भाग – 2
प्रश्न: साहित्यकारों विशेषकर हिंदी के साहित्यकारों ने शिक्षा पर न लिखा, न कभी रूचि दिखाई । इसकी क्या वजह मानते हैं और इससे क्या नुकसान हुआ ?
उत्तर: वाकई बहुत महत्वपूर्ण और गंभीर प्रश्न है । पिछले सौ वर्षों के हिंदी साहित्य पर नजर डालें तो आजादी के पहले के साहित्यकारों जैसे प्रेमचंद अपने उपन्यासों और स्वतंत्र लेखों में शिक्षा, भाषा के मसले को बार-बार उठाते हैं । नारी शिक्षा की बात, बराबरी की जोर-शोर से उठाते हैं । गोदान में माल्ती, मेहता प्रसंग याद कीजिये । समाज की इन समस्याओं में भी उनकी सक्रिय भागीदारी है । राजनीतिक स्तर पर भी सेठ गोविन्द दास, दिनकर, बच्चन नजर आते हैं । लेकिन सबसे दुर्भाग्यपूर्ण समय रहा है पिछले तीस-चालीस वर्षों का । आश्चर्य की बात है कि इन लेखकों की राजनैतिक प्रतिबद्धताएं तो हैं और डंके की चोट पर हैं लेकिन बिगड़ती शिक्षा, वह स्कूल की हो या विश्वविद्यालय, को लेकर उनमें विशेष उत्सुकता या बेचैनी कभी नहीं देखी ।
मैं दिल्ली में ऐसे कई अनुभवों का साक्षी रहा हूं । आज से करीब दस वर्ष पहले जब दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रतिष्ठित कालेजों ने हिंदी माध्यम से पढ़ाना धीरे-धीरे बंद किया या स्नातकोत्तर विषयों जैसे इतिहास,राजनीति शास्त्र आदि में बिल्कुल बंद कर दिया तो कुछ विद्यार्थी संगठित होकर इसके खिलाफ गोलबंद हुए । उन्होंने अलग-अलग स्तर पर हिंदी के कई दिग्गज लेखकों, संपादकों से भी अनुरोध किया कि वे दिल्ली विश्वविद्यालय में अपनी भाषाओं में पढ़ाने की उनकी लड़ाई में साथ दें । आश्चर्य की बात है कि न तब उनके कान पर जूं रेंगी और न उसके बाद । बड़ी विचित्र और खौफनाक स्थिति लगती है । दिल्ली में उन्हें अलग-अलग मंच और सेमिनारों में हिंदी पाठकों की कमी का रोना रोते हुए सुन सकते हो । वे शिकायत करते फिरते हैं कि नयी पीढ़ी हिंदी की किताब न पढ़ती,न खरीदती । क्या इनको नहीं पता कि जो भाषा उनके स्कूल में ही नहीं रही, कॉलेज में ही नहीं रही, जिस हिंदी के बिना उनके सारे काम चल जाते हैं बल्कि वो इसी दबाव में अंग्रेजी भी सीख रहे हैं, तो हिंदी की किताबों की तरफ कैसे आएंगे ? पिछले दो-तीन वर्षों में भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना हजारे, अरविंद केजरीवाल जैसे लोग सड़क पर उतरे हैं और लोगों ने लोकतंत्र का नया अर्थ समझा है । क्या हमारे हिंदी लेखक, साहित्यकार अपनी भाषा में शिक्षा या नौकरियों के लिए इस रूप में संगठित नहीं हो सकते ? यहां यह कहना भी जरूरी लगता है कि पिछले दिनों संघ लोक सेवा आयोग ने जब देश की सर्वोच्च सेवाओं भारतीय प्रशासनिक सेवाओं आदि में अंग्रेजी फिर से लादने की शुरूआत की तब भी शायद ही किसी हिंदी के बड़े लेखक,साहित्यकार का कोई वक्तव्य, लेख सामने आया हो । पता नहीं वे क्यों राजनीतिज्ञों के साथ रह-रहकर उनसे भी घटिया, संकीर्ण जातिवादी, क्षेत्रवादी राजनीति में उलझे रहते हैं ? हिंदी पट्टी के साहित्यकारों को यह सोचने की जरूरत है कि एक बड़े स्तर पर वे जिस वाम विचारधारा से जुड़े हुए हैं वे राजनीतिक पार्टियां कम-से-कम बंगाल और केरल में अपनी भाषा के लिए चिंतित हैं । हिंदी के लिए वे राजनैतिक कारणों से शायद नहीं । लेकिन हमारा हिंदी साहित्यकार यह सबक क्यों नहीं लेता कि इन राज्यों में हिंदी को आगे ले जाने की जिम्मेदारी हिंदी साहित्यकारों की भी है । इन्हें यहां के राजनीतिज्ञों पर भी दबाव बनाना चाहिए । शिक्षा के रास्ते से ही भाषा और संस्कृति की मंजिल तक पहुंचा जा सकता है । शिक्षा और भाषा राजनीति के एजेंडे, मैनिफेस्टों में क्यों नहीं ?
यहां मुझे याद आ रहा है कन्नड़ लेखक शिवराम कारंथ का उदाहरण । उन्हें कन्नड़ का रवीन्द्रनाथ टेगौर कहा जाता है । जितने बड़े साहित्यकार थे उतने ही बड़े सामाजिक कार्यकर्ता, राजनीतिज्ञ, शिक्षाविद आदि-आदि । उन्होंने कन्नड़ भाषा सीखने के लिए छात्रों के लिए ‘प्रवेशिका’ लिखी । पाठ्यक्रम की किताबें लिखीं । बड़ा साहित्यकार वही होता है जो समाज की ज्वलंत समस्याओं से जूझता है । उनसे बचकर नहीं निकलता । हिंदी साहित्यकार राजनीति को ना-ना कहते हुए भी उन्हीं राजनीतिक चिंताओं में ज्यादा डूबा रहता है जिनसे दूर रहने का वह ढोंग करता है ।
अगर यह कहें कि हिंदी साहित्यकार जितना शिक्षा और भाषा के प्रश्नों से दूर है उसी अनुपात उसकी नौजवान पीढि़यों और उतनी ही पिछड़ी है हिंदी पट्टी ।
प्रश्न: अब तो स्थिति यह आ गई है कि बच्चे अपनी भाषा में पढ़ना चाहते हैं लेकिन न स्कूल में वे सुविधाएं हैं और न कॉलेज स्तर पर । दिल्ली विश्वविद्यालय में 1980 के आसपास हिंदी माध्यम से हजारों छात्र इतिहास, राजनीति शास्त्र आदि विषय पढ़ते थे । पिछले वर्ष अखबारों में खबर थी कि इन विषयों में एम.ए. में एक बड़ी संख्या में फेल हो गये हैं । उसका कारण था कि उन्हें अंग्रेजी माध्यम मजबूरी में लेना पड़ा है । हिंदी माध्यम की बात कहने पर उनसे कहा जाता है कि आप पटना, इलाहाबाद चले जाओ यहां पढ़ने ही क्यों आए । इसका कैसे रास्ता निकाले ।
उत्तर: रास्ता तो विद्यार्थियों को ही निकालना पड़ेगा भले ही उन्हें आंदोलन कर सड़क पर आना पड़े । आप कब तक इन मानसिक तनावों को सहते रहेंगे ? दिल्ली में आना और पढ़ना उनका अधिकार है । एक अच्छी शिक्षा के लिए, अच्छी नौकरी के लिए । दिल्ली है भी हिंदी प्रांत का हिस्सा तो सारे संविधान की धाराओं और समाज की जरूरतों के बावजूद भी दिल्ली विश्वविद्यालय में क्यों हिंदी माध्यम में पढ़ाई नहीं हो सकती ? अफसोस यह है कि शिक्षा अपनी भाषा में बढ़ने की बजाए और कम हो रही है । डॉ.कोठारी ने 1976 में जब सिविल सेवाओं में अपनी भाषाओं के माध्यम से संस्तुति की थी तब दिल्ली विश्वविद्यालय में इतिहास, राजनीति शास्त्र जैसे विषयों में बीस-पच्चीस प्रतिशत हिंदी माध्यम से पढ़ते थे । इन्हीं के भविष्य से चिंतित कोठारी ने अपनी रिपोर्ट में जिक्र किया है । हिंदी माध्यम से पढ़ने वाले तीस सालों में और बढ़ने चाहिए थे । इसलिए भी कि दिल्ली में अधिकतर छात्र यू.पी. और बिहार से आते हैं । लेकिन अब तो शायद ही हिंदी माध्यम बचा है । अनगिनत उदाहरण हैं कि जब छात्र पढ़ना चाहता है दर्शन शास्त्र या भूगोल अपने हिंदी माध्यम से और हिंदी माध्यम न होने की वजह से उसे और विषय लेना पड़ता है । दिल्ली का असर आसपास के इंजीनियरी कॉलेजों के व्यवसायिक पाठयक्रमों में भी फैल रहा है । उन कॉलेजों में न पढ़ाने वालों को अंग्रेजी आती, न पढ़ने वालों को लेकिन फिर भी अंग्रेजी में कोशिश कर रहे हैं । पूरी शिक्षा का स्तर इसीलिए और नीचे गिर रहा है ।
प्रश्न: अगर अपनी भाषा में बच्चों को शिक्षा देना चाहें तो हमारे सामने विकल्पहीनता की स्थिति हो गई है। जो स्कूल हैं भी, वे खानापूर्ति के लिए रह गए हैं।
उत्तर: मैं भाषा और शिक्षा को अलग करके नहीं देखता। निश्चिततौर से और अफसोस के साथ कह रहा हूं कि सारे विकास और जीडीपी ग्रोथ और 21वीं सदी हमारी यानी जितनी भी किस्म की नकली बातें की जा सकती हैं, उन सबके बीच मैं कम से कम उत्तर प्रदेश को जानता हूं। मैं पश्चिम उत्तर प्रदेश का हूं। यहां पिछलेचालीस वर्षों में शिक्षा की स्थिति जितनी बर्बाद हुई, वह बयान नहीं की जा सकती। इसके मैं एक-दो उदाहरण दूं।
मेरे गांव में दो स्कूल थे। वहां काफी मेहनत के बाद सिर्फ इतना विकासहुआ कि एक स्कूल में छठीं, सातवीं और आठवीं में लड़कियों की क्लास शुरू हुईं। दोनों स्कूलों में पहले पांच-पांच सरकारी शिक्षक होते थे। शाम को जब हम खेतों में हुआ करते थे तो पता चल जाता था कि बच्चों की छुट्टी होने वाली है क्योंकि छुट्टी के अंतिम झणों में पहाडे़ या गिनती की जोर-जोर से आवाज होती थी। कुछ चहल-पहल होती थी। अब सब कुछ गायब है।
एक स्कूल के साथ मेरा संबंध है। पिछले दिनों वहां पूर्व राष्ट्रपति कलाम को बुलाया। इस सिलसिले में वहां जाना हुआ। एक स्कूल में केवल एक टीचर। और दूसरे स्कूल में जिसे हम बड़ा स्कूल कहते थे, जिसमें छह टीचर होते थे, वहां एक भी नहीं है। वहां एक शिक्षा मित्र काम कर रहा है। मैंने पूछा कि यहां के लिए कुछ कोशिश की जाए। बोले कि इससे कोई फायदा नहीं क्योंकि जो सरकारी शिक्षक है, वह तो आता ही नहीं। यानी जब टीचर ही नहीं तो वहां कौन बच्चा आएगा। यहीं पर एक नया खेल शुरू हो रहा है। कई-कई रास्तों से पैसा गांवों की तरफ आ रहा है। वहां हर तीसरे नुक्कड़ पर एक अंग्रेजी स्कूल खुल गया है। वह अंग्रेजी के बहाने पैसा ज्यादा ले रहे है। लेकिन बच्चों को अंग्रेजी पढ़ाएगा कौन? उन स्कूलों के नाम भी देखोगे तो उसमें भीगलतियां हैं।
यह 21वीं सदी का भारत है या हम 15वीं सदी में शिक्षा के नाम पर नाटक हो रहा है। यह एक पक्ष है।
दूसरे अभी दसवीं-बारहवीं के इम्तहान चल रहे थे। आप उत्तर प्रदेश के किसी के घर में जाइए, कई रिश्तेदार आए हुए होते हैं। किसलिए आए हुए हैं, वे नकल करने, कराने में मदद के लिए । जिस स्कूल में सेंटर है, वहां कई तरह की, दस हजार-पंद्रह हजार की फीस वसूली है । अपाहिज बच्चा जो स्कूल गया ही नहीं, उसके नाम पर दसवीं का सर्टिफिकेट मिल रहा है। यानी कि उसकी जगह पर फोटो लगाकर कोई और बच्चा परीक्षा दे आया। उन बच्चों की अंग्रेजी की बात तो छोडिए, हिंदी भी लिखनी नहीं आती। हां साइंस पढ़ना उनके चेहरे पर दर्प का भाव जरूर लाता है। जैसे साइंस पढ़कर वो आइंस्टाइन बनने की ओर निकल जाएंगे। शायद आपको पता नहीं कि इससे उनकी दहेज की मांग बढ़ जाती है कि साइंस पढ़ रहा है। एक बच्चा मेरे पास आया। मैंने उससे पूछा कि बताओ क्या-क्या विषय हैं तो बता नहीं पा रहा था। मैंने कहा कि चलो लिखकर दे दो। उसने लिखने की कोशिश की, लेकिन वह विषयों के नाम न हिंदी में लिख पाया न, अंग्रेजी में। पिछले दिनों शिक्षा की यह बुनियादी कमजोरी यानी भाषा और ज्ञान में गिरावट तकलीफदेयहै। बच्चों को न हिंदी आ रही है न अंग्रेजी। भले ही हम दुनिया की सबसे बड़ी जवान पीढ़ी होने का दावा करें । लगभग अनपढ़ । दुनिया भर के आंकडे़ बता रहे हैं कि पांचवीं का बच्चा पहली क्लास की किताब नहीं पढ़ पाता। मुझे लगा रहा है कि भाषा और शिक्षा पर बहुत घना अंधेरा छा रहा है।
प्रश्न: किसी भी भाषा का ज्ञान से क्या संबंध है? यह मानना कि उसको अंग्रेजी नहीं आती तो वह अज्ञानी है यह तो सरासर गलत है ।
उत्तर: कुल मिलाकर भाषा ही तो उसे मुनष्य कहने का अधिकार देती है। इसका मतलब है- सोचने, समझने का। क्या ज्ञान उसी सोचने और समझने से पैदा नहीं होता। अगर इसी बात को थोड़ा-सा बढ़ाऊं तो इसी सोचने-समझने के अभाव की वजह से तो हम कुछ अपना ज्ञान उसमें पैदा नहीं कर पा रहे हैं। पिछले सौ-दो सौ साल में कोई भी नई खोज हमारे यहां नहीं हुई। हमारे यहां चेचक होती थी। लोग मरते थे। माता-देवी-देवताओं की पूजा चलती रही। यूरोप के डॉक्टर जीनर, लुई पास्चुर, हार्वे और न जाने कितने डॉक्टरों, वैज्ञानिकों ने एक तर्क, समझ के बूते इन बीमारियों को समझा और इन पर विजय पाई । देवी-देवताओं के सहारे रहते तो आज न कोई खोज होती, न बीमारियों का इलाज होता । मैं एक और उदाहरण देता हूं। इस देश में मलेरिया से मरने वाले कैंसर से मरने वालों से कई गुना ज्यादा हैं। हजारों-लाखों लोग मर रहे थे। रोनाल्ड रोस अंग्रेजों की सेना में नौकरी करता था। उसने देखा कि लाखों लोग मर रहे हैं। प्रयोगशाला की सुविधा नहीं थी। बहुत कम सुविधाओं में मलेरिया के लिए कुनैन की खोज की। इसके लिए उन्हें 1920 में नोबल पुरस्कार भी मिला। चाहे वह फेराडे हो, हार्वे हो, हार्ट का ट्रांसप्लानट हो, कोई नई टैक्नोलॉजी हो, टेलीफोन हो, कोई ऐसी चीज है जिसकी खोज भारत में हुई हो? आप कह सकते हैं कि उस समय ब्रिटिश राज था। मान लिया। आजादी के बाद तो अब पैंसठ साल हो गये । अंग्रेजों के स्थापित संस्थान, पुरात्तव विभाग, एशियाटिक सोसाइटी, विश्वविद्यालय बेहतर काम कर रहे थे ।आजादी के बाद के समय को देखें तो और गिरावट आयी है । अपनी भाषा में पढ़ना-समझना होता तो शायद स्थिति दूसरी होती।
मुझे नई पीढ़ी से कोई शिकायत नहीं है। मुझे शिकायत है तो अपनी पीढ़ी से है। मैंने बच्चों को किताबों में इतना पेल रखा है। आईआईटी परीक्षा में आपने देखा होगा कि पिछले दस वर्ष में परीक्षा के मॉडल बार-बार बदले जा रहे हैं। इस बुनियादी चीज की ओर ध्यान नहीं दिया जा रहा हैकि जो आईआईटी से निकल रहे हैं, वे कहीं पहुंच पाए? क्योंकि पूरे देश भर,गांव-देहात से पढ़ा हुआ टैलेंट अंग्रेजी पढ़ना-रटना शुरू करता है। उसके चार-पांच साल अंग्रेजी को रटने में चले जाते हैं। सारा समय अंग्रेजी को रटने में चला गया तो मौलिक काम की तरफ तो वह गया ही नहीं। यानी कि ज्ञान का इजाफा तो कर ही नहीं पाए। जो ज्ञान अमेरिका में बढ़ रहा है, उसको रट भर पाए। यह बुनियादी खामी है। जापान अपनी भाषा के बूते पर शोध कर रहा है चीन कर रहा है, दुनिया भर के मुल्क कर रहे हैं।
हमारे मौजूदासत्ता प्रतिष्ठान में कम से कम 50 प्रतिशत वो हैं जिन्होंने पढ़ाई विदेश में की है। और शीर्ष में बैठा हुआ भी कहता है कि सब कुछ अंग्रेजी में ही संभव है। अब तो कई राज्यों के मुख्यमंत्री भी विदेश में पढ़े हुए हैं। इसके बीच में आदिवासी गांव में कोई शोध करने वाला, स्वतंत्र चिंतन करने वाला जैसे ही स्वतंत्र चिंतन की ओर बढ़ेगा, सबसे पहले मानसिक दबाव में अंग्रेजी की रटाई शुरू हो जाएगी। यह मैं नहीं कह रहा। सौ वर्ष पहलेमहात्मा गांधी नेउन दिनों भी कहा कि हमारे बच्चे कितनी बड़ी ताकत अंग्रेजी को सीखने में झोंक देते हैं। जब सारी ताकत अंग्रेजी को बोलने और उच्चारण में ही चली गई तो ज्ञान कहां बचेगा। इसलिए हमारे यहां तथाकथित बाबा,ज्ञानी तो हो सकते हैं, ऋषि, मुनि हो सकते हैं लेकिन ऐसा वैज्ञानिक नहीं हो सकते जो हमारे मलेरिया, चेचक या किसी बुनियादी चीज का इलाज कर सकें।
हॉं,यदि बच्चे के ऊपर यह या कोई भी विदेशी भाषा किसी मातृभाषा की उपेक्षा करके दस-बारह वर्ष की उम्र से पहले लादी जाती है, तो । यहां लादना महत्वपूर्ण शब्द है । जबरदस्ती यानी पहली क्लास से ही उसे सिखाने और पढ़ाई का माध्यम बनाने की कोशिश करना । मैं यहां हाल का एक अनुभव सुनाता हूं- जाने-माने इतिहासकार सुधीरचंद्र की किताब ‘गांधी-एक असंभव संभावना’ महात्मा गांधी के अंतिम दिनों के बारे में है । बहुत ऐतिहासिक, रोचक किताब है यह और उतनी ही महत्वपूर्ण है इसकी भाषा-बोलने, कहने के अंदाज में लिखी हुई । पुस्तक के विमोचन के वक्त सुधीरचंद्र ने बताया कि इससे पहले मेरी सारी किताबें अंग्रेजी में लिखी गई हैं, ऑक्सफोर्ड आदि से प्रकाशित हुई हैं । यह किताब पहली बार मैंने हिंदी में सोची व लिखी है और जितने आनंद, जितने संतोष का अनुभव मुझे यह किताब लिखने में हुआ, उतना अपनी कोई और किताब लिखने में नहीं । यह कहकर वे लगभग गद्गद् भाव से अपने बचपन व अंग्रेजी के मल्लयुद्ध में खोते गए । उन्होंने बताया कि अंग्रेजी अन्हें कितना परेशान करती थी –‘रात-दिन पढ़ने के बाद सबसे ज्यादा डर अंग्रेजी से ही लगता था । पढ़ाई जरूर अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय व जामिया मिल्लिया विश्वविद्यालय में अंग्रेजी माध्यम से की और लिखा व छपा भी अंग्रेजी में, लेकिन अपनी भाषा में लिखने का आनंद ही कुछ और है । मुझे अफसोस होता है कि मैंने अपनी भाषा में पहले क्यों नहीं लिखा ।’
हमें विदेशी भाषाएं अपनी चाहिए, अंग्रेजी भी, लेकिन कुछ ठहरकर । एक उम्र के बाद और केवल भाषा के रूप में, नकि हर समय, हर जगह- उच्च शिक्षामें भी, शोध में भी और दफ्तर में भी अंग्रेजी । अपनी भाषा पर पकड़ होने के बाद अंग्रेजी और भी जल्दी आती है ।
मुझे अपने एक और मित्र सुनील की याद आ रही है । हम रेलवे स्टाफ, कॉलेज, बड़ौदा में साथ थे । अंग्रेजी के डर के बारे में उन्होंने जो बताया, हम सबके लिए सबक है । उन्हीं के शब्दों में,‘पश्चिमी उत्तर प्रदेश में 12वीं करने के बाद जब मैं आईआईटी, दिल्ली पहुंचा, तो अंग्रेजी बिल्कुल नहीं आती थी । पहला सेमिस्टर जैसे तैसे पास किया । मेरे जैसे और भी पांच-सात विद्यार्थी थे । लेकिन धीरे-धीरे अगली क्लास में हम आगे बढ़ते गए, क्योंकि विषय की समझ हमें थी ही । चार साल के बाद जो बच्चे अव्वल रहे, वे सभी वे थे जिन्होंने हिंदी माध्यम से 12वीं की थी ।’
तो समझे अपनी भाषा का कमाल ।
करीब 177 साल पहले की गई मैकाले की सारी कोशिशों के बावजूद अभी तक हिंदुस्तान में अंग्रेजी में सोचने, बालने या संवाद करने वाले पांच प्रतिशत से ज्यादा नहीं होंगे । भाषाओं और संस्कृतियों का प्रसार इतनी आसान बातें नहीं हैं । आंतरिक जरूरतें और प्रतिरोध बार-बार आड़े आते हैं । समाज को धर्म से भी ज्यादा भाषा जोड़ती है । पाकिस्तान, बांग्लादेश का अलग होना इसका सबसे अच्छा उदाहरण है ।
प्रश्न: भाषा को लेकर आपके क्या विचार हैं?
उत्तर: भाषा मनुष्य होने की बड़ी बुनियादी पहचान है। इसके कई पक्ष हैं। पहला पक्ष है भाषा ही मनुष्य को सभी प्राणियों से अलग बनाती है। जब अलग बनाती है तो दुनिया में जितने भी समुदाय हैं, अगर देखा जाए तो उनकीचार-पांच हजार भाषाएं हैं । यानी भाषा उसके जीवित होने का प्रमाण है, मनुष्य होने का प्रमाण हैं। अत: मनुष्य का विकास भी भाषा के समानांतर ही चलेगा। यह तभी हो सकता है जब वो जो भाषा बोल रहा है, वही भाषा उसके शिक्षण-प्रशिक्षण, जीवन के दूसरे कार्य व्यवहार में शामिल हो।
इसीलिये अगर शिक्षा उसी की भाषा में दी जाएगी तो वह बहुत जल्दी सीखेगा और समझेगा। अगर यह ‘समझ’ आ जाएगी तो वो शायद एक बेहतर नागरिक और समाज का एक उपयोगी नागरिक बनेगा। अगर हम भाषा के इस पक्ष को नकार देते हैं तो मुझे लगता है कि खतरनाक दौर की तरफ बढ़ रहे हैं। जो मौजूदा दौर है, ग्लोबलाइजेशन के बाद जहां कुछ लोगों का कहना है कि दुनिया भर मेंहर 15 दिन में एक बोली या भाषा मर रही है। उसका कारण है कि लालच दिया जाता है कि भविष्य की भाषातकनीक सिर्फ अंग्रेजी में ही है। सारा साहित्य वहीं है। और बार-बारमैकाले की बात विशेषकर भारत के संदर्भ में कि सारा भारतीय साहित्य एक अलमारी में बंद किया जा सकता है। यानी अपनी चीजों को इतना बढ़ा-चढ़ाकर कहो कि उनके बिना काम ही नहीं चल सकता। वो आक्सीजन की तरह हैं। और दूसरों की चीजों की कोई अहमियत नहीं। यह उन्होंने अफ्रीका में किया। अफ्रीकी भाषाओं के साथ किया। प्रसिद्ध अफ्रीकी लेखक न्यूगी वा थ्योंगो अपने लेख ‘भाषा का साम्राज्यवाद’ में लिखते हैं कि अंग्रेजी सत्ता की भाषा है, उपनिवेश रह चुके देशों में बहुत छोटा समूह ही बोलता है । देशी भाषाएं यदि बची हुई हैं तो अधिसंख्यक गरीब, मजदूरों की वजह से । लेकिन भारत में न केवल अमीरों को बल्कि गरीब दलितों को भी कॉरपोरेट, विदेशी पैसा भरमा रहा है ।
उन्होंने उदाहरणदेकर बताया कि कैसे वे जिस स्कूल में पढ़ते थे उनकी किताबों के पाठों में न्यूयार्क, वाशिंगटन और लंदन की गलियों के नाम होते थे । मेरे देश कीनिया के शहरों का एक नाम नहीं और वैसे ही उनके चरित्र हैरी, पैरी, टैरी । उन किताबों को पढ़ते हुए हमें कभी नहीं लगता था कि हम अपने देश के बारे में भी कुछ जान पाएंगे । वे एक और वीभत्स और क्रूर उदाहरण देते हैं कि जिन स्कूलों में हम पढ़ते थे वहां अपनी भाषा बोलने वाले बच्चों के मूंह में एक पर्ची डाल दी जाती थी जिसमें लिखा होता था ‘मैं मूर्ख हूं’ । और उस पर्ची को दंड स्वरूप ऐसे ही किसी दूसरे बच्चे के मुंह में डालने को विवश किया जाता था । जिससे कि वे कभी अपनी भाषा बोलने की हिम्मत न कर पाएं । हमारे देश में महात्मा गांधी से लेकर प्रेमचंद, रवीन्द्रनाथ टैगोर उन सबने इस बात को कहा है ।जो उन्होंने अफ्रीका में किया है, लैटिन अमेरिका में किया है, शायद हिंदुस्तान भी उसकी गिरफ्त में आ चुका है। हमें समझने की जरूरत है कि जितनी जल्दी अपनी भाषाओं की तरफ लौटेंगे, मैं समझता हूं कि हम वास्तविक आजादी की तरफ लौटेंगे।
प्रश्न: हिंदी में खाने–कमाने वाले भी सार्वजनिक जीवन में हिंदी से परहेज कर अंग्रेजी का प्रयोग करते हैं। उनमें चाहे फिल्म वाले हों या हिंदी के लेखक–पत्रकार।
उत्तर: इस प्रश्न में जो आपका गुस्सा है, मेरा गुस्सा उससे भी सौ गुना ज्यादा है। सबसे ज्यादा धोखा अगर दिया है तो हिंदी के ऐसे बुद्धिजीवियों ने दिया है जो इस गुलामी के खिलाफ लड़ाई के झाग उगलते हुए, नारे देता हुआ खुद उन हरकतों को करता है जो गुलामी की पहली पहचान है। मैं बहुत दूर नहीं जाऊंगा। मैं दिल्ली की एक सोसायटी में रहता हूं जो मयूर विहार में है। यह इलाका दिल्ली का न उतना पॉश है और न पिछड़ा। मैं बीस साल से यहां रह रहा हूं। इस सोसायटी में कई बुद्धिजीवी भी हैं। हिंदी के धुरंधर लेखक भी हैं। वे सोसायटी के सचिव और अध्यक्ष भी रहे हैं। मैं उनसे बार-बार कहता हूं कि हम कम से कम छोटी-छोटी बातों को हिंदी में लिखें। जैसे- सड़क पर पानी न फेंके, गाड़ी ठीक से लगाएं, गेट वाले कर्मचारियों के साथ बुरा व्यवहार न करें आदि। अफसोस की बात है कि वे हिंदी के लेखक हैं, हिंदी के बुद्धिजीवी हैं, हिंदी में लिखना-पढ़ना करते हैं लेकिन इसके बावजूद उन्हें अंग्रेजी में नोटिस निकालने में ज्यादा फख्र होता है। उस समय में वे दुनिया के सबसे बडे़ उदारवादी, लोकतांत्रिक बनने की कोशिश करते हैं कि कहीं दूसरे भाषा वाले बुरा न मान जाएं। मैं सिर्फ एक छोटा सा निवेदन करूंगा। दिल्ली हिंदी प्रांत है। दिल्ली खड़ी बोली के क्षेत्र मे है। इस सोसायटी में रहने वाले ज्यादातर उत्तर प्रदेश या पहाड़ के हैं। मुश्किल से पांच-दस प्रतिशत ऐसे हैं जो दक्षिण या अन्य प्रांतों के हैं। यानी उनकी आड़ में शायद मुझे लगता है कि उनके अंदर एक बड़ी ग्रंथि है। चाहें यहां हो, चाहे फिल्म वाले हों । जिन्हें शोहरत हिंदी फिल्मों से मिली हो, उनसे जब कोई पत्रकार प्रश्न पूछता है तो कंधे उचकाकर बात तो हिंदी में शुरू करेंगे, मगर जल्द ही अंग्रेजी में आ जाएंगे। यानी आमआदमी देख रहा है कि हिंदी का लेखक-बुद्धिजीवी हो या कोई और मशहूर हस्ती, सभी कंधे उचकाकर हालियाअंग्रेजी की तरफ आ रहे हैं। जनता इन संकेतों को लेती है और फिर उधर ही बढ़ती है ।
एकाध अनुभव बांटना चाहूंगा :- पिछले दिनों दिल्ली के एक पांच सितारा होटल में गोष्ठी हुई। देशी-विदेशी सभी कोट-टाई लगाए हुए। दो छोटी घटनाओं की ओर ध्यान दिलाना चाहता हूं। एक सत्र खेल पर था। इसमें कपिल देव थे। और दूसरा सत्र फिल्म पर था। इसमें कैटरीना कैफ थी। कपिल देव से राजदीप सरदेसाई ने पूछा कि आप शायद पहले खिलाड़ी थे, जो किसी बडे़ शहर से नहीं आए थे। क्रिकेट का संबंध भी एक बडे़ शहर से रहा है। आजादी से पहले देखो, जो मैदान होते हैं, जो चमचमाती व्हाइट ड्रेस होती है, वो इस देश के आम आदमी के बस का नहीं। वो तो गिल्ली–डंडा खेलता है या थोड़ी-बहुत हाकी। क्रिकेट देखा जाए तो अमीरों का खेल है। आज क्रिकेट पूरे देश में खेला जा रहा है। मैं इस ओर भी इशारा कर रहा हूं कि अमीरों की चीजों ने कैसे गरीबों की हर चीज को पीछे कर दिया है। चाहे भाषा का मसला हो या खेल का। खैर, कपिल ने जवाब में कहा कि हो सकता है कि मैं शहर के बजाए पहले कस्बे वाला हूं, लेकिन उससे ज्यादा जरूरी बात यह है कि मैं पहला खिलाड़ी था जिसे अंग्रेजी नहीं आती थी। सरदेसाई ने कहा कि शायद इसलिए आपको कप्तान बनाने का विरोध हुआ था? कपिल बोले कि चयनकर्ताओं का कहना था कि इन्हें अंग्रेजी नहीं आती। यह इंटरनेशनल फोरम पर कैसे बोलेंगे। जैसे वहां क्रिकेट खेलना जरूरी नहीं, बल्कि अंग्रेजी बोलना जरूरी है। कपिल देव गुस्से से तमतमा रहे थे। एक चयनकर्ता ने यह भी कहा कि अंग्रेजी बोलते भी हैं तो उसमें पंजाबी लहजा आता है। कपिल देव ने जवाब दिया कि मैं हरियाणा का हूं। मेरी अंग्रेजी में हिंदी पंजाबी नहीं आएगी तो क्या आएगा?मैं आज भी कहता हूं कि हुनर जरूरी है अंग्रेजी नहीं ।
इस देश के साथ यह अंग्रेजी का जो कहरचला हुआ है, बंद होना चाहिए। हालांकि चाय के समय किसी ने पीछे से यह भी कहा कि फिर कपिल देव आप रैपीडेक्स का प्रचार क्यों कर रहे हो? यहां पर दूसरी बात है कि खेल की इमेज को बाजार भुना रहा है। बाजार के इस खेल में हमारे सम्मानित लोग भी शामिल हैं, जबकि वे जानते हैं कि हुनर जरूरी है, भाषा नहीं।
दूसरा उदाहरण – कैटरीना कैफ से पत्रकारवीर संघवी ने पूछा कि आप इंग्लैंड में पैदा हुई हैं क्या आपको हिंदी में बहुत दिक्कत आती है? कैटरीना बोली कि मुझे शुरू में बहुत मुश्किल लगता था लेकिन जब मैंने हिंदी फिल्मों में काम किया और सारे देश में गई तोमैं सोचती हूं कि काश ! ऐसी हिंदी आती, जैसी यहां पैदा होने वाले लोग बोलते हैं। जो आनंद हिंदी बोलने में आता है, अंग्रेजी में कभी नहीं आएगा। यानी उनकी असली तस्वीर यह है। लेकिन सत्ता के खिलाड़ीसंविधान की आड़ में न जाने कितनी बातों की बार-बार दुहाई देंगे, लेकिन भाषा की नहीं । जब भाषा वहां है तो उस भाषा को लागू करने में आपको क्या दिक्कत आती है? यहीं पर शायद एक नया खेल शुरू होता है जो गांधी की विचारधारा से अलग है। मैं गांधी जी का यहां जानबूझकर उल्लेख कर रहा हूं। मुझे याद आ रहा है गांधी का वो पक्ष ।आजादी के अंतिम दिन 1945-47 तक। गांधी के उस दौर को देखिए जब वह अकेला पड़ता जा रहा है। पार्टीशन के खिलाफ है, वहां भी अकेला पड़ रहा है। वह हिंदुस्तानी भाषा (हिंदी-उर्दू) को लाना चाहता है, वहां अंग्रेजी आ रही है। वह भ्रष्टाचार के खिलाफ है। ये सब चीजें जो भी सत्ता में आए उस समय, उन्होंने ज्यों की त्यों गांधी को छोड़कर अपना लीं।
1947 में गांधी जी ने नेहरू को लम्बापत्र लिखा जिसमें वे‘हिंद स्वराज’,कीसारी बातों को याद कराते हैं। पिछले दिनों सुधीर चंद्र की किताब आई है- ‘गांधी; एक असम्भव सम्भावना’ इसमें इसका पूरा ब्योरा है। पत्र लगभग 2000 शब्दों का होगा। उन्होंने अंग्रेजी में नहीं लिखा, जबकि वह नेहरू जी को लिख रहे हैं। आप सबको पता है कि इस देश में अंग्रेजी अन्य भारतीय भाषाओं से ऊपर है, वो किन लोगों की वजह से है। भले ही ये सभी हर आदमी के साथ रहने की दुहाई दें।
खैर, गांधी हिंदुस्तानी में लिखते हैं कि मैं अंग्रेजी में नहीं लिखूंगा। यहां पर हिंदी और हिंदुस्तानी में अंतर है। हिंदुस्तानी का मतलब जिसमें उर्दू के भी शब्द हैं। अन्य भाषाओं के भी शब्द हों। भाषा की शुद्धता पर जोर नहीं है, उसकी संवेदना और पहुंच पर जोर है। छोटी सी बात एक और । गांधी जी अनशन पर हैं नौआखली में। उनको अनशन तोड़ने की अपील की जाती है। 100 लोगों के हस्ताक्षर से । उन्हें पता था कि गांधी किस बात से बिदक सकते हैं। अपील हिंदी और उर्दू में तैयार की जाती है। उन्हें डर है कि अंग्रेजी में तैयार की तो गांधी अपील को फाड़कर फेंक सकता है। आप उनकी बहुत सारी बातों से असहमत हो सकते हैं लेकिन भाषा और इन मसलों पर उनका कोई जवाब नहीं है। कभी गांधी का अंबेडकर के सामने एक मलयुद्ध करा दो, कभी शहीद भगतसिंह के साथ या कभी किसी और के साथ। अब आप भाषा के उस पक्ष को लीजिए। आजादी का दिन । 15 अगस्त 1947 । इससे बड़ा प्रमाण क्या हो सकता है जो गांधीजी का अपनी भाषा के बारे में है। गांधी जी नौआखली में हैं अकेले। सारा देश जश्न मना रहा है। दिल्ली में जमावड़ा है। घोड़ों की, ऊंठ की सवारी होगी, क्या-क्या नहीं होगा। उस समय गांधी बोले, क्योंकि उनकी आत्मा दुखी थी विभाजन से ।जिस हिंसा के खिलाफ मैं लड़ा वहीं पूरा देश उसी हिंसा में लगा हुआ है। दिल्ली की सरकार की ओर से भेजे गये दूत कि गांधी इस अवसर पर कोई संदेश दीजिए। वह दो-टूक बोले कि मेरे पास कोई संदेश नहीं है। अगर आजादी के समय कोई संदेश नहीं होगा तो दुनिया क्या समझेगी? बोले कह दो कोई संदेश नहीं । यहां महत्वपूर्ण बात यह नहीं है। महत्वपूर्ण है कि फिर बीबीसी वाले आए। उनसे आक्रोश से कहा कि दुनिया को बता दो कि गांधी को अंग्रेजी नहीं आती है। यानी कि मुझे सिर्फ दुनिया को बताने, जताने के लिए अंग्रेजी नहीं चाहिये । दुनिया से तो बाद में बात होगी, पहले लोकतंत्र लोक के लिए होता है। अपनी जनता के लिए होता है। और यहां शायद हमारे उन तथाकथित वाम बुद्धिजीवियों ने भी हिंदी या अपनी भाषाओं को धोखा दिया है। दक्षिणपंथियों को तो हम इस पूरे विमर्श में शामिल ही नहीं करना चाहते हैं। क्या हम इतना भी नहीं सीख सकते थे कि अगर हमें जनता को संगठित करना हो तो हिंदी राज्यों में वाम बुद्धिजीवी को सक्रिय होना होगा । क्योंकि मुझे लगता है कि वो ज्यादा रेशनल हैं, ज्यादा ईमानदार हैं, ज्यादा संवेदनशील है। जिन राज्यों में वो मजबूत हैं जैसे केरल या पश्चिम बंगाल में वहां मलयाली या बंगाली को महत्व देते हैं। जब वो वहां महत्व देते हैं तो यहां क्यों नहीं हो पाया। मुझे लगता है कि मैं अपनी बात को राजनीतिक रंग न दूं। यह उनका दोष नहीं। यह हिंदी क्षेत्र के उन बुद्धिजीवियों का हैजिनकी मैंने चर्चा की जो मूयर विहार के आसपास रहते हैं, जो जेएनयू में रहते है जो दिल्ली विश्वविद्यालय में रहते हैं जो सेमिनारों में रहते हैं। वे जो अतिथिगृह के लिए सरकार से गुजारिश करते हैं, जो कोष बनाने के लिए गुजारिश करते हैं ।तो क्या इस बात की गुजारिश नहीं कर सकते कि दिल्ली के स्कूलों में हिंदी पढ़ाई जाए। अगर हिंदी दिल्ली के स्कूलों में पढ़ाई जाएगी तो कॉलेजों में पढ़ाई जाएगी। अगर यहां हिंदी पढ़ाई जाएगी तो इसकी थोड़ी आंच या उदाहरण मेरठ, सोनीपत तक भी जाएगी। जयपुर तक जाएगी और फिर बढ़ते-बढ़ते इलाहाबाद तक। लेकिन हो बिल्कुल उलटा रहा है । जब दिल्ली में ऐसा हो रहा है और मेरी ही सोसायटी के बुद्धिजीवी मित्र अंग्रेजी में बात करेंगे तो शायद इलाहाबाद, भागलपुर, पटना तक जाते-जाते हिंदी बिल्कुल सूख जाती है। यहां पुनर्विचार की जरूरत है कि दिल्ली की तरफ देखने के बजाए अब लगता है कि इन मसलों पर दिल्ली को खारिज करने की जरूरत है।
प्रश्न: आजकल मीडिया में जिस तरह की भाषा का इस्तेमाल हो रहा है । उस बारे में आपको क्या कहना है । कुछ लोगों का कहना है कि मीडिया और बॉलीवुड ने हिंदी को बिगाड़ दिया है, जबकि दूसरे वर्ग का कहना है कि शुद्धतावादी ही हिंदी का खतरा है ।
उत्तर: तथाकथित मीडिया की भूमिका हिंदी भाषा को बरबाद करने में सबसे ज्यादा है । उनके कुतर्क हैं कि बाजार में जो बोला जा रहा है हमें वही इस्तेमाल करना चाहिए । उन्हें कौन समझाए कि बाजार को कौन सी ताकतें नियंत्रित कर रही हैं । हमारी खाने, पहनने, शिक्षा, अखबार और इस सारे मीडिया को भी । ये अंग्रेजी के प्रभाव की ताकतें हैं । स्वाभाविक है कि वे चाहते हैं कि भारतीय भाषाओं के ऊपर अंग्रेजी बिठा दी जाए । और वे इसमें पूरी तरह से सफल रही हैं और तो और अब भारत सरकार के राजभाषा विभाग और उच्च अधिकारियों को भी उन्होंने इस सब के लिए मना लिया है कि यदि हिंदी के शब्द कठिन लगे तो अंग्रेजी को चलाएं । कोई उनसे पूछे उर्दू, संस्कृत समेत सारी भाषाओं के किसी शब्द को क्यों प्राथमिकता नहीं दी जाए ? भारतीय भाषाओं के शब्दों की तरफ तो वे देखना भी नहीं चाहते । टेलीविजन से शुरू हुई यह प्रवृत्ति अब हिंदी के अखबारों में भी बढ़ती जा रही है । नवभारत टाइम्स, दैनिक हिंदुस्तान से लेकर दैनिक भास्कर तक सभी में । अछूता बचा है तो केवल जनसत्ता । प्रभाष जी ने बोल चाल की भाषा और शैली को लगातार जनसत्ता में बढ़ाया और आज भी यह अखबार उस परम्परा को निभा रहा है । समाज जिन शब्दों को पढ़ेगा उन्हीं का तो प्रचलन आगे बढ़ेगा ।
मीडियाद्वारा देशी भाषाओं को बरबाद करने के षड़यंत्र पर बहुत गंभीर विवेचन कथाकार, चित्रकार प्रभु जोशी ने किया है । ओम थानवी, राहुल देव सरीखे पत्रकार, संपादक भी अंग्रेजी के बढ़ते प्रयोग से बेहद चिंतित हैं । अंग्रेजी के आवांछित प्रयोग को तुरंत रोकने की जरूरत है । हाल ही में जनसत्ता के संपादक ओम थानवी का एक लेख छपा है जिसमें बड़े तर्क से यह बात कही है कि भाषा बहता नीर है, नाला नहीं । यह प्रश्न शुद्धतावाद का नहीं है । सदियों से अर्जित अपनी शब्द संपदा, बोली, भाषा और पूरी संस्कृति को बचाने का प्रश्न है ।
प्रश्न: अब तो हिंदी के कुछ लेखक और बुद्धिजीवी भी हिंदी को रोमन में लिखने की वकालत करने लगे हैं । क्या यह हिंदी के हित में है ।
उत्तर: यह तो वही बात हुई कि पहले मुर्गी या अंडा । पहले आप बच्चों के लिए ऐसे स्कूल खोलेंगे जिसमें अंग्रेजी पहली क्लास से ही पढ़ाई जाए । पहले अंग्रेजी एक विषय के रूप में आती है फिर आप उसे सभी विषयों को पढ़ने-पढ़ानेका माध्यम बना देते हैं और यह क्रम विश्वविद्यालय से लेकर इंजीनियरिंग कॉलिज, मेडिकल सभी में चलता जाता है । उत्तर प्रदेश, बिहार के कुछ न्यायालयों को छोड़कर हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में भी अंग्रेजी का बोलबाला है । जब सरकारी व्यवस्था ही अंग्रेजी की तरफ झुकी हुई है तो यह पीढ़ी हिंदी जानेगी कैसे ? आपने तो हिंदी या भारतीय भाषाओं को रोकने की हर कोशिश कर रखी है । यह बच्चों का दोष नहीं सत्ता का स्वाद ले रहे मंत्री, नौकरशाह और बुद्धिजीवियों का है । इसमें उनके हित भी हैं । चंद लोगों के अंग्रेजी जानने से उनके लिए बड़ी-बड़ीतनख्वाहों वाली नौकरियां सुरक्षित हैं । वे चाहे नौकरशाही में हों या न्यायालयों में या मीडिया में । जाति के आरक्षण की लड़ाई तो आए दिन सड़कों पर आ जाती है कोई ये क्यों नहीं पूछता कि जब देश में पांच प्रतिशत मुश्किल से अंग्रेजी जानने वाले हैं तो पिचानवे प्रतिशत पद अंग्रेजी वालों को क्यों दिए गए हैं । सिर्फ पांच प्रतिशत पद अंग्रेजी वालों के लिए आरक्षित कर दिया जाए बाकी सब भारतीय भाषाओं के लिए हों । देखिए ये सब अंग्रेजीदाँ जो तरह-तरहकी बहानेबाजी करके भारतीय भाषाएं नहीं सीखना चाहते वे कल से ही अपनी-अपनी भाषाएंसीखने लगेंगे । कई बार ये कुतर्क देते हैं कि अंग्रेजी में ज्ञान है या विदेश जाने पर परेशानी पैदा हो सकती है । कैसी मूर्खतापूर्ण बात है । इस देश के कितने लोग विदेश जा पाएंगे ? और क्या हमें विदेशों की जरूरत के हिसाब से भाषा सीखनी चाहिए । हरगिज नहीं । भारतीय भाषाओं के पक्ष में हम सबको मिलकर लड़ने की जरूरत है ।
प्रश्न: हमारे देश में हिंदी के विकास के नाम पर हिंदी दिवस, सप्ताह, पखवाड़ा और न जाने क्या–क्या कर्मकांड होते हैं । आपको इस बारे में क्या कहना है। दूसरा राजभाषा नीति कितनी कारगर रही । दुनिया में क्या किसी अन्य देश में भीअपनी भाषा को लेकर इस तरह का ढोंग होता है ।
उत्तर: आपके प्रश्न में ही उत्तर आ गया है । यानि कि भाषा के नाम पर कर्मकांड और ढोंग अधिक हो रहा है । वास्तविकता कोसों दूर है । ऐसा नहीं कि आजादी के बाद जब ये नीति बनाई गई तो कोई गलत कदम था । सभी ने सोच विचार कर फैसला किया था कि ऐसे बहुभाषी समाज में किसी एक भाषा को लादना अच्छा नहीं रहेगा और मैं इसे निश्चित रूप से एक अच्छे कदम की शुरूआत मानता हूँ । लेकिन जैसा देश की बाकी नीतियों के साथ हुआ उनके कार्यान्वयन में- वैसाही भाषा नीति के साथ हुआ । जैसा पहले दस सालों में सबको साक्षर बनाना था । हम आजतक मुश्किल से साठ-सत्तरप्रतिशत तक पहुंचे हैं । क्षेत्रों और व्यक्तियों के बीच असमानताएं कम होनी थींयानि हमें एक समान समाजवादी ढॉंचे की तरफ बढ़ना था लेकिन खाई और बढ़ गई हैं आदि-आदि । यानि किहमारे लोकतंत्र के स्वरूप की सफलता या असफलता आप जो भी कहें ।
मैं अपनी बात को हिंदी प्रांतों के संदर्भ में रखना चाहता हूँ । कोई पूछे कि हिंदी प्रांतों में हिंदी क्यों नहीं ? बाकी देश में तो बाद में आएगी । जैसा कि मैं बार-बारलिखता और कहता आ रहा हूँ जिस दिल्ली विश्वविद्यालय में सत्तर के दशक में पच्चीस-तीस प्रतिशतस्नातकोत्तर और ग्रेजुएट लेवल पर और भी ज्यादा बच्चे अपनी भाषा हिंदी माध्यम से पढ़ते थे अब वहां हिंदी माध्यम बचे ही नहीं हैं । इन्हीं दिल्ली के स्कूलों में पहले हिंदी एक अनिवार्य भाषा के रूप में लगभग दसवीं-ग्यारहवींतक थी अब उसकी जगह फ्रेंच और दूसरी भाषाएं बच्चेपढ़ रहे हैं । और तो और केवल विषय के रूप में नहीं अंग्रेजी माध्यम पहली क्लास तक और वह भी केवल निजी स्कूलों में नहीं सरकारी स्कूलों में भी धीरे-धीरेबढ़ रहा है । जब सरकारी स्तर पर अंग्रेजी बढ़ रही हो तो फिर हिंदी पखवाड़ा हिंदी, हिंदी दिवस आप किस लिए मना रहे हैं ? साफ लगता है कि अंग्रेजी के आगे समर्पण कर दिया है ।
जिन्होंनेसरकार में काम किया है विशेषकर दिल्ली के केन्द्रीय कार्यालय या उसके अधिनस्थविभागों में वे इस झूठ को खूब जानते हैं । शायद ही किसी विभाग की रिपोर्ट होगीजिसके आंकड़ों में नब्बेऔर पिचानवे प्रतिशत काम हिंदी में होता न दिखाया हो । आंकड़ों की सूई नब्बे प्रतिशत से आगे ही घूमती रहती है वे चाहे बैंक हों या सरकारी कार्यालय जबकि हकीकत में यदि दस प्रतिशत भी कोई सिद्ध कर दे तब भी हिंदी सप्ताह और दिवस की सार्थकता बनी रहती । और कौन नहीं जानता इस हकीकत को । सचिव से लेकर संसदीय समितियां तक । हिंदी अधिकारी कहते हैं कि यदि हम कम दिखाएं तो हमारी खैर नहीं । झूठ, कर्मकांड, पाखंड यदि सरकार को मंजूर है तो हम भी उसका हिस्सा हैं । तो राजभाषा विभाग भी उसका हिस्सा है । इसे जब तक शिक्षा के माध्यम या न्यायालयों की भाषा से नहीं जोड़ा जाता है तब तक ऐसी नीति का कोई अर्थ नहीं है । दुनिया में शायद कोई राष्ट्र ऐसा नहीं हो कि जहां इतने वर्षों तक भाषानीति का ढोंग चलता रहे । हिंदी भाषी राज्यों की और भी गलती यह रही कि तीन भाषा सूत्र सही ढंग से लागू नहीं किया गया । ऐसे ढुलमुलपन से लागू की गई नीति में राजभाषा कर्मचारियों ने सिर्फ यह नुकसान किया कि उनके अनुवाद की भाषा अपनी सरलता और सहजता दूर-दूर खोती जा रही है । यदि अनुवाद की भाषा हिंदी और सभीभाषाओं के शब्दों में समाहित किये हुए होती तो वे स्वीकार्य होती । ये सब कारण ऐसे सरकारीअनुवादऔरसरकारी विभागों को निरंतर अप्रासंगिक बना रहे हैं । और उसी अनुपात में राजभाषा नीति । इसे शिक्षा नीति में शामिल किये बिना कुछ नहीं हो सकता ।
प्रश्न: बच्चे के जन्म लेते ही उसे अंग्रेजी सीखने की कोशिश शुरू हो जाती है। वह बोलना सीख भी नहीं पाता कि ए फोर एप्पल और बी फोर बैट रटाना शुरू कर दिया जाता है। यह उसकी मानसिक विकास को किस तरह प्रभावित करता है।
उत्तर: पिछले दिनों एन.सी.आर.टी. की एक अच्छी शुरुआत हुई है। ‘समझ का माध्यम’। साधारण शब्दों में कहा जाए तो लिखने-पढ़ने का माध्यम क्या हो? पिछले दिनों दुनियाभर में कुछ सर्वे किए गए। शुरू के वर्षों में किस देश के बच्चे आगे बढ़े। उसमें एक शिक्षाविद् ने कहा कि यूरोप में डेनमार्क या फिनलैंड के बच्चे सबसे बेहतर पाए गए। बोले कि उसके दो कारण हैं। एक – वहां स्कूल में बच्चों को भेजने की उम्र सबसे ज्यादा थी। छह व सात साल के बीच में। दूसरा उन बच्चों को शिक्षा अपनी भाषा में दी गई। जितने आराम से स्कूल गए, अपनी भाषा में सीखा, उतनी ही उनकी समझ बेहतर हुई।
हमारे यहां तीन या चार साल की उम्र में घमासान शुरू हो जाता है, जबकि बच्चे को ठीक से बैठना भी नहीं आता। इतनी खराब स्थिति है। बचपन पहले से ही बहुत लदा हुआ है। जल्दी स्कूल भेजकर उसे ओर बर्बाद किया जा रहा है। इसमें शासन, समाज और बच्चे के मां-बाप सभी शामिल हैं।
दुनिया भर के शिक्षाविद् जॉन हॉल्ट से लेकर, मारिया मौंटेसरी, गिज्जू भाई तक सभी कह रहे हैं कि शिक्षा अपनी भाषा में होनी चाहिए तो सरकार ऐसा क्यों नहीं कर रही? क्यों अंग्रेजी को बढ़ा रही है? जो राज्य अभी तक प्राइमरी स्कूलों में अंग्रेजी के खिलाफ थे, वे भी अब दबाव में आ गए हैं। बच्चों के साथ ऐसा हो रहा है कि यदि वह अंग्रेजी में पीछे रह गया तो वह कहीं का नहीं रहेगा। यह इस देश में ही संभव है कि पिछड़ते हुए भी हमें बार-बार यह लग रहा है कि अंग्रेजी को और जोर से पकड़ लें।
पिछले दिनों कुछ सर्वे हुए। इसमें 76 देशों ने भाग लिया। चीन प्रथम स्थान पर रहा। भारत की स्थिति तुर्किस्तान को छोड़कर 75वें स्थान पर रही। जबकि सर्वे में तमिलनाडु और हिमाचल के सबसे अच्छे स्कूलों को शामिल किया गया था। दुनिया के स्तर पर यह हमारी स्थिति है।
दूसरी- दो महीने 2012 के दिसंबर की खबर थी कि दुनिया के दो सौ विश्वविद्यालयों में भारत का एक भी नहीं है। यह पिछले बीस साल में हुआ है । इससे पहले हमारे आई.आई.टी. कहीं तोथे। हमारी स्कूली शिक्षा भी थी। जब तक अपनी भाषाओं पर जोर था, तब तक कुछ हासिल हो भी रहा था। जब से अंग्रेजी ज्यादा लादी जा रही है, तब से दुनिया में हम अपने स्तर में, ज्ञान में, समझ में पीछे की चलते चले जा रहे हैं यह सिद्ध हो चुका है ।
प्रश्न: क्या यह सही है कि आधुनिक ज्ञान-विज्ञान अंग्रेजी में ही उपलब्ध है ? क्या अंग्रेजी से दूर करके उन्हें आधुनिक ज्ञान-विज्ञान से दूर करना नहीं होगा ?
उत्तर: बार-बार इस बात की दुहाई दी जाती है कि आधुनिक ज्ञान, विज्ञान अंग्रेजी में उपलब्ध है । अरे भई फिर चीन, जापान, जर्मन, रूसी क्या ज्ञान विज्ञान में पीछे हैं ? भाषा और ज्ञान विज्ञान का कोई संबंध नहीं है । संबंध समझ का होता है और समझ बनती है शुरू के सालों में अपनी भाषा में पढ़ने-लिखने से । आजादी के बाद कुछ सालों तक यह मॉडल चलता रहा है यानि कि अंग्रेजी विषय के रूप में ग्यारह-बारह साल या छठी क्लास के बाद ही शुरू की जाए । इसके फायदे का गुण-गान हर विद्वान करता है । सिर्फ भारत में ही नहीं दुनिया भर में । एक बार समझ पैदा हो जाए तो फिर अंग्रेजी समेत किसी भी भाषा को जानना बहुत आसान होता है ।
प्रश्न: अंतरराष्ट्रीय स्तर पर संपर्क का तर्क देकर अंग्रेजी की वकालत की जाती है । इससे आप कितने सहमत हैं ?
उत्तर: फिर वही बात । इस देश के कितने प्रतिशत लोग विदेशों के संपर्क में रहते हैं शायद हजार, दस हजार में से एक दो । उस एक-दो की खातिर दूसरों पर क्यों अत्याचार करते हो । और फिर क्या अंतरराष्ट्रीय स्तर के कामों के लिए दुभाषिए की मदद नहीं ली जाती ? भारत आने वाले न जाने कितने राष्ट्राध्यक्षों को आपने अपनी भाषा चीनी, रूसी में बात करते देखा होगा । तो जब ये मुल्क कर सकते हैं तो हम क्यों नहीं ? मैं इससे पूरी तरह से सहमत हूं । पहले हमें स्वयं की भाषा, संस्कृति को जानने की जरूरत है न कि विदेशी । और विदेशी भी जाननी है तो सिर्फ अंग्रेजी ही क्यों ? फ्रांसीसी, चीनी और रूसी क्यों नहीं ?
प्रश्न: एक तरफ हम कह रहे हैं कि आज भी हिंदी विश्व में दूसरे–तीसरे नंबर की बोली जाने वाली भाषा है और आने वाले 20-30 वर्षों में सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा हिंदी होगी। दूसरी ओर अंग्रेजी का लेकर हम बड़ी कुंठित मानसिकता में जी रहे हैं।
उत्तर: उस संख्या को बार-बार बढ़ा कर देखने में कोई सार्थकता नहीं है। वो संख्या नहीं, जनसंख्या है। मोटा-मोटी दस राज्य, 70 प्रतिशत आबादी हिंदी बोलती है। हमारी जनसंख्या एक अरब से ज्यादा हो गई है। क्या इस संख्या को उसकीताकत का अभिप्राय: माना जा सकता है? अगर माना जा सकता है तो क्यों नहीं बताते कि दुनिया में कितने शोध अपनी भाषा में हो रहे है। क्यों हिंदी की किताब का संस्करण 300 प्रतियों तक आ गया है?
प्रेमचंद की किताब ‘सोजे वतन’1907 में जब्त हुई थी। यह किताब उन्होंने उर्दू में लिखी थी और खुद छापी थी। वह मजिस्ट्रेट के सामने पेश किए गए। मजिस्ट्रेट ने पूछा कि आपके पास कितना स्टॉक है। प्रेमचंद बोले कि 700 हैं। 300 प्रतियां बिक गईं। यानी की आज से 100 साल से भी पहले प्रेमचंद की वो किताब जो उन्होंने उर्दू में लिखी थी, वह 1000 छपी थी। इन सौ सालों में हमारी आबादी करीब 10-20 गुना बढ़ गई है। इस हिसाब से देखा जाए तो हमारी किताब का संस्करण कम से कम बीस हजार का होना चाहिए था। लेकिन स्थिति क्या हो चुकी है, हजार ग्यारह सौ से 500 हुई और अब 500 से 300-200 आ चुकी है। आपने जो प्रश्न किया कि हम पहले नंबर पर होंगे, उसे इससे जोड़कर देखिए। आबादीकी बढ़ती संख्या को अपनी भाषा की जीत कैसे मान सकते हो?प्रकारांतर से इससे जनसंख्या की समस्या भी उजागर हो रही है । और हमारे सांस्कृतिक, भाषाई पतन की ।
प्रश्न: भारत एक बहुभाषी देश है। हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के बीच किस तरह संबंध होने चाहिए।
उत्तर: मैंने गांधीजी की बात कही थी। वे हिंदुस्तानी की बात करते हैं। इसलिए नहीं कि वह हिंदी के पक्ष की बात है। ये लोग आजादी के दौर में पूरे देश में घूमे हुए थे। और उन्हें पता था कि कौन सी भाषा इस पूरे देश में समझी जा रही है। इसलिए यह एक बड़ा नाजुक प्रश्न है। लेकिन हमारे नेताओं ने या कुछ मूढ़ हिंदी वालों ने, कट्टरवादियोंने ऐसा कर दिया कि हिंदी का लागू होना, उनकी हिंदी की जीत है। और शायद यही वजह है कि तमिलनाडु या दूसरे राज्यों में इसके खिलाफ आवाज उठी। हुआ यह कि भारतीय भाषा वाले आपसे में गुत्थमगुत्था होते रहे और अंग्रेजी इस बीच आगे बढ़ गई। हमें समझना पड़ेगा ।अपनी भाषाओं की तरफ आना होगा। मैं जब यह बात कहता हूं तो केवल हिंदी के लिए नहीं है। हिंदी के लिए तो कतई नहीं है। अपनी सभी भारतीय भाषाओं के लिए है। अपनी-अपनी भाषाओं में पढ़ाई होगी। इसके बाद माध्यमिकस्कूल स्तर पर अंग्रेजी की शुरुआत होगी। अंग्रेजी उतनी आनी चाहिए कि आपसी संवाद के लिए भी और विदेशों से संवाद के लिए। उच्च शिक्षा के लिए कोठारी आयोग अपनी भाषा में शिक्षा की बात करता है। इसमें कोई विरोधाभास नहीं है । ऐसी स्थितियां पैदा की गईं हैं, प्रचारित की गई कि जैसे कि हिंदी थोपी जा रही है और उसकी आड़ में अंग्रेजी अपना रास्ता बनाती जा रही है।
प्रश्न: दूसरी भारतीय भाषाओं वालों काएक सवाल यह है कि हम तो हिंदी तो सीख रहे हैं लेकिन हिंदीभाषी अन्य भारतीय भाषा नहीं सीखते और न सीखना चाहते हैं। वे अंग्रेजी, रुसी, फ्रेंच तो सीख लेंगे। हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के बीच दूरी बढ़ने का शायद यह भी एक कारण है।
उत्तर: यहां गलती हिंदी भाषी राज्यों की है। केरल, तमिलनाडु आदि राज्य हिंदी अपनी जरूरत के हिसाब से सीख रहे हैं। लेकिन हिंदी प्रांतों ने शायद धोखा दिया है, तीन भाषा सूत्र को न अपनाकर । केवल हरियाणा को छोड़कर जहां तेलुगु सिखाने के कुछ प्रयास किए गए । इन्होंने किया यहकि इसकी आड़ में संस्कृत को, शामिल कर खाना पूरी कर डाली । करना यह था कि आप द्रविड़ समूह की कोई भाषा सीखें। अब थोड़ा सोचकर देखिए कि आप द्रविड़ समूह की भाषा सीखते, गुजराती सीखते तो आपकी भाषा में वे शब्द आ जाते। जब कोई गुजराती यहां आएगा या तमिल आएगा उसे अपने शब्द दिखाई देंगे तो उसकी आत्मा कैसे खिल उठेगी। बिल्कुल वैसे ही जैसे आप वहां जाते हैं और आपकी आत्मा हिंदी सुनकर खिल जाती है। यह हिंदी पक्ष की गलती रही है और इसे अभी भी सुधारने की जरूरत है। लेकिन यह तब संभव है जब सरकार भाषा और शिक्षा को अहम मानती हो। शायद ही किसी राजनीतिक दल ने अपने घोषणा पत्र में भाषा या शिक्षा के प्रश्न को मुख्यरखा हो। अभी इसका रास्ता यह बनता है कि हर स्कूल में और नहीं तो कम से कम विश्वविद्यालय में भारतीय भाषा के डिप्लोमा या इस तरह का कोर्स हो। ऐसा होगा तो भविष्य की भाषा बनेगी । लेकिन दिल्ली में फ्रेंच, जापानी, स्पेनिश के डिप्लोमा शुरू हो गये हैं भारतीय भाषाओं के नहीं । जैसे आस्ट्रेलिया, अमेरिका, चीन यानी जहां से भी शब्द मिले उसे अंग्रेजी में शामिल कर लिया गया। इससे अंग्रेजी का विकास हुआ। हम व्याकरण पर ज्यादाजोर न दें। एन.सी.ई.आर.टी. के नये पाठ्यक्रम में हमारी बराबर यह कहने की कोशिश रही कि व्याकरण जरूरी नहीं। जरूरी आपकी बात पहुंचनी चाहिए। व्याकरण के बोझ की वजह से तो भाषा आती भी नहीं। व्याकरण के रास्ते भाषा सिखाई भी नहीं जा सकती। हमारे पास सभी भारतीय भाषाओं का समृद्ध साहित्य है। अगर थोड़े शब्द इन सबसे जुड़ेगे तो एक भारतीय भाषा उभर कर आएगी। मुझे लगता है कि भाषा की समस्या इतनी आसानी से हल हो जाएगी। भाषा की समस्या ही नहीं, इस देश के सच्चे लोकतंत्र के लिए वह पहला कदम होगा।
प्रश्न: कुछ चिंतक अंग्रेजी को देवी के रूप में देखते हैं और इसमें वे व्यापक जनहित की बात कहते हैं?
उत्तर: यह एक गुमराह करने वाली बात है। उन्हें कौन समझाए कि अंग्रेजी उन गांव-देहात के मजदूरों को कैसे सिखाई जा सकती है, जब वहां स्कूल हैं हीनहीं। निजी स्कूलों में फीस दे नहीं सकते। और सबसे बड़ी बात है कि उन्हें पढ़ाएगा कौन? बच्चा भाषा समाज से सीखता है। क्या उन गरीब-मजदूरों के माता-पिता अंग्रेजी जानते हैं? स्कूल में कितनी देर रहेंगे और स्कूल का मास्टर क्या अंग्रेजी जानता है? न जाने कौन सी ताकतों का पैसा है जो उनसे ऐसा बोलने के लिए कह रहा है। यह देशद्रोह से कम नहीं है। अपने ही समुदाय को सदा के लिए पीछे करने की साजिश है। उनका कहना है कि अंग्रेजी ही उन्हें दुनिया में बराबरी पर लाएगी। जब तक गांव-देहात के बच्चे उतनी अंग्रेजी पढ़ेंगे तब तक दिल्ली के बडे़ तथाकथित स्कूलों में उससे कई गुणा बेहतर पढ़ेंगे। इसके भी आगे वह अमेरिका, आस्टेलिया में जाकर और अच्छी अंग्रेजी पढेंगे। उनसे अंग्रेजी में कैसे मुकाबला कर सकेंगे? अंग्रेजी की बात करने वाला चालाक है। वो चालाक दिल्ली में रहने वाला सवर्ण हो या दलित हो, जो पैसे वाले, नौकरशाह जो पिछले पचास वर्षों से यहीं पर जमे हुए हैं, वे सब जानबूझकर अंग्रेजी के पक्षधर हैं। जिससे उन्हें गांव का इतना बड़ा हिस्सा, देश का इतना बड़ा चुनौती न पाए। इसलिए इसे समझने की जरूरत है। जनवादी ताकतें, जनवादी संगठन और शिक्षा में लगे इसे जितना जल्दी समझेंगे उतना ही अच्छा है।
प्रश्न: कुछ चिंतिक विशेषकर दलित चिंतक यह कहते हुए सामने आए हैं कि अंग्रेजी ही उन्हें जाति व्यवस्था से मुक्ति दिलाएगी । वे अंग्रेजी की मैकाले का मंदिर आदि भी बनाने की बात करते हैं । हालॉंकि उन्हें बहुत सफलता नहीं मिल रही ।
उत्तर: सफलता असफलता का प्रश्न नहीं जनता की जरूरत का भी है । तुलसीराम जाने-माने दलित चिंतक और विचारक हैं । जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं । उनका साफ कहना है कि भाषा का प्रश्न जाति का नहीं है और अंग्रेजी से तो पूरा आंदोलन ही भटक जाएगा । उनका कहना है कि अभी तो समाज के इन गरीब तबकों को पढ़ना-लिखना ही नहीं आता । पहले हमें इन्हें अपनी भाषा में जो ज्यादा आसान है और जिसकी सुविधाएं भी उपलब्ध हैं, हमें शिक्षित करने की जरूरत है ।
क्या अंग्रेजी की नाव में बैठकर सामाजिक न्याय के लक्ष्य तक पहुंचा जा सकता है ? क्या यह उतना ही अनैतिक नहीं है जितना कल तक सवर्णों को अपने को जन्मजात श्रेष्ठ बुद्धिमान और सब दैवीय गुणों से सम्पन्न मानना और संस्कृत की वकालत करना ? पहले इन्होंने देवता बनाये, फिर उनमें जातीय श्रेष्ठता भरी । जिस देश की गरीब जनता अपनी भाषा में ही पढ़-लिख नहीं पा रही हो उसे किस जादू की छड़ी से अंग्रेजी पढ़ाई जा सकती है ? उसे थोड़ी देर के लिए ब्रिटिश साम्राज्यवाद के कुछ अच्छी बातों बराबरी, जातिविहीन समाज, लोकतंत्र जैसे शब्दों से भरमाकर अपनी भाषाओं को भूलने के लिये कह सकते हैं । लेकिन इन दलित गरीबों को इसकी असलियत समझने में ज्यादा देर नहीं लगेगी कि अमीर शहरी मध्य वर्ग क्यों अपनी राजनीति और शीर्ष पर बने रहने की आकांक्षा से इसका इस्तेमाल कर रहा था । जिन हथियारों उक्तियों का इस्तेमाल ऊंची जातियों ने सत्ता की मलाई पर इकतरफा कब्जा कायम रखने के लिये किया वही खेल दो-तीन पीढि़यों से नौकरियों पर काबिज दलित नेता कर रहे हैं । पता नहीं उन्हें अंग्रेजी क्यों इतनी उद्धारक लगने लगी है ?
मैं फिर से यह कहना चाहता हूँ कि भाषा के मामले में जाति, धर्म का प्रश्न नहीं उठाया जाना चाहिए । जो लोग हिंदी को हिंदू या मुसलमानों या उर्दू को मुसलमानों की भाषा मानते हैं यह भी उतना ही गलत है । भाषा का संबंध उस जमीन से होता है जिस पर सारा समुदाय खड़ा है । इसीलिए इन्हें भाषा के आधार पर अलग-अलग बैठ कर गुमराह नहीं किया जा सकता ।