जयपुर से रमेश टी का फोन था । उन्हें अज्ञेय की पुस्तक ‘धार और किनारे’ की तलाश थी । जाहिर है जयपुर में नहीं मिल पा रही होगी । मैंने दिल्ली में कोशिश की । दो-चार दोस्तों से पूछा । कईयों के चेहरे पर ऐसे सैकुलर भाव आए कि गलत लेखक को तलाश रहे हो । खैर ! यही हाल पुस्तकालयों का । बल्कि और भी खराब । हिन्दी की सभी विधाएं और सभी लेखक एक के ऊपर एक लदे । गड्मड् । अज्ञेय के परिचय से पढ़कर रमेश जी को इतना बताकर इतिश्री कर ली कि अज्ञेय के ललित निबंधों की यह किताब 1982 में सरस्वती विहार ने प्रकाशित की थी और अब प्रकाशक के पास एक भी प्रति नहीं है । ज्ञानपीठ से प्रकाशित अज्ञेय के सम्पूर्ण साहित्य में शायद शामिल हो ।
ऐसे ही एक दिन असगर वजाहत रघुवीर सहाय के किसी भी कविता संग्रह को तलाश रहे थे । उन्हें उसी दिन रघुवीर सहाय की कविता पर बोलना था । कहां जाए क्या करें । समय कम, गोष्ठियां ज्यादा । राहत की बात अब यह कि कम-से-कम नेट पर तो मिल जाती हैं ये कविताएं । और लेखकों का हाल ये है कि वे नेट के खिलाफ ज्यादा रहते हैं । यही दौर चलता रहा तो गंगा बचाओ, चीते बचाओ की तर्ज पर वर्ल्ड बैंक हिन्दी पुस्तक बचाओं के लिए भी कुछ ग्रांट दे देगा । व्यवस्था की कोशिश तो ऐसी ही लगती है ।
अज्ञेय की पुस्तक की तलाश के बीच एक दिन विमलेश कांत आए । उन्हें साठ सत्तर के दशक में भाषा विवाद पर संसद में हुए विमर्श की तलाश थी । निश्चित रूप से इसे तो करोणों से बनाए संसदीय पुस्तकालय में होना चाहिए । उनका हताश स्वर था कोई नहीं बता पा रहा । अखबार के इसी कौने पर कुछ महीने पहले पढ़ा था कि कोलकाता के राममोहन रॉय पुस्तकालय में हिन्दी की एकाध पत्रिका के साल दो साल पुराने अंक तो धूल खाये पड़े थे ताजा कोई नहीं । दिल्ली की साहित्य अकादमी के पुस्तकालय की स्थिति में भी बार-बार कहने के बावजूद कोई सुधार नहीं है । क्या इस पुस्तकालय में आलोचना, हंस से लेकर पहल, प्रतिमान जैसी पचास पत्रिकाओं को नियमित रूप से उपलब्ध नहीं होना चाहिए जिससे कि हिन्दी का गरीब छात्र आसानी से इन्हें पढ़ सके ? बाजारवाद ने इन पुस्तकालयों को गरीब, पढ़ाकू छात्रों से और दूर कर दिया है । जहां अस्सी के दशक में यहां आना, जाना, पढ़ना मुफ्त था अब केवल सदस्य ही अकादमी के पुस्तकालय में जा सकते है । क्यों ? जिस गरीब आम आदमी की दुहाई देकर नरेगा और खाद्यान्न सस्ती दरों पर उपलब्ध करा रहे हो उसके लिये पुस्तकालय में प्रवेश वर्जित क्यों ? सरकार को सभी पुस्तकालयों में प्रवेश को मुफ्त बनाने की जरूरत है । साहित्य और लेखक का भला भी इसी में है ।
साहित्य को ओढ़ते, बिछाते, गाते हम सभी लहुलुहान की हद तक व्यस्त हैं । अभिनंदन गोष्ठियां, शोकसभा, विमोचन, पुरस्कार….. । काश ! ये सभी कडि़यां मिलकर भी एक अच्छा पुस्तकालय, उसमें मुफ्त आने, जाने, बैठने की सुविधा जुटा सकें । सूचना के अधिकार से आयी सूचना के अनुसार दिल्ली सरकार ने कई सौ करोड़ साहित्य संस्कृति के नाम पर बहाये हैं । इसमें से अधिकांश तो समोसे और टेंट वालों को गए होंगे । कुछ पुस्तकालय के लिए भी कीजिये । मुख्यमंत्री, साहित्यकार, पत्रकार इसके लिए तो लड़ सकते हैं ।
लेकिन दिल्ली में ऐसे मुफ्त सर्वसुलभ पुस्तकालय न होने का दोष सिर्फ सत्ता को देना सही नहीं होगा । मुख्यमंत्री के पास सड़क, मेट्रो, खेल आयोजित कराना, स्कूल, कानून व्यवस्था, सैंकड़ों काम हैं । इसमें दिल्ली के वे बुद्धिजीवी आगे आएं जो सत्ता के हर तंबू में मंच पर बैठे होते हैं । भोपाल के भारत भवन से भी सीखा जा सकता है । कुछ तत्कालीन मुख्यमंत्री बढ़े कुछ अशोक वाजपेई और अन्य लेखक संस्कृतिकर्मी । हालॉंकि ऐसे भवनों को और जनोन्मुखी बनाने की जरूरत है जहां अभिजनों के साथ-साथ गरीब भी जा सकें ।
एक पक्ष और विचारणीय है । वैसे तो सरकार के हर कर्मचारी पर यह बात लागू होती है लेकिन ज्यादातर पुस्तकालयों में काम करने वालों की मुद्रा बताती है कि वे यहां मिसफिट हैं इसीलिये शायद ही किसी किताब का महत्व समझते हों । सरकार के एक पुस्तकालय में नयी किताबों को जगह बनानी थी । जाहिर है पुरानी खारिज उसमें चाहे प्रेमचंद हों या अज्ञेय । मैं जब तक चौकन्ना होकर पुरानी किताबों से कुछ चुनता, उन्हें रद्दी वाला ट्रक भरकर ले जा चुका था । इनमें अमेरिका में जा बसे वेद मेहता की गांधी पर लिखी किताब भी चली गयी । मुझे अफसोस होता है कि इससे तो अच्छा यही होता कि मैं उसे पढ़कर वापस ही नहीं करता ।
शिक्षा के सुधार के लिए विदेशी विश्वविद्यालयों को हर रास्ते से देश भर में जगह देने की कोशिश जारी है । पूरी सांस्कृतिक, शैक्षिक विरासत को जारी रखने वाले पुस्तकालयों के बिना क्या शिक्षा का कोई अर्थ है ? शिक्षाविद कृष्ण कुमार का कहना सही है कि विदेश में शिक्षा के अच्छे स्तर के लिए वहां के पुस्तकालयों की भी बड़ी भूमिका है ।
दिनांक : 11/10/2013
Sir bahut achcha likh rhe hain , mai hmesha puri koshish krta hu apke lekh padhne ki