क्या रोने और विलाप को भी संस्कृति के खांचे में फिट किया जा सकता है ? यदि अभी तक नहीं किया तो कम से कम स्कूल, कॉलेजों में सांस्कृतिक कार्यक्रम के नाम पर होने वाले आयोजन के लिए तो एक नयी श्रेणी बनानी ही पड़ेगी । मैं पश्चिमी उत्तर प्रदेश का रहने वाला हूं । इसलिए कुछ जड़ों का मोह, कुछ हवाई ढंग से ही सही जमीनी यथार्थ को जानने की ललक या कहिए कि दिल्ली के बंद सेमीनारों से बाहर निकलने की बैचेनी इसलिए जब भी बुलावा आता है मैं तुरंत स्कूल कॉलेजों के स्थापना दिवस,वार्षिक दिवस के नाम पर होने वाले इन कार्यक्रमों में चल देता हूं । हर बार की तरह शुरूआत एक जैसी । यदि समय दस बजे का है तो कार्यक्रम की हलचल घंटे दो घंटे बाद ही शुरू होगी । कारण आप तो पहुंच गये (उनकी नजरों में फालतू होंगे) लेकिन आप अकेले मुख्य अतिथि नहीं हैं क्षेत्र के एम.पी., एम.एल.ए. विशिष्ट अतिथि हैं तो जिले का कलैक्टर, एस.पी., शिक्षा अधिकारी स्कूल कॉलेज का चैयरमेन भी अपनी-अपनी हैसियत से वहां पहुंचेंगे और भारत की महान सांस्कृतिक, राजनैतिक परम्परा के अनुसार जिसकी हैसियत सबसे ज्यादा है वही सबसे बाद में पहुंचेगा ।
चलो जैसे-तैसे चीखते फिल्मी गानों के शोर गुल के बीच कार्यक्रम शुरू होता है । लेकिन पूरे माहौल में समाई हिन्दी के बीच अचानक यह मिमियाती सी अंग्रेजी की आवाज कहां से आ गई ? बावजूद इसके कि नौजवान विद्यार्थी ने इस अवसर पर अंग्रेजी बोलने का खूब अभ्यास किया है फिर भी फांक नजर आ ही रही है । जो दिल्ली के जितना नजदीक है अंग्रेजी का रंग उतना ही चटख । ग्रेटर नोएडा के स्कूल की दीवारों पर जो भी ब्रह्म वाक्य लिखे थे वे सब अंग्रेजी में थे । कक्षाओं के अंदर भी और बाहर भी । मानो वहां के जाट, गुर्जर और उनके बच्चे हिन्दी तो जानते ही नहीं । दरअसल दीवारों पर लिखी इन्हीं इबारतों से तो पैसे वसूले जाते हैं और नि:संदेह इसमें पूरी व्यवस्था शामिल है । जिन स्कूलों में देवनागरी में भी लिखे हैं इनकी दूसरी प्रिय भाषा संस्कृत है । तपो न दानम ज्ञानम न शीलम, विधा ददाति विनयम जैसे आदर्शों से लदी हुई । इस क्षेत्र की विनयशीलता का परिचय तो दिल्ली में पुलिस या बस कंडैक्टर के जबान खोलते ही लग जाता है ।
चलिए संस्कृति के असली नाटक को देखते हैं । शीर्षक ‘मॉं तुझे सलाम’ । मंच पर भव्य तिरंगा झंडा लिये एक विद्यार्थी खड़ा है । सेना की वर्दी में । उसके आसपास दोनों ओर पांच-पांच और बंदूकें लिये सैनिक । मॉं भारती के रूप में पीछे सफेद साड़ी पहने एक छात्रा । फिल्मी गाना शुरू होता है ‘मॉं तुझे सलाम’ । बीच-बीच में वन्दे मातरम् और गुस्से में बन्दूक हिलाते विद्याथी । जोश, आक्रोश और रोष से ऐसा लबालब माहौल कि बस अभी किसी पड़ौसी देश को फतह कर डालेंगे । अचानक मंच पर आतंकवादियों का प्रवेश होता है । सभी के चेहरों पर दाडि़यां । मानो आतंकवादी बिना दाड़ी का हो ही नहीं सकता । गोलियों की आवाजें । धड़ाम-धड़ाम गिरते अदाकार लेकिन लहू-लूहान होने के बावजूद भी तिरंगा झंडा थामे हाथ । भारत माता की विधवा का आकर झंडा थामना, आंसू, हुंकार, ललकार । तालियों की गड़गड़ाहट । भारत माता की जय । माइक पर एक आदमी आता है । क्या जोश आया ? हमारा देश वीरों का देश है । एक बार और तालियां ।
आप फिर इन बच्चों को दोष देंगे । क्या इन स्कूलों में जो राष्ट्रभक्ति सिखाई जा रही है उसमें और 26 जनवरी के बहाने होने वाले प्रदर्शन की मूल भावना एक ही नहीं है ? इन स्कूलों में राष्ट्रवाद के इन नाटकों के अलावा शायद ही कभी कुछ और देखने को मिले । काश पाकिस्तान, चीन से दोस्ती हो जाये तो क्या तो होगा इनके इन नाटकों का और इनके सेना, पुलिस में लाखों खपने वाले वीर बालकों का । अगला सीन – कजरारे, कजरारे गाना माइक पर चल रहा है और डांस स्टेज पर । सभाग्रह राष्ट्रभक्ति के जोश के तुरंत बाद रोमांश के मूंड में । दूसरा गाना, तीसरा गाना…..। आगे बढ़ते हैं । क्या हर टेलीविजन, मीडिया में ऐसे ही गानों का अभ्यास नहीं हो रहा ? सा रे गा मा, लिटिल मास्टर, डांस इंडिया डांस, नच वलिये, वुगी-वुगी आदि-आदि । दो छोर हैं दिन-रात मीडिया में चलने वाले कार्यक्रमों के । या तो चौखटे तोड़ती त्रिकोणीय प्रेम कहानियां, कारपोरेट, भ्रष्टाचार के षड़यंत्र या फिर जय हनुमान, हर-हर महादेव । जो देख रहे हैं वही तो अपनी जिन्दगी में उतार रहे हैं ये बच्चे । मुझे याद नहीं कि दस-बीस सालों में इन स्कूलों में कभी गलती से भी प्रेमचंद, प्रसाद, सेठ गोविन्द दास या किसी और साहित्यकार की झलक मिली हो । क्या बंगाल में कोई कार्यक्रम बिना रवीन्द्रनाथ टैगोर के संगीत या नाटक के संभव है ?
शुरूआत हर कार्यक्रम की बिल्कुल एक जैसी । फिल्मी धुन पर मार पीट कर फिट किये गये कुछ शब्द जिसमें बीच-बीच में! स्वागतम अहो हमारे भाग्य, धन्य है यह भूमि, मॉं शारदा आदि आते रहते हैं कुछ शब्द अतिथियों की इतनी पलटन के लिए भी । आपकी इजाजत मिल गई; दिल की कली खिल गई । कार्यक्रम शुरू होने के पहले ही मन अन्दर ही अन्दर विलाप करता है कि निराला समेत न जाने कितने हिन्दी कवियों ने सरस्वती वंदना या स्वागत गीत लिखे हैं । क्या यह हरित प्रदेश नाम का क्षेत्र सांस्कृतिक रूप से इतना बंजर हो चुका है कि इन हजारों स्कूलों में कोई ढंग का स्वागत गीत भी नहीं है ? लगता है हर स्कूल के प्रबंधक, प्रिंसिपल या उसके परिवार में जो भी तुकबंदी कर ले वही उनके स्कूल का गीत बन गया है । निरंतर बढ़ते ऐसे सांस्कृतिक विलाप या शून्यता के पीछे भी वही शिक्षा है । इस शून्य को और बड़े ब्लैक होल में बदल रहा है अंग्रेजी का जबरन पढ़ने, पढ़ाने का मोह । इससे स्कूलों का धंधा तो उनका ठीक-ठाक चल रहा है अगर कोई इसे देखकर रोए तो रोया करे ।
सांस्कृतिक कार्यक्रम के बीचों-बीच चाय नाश्ते के स्वयं सेवक अतिथियों की मेज के सामने मंडराते रहते हैं । इस अंदाज में कि वे अपने काम कर रहे हैं, हम अपना । एक सीन भूले नहीं भूलता । स्कूल प्रबंधक और दूसरी खांप पंचायत के सदस्य बगल में बैठे थे । स्टेज पर गाना चल रहा था । मेरे फोटो को चिपका ले फेवीकोल से । एक घूंघंट काढ़े महिला प्रवेश करती है । हमारे सामने चाय, बिस्कुट की प्लेट लिये । शायद खांप पंचायतों में से ही किसी की बहू होगी । एक तरफ घूंघट और दूसरी तरफ मंच पर आधुनिक मुम्बई डांस ।
सांस्कृतिक शून्यता की एक और झलक । अंतिम सीन- इन सभी जगहों पर आपको स्कूल का नाम लिखा एक त्रिशूल नुमा मोमेटो दिया जाता है । जब घर में इनकी अति हो गई तो मैंने एक आयोजक को सुझाव दिया कि बुके और मोमेटो की बजाये कोई प्रेमचंद, रवीन्द्र नाथ टेगौर की किताब दें तो अच्छा रहेगा । वे कुछ समझे, कुछ नहीं । दो दिन बाद फोन आया । सर ! कौन सी क्लास की किताब चाहिये ? अगली बार इस आग्रह के खमियाजे में मुझे एक बड़ी रामायण पकड़ा दी । क्या मेरे इस रोने को आप कुछ अदब के साथ सांस्कृतिक विलाप नहीं कह सकते ?
दिनांक: 12/3/2014
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