सकती हैं ।
सबसे घातक है मीडिया, टी.वी., रेडियो । मीडिया को मनोरंजन के नाम पर परोसे गये कार्यक्रमों की समीक्षा करनी होगी । बाजार, विज्ञापन, सस्ती लोकप्रियता, टी.आर.पी. से कहीं महत्वपूर्ण है समाज या उसकी सुव्यवस्था । दिन-रात चलने वाले अश्लील गानों और आइटम डॉंस को देख-सुनकर वही होगा जो देश में हो रहा है । सरकार ने कानून तो बना दिये लेकिन मीडिया को इसको नियंत्रण में रखने का कोई प्रावधान इसमें नहीं रखा ।
प्रश्न: शिक्षा की इस तस्वीर को बदला कैसे जाये ?
उत्तर: कोई अलग से इसकी दवा नहीं बन सकती । जो बातें हमारे आपके बीच हो रही हैं उन्हीं में उपचार के सूत्र मौजूद हैं । फिर भी कुछ बातें दोहराना चाहूँगा ।
पहली- पाठ्यक्रम रोचक, बहुविध ऐसे हों जिसमें बच्चे जुड़ाव महसूस करें । अपनी भाषा में हों । कम-से-कम पांचवीं तक कोई विदेशी भाषा न लादी जाये । स्कूल के स्तर पर जिन्हें जापानी, अंग्रेजी, जर्मन पढ़नी हो वे अपने घर पढ़ायें । एन.सी.ई.आर.टी. का जो नया पाठ्यक्रम बना है उसे सरकारी प्राइवेट सभी स्कूलों में लागू किया जाये । समानता, जेंडर, बहुभाषिकता हर दृष्टि से यह संतुलित है। मनमर्जी, धार्मिकता से लदी किताबों, पाठ्यक्रम पर अंकुश न लगा, तो समाज बिखर जायेगा ।
दूसरी बात- शिक्षकों को नये सिरे से प्रशिक्षित करने की जरूरत है । तथाकथित बी.एड की डिग्री लिये हुए शिक्षक, एक-दो मशहूर शिक्षाविद का नाम भी नहीं बता पाते । न उन्होंने गांधी पढ़ा, न जॉन हॉल्ट, न वे बाल मनोविज्ञान की ही समझ रखते । ऊपर से अपनी कुंठाओं, वर्चस्व का बोझ बच्चों पर और डालते हैं । यह आसान काम नहीं है । लाखों शिक्षक हैं और एक उम्र के बाद उन्हें बदलना भी आसान नहीं है । एक दूरगामी योजना यह हो सकती है कि बी.एड. के देश भर के पाठ्यक्रम को जांचा परखा जाये और उसी में देशी-विदेशी शिक्षा की बुनियादी बातों को शामिल किया जाये । एक चार वर्षीय डिग्री पाठ्यक्रम शुरू किया है पिछले कुछ बरसों से दिल्ली विश्वविद्यालय ने बी.एड. की मौजूदा खामियों को दूर रखते हुए । देश के अन्य विश्वविद्यालय भी ऐसी शुरूआत में शामिल हो सकते हैं । आखिर बच्चे वही तो बनेंगे जो उन्हें पढ़ाया जायेगा और पढ़ायेंगे वही जो सक्षम है । शिक्षा की समझ रखते हैं ।
अच्छे पुस्तकालय, प्रयोगशालाएं भी उतनी ही अनिवार्य है और यह सब केवल परीक्षा के लिये न किया जाये ‘पढ़ने के आनंद’ के लिए हो ।
प्रश्न: एक सामान्य नागरिक इसे बदलने के लिये क्या योगदान कर सकता है ?
उत्तर: सबसे ज्यादा वही कर सकता है और उसे ही करना चाहिये क्योंकि सबसे ज्यादा नुकसान उसी का हो रहा है । विशेषकर पढ़े-लिखे लोग, लेखक, पत्रकार, बुद्धिजीवी आगे आएं । शासन, शिक्षक शास्त्र, धर्म के भरोसे रहकर देख लिया । उनकी आपसी दांव-पेच, पोस्टिंग के झगड़े या सरकारी शिक्षकों पर पढ़ाने के अलावा तमाम दूसरे काम लाद देना । नुकसान बच्चों का, उनकी शिक्षा का होता है ।
कनाड़ा के एक उदाहरण से सीखा जा सकता है । 10-15 वर्ष पहले कनाड़ा सरकार ने निजी स्कूलों को बढ़ावा देना चाहा । सरकारी कॉमन स्कूलों को बंद करके । लोग सड़कों पर आ गये । विशिष्टता के नाम पर शिक्षा के इस निजीकरण के खिलाफ । सरकार को फैसला बदलना पड़ा । कनाड़ा के एक नागरिक से बात हुई तो उसने बताया कि ज्यादातर बच्चे 2-3 कि.मी. के घेरे/दायरे में स्कूल में पढ़ते हैं । नजदीक स्कूल की वजह से ज्यादातर पैदल जाते हैं या अपनी साईकिल से । देखिये व्यायाम भी हो गया बच्चों का, स्कूल बस का न तनाव, न खर्चा, न लेने-छोड़ने की जेहमत । आपने सुबह-सुबह दिल्ली में बच्चों को स्कूल भेजने के लिये सड़कों पर खड़े अभिभावकों के झुंड के झुंड देखे होंगे । वही हाल दोपहर को स्कूल से लौटते वक्त । हर माथे पर चंता की लकीर । गवर्नर का बच्चा भी उसी स्कूल में, किराने, क्लर्क, मजदूर, मिस्त्री का भी । समानता का दर्शन ऐसी प्रयोगशाला, शिक्षाशाला ही तो देंगे । ‘समान स्कूल’ के एक कदम से कितनी समस्याएं हल हो गयी ।
वक्त आ गया है जब हर नागरिक अपने गांव या पड़ौस के स्कूल में रूचि ले । स्कूली बुनियादी सुविधाओं के लिये भी और शिक्षकों के साथ भागीदारी के लिये भी । वे देखें कि किताबें, लाईब्रेरी, खेल का मैदान है या नहीं । उनके साथ परीक्षा के नाम पर मार-पीट तो नहीं होती । जातिगत, धर्म के आधार पर भेदभाव तो नहीं होता । यह स्कूल, कॉलिज सभी स्तरों पर करने की जरूरत है । तस्वीर बदलेगी ।
प्रश्न: शिक्षा व्यवस्था में बदलाव के लिए पहला कदम क्या हो सकता है ?
उत्तर: मेरीसमझ से सबसे पहला कदम होना चाहिए समान शिक्षा का अधिकार और अवसर ।नजदीक पड़ौसीस्कूल की व्यवस्था जिसमेंकामवाली के भीबच्चे हों, मेरे दफ्तर के कर्मचारी रामसिंह और आशा के भी और मेरे जैसे तथाकथित मध्यवर्गीय के भी । स्कूल में बराबरी इस देश के हर बच्चे का हक है । यदि व्यवस्था ऐसा नहीं कर पा रही तो यह संविधान का उल्लंघन है, अपमान है ।
दूसरा कदम : प्राईमरी स्तर तक यानि कि बच्चा जब तक नौ-दस वर्ष का नहीं हो जाए उसे मातृभाषा में हीशिक्षा दी जाए । हिंदी, तमिल, बांगला में जो भी उसकी भाषा हो । अंग्रेजी जरूरी है लेकिन एक उम्र और समझ के बाद ही । यह मैं नहीं कह रहा दुनिया भर के शिक्षाविद, मनोवैज्ञानिक, समाज शास्त्री और वैज्ञानिक कहते हैं । 1964-66 में गठित कोठारी आयोग की मुख्य सिफारिशें भीयही थीं । संसद में भी इन सिफारिशों पर बात हुई । लोहिया जैसों के दबाव सेकुछ कदम भीउठाए गए, अब ठीक उन सिफारिशों के उल्टी दिशा में काम हो रहा है । अफसोस यही है कि जब मंडल आयोग के लिए लोग सड़कों पर उतर सकते हैं, तो कोठारी आयोग के लिए क्यों नहीं ?
प्रश्न: आपके प्रिय शिक्षाविद् कौन हैं ? उनके बारे में संक्षेप में बताएंगे ।
उत्तर: सबसे महत्वपूर्ण नाम मेरे लिए डॉ.दौलत सिंह कोठारी का है । कई कारणों से । पहला यह कि 1977 में कॉलेज में पढ़ाई अधूरी-सधूरी छोड़ते ही मैंने डॉ.कोठारी का नाम सविल सेवा परीक्षा के लिए उनकी अनुशंसाओं के संदर्भ में सुना था । परीक्षाओं की तैयारी चल ही रही थी तो डॉ.कोठारी ने आई.ए.एस. परीक्षा अपनी भाषा में देने की छूट दे दी और 1979 में मैं पहली बार में पास हो गया । यह श्रेय मेरी अकलमंदी को नहीं जाता बल्कि डॉ.कोठारी को जाता है जिन्होंने भारतीय भाषाओं में पढ़ने वाली, पहली पीढ़ी के और गॉंवों के छात्रों को यह अवसर दिया । फिर कुछ सालों बाद पढ़ने-लिखने के क्रम में उनकी शिक्षा आयोग (1964-1966) की रिपोर्ट पढ़ी । कितनी क्रांतिकारी सिफारिशें हैं ! सबसे महत्वपूर्ण बात है- समान शिक्षा की वकालत करना । देश के कोने-कोने में ऐसे स्कूल हों, जहां गरीब-अमीर एक साथ पढ़े । और दूसरी सिफारिश कि कॉलेज और विश्वविद्यालयों के स्तर पर भी अपनी भाषाओं में शिक्षा दी जाए । यानि पढ़ने-लिखने, उत्तर देने का माध्यम अपनी भाषाएं हों । डॉ.कोठारी एक वैज्ञानिक थे, प्रसिद्ध भौतिक शास्त्री मेघनाथ साहा के शिष्य, इलाहाबाद विश्वविद्यालय में रहे और उसके बाद कैम्ब्रिज में नोबल पुरस्कार विजेता वैज्ञानिक सर रदरफोर्ड के साथ शोध किया । लौट के दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर बने । नेहरु जी के साथ विज्ञान नीति बनाने में सहयोग किया सलाहकार रहे । दस साल तक यू.जी.सी. के चेयरमैन भी रहे । उदयपुर में पैदा हुए कोठारी आजाद भारत के सबसे प्रामाणिक शिक्षाविद कहे जा सकते हैं । साधारण पृष्ठभूमि, वैज्ञानिक चेतना, प्राध्यापक, विश्वविद्यालय आयोग और शिक्षा आयोग का अनुभव, सादगी, नम्रता से लेकर उनके योगदान की सैंकड़ों छवियां किसी भी नौजवान को प्रभावित कर सकती हैं । उनकी दोनों सिफारिशों से शिक्षा की ज्यादातर समस्याएं सुलझायीं जा सकती हैं ।
मेरे लिये इतने ही महत्वपूर्ण हैं कृष्ण कुमार । वे दिल्ली विश्वविद्यालय में शिक्षा विभाग के प्रोफेसर हैं । एन.सी.ई.आर.टी. का जो नया सिलेबस बना उसमें उसके डायरेक्टर रहे । 2004 से 2010 तक उन्होंने और प्रोफेसर यशपाल ने मिलकर जो दस्तावेज बनाया——‘राष्ट्रीय पाठ्यचर्या कार्यक्रम- 2005’ बहुत महत्वपूर्ण दस्तावेज हैं । इसके अलावा उनकी दर्जनों किताबें हैं ‘अध्यापक की भाषा’, ‘विचार का डर’, ‘गुलामी की भाषा’, ‘गुलामी की शिक्षा और राष्ट्रवाद’, ‘राज, समाज और शिक्षा’, ‘आज नहीं पढूंगा’, ‘शैक्षिक ज्ञान और वर्चस्व’ आदि-आदि । मेरी शिक्षा में थोड़ी-बहुत रुचि उन्हीं के लेखों और किताबों की देन कही जा सकती है । बच्चे, उनके सीखने की प्रक्रिया, अपनी भाषा का योगदान, समाज और साहित्य से छात्रों, बच्चों को जोड़ने की कोशिश । शिक्षा में समानता, लड़के-लड़की में भेदभाव न करना, जाति, धर्म का विरोध जैसी बातों को उन्होंने बार-बार अपनी किताबों, स्तंभ, लेख और भाषणों में बताया है ।
फिर आते हैं महात्मा गांधी । उनकी नयी तालीम की परिकल्पना, अपनी भाषा के प्रति लगाव । आप याद कीजिए ‘हिंद स्वराज’ उन्होंने गुजराती में लिखी थी और अपनी आत्मकथा ‘सत्य के प्रयोग’ भी आजादी की पूरी लड़ाई के दौर में भी जितना भी संभव हो पाया उन्होंने हिंदी, गुजराती समेत सभी भारतीय भाषाओं को बराबर सम्मान दिया । वे हिन्दुस्तानी के सबसे बड़े समर्थक थे । काम की शिक्षा (Dignity of labour), सभी काम बराबर होते हैं, जैसा मूल मंत्र गांधी जैसे शिक्षा शास्त्री से ही सीखा जा सकता है ।
एक और महत्वपूर्ण शिक्षाविद् जॉन हॉल्ट हैं । एकलव्य भोपाल ने उनकी दो-तीन पुस्तकें प्रकाशित की हैं । सबसे पहले मुझे पढ़ने का मौका मिला आज से 15 वर्ष पहले ‘बच्चे असफल कैसे होते हैं’ । फिर उनकी किताब पढ़ी ‘बचपन से पलायन’, ‘असफल स्कूल (under achieved School)’ । हर शिक्षक को इनकी किताबें पढ़नी चाहिए ।
गांधी जी के बाद राजनेताओं में देश की अपनी भाषाओं को आगे बढ़ाने में लोहिया का नंबर सबसे ऊंचा है । भाषा के लिए जितनी समझदारी से उन्होंने आंदोलन चलाए उतना किसी अन्य राजनेता ने नहीं।अफसोस बस यही है कि भविष्य की पीढ़ियां ने उनकी जाति के प्रश्न को तो आगे बढ़ाया, अपनी भाषा के मसले पर इन सब समाजवादियों की चुप्पी तकलीफदेय है ।
गीजू भाई वधेका की किताबें भी बहुत महत्वपूर्ण हैं । उनकी एक मशहूर किताब दिवा-स्वप्न नेशनल बुक ट्रस्ट ने छापी हैं । उनकी करीब 40-50 छोटी-छोटी किताबें हैं । मांटेश्वरी पद्धति, माता-पिता को सीख, शिक्षक को, आदि-आदि । गीजू भाई धार्मिक शिक्षा से बच्चों को दूर रखने की सलाह देते हैं और यह बात मुझे बहुत पसंद आती है । इतनी अबोध उम्र में भजन-कीर्तन , धर्म की गूढ़ हवाई बातों से छोटे-छोटे मासूम बच्चों का क्या लेना-देना । बच्चों को तो उनके परिवेश के साथ मनमर्जी जुड़ने दो, खेलने दो । इसके अलावा मारिया मांटेश्वरी हैं । उनकी शिक्षण पद्धतियां भी कम महत्वपूर्ण नहीं हैं । आपको पता होगा कि वो इटली की पहली महिला डॉक्टर थीं और कैसे डॉक्टरी पेशे के साथ-साथ वो अपने सरोकारों से शिक्षा से जुड़ती चली गईं । उनके नाम पर मांटेश्वरी शिक्षा पद्धति दुनिया भर में जानी जाती है । उनकी जीवनी पढ़कर भी आप शिक्षा का अर्थ समझ सकते हैं । इसके अलावा ए.एस. नील की किताब ‘समर हिल’(प्रकाशक : एकलव्य प्रकाशन, भोपाल) भी उतनी ही रोचक है । एकलवय ने शिक्षा की कई महत्वपूण किताबों को अंग्रेजी से हिंदी में अनुवाद करके सस्ती कीमतों पर छापा है ।
रवीन्द्रनाथ टैगोर, इवान इलीच, जे.कृष्ण मूर्ति, जे.पी.नाइक, अनिल सदगोपाल, प्रोफेसर यशपाल, रोहित धनकर (दिगंतर संस्थान) के विचार भी अच्छे लगते हैं ।