भाग – 3
प्रश्न: अंग्रेजी के प्रति जो हमारा अति मोह है, क्या वह समाज में भ्रष्टाचार बढ़ाने में सहायक है।
उत्तर: हां है। आप गांव में जाते होंगे। उत्तर प्रदेश में अभी भी कचहरी में थोड़ा-बहुत काम हिंदी में होता है। लेकिन कई बार वो जो वकील नाम का प्राणी है, वो उस अंग्रेजी में लिखने की कोशिश करता है, जो आपको ठीक से आती ही नहीं। वो क्या लिख रहा है और उस लिखने से पहले कदम के रूप ही में आप से कुछ न कुछ पैसे ले लेता है। उसके बार फिर जब कचहरी में आप जाते हैं और वहां की बहस देखते हैं तो उनका क्या फैसला हुआ, किसने क्या बोला क्या गरीब किसान समझ पाता है । अगर उसने आपके खिलाफ भी बोला होगा तब भी वह आपसे पैसे ले लेगा।
अक्सर मैंने देखा है कि स्कूलों में फार्म भरते वक्त, वैसे तो 50 प्रतिशत लोग अपनी भाषा ही नहीं जानते, फॉर्म भरने के पैसे ले लेते हैं। जो बुनियादी काम सजग नागरिक कर सकता है, उसके लिए उसे पैसे देने पड़े।
ब्रिटिश भारत में आए तो सबसे पहले उन्होंने वकीलों की फौज तैयार की। हालांकि यह बात अलग है कि उन्हीं वकीलों की फौज ने आगे चलकर देश की आजादी की लड़ाई लड़ी। उन्हें लगा कि जब ये शासन कर सकते हैं तो हम भी कर सकते हैं।समानता, कानून के उन्हीं हथियारों से । लेकिन देखा जाए तो वो राजाओं-नवाबों और ब्रिटिश के बीच ऐसे दलाल थे, जो दोनों पक्षों की बात एक-दूसरे तक पहुंचाते थे। आपने वो कहानी सुनी होगी कि मीर जाफर को लिखा कुछ औरउसकेबदले में उसकी जायदाद, राज्य का बड़ा हिस्सा हड़प लिया । ऐसा अंग्रेजों ने अपने शुरूआती दौर में देश के ज्यादातर राज्यों और जमींदारों के साथ किया और विदेशी भाषा ने एक बड़ी भूमिका निभाई । यह अचानक नहीं है उन दिनों इसीलिए हर राजा या जमींदार अपने किसी बेटा-बेटी या मुंशी, कारिंदे को कानून की पढ़ाई करने के लिए ब्रिटेन भेजते थे । कानून जानने के लिए भी और उससे ज्यादा अंग्रेजी जानने के लिए । हमारी आजादी की लड़ाई के अधिकांश महापुरुष गांधी, नेहरू, अम्बेडकर, सुभाष चन्द्र सभी इन्हीं कारणों से इंग्लैंड, ब्रिटेन पढ़ने गये थे । निश्चिततौर रूप से कहूंगा यदि हमारी भाषा में शासन-प्रशासन का काम और न्याय होने लगे तो भ्रष्टाचार बहुत कम हो जाएगा। खतरा यह लग रहा है कि यह और बढ़ रहा है। पिछले दिनों इंजीनियरिंग की तरह लॉ कॉलिजोंकी बाढ़ आई हुई है। अचानक कानून की ऐसी क्या जरूरत पड़ गई? क्योंकि यही दौर है जब विदेशी कंपनियों के प्रतिष्ठान यहां आ रहे हैं। पीपीपी जैसे कई मॉडल अपनाये जा रहे हैं। प्रतिष्ठानों और कर्मचारियों के बीच की सब शर्तें अंग्रेजी में। कंप्यूटर में सारा काम। इसलिए कई बार लगता है कि पिछले दिनों देश के संसाधनों की जो बड़ी-बड़ी लूट हुई हैं, जिसको पहले कोई एहसास ही नहीं कर पाया, शायद इसी विदेशीभाषा की वजह से । अगर फैसले अपनी भाषा में होते तो आदिवासी भी समझ पाते कि क्या फैसले हुए हैं और इनका अंजाम क्या होगा? जैसे अफ्रीका के कुछ देशों कोऐसी शिक्षा ने तबाह कर दिया। हम भी इस तबाही की ओर बढ़ रहे हैं।
प्रश्न: इससे जुड़ा एक और सवाल है कि अंग्रेजी के अति मोह के कारण जो निजी स्कूल खुल रहे हैं, उनमें अपने बच्चों का एडमिशन कराना पड़ रहा है । मोटी फीस, दुनिया भर के अतिरिक्त चार्ज देने पड़ रहे हैं । मुझे लगता है कि एक तरह से भ्रष्टाचार की शुरुआत यहीं से हो जाती है ।
उत्तर: पिछले एक सप्ताह से मेरी विचित्र स्थिति है। बैचेनी इस बात से कि कहीं अंग्रेजी या शिक्षा, धर्म परिवर्तन का भी औजार न बन जाये और प्रसन्नता इस बात पर कि कामवाली उस स्कूल की चमकीले कागज की पुस्तिका को देखकर गद-गद है जहां उसके बच्चों का दाखिला हो गया है । परम संतुष्टि या विजय का भाव लिये । पूरा किस्सा यो है । हमारे घर में कामवाली खाना बनाती है। वह पूर्वी उत्तर प्रदेश की है और बहुत मेहनती महिला है। घर-घर जाकर काम करती है। बहुत साफ शब्दों में कहूंतो मेरी धर्म में कोई रुचि नहीं है। ईश्वर से भी कोई लेना-देना नहीं है। मैं इस बहस में भी नहीं जाना चाहता। लेकिन मुझे उसके नाम आदि में अचानक परिवर्तन से लगा कि शायद धर्म परिवर्तन कर लिया है और बच्चों को न्यू जलपाईगुडी के एक स्कूल में भेज दिया है। वह हमारे यहां पांच-छह साल से काम कर रही है। मैं मानता हूं कि किसी भी नागरिक को किसी के धर्म और निजी आस्थाओं में दखल नहीं देना चाहिए। उसके बच्चे आते-जाते रहेऔर मैं उनकी पढ़ाई की सामान्य बातों की जानकारी लेता रहा कई बरस तक ।
पिछले दिनों उसने बताया कि वहां सेबच्चों को अब वापस बुलाना चाहती हूं। कुछ दूरी, कुछ दूसरी समस्याएं । उसके बच्चे सातवीं-आठवीं में आ गए हैं। वहां जाने के पीछे लालच था स्कूल फीस माफ या बहुत कमऔर ऊपर से अंग्रेजी । अब बच्चे बड़े हुए तो कुछ समस्या आई होगी तो यहां दिल्ली ले आई। यहां स्कूल की तलाश शुरू। सरकारी स्कूल जैसा कि हम सब ने प्रचारकर दिया है, और ऐसा अपाहिज और आवांच्छित बना दिया है कि वहां कोई जाना नहीं चाहता । दुष्प्रचार इतना कि इन स्कूलों में पढ़ाई नाम की कोई चीज ही नहीं बचीहैकि वहां कुछ भी नहीं सीखा जा सकता । मैं इसे नहीं मानता। उसे समझाया भी ।बोली वहां अंग्रेजी नहीं है, पढ़ाई भी नहीं होती, बच्चे गाली सीखेंगे । वही झूठी सच्ची बातें । जबकि अभी भी सरकारी स्कूल, इन टाई लगाने वाले स्कूलों से बेहतर, भले न हों, लेकिन बेहतर बनाए जा सकते हैं। उसने बताया कि जिस निजी स्कूल में जाती हूं, पचास हजार रुपये मांगे जा रहे हैं। यह तो दाखिला फीस है। इसके बाद मासिक फीस और अन्य खर्चे। मैं तीन बच्चों के लिये इतनी रकम कहां से लाऊं? वह उदास होती गयी। कई दिन आयी भी नहीं । फिर एक दिन हाजिर थी कि बच्चों को रांची के एक स्कूल में जगह मिल गयी है । उसी स्कूल में रहेंगे । फीस, खर्चा सब माफ । अस्पताल भी है अंदर ।
बड़ी-बड़ी धर्म की बातें और उस पर राजनीति करने वाले शिक्षा की इस लड़ाई को अधूरा छोड़ देते हैं। वे धर्मशाला बनवा रहे हैं, योग, सत्संग करा रहे हैं, मंदिर बनाने की प्रतिज्ञा करते हैं लेकिन ऐसे स्कूल नहीं खुलवा रहे जहां मुफ्त शिक्षा हो ।उन सरकारी स्कूलों तक को ठीक नहीं कर रहेजहां शिक्षा लगभग मुफ्त है । वे दिल्ली की अमीर रिहायिशी कॉलोनियों में अपनी पार्टी के नाम से बेंच बनवा रहे हैं, टी.वी. बांट रहे हैं । सीनियर सिटीजन्स को भी दावतें और कलाकारों को भी उनकी कलाबाजियों का पैसा मिल रहा है । बस स्कूल नहीं खोलेंगे । फिर आप कहेंगे कि दूसरे लोग हमारा धर्म परिवर्तन कर रहे हैं। उन्हें यह और बता दिया है कि अंग्रेजी के बिना काम नहीं चलेगा। उनके दोनों मकसद पूरे हो गए। मैं कुछ परिवारों को जनता हूं जो इस अंदाज में उस ओर बढ़ रहे हैं।
इसका एक और भीपक्ष है । सरकारी स्कूल रहते तो उनमें सेकुलर ताने-बाने का पाठ्यक्रम पढ़ाया जाता । मेरे घर के सामने एक स्कूल है । एक दिन मैं किताबें देखने लगा । उसमें एन.सी.ई.आर.टी. की किताबें नहीं पढ़ाई जातीं, जो पिछले दिनों प्रोफेसर यशपाल और कृष्ण कुमार ने बड़ी मेहनत से तैयार की हैं जो विशेषकर लैंगिक बराबरी, छोटे समूहों आदिवासी, जनजातियों को सम्मान से देखते हुए तैयार की गई हैं। निजीस्कूल की सारी किताबें उनकेअपने ही मैनेजर, स्टॉफद्वारालिखी गई हैं। उस मैनेजर की लिखी हुई विवेकानंद की किताब है, गांधी जी किताब है। यानी वह इतिहासकार भी है और राजनीतिज्ञ भी। ये सब कोमल दिमाग के बच्चों को पढ़ाई जाएंगी। संविधान में सेकुलर बनाने की बात कर रहे हैं, लेकिन बनेंगे तो तब जब ऐसा पढ़ाया जाएगा। यहां पर शिक्षा और भाषा दोनोंकी भूमिका है । बच्चे को दसवीं तक ये सारी चीजें गलत, कच्ची-पक्की पढ़ाई गईं। दसवीं के बाद आप पुताई-रंगाई करते रहिए, वो ढांचा नहीं बदलेगा। उन किताबों में ऐतिहासिक गलतियां भी हैं। सरकार क्या शिक्षा को ऐसे ही चलने देगी ?यानी हम भाषा पर भी नियंत्रण नहीं करेंगे, न उनके लिए सरकारी स्कूल बनने देंगे । न जो पाठ्यक्रम तैयार किया है, उसे लागू करेंगे । राज्य का कर्तव्य क्या होता है? राज्य का कर्तव्य क्या केवल सरकार, मंत्री बनना, बनाना या हर समय चुनाव चर्चा होता है । फिर कहेंगे कि धर्मांधता बढ़ रही है ।
पिछले दिनों ऐसी ही एक स्कूल के संगठन की किताबें देखीं। एक उदाहरण दे रहा हूं। मेरी भतीजी के कोर्स में हर साल एक किताब होती है ‘धर्म शिक्षा’।
‘धर्म शिक्षा’किताब में था कि दस काम छोड़कर पूजा करो। सौ काम छोड़कर मंदिर जाएं। मैंने पूछा कि बेटा यदि सुबह-सुबह तुम्हारी अम्मा तुम्हारा नाश्ता बनाने की बजाए मंदिर चली जाएं तो? उसकी समझ में बात आई बोली कि हां। यह तो गलत है कि सारे कामधाम छोड़ो और मंदिर चले जाओ। हमारे संविधान में धर्मनिरपेक्षता की बात कही गई है। वह धर्मनिरपेक्षता कहां चली गई? क्यों हमएक झूठी आभासी लड़ाई लड़ रहे हैं। कभीएक संप्रदाय,कभी दूसरे संप्रदाय के नाम पर । जबकि बुनियादी रूप से हम अंदर से खोखले हो गए हैं। यह खोखलापन इसलिए और बढ़ रहा है। बीस बरस पहले हम सरकारी स्कूलों में नब्बे प्रतिशत थे। इन बीस सालों में हम घटकर साठ प्रतिशत तक आ गए हैं। कुछ राज्यों में और भी नीचे आ गए हैं। यानी स्वास्थ्य और शिक्षा किसी भी राज्य की प्रमुख जिम्मेदारी है, उसे देने की बजाए हम अपने हाथ और सिकोड़ रहे हैं। ऐसे में कोई भट्ठे वाला, बजरी वाला, रोड़ी वाला, प्रॉपर्टी वाला तथाकथित गुंडे से बना नेता अगर स्कूल-कॉलेज खोलेगा तो उसके बाद उनमें जो पढ़ाया जाएगा, वो कितना सेकुलर होगा और बच्चों को कहां लेकर जाएगा यह गंभीर मामला है । इसे तत्काल रोका जाना चाहिए। सरकार को शासन करने की बुनियादी चीजों की ओर लौटना होगा।
एक नजर दिल्ली के स्कूलों पर । एक और अलग तस्वीर । सरकारी स्कूलों में पढ़ाने वालों से बात हुई । जो तस्वीर उन्होंने बताई वो चिंता करने वाली है । नंद नगरी, सीलमपुर, कल्याणपुरी, खिचड़ीपुर, पुरानी दिल्ली या शहर की घनी आबादी वाले सभी सरकारी स्कूलों में एक-एक क्लास में बच्चे 70-80 और कहीं-कहीं तो सौ से भी ज्यादा हैं । न उनके बैठने की जगह, न उनके टायलेट आदि की दूसरी सुविधाएं । आबादी लगातार बढ़ रही है तो क्या सरकार का फर्ज नहीं बनता कि उन इलाकों में सरकारी स्कूल और बढ़ाएं ? यदि नहीं बढ़ा सकती तो दो के बजाए तीन शिफ्ट तो की ही जा सकती हैं । पिछले दस-बीस वर्षों में इस शहर में मोबाईल बढ़ें हैं, कार बढ़ी हैं लेकिन सरकारी स्कूल कम होते गये हैं । जब क्लास में बैठने तक की व्यवस्था न हो तो आप पढ़ने, पढ़ाने के माहौल का अंदाजा लगा सकते हैं । शिक्षक के लिए भी चुनौती और बच्चों को शायद ही इतनी बड़ी क्लास में प्रश्न पूछने का मौका मिलेगा इन स्कूलों में शिक्षकों की कमी बरसों से है । हजारों की कमी । जैसे-तैसे तदर्थ शिक्षकों से काम चलाया जा रहा है । एक तरफ भयानक बरोजगारी पढ़े-लिखे नौजवान ।
इस बीच में यह भी सुनने में आता है कि सरकारी स्कूलों के इन बच्चों को जो मुफ्त किताबें दी जाती हैं वे भी समय पर नहीं मिलती । जो किताबें सत्र में शुरू होने पर अप्रैल में मिल जानी चाहिए व्यवस्थागत लाल फीताशाही, सरकारीकरण के कारण वे कई बार जुलाई-अगस्त में मिलती हैं । वह भी पूरी नहीं । यही हाल स्कूल ड्रेस और दूसरी सुविधाओं का है । सरकार का पैसा इन चीजों पर खर्च हो रहा है लेकिन क्या इनको और चुस्ती से पूरा करके सरकारी स्कूलों को और बेहतर नहीं बनाया जा सकता ? यदि सरकारी स्कूल बेहतर होते तो जिस कामवाली या गरीब तबके जो अंग्रेजी और अच्छी शिक्षा के लालच में कभी-कभी धर्म परिवर्तन भी कर रहे हैं उसकी नौबत नहीं आती । यानि कि शिक्षा व्यवस्था की कुछ कमियां इस देश को अंतत: कहां ले जाकर छोड़ेंगी ? क्या हमारे दिल्ली के बुद्धिजीवियों, पत्रकारों ने गरीब आदमी के इन मसलों पर कभी कोई आवाज उठाई ? वे सब इन बातों को अपनी चिंता में शामिल करने लायक भी नहीं समझते । इजराइल के खिलाफ गोलबंदी में लगे रहते हैं तो दूसरे पड़ौसी देशों में लोकतंत्र बचाने के लिये और फिर सब बाजे-बैंड के साथ कार्पोरेट पूंजी के कहीं न पहुंचने वाले विमर्श में । ये सब हिंदी के ही बुद्धिजीवी मगर पड़ौस के स्कूल से उतनी दूर जितना पृथ्वी से चंद्रमा । कहीं ऐसा तो नहीं करीब और गरीब की ये समस्याएं इन्हें इतना डरा देती हैं कि वे उधर देखना भी नहीं चाहते । दोस्तों क्या हम भी उन्हीं में शामिल हैं ?
प्रश्न: मेरे ख्याल से एक और पक्ष है । किसी भी व्यक्ति की सीमित आय है । अंग्रेजी के मोह में और दूसरा सरकारी स्कूल का सही विकल्प न होने की मजबूरी में महंगे से महंगे निजी स्कूल मे पढ़ता है । ऐसे में घर का खर्चा चलाने के लिए उसे भ्रष्टाचार का सहारा लेता है । दूसरा फीस का दिन नजदीक आते ही घर में तनाव का माहौल हो जाता है क्योंकि वह स्कूल की मोटी फीस और अन्य खर्चे घर के खर्चों में कटौती करके पूरे करता है । इसका असर बच्चे के मानसिक विकास पर भी पड़ता है । मेरे ख्याल से ऐसा बच्चा भ्रष्टाचारी ही बनेगा । इस बारे में आपकी क्या राय है ।
उत्तर: बहुत सरल शब्दों में इसका उत्तर है । जब तक सरकारी स्कूल थे शिक्षा मुफ्त थी । स्कूल नजदीक थे । जाने-आने के खर्चे नहीं थे । न बड़ी-बड़ी फीस, न चमकीली पुस्तकें । गरीब-अमीर एक साथ । निजी स्कूल सामने आए तो फीस भी बढ़ी, कभी वे अंग्रेजी का लालच दिखाते हैं तो कभी सरकारी सपाटे का । जाहिर है पैसा भी आपसे वसूलेंगे और आपके पास पैसा नहीं होगा और यदि सरकारी कर्मचारी हैं तो आप गलत तरीके अपनाएंगे । रिश्वत के, बेईमानी के । क्या आपको नहीं लगता कि भ्रष्टाचार के बढ़ने में इस असमान शिक्षा की एक बड़ी भूमिका है ।
तो कहूंगा कि इसी का अगला चरण है अच्छी शिक्षा के लिए विदेश भेजने की होड़ है । वहां तो और सौ गुना पांच सौ गुना पैसा चाहिये और वे उतने ही बड़े भ्रष्टाचार में डूब जाते हैं । पिछले दिनों की खबरें बताती हैं कि कैसे अपने बेटे, बेटी की बढ़ी फीस के लिए अभिभावकों ने गलत रास्ते अपनाए ।
एक छोटे से उदाहरण से इसकी एक और सामाजिक विकृति की तरफ मैं ध्यान दिलाना चाहूंगा । मेरी काम वाली पूर्वी उत्तर प्रदेश के किसी गाँव की है । दिल्ली में रहती है । तो अच्छी बात यह है कि अपने बच्चों को बेहतर शिक्षा देना चाहती है । उसे भी सरकारी स्कूल पर यकीन नहीं रहा । मैंने कभी पूछा तो नहीं लेकिन लगता है कि किसी लालच में उसके बच्चों का दाखिला न्यू जलपाईगुड़ी के किसी मिशनरी स्कूल में हो गया । बच्चे जब आठवीं पास कर गये तो उन्हें दिल्ली पढ़ाना चाहती थी लेकिन यहां के स्कूलों में जब दाखिले के लिए कोशिश की तो उनकी फीस को सुनकर उसकी ऑंखें फटी की फटी रह गईं । मैंने समझाया भी कि सरकारी स्कूल अच्छे होते हैं आदि-आदि लेकिन वह संतुष्ट नहीं हुई । उसे अच्छे अंग्रेजी स्कूल चाहिए और इस दौड़ में बच्चे फिर दूर रांची के किसी मिशनरी स्कूल में चले गये । क्या भविष्य में अंग्रेजी निजी स्कूल एक धार्मिक सद्भाव के ताने-बाने को नहीं तोड़ देंगे ? अच्छी अंग्रेजी यानि कि निजी स्कूल और निजी स्कूल या तो पैसा हो चाहे वो भ्रष्टाचार से आया हो और चाहे मिशनरी दें ।
यदि वक्त रहते सरकार ने समान शिक्षा के लिए कदम नहीं उठाए तो देश के ताने-बाने पर इसका बुरा असर पड़ेगा ।
प्रश्न: आखिर सरकारी स्कूलों में गिरावटके क्या कारण रहे हैं ?फीस कम होने के बावजूदबच्चे कम क्यों हैं ? जैसा कि आपने अपनी कामवाली के हवाले से बताया, लोग अपने बच्चे को वहां क्यों नहीं पढ़ाना चाहते ?
उत्तर: पहले तो दोनों बातों में संशोधनकरना चाहूंगा । सरकारीस्कूल उतने खराबनहीं हुए, जितना उन्हें बताया जा रहा है । उनके खिलाफ प्रचार की भी एक राजनीति है । राजनीति यह है कि केंद्र और राज्य दोनों जगहों की सत्ताएं विश्व बैंक, अमरिका आदि के विभिन दबावों में निजीप्राइवेट स्कूलों को बढ़ाना चाहती हैं । या कहिए कि निजीकरण को जब हर क्षेत्र में बढ़ाया जा रहा है, तो शिक्षा में क्यों नहीं ?
प्राइवेट स्कूल तभी बढ़ेंगे, जब सरकारी स्कूलों की बदनामी होगी । बदनामी होगी तो निजी स्कूल और खुलेंगे और ये निजी स्कूल राजनीतिक पार्टियों के कारिंदों के हाथों में जाएंगे । आप किसी देशी-विदेशी एजेंसी से सर्वे करा लीजिए, शायद ही निजी स्कूलों का मालिक शिज्ञक्षा के द्वारा समाज को बदलने के उद्देश्य से इस क्षेत्र में आया हो । यह उनके कई धंधों में से एक है ।इसीलिए ये किसी-न-किसी राजनीतिक पार्टी से नाभिनाल जुड़े हुए हैं । आप देखते होंगे और अखबारों में पढ़ते होंगे कि कैसे जन-प्रतिनिधियों को मिलने वाला पैसा क्षेत्र के विकास के नाम पर निजी स्कूलों में लगाया जा रहा है । यानी पैसा जनता का और धंधा व मुनाफा निजी ! और क्या ठाट व रुतबा है ! दाखिले के लिए बड़े-बड़े अफसरों नेताओं की सिफारिशें, इंतजार ।
सच तो यह है कि सबसे अच्छे पढ़े-लिखे शिक्षक सरकारी स्कूलों में शिक्षक बनते हैं । उकनी भर्ती निजी स्कूलोंकी तरह नहीं होती । निजी स्कूलों में तो किसी भी अफसर के फैशनेबल बीवी-बच्चे पढ़ाना शुरू कर देते हैं, बिना किसी शिक्षण-प्रशिक्षण के । न उन्हें शिक्षा की समझ होती है, न सरकारी नीतियों की । बस, अच्छी अंग्रेजी वे जरूर बोल लेते हैं । लेकिन सरकारी शिक्षक को सरकार पढ़ाने के काम के अलावा दर्जनों दूसरे काम दे देती है- कभी जन-गणना का, कभी आधार कार्ड का, कभी पोलियों के टीके का तो कभी ‘लाड़ली’ के प्रचार का । मिड-डे-मील और किताबों का हिसाब-किताब अलग । इस पूरे परिदृश्य में सरकार की कोशिश यही रहती है कि बच्चों को पढ़ाने का समय न मिले । क्या किसी निजी स्कूल के शिक्षकों को सरकार ये काम देती है ?कभी नहीं । ये स्कूल तो सरकार की किताबों, एनसीईआरटी की किताबों को भी अपने यहां नहीं घुसने देते ।
इससे सरकार की एक और दोगली नीति उजागर होती है । वह कहती है कि हम ज्यादा-से-ज्यादा दलितों, गरीबों को नौकरी देना चाहते हैं । लेकिन सवाल है कि जब सरकारी स्कूल व अस्पताल ही बंद होते जा रहे हों तो सरकार इन वर्गों को नौकरी दे रही है या उनकी नौकरी छीन रही है ? एक और कारण निजी स्कूलों द्वारा अंग्रेजी का लालच है और अंग्रेजी के झूठे प्रचार-प्रसार के कारण पूरा भारतीय समाज इस लालच में फंसता जा रहा है । यहां सरकारी शिक्षकों को एक सुझाव जरूर देनेका मन करता है कि वे पद, प्रमोशन को लेकर आपसी लड़ाई, मुकदमेबाजी से बचें और पार्टी-राजनीति से दूर रहें, वरना न शिक्षकों का कोई भविष्य रहेगा और न वहां पढ़ने वालों का । सरकारी स्कूलों को हर हालत में अपनी दक्षता सिद्ध करनी होगी । सरकारी स्कूल-संस्थाएं बेहतर हो जाएं जैसे, केंद्रीय विद्यालय हैं तो निजी स्कूल खुद ही बंद हो जाएंगे ।
दूसरी बात छात्र कम होने की, तो यह भी सच नहीं है । दिल्ली में सीलमपुर, कल्याणपुरी, नंदनगरी, पुरानी दिल्ली जैसे कई इलाके हैं, जहां एक-एक क्लास में अस्सी से एक सौ बीस तक बच्चे होते हैं-कक्षा में बैठने की क्षमता से तीन गुना ज्यादा, और सरकार को यह पता है । क्या सरकार का दरयित्व नहीं बनता कि वह सरकारी स्कूलों की संख्या बढ़ाए ? ज्यादा नहीं तो वर्तमान स्कूलों में ही अतिरिक्त शिफ्टें चालू की जा सकती हैं । जब सरकारी स्कूलों में जगह नहीं मिलती, तो गरीब बच्चे मजबूरी में प्राइवेट स्कूलों की तरफ भागते हैं । लेकिन प्रचार किया जाता है कि सरकारी स्कूलों में पढ़ाई अच्छी नहीं है ।
क्या इन गरीबों के पास फीस देने के लिए इतने पैसे हैं ?
सरकारी स्कूलों ने जितने अच्छे नागरिक, इंजीनियर, वैज्ञानिक पैदा किए हैं और आज भी कर रहे हैं, उतने निजी स्कूलों ने पैदा नहीं किए । निजी स्कूलों में तो वह समझ ही नहीं है । सीएसआईआर के अध्यक्ष ए आर मार्सेलकर मुंबई की झोपड़पट्टी के सरकारी स्कूल में पढ़े थे और जाने-माने वैज्ञानिक बने । वैसे ही सरकारी स्कूल में पढ़े भूतपूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम । श्रीधरन से लेकर सैंकड़ों वैज्ञानिक, डॉक्टर, इंजीनियर सरकारी स्कूलों ने ही दिए हैं । संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षाओं में सफल होने वाले ज्यादातर उम्मीदवार आज भी सरकारी स्कूलों से आ रहे हैं । लेकिन इसके बावजूद उनके खिलाफ सरकारी, गैर-सरकारी प्रचार जारी है । इतना दुष्प्रचार कि एक संतनुमा प्रचारक कह रहा था- ‘सरकारी स्कूलों में नक्सलवाद पैदा होता है ।’ सरकारी स्कूलों के खिलाफ सरकार से ज्यादा इस देश के अमीर हैं, जो विशिष्ट जीवन, अलग स्कूल, अंग्रेजी के पक्षधर हैं ।
प्रश्न: शिक्षा अधिनियम के तहत गरीब बच्चों को पच्चीस प्रतिशत आरक्षण देने के बारे में आपकी क्या राय है ?
उत्तर: यह कदम अच्छा तो लगता है, लेकिन सही ढंग से नहीं बढ़ा गया तो यह शिक्षा के परिदृश्य को और अधिक बिगाड़ेगा । हम सभी बच्चों को क्यों बराबर मानकर नहीं चल सकते और सबसे नजदीकी स्कूलों में बच्चों को दाखिला मिलने की व्यवस्था क्यों नहीं करते ? बच्चों को क्यों यह एहसास होने देते हैं कि वे किस जाति, समुदाय अथवा धर्म से हैं ? आप उन मासूम बच्चों को जाति-धर्म की पहचान क्यों सिखाना चाहते हैं ? पहले आप नकली विभाजन करेंगे और फिर उनके लिए क्लास में अलग से व्यवस्था करेंगे, अलग से ट्यूशन, अलग से कोचिंग । नहीं, यह गलत है । वे शारीरिक और मानसिक हर तरह से समान हैं । उन्हें विशेष दर्जा देकर तो आप हर क्षण भेदभाव के बीच बो रहे हैं । यह बहुत नाजुक मसला है, लेकिन शिक्षा के क्षेत्र में इसे बहुत बचकाने ढंग से हल करने की कोशिश की जा रही है । यह समानता लाने के खिलाफ एक साजिश की तरह है । शिक्षा में बराबरी क्यों नहीं ?
सरकार को शिक्षा में बराबरी की तरफ बढ़ने की जरूरत है, न कि स्कूल के स्तर पर ही तरह-तरह के विभाजन लादे जाएं और मुनादी पीटी जाए समानता की । बेमल वातावरण के ऐसे प्रयास इन बच्चों का अहित ज्यादा करेंगे, बजाय उनका नैसर्गिक विकास करने के । निजी स्कूलों का जाल अपने वैभव और व्यापार की खातिर इतना देशव्यापी हो चुका है कि उसे वापस सिमटवाना किसी भी सरकार के लिए किसी चुनौती से कम नहीं है । हॉं, इसमें दाखिले की शर्तों में दूरी, फीस, मातृभाषा, खेल की बुनियादी सुविधाएं लागू करके और दूसरी तरफ सरकारी स्कूलों की व्यवस्था को और अधिक बेहतर बनाकर आरक्षण की मरीचिका से बचा जा सकता है ।
प्रश्न: फिर रास्ता क्या है?
उत्तर: मैं सिर्फ छाती पीटने या रोने के लिए इन बातों को नहीं कह रहा हूं। हमें हकीकत को समझने की जरूरत है। रास्ता है और वैसा ही है, जैसा पिछले दिनों कई देशों ने किया है। बुनियादी बात है कि आजादी है और लोकतंत्र है तो हमें नागरिकों को बेहतर शिक्षा देनी हीहोगी। शिक्षा, सरकार को अपने हाथों में लेनी होगी। इसके लिए संसाधनों के लिए रोने की जरूरत नहीं। इसे अपनी इच्छा शक्ति से करना होगा। सरकारी स्कूल अब तक चल रहे थे, ब्रिटिश चला सकते थे तो आप भी चला सकते हैं। आप केवल उनकी बनायीगुंबदों में बैठने के लिए नहीं हैं। शिक्षा सरकार को अपने हाथों में लेनी होगी और निजी स्कूलों को सुधरनाहोगा। जिस राज्य में जो भाषा है, उसे अपनाना होगा । इसमें कुछ बुनियादी चीजें हो सकती हैं। जैसे कि अच्छे पुस्तकालय की शुरुआत हो। उसमें अच्छी किताबें हों। पुस्त्कालय कुछ हद तक शिक्षक की कमी को भी पूरा सकते हैं। स्कूल-कॉलेज के स्तर पर अच्छा पुस्तकालय है और अगर शिक्षक नहीं भी हैं तो बच्चे उन किताबों से, आपस में एक-दूसरे से सीखेंगे और परिदृश्य बदल सकता है। हताशा में हाथ खड़े करने से कुछ नहीं होगा। एन.सी.ई.आर.टी. की किताबें देश के चुनिंदा विद्वानों ने तैयार की है। बहुत अच्छी किताबें हैं। आईएएस आदि की परीक्षा में बैठने वाले सबसे पहले इन्हीं किताबों को देखते हैं। इनमें कुछ तो खासियत है ही। जो मोटी-मोटी पोथियों में ज्ञान नहीं मिल पाता है, उन्हें वह दसवीं-बारहवीं की किताब में मिल जाता है। जब किताबें केंद्र सरकार ने तैयार करवाई हैं तो उन्हें स्कूलों में क्यों नहीं लगवा सकती? सिर्फ इसलिए कि वह निजी स्कूल है। निजी स्कूल हैं तो इसी देश में। उसके लिए आपने जमीन दी, उसको बिजली दे रहे हैं, उसको मान्यता दे रहे हैं, जब सब कुछ कर रहे हैं तो वो आपकी किताब क्यों नहीं लेगा। कमजोरी कहां है? यदि शासन यह नहीं कर सकता है तो उसे शासन में रहने का कोई अधिकार नहीं है।
हमारे पास इसका अच्छा उदाहरण है- केरल। केरल में शत-प्रतिशत साक्षरता है और शिक्षा का स्तर भी कई गुणा बेहतर है। पुस्तकालय हैं। स्कूल चल रहे हैं। अभी निजी स्कूलों की भागेदारी उतनी नहीं बढ़ी, जितनी दिल्ली या उत्तर प्रदेश या इन राज्यों में बढ़ी है। इसका बहुत बड़ा कारण उस पैसा का भी रहा है जो हमारे तथाकथित जनप्रतिनिधियों को मिलता है। उन्होंने वह पैसा किसी और काम में लगाने के बजाए निजी स्कूल खोल लिए। यानी निजी स्कूलों के रास्ते गिरावट में वो जनप्रतिनिधि भी शामिल है। वह किस नैतिकता से निजी स्कूलों के खिलाफ लड़ सकता है? वह तो चाहेगा कि और निजी स्कूल हों ओर पैसा मिले। हम इस बुनियादी चीज पर अंगुली रखने के बजाए कई बार हमारे यूथ को कभी मंडल तो कभी मंदिर-मस्जिद में उलझाकर रख दिया जाता है। उनका रास्ता उधर की ओर बढ़ रहा है। मेरा कहना है कि बदल सकती है तस्वीर।
प्रश्न: लेकिन असली बात नौकरी की है जो अपनी भाषा के बूते चपरासी, गेट कीपर की नौकरी भी नहीं मिल रही तभी तो सभी अंग्रेजी की तरफ भाग रहे हैं ।
उत्तर: वाकई समस्या की जड़ नौकरी ही है और पिछले पचास-साठ वर्षों में व्यवस्था का ढॉंचा ऐसा हो रहा है कि हम बहुराष्ट्रीय कंम्पनियों की नौकरियों के भरोसे चल रहे हैं । उसमें पिछले दिनों कॉल सेंटर की नौकरियां भी शामिल हैं । और कॉल सेंटर्स को चाहिए अंग्रेजी । हमें हकीकत को समझने की जरूरत है । जब भी अपनी भाषा की बात इन बच्चों से करते हैं तो वे तुरंत कहते हैं कि हमें नौकरी दिलवा दीजिए हम वो भाषा पढ़ लेंगे । तो मामला पूरी व्यवस्था की बुनियाद को बदलने का है ।
मैं यहां एक और पक्ष पर ध्यान दिलाना चाहता हूं कि बेरोजगारी जिन राज्यों में ज्यादा है पिछले दिनों से अंग्रेजी की दौड़ भी वहीं ज्यादा है । उत्तर प्रदेश, बिहार या दिल्ली के आसपास इन राज्यों में न अपना कोई उद्योग बचा, न दूसरे व्यवसाय । इसीलिए कॉल सेंटर की नौकरी के लिए भी यही सबसे आगे है । आपने देखा होगा बंगलौर, पूना, गुड़गांव से लेकर मुम्बई तक इन्हीं राज्यों के नौजवान कॉल सेंटरों की नौकरियों में हैं । गुजरात, महाराष्ट्र, तमिलनाडु जैसे राज्य जिनके अपने उद्योग ठीक-ठाक चल रहे हैं अंग्रेजी की ललक तो वहां भी है लेकिन अपनी भाषा की कीमत पर नहीं । इससे उनको फायदा ही हुआ है । उनकी अपनी भाषा भी ठीक हुई है और अंग्रेजी भी जबकि हिंदी भाषी राज्यों के बच्चे हिंदी में फेल हो रहे हैं और अंग्रेजी में भी बहुत अच्छा नहीं कर पा रहे ।
अभी हाल ही में 21 अप्रैल को सिविल सेवा दिवस मनाया गया था । अच्छा लगा कि उसमें एक पुरस्कार गुजरात राज्य के एक कार्यक्रम कौशल्य विकास केंद्र को दिया गया । इस केंद्र ने लगभग पचास क्षेत्रों में शिक्षा के साथ-साथ कौशल्य या हुनर पाठ्यक्रम की शिक्षा दिलाई है । जिसके बूते वे अपने काम कर सकें । अब देखिए ऐसे कार्यक्रम यदि बढ़ते हैं तो उसमें अंग्रेजी की जरूरत नहीं पड़ती । अपनी भाषा के बूते ये आगे बढ़ते हैं । नौजवानों को नौकरी भी वही न दूसरे राज्यों की तरफ विस्थापन , न दूसरी सामाजिक समस्याएं । काश ! ऐसे कौशल्य विकास केंद्र उत्तर प्रदेश, बिहार में भी खुल पाते । मैं यहां दोहराना चाहता हूं कि वर्गीज कुरियन के अमूल प्रयोग ने लाखों गुजरातियों को दूध के धंधे से अपनी पैरों पर खड़े होना सिखाया । उतना ही महत्वपूर्ण काम समाज सेवी ईला भट्ट ने सेवा संस्थान के माध्यम से किया जिसमें 15 लाख महिलाएं अपनी रोजी-रोटी कमा रही हैं । यानि कि भाषा का संबंध रोजगार से है और यदि तंत्र चाहे तो तस्वीर बदल सकती है ।
प्रश्न: आपने अभी सरकारी नौकरियों में अपनी भाषा को बढ़ाने की बात की है । इसे कैसे लागू करें । ?
उत्तर: बहुत पहले किसी साहित्यकार ने कहा था कि जो भाषा रोटी नहीं दे सकती वह जिंदा नहीं रहेगी । याद रखिए हिंदी और भारतीय भाषाओं के साथ यही होने वाला है । डॉक्टर कोठारी की कोशिशों से संघ लोक सेवा आयोग की सिर्फ एक परीक्षा ‘सिविल सेवा परीक्षा’ में अपनी भाषाओं के माध्यम से लिखने की छूट वर्ष 1979 से दी गई है । हजारों गरीब तबके के विद्यार्थी हिंदी समेत भारतीय भाषाओं के माध्यम से चुन कर आए हैं । इसके बावजूद भी 2011 में प्रारंभिक परीक्षा में अंग्रेजी न जाने किस तर्क से लाद दी गई है ? और 2013 में मुख्य परीक्षा में विरोध के कारण फैसला टल गया है ।
बच्चे अपनी भाषा की किताबें तभी पढ़ेंगे जब उसमें आगे जाकर नौकरियों आदि की सुविधा भी हो । अभी भी अस्सी प्रतिशत से अधिक बच्चे सिविल सेवाओं में तो अंग्रेजी माध्यम से ही आते हैं । वन सेवा, चिकित्सा, आर्थिक तो पूरी तरह से अंग्रेजी माध्यम में ही दी जा सकती हैं । तो फिर कौन अपनी पीढ़ी को अपनी भाषाओं में पढ़ने के लिए प्रेरित करेगा जब नौकरी ही नहीं मिलेगी ।
और तो और पिछले 15 सालों में कर्मचारी चयन आयोग जो केन्द्र सरकार में निचले स्तर की भर्ती करता है जैसे क्लर्क, सहायक, इंस्पेक्टर, ऑडिटर, पुलिस निरीक्षक आदि उन परीक्षाओं में भी अंग्रेजी दिखाई देती है, भारतीय भाषाएं नहीं । बैंकों की परीक्षाओं में भी हिंदी और भारतीय भाषाएं नहीं हैं । जरूरी है कि केन्द्र स्तर पर सरकार और राजनेता इस बात को समझें । इससे भाषा और संस्कृति ही नहीं बचेगी बल्कि शिक्षा भी बेहतर होगी । मानकर चलिए कि अपनी भाषा के बूते ही हमारे स्कूल या विश्वविद्यालयों में सुधार की संभावनाएं हैं । पिछले बीस वर्ष में अंग्रेजी के लादने से तो यही सबक मिलता है । इस मामले पर एक बड़े आंदोलन की जरूरत है ।
प्रश्न: वर्ष 2013 के शुरू में संघ लोक सेवा आयोग द्वारा आयोजित आई.ए.एस. आदि की नौकरियों से भी अपनी भाषा को हटाने का विवाद उठा था । यह विवाद क्या है ? और सरकार क्यों भारतीय भाषाओं को हटाना चाहती है ?
उत्तर: आपको पता होगा आजादी के बाद कोठारी समिति की सिफारिशों के आधार पर वर्ष 1979 में पहली बार देश की केन्द्रीय सेवाओं में अपनी भाषा में उत्तर देने की छूट दी गई थी । अंग्रेजी में भी उत्तर दे सकते थे । इसके बहुत अच्छे परिणाम सामने आए हैं । पहली पीढ़ी के बच्चे मजदूर, आदिवासी या किसान का बेटा-बेटी आई.ए.एस. बना तो कभी घरों में काम करने वाली के बेटे ने सफलता पाई । इसका कारण रहा उनका अपनी भाषा में उत्तर देने की छूट । वर्ष 2013 में न जाने किस की सलाह पर सरकार ने अंग्रेजी को अतिरिक्त महत्व दे दिया । यानि कि इन सेवाओं में आने के लिए इस देश की भाषाएं आएं या न आएं अंग्रेजी जरूर आनी चाहिए । तर्क दिया गया कि आज दुनिया भर में अंग्रेजी ही संवाद की भाषा है । इनसे कोई पूछे कि दुनिया में सैंकड़ों भाषाएं हैं रूसी, चीनी, जापानी आदि तो हमारे नौकरशाहों, प्रशासकों को पहले अपने देश की भाषा आनी चाहिए या विदेशी । लोक सेवक का पहला फर्ज लोक या जनता के दु:ख दर्द को समझना है और यह तभी हो सकता है जब वह उनकी भाषाएं जानता हो । कोठारी ने तो अपनी रिपोर्ट में यहां तक कहा है कि जिन नौकरशाहों को इस देश की भाषा और साहित्य का ज्ञान नहीं है उन्हें लोक सेवक होने का हक नहीं है । अंग्रेजी का ज्ञान जरूरी है लेकिन भारतीय भाषाओं का उससे भी ज्यादा ।
अच्छा हुआ सरकार ने गलती मानते हुए भारतीय भाषाओं और अंग्रेजी को फिर से बराबरी पर रख दिया है ।
लेकिन यहां मैं इतना और जोड़ना चाहूंगा कि अपनी भाषाओं में लिखने की छूट सिर्फ सिविल सेवा परीक्षा तक ही सीमित नहीं रहनी चाहिए । वन सेवा, आर्थिक सेवा, चिकित्सा सेवा, इंजीनियरी सेवा समेत कर्मचारी चयन आयोग, बैंक और दूसरी प्रतियोगी परीक्षाओं में भी अपनी भाषाओं को बराबरी मिलनी चाहिए । जब तक रोजी-रोटी की भाषा अपनी नहीं होंगी लोकतंत्र खतरे में रहेगा ।
प्रश्न: अच्छा आपकी शिक्षा कहां और किस माध्यम से हुई ? और अपने बच्चों के बारे में भी बताएं । मैं यह प्रश्न इसलिए पूछ रहा हूं कि जनता अक्सर एक-दूसरे के कानों में फुसफुसाती है कि हमें अपनी भाषा हिंदी के माध्यम से पढ़ने का उपदेश दे रहे हैं और खुद के बच्चे अंग्रेजी स्कूलों में अंग्रेजी पढ़ रहे हैं ।
उत्तर: अपने बारे में बताने में तो कुछ संकोच हो रहा है । कहीं इसे आत्मश्लाघा न मान लिया जाए फिर भी बताना जरूरी समझता हूं । मेरी पूरी शिक्षा पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जिला बुलन्दशहर के एक गॉंव दीघी में हुई । पांचवी तक गॉंव में ही स्कूल था । देश के ज्यादातर स्कूलों की तरह टाट पट्टी वाला स्कूल । उसके बाद छठी और सातवीं पड़ोस के कस्बे पहासू से की जो दो किलोमीटर था और फिर वहां से मेरा स्कूल एक और कस्बे में बदला गया जो लगभग मेरे गॉंव से साढ़े तीन किलोमीटर दूर था । बदलने के पीछे यह कारण था कि वहां बायोलॉजी थी और कहीं-न-कहीं मॉं-बाप को ऐसा लगता था कि यह लड़का डॉक्टर बन सकता है । तीन-चार किलोमीटर स्कूल होने का फायदा मुझे आज सत्तावन साल की उम्र में हो रहा है । सुबह-सुबह सरपट चलते और भागते-दौड़ते स्कूल पहुंचते और वैसे ही लौटते । आज तक जो तेज चलने की आदत बनी हुई है वह शायद उन्हीं दिनों का अभ्यास है । कॉलेज की शिक्षा के लिए मैं खुर्जा पहुंचा । विषय थे- जीव विज्ञान, वनस्पति विज्ञान और रसायन शास्त्र । बारहवीं तक माध्यम हिदी और इसीलिए बी.एस.सी. में पहुंचते ही अंग्रेजी में परेशानी भी हुई । कभी-कभी मुझे लगता है कि बी.एस.सी. के दिनों में अंग्रेजी में जो कुछ रटा वो अब मेरे दिमाग में कुछ भी नहीं बचा । जबकि बारहवीं तक जो भी विज्ञान, इतिहास, साहित्य अपनी भाषा में पढ़ा उसकी समझ आज तक बनी हुई है । जीव विज्ञान में डार्विन और लेमार्क के विकास की कहानियां; जीवन की उत्पत्ति या रसायन शास्त्र में मेडेलीफ की टेबल के किस्से और ऑक्सीजन, क्लोरीन के आविष्कारों की कहानियां । मेंडेल के मटर के किए हुए प्रयोग—–एक-एक चीज याद है लेकिन वही जो अपनी भाषा में थी । यहां यह भी बता दूं कि अंग्रेजी छठी से एक विषय के रूप में तो पढ़ी जरूर लेकिन हाईस्कूल में प्रथम होने के बावजूद भी सबसे कम नंबर अंग्रेजी में ही थे ।
मुझे नहीं लगता कि उन दिनों हमारी क्लास के किसी भी बच्चे को अच्छी अंग्रेजी आती होगी । कई तो गणित से ज्यादा अंग्रेजी की वजह से या तो फेल हो जाते थे या स्कूल छोड़ देते थे । ट्यूशन जरूर एक आध कमजोर बच्चा जाता होगा । कोचिंग जैसे शब्द तो 1970 के आसपास ईजाद भी नहीं हुए थे ।
लेकिन मैं फिर विनम्रता से कहना चाहूंगा कि ऐसा मेरे ही साथ नहीं था देश के अधिसंख्यक नौजवानों के साथ था ।
अलग बात अगर कुछ हो सकती है तो बच्चों की । उनकी पढ़ाई केन्द्रीय विद्यालय में हुई । कुछ बड़ौदा में, कुछ दिल्ली में । बात के लम्बे होने से डर रहा हूं फिर भी यह कहना चाहता हूं कि जब बड़ौदा में तैनात हुआ तो वहां रेलवे के लगभग सभी सहकर्मियों के बच्चे भारतीय विद्या भवन और दूसरे निजी स्कूलों में पढ़ते थे । गया तो मैं भी था दाखिले के लिए लेकिन उनका टालू रवैया मेरे लिए वरदान हुआ । वहां तीन केन्द्रीय विद्यालय थे । पड़ोस के दोनों केन्द्रीय विद्यालयों में दाखिला नहीं मिला तो सबसे दूर दस किलोमीटर वाले केन्द्रीय विद्यालय में दाखिला कराया । मुझे आज भी याद है बच्चे की आंखों में चमक कि ‘पापा ! इतना अच्छा स्कूल और इतनी कम फीस ।’ केन्द्रीय विद्यालय या कहूं सरकारी स्कूल मुझे आज भी सबसे अच्छे लगते हैं । न अंग्रेजी का अतिरिक्त बोझ, न अतिरिक्त किस्म की फीस, चंदा, प्रोजेक्ट या दूसरे टोटके । शिक्षक भी सबसे ज्यादा योग्य । किसी बोर्ड से चुने हुए होते हैं । सबसे महत्वपूर्ण बात कि गरीबी-अमीरी का कोई भेद नहीं और एक छत के नीचे मदरासी भी है, पंजाबी भी, गुजराती भी, हिन्दू भी, मुसलमान भी । माध्यम की छूट । चाहे हिंदी रखो, चाहे अंग्रेजी । देखा-देखी कई सहयोगियों ने भी अपने बच्चे के.वी. में दाखिल कराये ।
कुछ लोग कह सकते हैं कि के.वी. अच्छे हैं बाकी सरकारी स्कूल अच्छे नहीं होते । आखिर के.वी. भी तो हिन्दुतानी जमीन पर अच्छा काम कर रहे हैं । यदि सरकार चाहे तो सारे सरकारी स्कूल अच्छे हो सकते हैं । बच्चों ने जब आगे इंजीनियरिंग आदि की पढ़ाई की तो एक आध बार ऐसा जरूर उन्होंने कहा कि उनकी अंग्रेजी पब्लिक स्कूल में पढ़े बच्चों की तरह अच्छी नहीं है लेकिन इस वजह से उन्होंने कभी अपने को कमतर नहीं समझा और अभिभावक के नाते हमारा भी यह कहना है कि ‘समझ’ अच्छी होनी चाहिए । विदेशी भाषा यदि कम भी आती है तो कोई हर्ज नहीं ।
हमारे बुद्धिजीवियों, लेखकों पर उपदेश देने का जो आरोप लगाया जाता है वह सच्चाई से बहुत दूर नहीं है । कम-से-कम दिल्ली में तो ऐसा हो रहा है । हिंदी भाषा के लिए दिन-रात रोने वाले अपने आसपास की दुनिया में भी हिंदी के प्रयोग से झिझकते हैं । आचरण की यह फांक उनके घर पर भी मिलती है । पिता हिंदी के लेखक, विद्वान, संपादक और बच्चे एक के बाद एक अंग्रेजी ही पढ़ रहे हैं । बच्चों को पूरी छूट मिलनी चाहिए लेकिन ऐसा न हो कि वो हिंदी पढ़ें ही नहीं । तो यह हर बुद्धिजीवी के लिए भी सोचने की जरूरत है कि जब आप अपने घर या आसपास अपनी भाषा का उपयोग, प्रचार-प्रसार नहीं कर सकते तो दूसरों को उपदेश देने का आपका क्या हक बनता है ? हमारे आचरण से भी लोग हिंदी से दूर हो रहे हैं ।
प्रश्न: आपने बार-बार डॉ. दौलत सिंह कोठारी का उल्लेख किया है । उनके बारे में कुछ विस्तार से बताऍंगे ? विशेषकर शिक्षा आयोग और संघ लोक सेवा आयोग की सिविल सेवा परीक्षा में भारतीय भाषाओं को महत्वपूर्ण स्थान दिलाने में उनके ऐतिहासिक योगदान के बारे में । क्या थीं उनकी सिफारिशें ?
उत्तर: एक वैज्ञानिक, शिक्षाविद, भारतीय भाषाओं के संरक्षक व आध्यात्मिक चिंतक के रूप में डॉ. दौलत सिंह कोठारी अद्वितीय हैं । फिर भी डॉ. कोठारी के योगदान का सम्यक मूल्यांकन होना अभी बाकी है । शिक्षा आयोग (1964-66), सिविल सेवा परीक्षाओं के लिए गठित कोठारी समिति, रक्षा विशेषज्ञ एवं विश्वविद्यालय आयोग और अकादमिक क्षेत्रों में प्रो. दौलत सिंह कोठारी के योगदान को उस रूप में नहीं पहचाना गया जिसके कि वे हकदार हैं । स्वतंत्र भारत के निर्माण जिसमें विज्ञान नीति, रक्षा नीति और विशेष रूप से शिक्षा नीति शामिल हैं, को रूप देने में प्रो. कोठारी का अप्रतिम योगदान है । 2006 में उनकी जन्मशती थी लेकिन शायद ही किसी ने सुना होगा । जयपुर से निकलने वाली पत्रिका अनौपचारिक (संपादक : रमेश थानवी) ने एक पूरा अंक जरूर उन पर निकाला था । वरना छिट-पुट एक दो लेखों के अलावा बहुत कम उनके बारे में पढ़ने-सुनने को मिला ।
पहले संक्षेप में डॉ. कोठारी का परिचय : – जन्म 1906 उदयपुर, राजस्थान में और मृत्यु 1993 में । गरीब सामान्य परिवार । मेवाड़ के महाराणा की छात्रवृत्ति से आगे पढ़े । 1940 में 34 वर्ष की आयु में दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर के पद पर नियुक्त । इलाहाबाद विश्वविद्यालय में जाने-माने भौतिकशास्त्री मेघनाथ साहा के विद्यार्थी रहे । कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से लार्ड रदरफोर्ड के साथ पीएच.डी. पूरी की । लार्ड रदरफोर्ड ने दिल्ली विश्वविद्यालय के तत्कालीन वाइस चांसलर सर मॉरिस ग्वायर को लिखा था कि ‘मैं बिना हिचकिचाहट कोठारी को कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में प्रोफेसर के पद पर नियुक्त करना चाहता हूँ परंतु यह नौजवान पढ़ाई पूरी करके तुरंत देश लौटना चाहता है ।’
भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू को विज्ञान नीति बनाने में जिन लोगों ने सहयोग दिया उनमें डॉ. कोठारी, होमी भाभा, डॉ. मेघनाथ साहा और सी.वी. रमन थे । डॉ. कोठारी रक्षा मंत्री के वैज्ञानिक सलाहकार रहे । 1961 में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के अध्यक्ष नियुक्त हुए जहां वे दस वर्ष तक रहे । डा. कोठारी ने यू.जी.सी. के अपने कार्यकाल में शिक्षकों की क्षमता, प्रतिष्ठा से लेकर केन्द्रीय विश्वविद्यालय और उच्च कोटि के अध्ययन केन्द्रों को बनाने में विशेष भूमिका निभाई ।
राष्ट्रीय शिक्षा आयोग (1964-1966)
स्कूली शिक्षा में भी उनकी लगातार रुचि रही । इसीलिए उन्हें राष्ट्रीय शिक्षा आयोग (1964-1966) का अध्यक्ष बनाया गया । आजाद भारत में शिक्षा पर संभवतः सबसे महत्वपूर्ण दस्तावेज, जिसकी दो बातें बेहद चर्चित रही हैं । पहली – समान विद्यालय व्यवस्था (common schoolsystem)और दूसरी देश की शिक्षा स्नातकोत्तर स्तर तक अपनी भाषाओं में दी जानी चाहिए । उनकी मुख्य सिफारिशें :-
1. नई भाषा नीति : शिक्षा के सभी चरणों में, प्रादेशिक भाषाओं को शिक्षा का माध्यम होना चाहिए । (प्रारम्भिक शिक्षा में मातृभाषा को सर्वाधिक प्राथमिकता दी जाएगी) इस उद्देश्य के लिए एक निश्चित, सुनियोजित और समयबद्ध कार्यक्रम तैयार करना होगा । अंग्रेजी भाषा संसार से हमारे संचार का मुख्य माध्यम है और आधुनिक वैज्ञानिक युग के बढ़ते हुए ज्ञान को प्राप्त करने का मुख्य साधन है । अत: अंग्रेजी को प्रोत्साहन और महत्व मिलना चाहिए, जिसमें उसे पढ़ने और उसको समझने पर विशेष बल दिया जाए । अन्य अन्तर्राष्ट्रीय भाषाओं जैसे – रूसी, स्पेनिश, फ्रेंच और जर्मन के अध्ययन को भी बढ़ावा मिलना चाहिए । राष्ट्रीय स्तर पर सम्पर्क भाषा के रूप में हिन्दी को बढ़ावा दिया जाए तथा गैर हिन्दी क्षेत्रों में हिन्दी के अध्ययन को प्रोत्साहित किया जाए । भारत की सभी राष्ट्रीय भाषाएं एक तरह का सम्पर्क स्थापित करने में सहायक हो सकती हैं । अत: प्रत्येक भाषायी क्षेत्र में उनके अध्ययन की व्यवस्था होनी चाहिए । स्कूल में, माध्यमिक चरण में, तीन भाषायी फॉरमूला अपनाया जाए । दूसरी भाषा छ: वर्ष तक, और तीसरी भाषा तीन वर्ष तक (कम से कम) पढाई जाए । उच्चतर माध्यमिक चरण में दो भाषाओं का अध्ययन हो और विश्वविद्यालय चरण में सामान्यत: किसी भी भाषा का अध्ययन अनिवार्य न किया जाए , जब तक कि उस भाषा का विद्यार्थी के कार्य से अन्तरंग सम्बन्ध न हो ।
2 सामान्य स्कूल प्रणाली : वर्तमान शिक्षा प्रणाली में सम्पन्न वर्गों और गरीब जनता के बीच सामाजिक-आर्थक विषमताऍं प्रतिबिम्बित होती हैं । इसमें एक ओर तो हर स्तर के लिए उच्च कोटि की शिक्षण संस्थाएं हैं जिनमें अमीरों तथा सामाजिक और आर्थिक दृष्टि से महत्वपूर्ण समूहों के बच्चे पढ़ने जाते हैं । परन्तु सरकार द्वारा चलाई जाने वाली अधिकांश संस्थाएं निम्न कोटि की हैं और अधिकांश गरीब तथा सीमावर्ती लोगों के लिए केवल वे ही उपलब्ध हैं । सामाजिक और राष्ट्रीय एकीकरण की दृष्टि से, यह पृथक्करण अति आपत्तिजनक उपलब्ध हैं । अत: राष्ट्रीय स्कूल प्रणाली को चाहिए कि वह सामान्य स्कूल प्रणाली अपनाए जो इस पृथक्करण को समाप्त कर देगी और सभी बच्चों को स्कूलों की एक सामान्य प्रणाली में शिक्षा प्राप्त करने का अवसर देगी जिनका स्तर लगभग समान होगा । प्राथमिक शिक्षा के लिए विशेष रूप से इसे पड़ोसी स्कूल का प्रतिमान अपनाना चाहिए, जिसमें सब बच्चे- चाहे वे किसी भी जाति, प्रजाति, धर्म, लिंग या वर्ण के हों- मोहल्ले के एक सामान्य प्राथमिक स्कूल में पढ़ने जाएं ।
कोठारी शिक्षा आयोग 1964-66 की सिफारिशों के महत्व का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि 1971 में यूनेस्को द्वारा डॉ. एडगर फाउर की अध्यक्षता में जब शिक्षा के विकास पर अंतर्राष्ट्रीय आयोग का गठन किया गया, तब उन्होंने कोठारी आयोग की रिपोर्ट को ही आधार बनाया था । इस आयोग ने अगले दो दशकों तक दुनिया के विभिन्न देशों में शिक्षा के विकास पर कार्य किया ।
सिविल सेवा परीक्षा रिव्यू कमेटी
प्रशासन, शिक्षा, विज्ञान के इतने अनुभवी व्यक्ति को भारत सरकार ने उच्च प्रशासनिक सेवाओं के लिये आयोजित सिविल सेवा परीक्षा की रिव्यू के लिए कमेटी का 1974 में अध्यक्ष बनाया । इस कमेटी ने 1976 में अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंपी जिसके आधार पर 1979 से भारत सरकार के उच्च पदों आई.ए.एस., आई.पी.एस. और बीस दूसरे विभागों के लिए एक कॉमन परीक्षा का आयोजन प्रारंभ हुआ । सबसे महत्वपूर्ण और क्रांतिकारी कदम जो इस कमेटी ने सुझाया वह था : – अपनी भाषाओं में (संविधान की आठवीं अनुसूची में उल्लिखित सभी भारतीय भाषाओं )और अंग्रेजी में उत्तर देने की छूट और दूसरा उम्र सीमा के साथ-साथ देश भर में परीक्षा केन्द्र भी बढ़ाये जिससे दूर देहात कस्बों के ज्यादा-से-ज्यादा बच्चे इन परीक्षाओं में बैठ सकें और देश की सर्वश्रेष्ठ प्रतिभाएं देश के प्रशासन में समान रूप से हाथ बटाएं ।
डॉ. कोठारी भारतीय राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी, तकनीकी शब्दावली और जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय नई दिल्ली के 1981 से 1991 तक कुलाधिपति (चांसलर) भी रहे ।
गांधी, लोहिया के बाद आजाद भारत में भारतीय भाषाओं की उन्नति के लिए जितना काम डॉ. कोठारी ने किया उतना किसी अन्य ने नहीं । यदि सिविल सेवाओं की परीक्षा में अपनी भाषाओं में लिखने की छूट न दी जाती तो गाँव, देहात के गरीब आदिवासी, अनुसूचित जाति,जनजाति के लोग उच्च सेवाओं में कभी भी नहीं आ सकते थे । अपनी भाषाओं में उत्तर लिखने की छूट से इन वंचितों में एक आत्मविश्वास तो जगा ही भारतीय भाषाओं के प्रति एक निष्ठा भी पैदा हुई । अफसोस की बात यह है कि उसी को संघ लोक सेवा आयोग उलटना चाहता था ।
उनके जीवन पर उनकी नातिन दीपिका कोठारी ने एक पुस्तक लिखी है । ‘सुनहरी स्मृतियाँ’ इसे नेशनल बुक ट्रस्ट ने प्रकाशित किया है । उनकी सादगी के दर्जनों चित्र इस पुस्तक में हैं । विश्वविद्यालय में रहते हुए जब भी वेतन बढ़ाने की माँग आती वे अपने सहकर्मियों को यही कहते ’ऐसे अवसर तुम्हें कहाँ मिलेंगे जहाँ तुम्हें अपनी पसंद का कार्य करने के लिए पैसा भी मिलता हो और रुचि का काम भी करने दिया जा रहा हो । उसकी कुछ कीमत तो चुकानी ही पड़ेगी ।’ एक गरीब देश के नौजवानों को इससे ज्यादा प्रेरणा कौन शिक्षक दे सकता है । शिक्षा को वे अपने जीवन में शायद सबसे उँचा दर्जा देते थे । उन्हीं के शब्दों में ’शिक्षण एक उत्कृष्ट कार्य है और किसी विश्वविद्यालय का शिक्षक होना सर्वोच्चतम अकादमिक सम्मान है ।’ इसीलिये जीवन पर्यन्त शिक्षा और शिक्षण से जुड़े रहे कभी गुरू बनकर तो कभी विद्यार्थी बनकर । दादाजी की दिनचर्या सहज और सधी हुई थी । मैंने उनको शारीरिक रूप से कभी अस्वस्थ होते हुए नहीं देखा । वे जीवन भर कभी अस्पताल में भर्ती नहीं हुए । केवल थोड़ा ब्लडप्रेशर रहता था, वह भी कुछ जैनेटिक कारणों से, जिसे वे खान-पान में फेरबदल करके पूरी तरह नियंत्रण में कर लेते थे ।
दीपिका लिखती हैं कि ’जब उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय और दिल्ली को छोड़ा दादाजी-दादीजी ने अपना जीवन दो सूटकेसों व दो बैगों में समेट लिया । इसके बाद मैंने उन्हें हमेशा इतने से ही सामान के साथ देखा । पुस्तकों, कपड़ों व अन्य चीजों के अलावा, एक थाली, कटोरी, चम्मच, गिलास, चीनी, नेलकटर, मेगनिफाइंग लेंस, लौंग व इलायची की डिब्बी, कैंची, चाकू, मोमबत्ती, माचिस, रस्सी, सुई-धागा, टॉर्च आदि जरूरत की सभी चीजें दो बैगों में समा जाते थे । तब हवाई यात्रा में इन वस्तुओं पर कोई रोक नहीं थी और वे इन संसाधनों के साथ आया-जाया करते थे ।
प्रो. कोठारी के व्यक्तित्व और कृतित्व में इतनी ताकत है कि मौजूदा शिक्षा व्यवस्था, विज्ञान नीति और भारतीय भाषाओं और अंग्रेजी के बीच चल रही कई जटिल समस्याओं का समाधान सरकार इसमें ढूंढ़ सकती है ।
गत सप्ताह (5/7/2013) सुप्रीम कोर्ट ने भाषा के मसले पर एक महत्वपूर्ण निर्णय का संकेत दिया है । संकेत यह है कि पहली से पांचवीं कक्षा तक बच्चों की पढ़ाई का माध्यम मातृभाषा हो या दूसरी भाषाएं । इस मुद्दे को न्यायमूर्ति सदाशिवम और रंजन गोगोई ने पांच सदस्यीय बड़ी बैंच को सौंपने का फैसला किया है । मामला है भी बहुत नाजुक । डॉ. कोठारी और उनका काम भाषा समस्या को सुलझाने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है ।
प्रश्न: क्या कोठारी आयोग के अलावा अन्य समितियों ने भी इस दिशा में कोई उल्लेखनीय सिफारिशें की हैं ?
उत्तर: भारतीय भाषाओं का पक्ष सभी ने कायम रखा । सन् 1979 में संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षा में कोठारी आयोग की सिफारिशें लागू होने के बाद से समय-समय पर दूसरी समितियों ने भी परीक्षा-पद्धति से लेकर भर्ती प्रणाली तक का मूल्यांकन किया है । वर्ष नब्बे के आसपास सतीशचंद्र समिति बनी थी, जिसने इस पर विचार किया था कि कौन से विषय मुख्य परीक्षा में रखे जाऍं या बाहर किए जाऍं और यह भी कि किन केंद्रीय सेवाओं को इस परीक्षा से बाहर रखा जाए । लगभग बाहर वर्ष पहले जाने-माने अर्थशास्त्री व शिक्षाविद् प्रो.वाई के अलघ की अध्यक्षता में बनी समिति को भी ऐसी समीक्षा की जिम्मेदारी दी गई, जिससे अपेक्षित अभिक्षमता के नौजवान इन सेवाओं में आएं । उनके सामने यह चुनौती भी थी कि भर्ती के बाद प्रशिक्षण कैसे दिया जाए, विभाग किस आधार पर आबंटित हों, आदि ।
अलघ समिति की संस्तुतियों में अन्य बातों के साथ-साथ यह भी कहा गया था कि अभ्यर्थियों की उम्र अगर कम की जाए तो अच्छा रहेगा । इसके पीछे शायद यह सोच थी कि पकी उम्र में आने वाले नौकरशाहों और उनकी आदों को बदलना आसान नहीं होता । हालॉंकि ‘इंडियन एक्सप्रेस’ में छपे अपने एक लेख में उन्होंने स्पष्ट कहा था कि उम्रकी वजह से गरीब और अनुसूचित जाति-जनजाति के अभ्यर्थियों की संख्या पर उलटा असर नहीं पड़ना चाहिए ।
फिर अचानक वर्ष 2013में देश के ऊपर न जाने कौन सा संकट आ गया कि प्रशासनिक सेवा की परीक्षा में अपनी भाषा के ज्ञान का पर्चा तो गायब हो गया, लेकिन अंग्रेजी के सौ नंबर पिछले दरवाजे से चालाकी के साथ निबंध के पर्चें में जोड़ दिए गए और वे नंबर अंतिम मेरिट में भी जोड़े जाएंगे । क्या चार-पांच लाख मेधावी छात्रों के बीच गलाकाट प्रतियोगिता में सौ नंबर कम होते हैा ? और क्या भारतीय संविधान अपनी भाषाओं को खारिज करके अग्रेजी को उनके ऊपर रखने की इजाजत देता है ? क्या इतने महत्वपूर्ण फैसले पर संसद या विश्वविद्यालयों में बहस नहीं होनी चाहिए ? क्या गांव, देहात के मोची, बढ़ई अथवा मजदूर के बच्चे से उतनी अंग्रेजी की उम्मीद की जा सकती है, जो शहरों के बच्चों को आती है ? इसका अर्थ है कि उनक लिए जो दरवाजे कोठारी समिति ने खोले थे, वे फिर से बंद होने लगेंगे । वैसे तो नई आर्थिक नीतियॉं, अंग्रेजी का प्रचार-प्रसार, निजी स्कूलों में धुऑंधार अंग्रेजी के रटंत पर जोर-यह सब ग्रामीण व पिछड़े अभ्यर्थियों को प्रभावित कर रहे हैं, लेकिन आई ए एस जैसी उच्च सरकारी नौकरियों में यह चोट शायद सबसे अधिक भारी पड़ेगी । कहॉं तो कोठारी समिति ने भारतीय वन सेवा, आर्थिक सेवा, सांख्यिकी सेवा में भी भारतीय भाषाओं के विकल्प की सिफारिश की थी और कहां एकमात्र सिविल सेवा परीक्षा में भी भारतीय भाषाओं के लिए उल्टी गिनती शुरू हो गई । आखिर सरकार और संघ लोक सेवा आयोग ने अप्रैल 2013 में सिविल सेवा की मुख्य परीक्षा में भारतीय भाषाओं को जारी रखने की बात मान ली । यानी अंग्रेजी को अतिरिक्त लाभ नहीं मिलेगा और भारतीय भाषा व साहित्य को माध्यम तथा वैकल्पिक विषय के रूप में लेने की छूट पहले की तरह बनी रहेगी । लेकिन यह जीत अधूरी है । संघर्ष तब तक जारी रहना चाहिए जब तक कि-
1 2011 में शुरू हुई प्रिलिमिनरी परीक्षा में भी अंग्रेजी न हटे ।
2 कर्मचारी चयन आयोग व बैंक आदि की अन्य परीक्षाओं में अंग्रेजी को अतिरिक्त लाभ न मिले ।
3 कोठारी समिति की अनुशंसाओं के अनुरूप सिविल सेवा परीखा के साथ-साथ इंजीनियरिंग, वन, सांख्यिकी, आर्थिक, चिकित्सा-सेवा में भी भारतीय भाषाओं में उत्तर लिखने की छूट न मिले ।
रोजी, रोटी, रोजगार की इस जीत पर ही इस देश की भाषा, साहित्य, संस्कृति का भविष्य निर्भर करेगा ।
भारतीय भाषा, साहित्य, संस्कृति को लेकर तकरीबन सभी हलकों में चिंता जताई जाती है । यदि ठहरकर सोचें तो इस सबका समाधान अपनी भाषा की इसी नाव से संभव है, जिसे हाल ही में संघ लोक सेवा आयोग ने खारिज कर दिया था । कई बार गलती से ही समस्या उभरकर सामने आ जाती है । अब हम सबका दायित्व है कि इस मौके को हाथ से न जाने दें और शिक्षा तथा रोजगार दोनों के लिए अपनी भाषाओं की तरफ लौटें, यूपीएससी की अन्य परीक्षाओं-वन सेवा, चिकित्सा आदि के साथ । कर्मचारी चयन आयोग, बैंक, न्याययिक सेवा आदि की प्रतियोगिताओं में भी अपनी भाषाओं को समानता मिले । यह लौटना आजादी के बाद का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक कदम होगा और सही मायनों में आजादी का अर्थ भी ।