हिंदी उपन्यास सम्राट प्रेमचंद अपने लेखन और सरोकारों के कारण आधुनिक हिंदी साहित्य के पर्याय बन चुके हैं । अपने समय में भी सबसे ज्यादा पढ़े जाते थे और आज भी । उन्हीं की शुरू की गई पत्रिका ‘हंस’ का भी वैसा ही सम्मान रहा है । प्रेमचंद के समय में भी और 1986 से राजेन्द्र यादव के संपादन में भी । राजेन्द्र यादव ने 1986 में अपने सीमित साधनों से हिन्दी समाज के लेखक, पाठकों के लिए एक ऐसे समय में अच्छी पत्रिका की कमी पूरी की थी जब धर्मयुग, साप्ताहिक, दिनमान, सारिका जैसी पत्रिकाएं या तो डूब चुकी थीं या डूबने के कगार पर थीं । नए पुराने लेखकों और अपने समय के सभी प्रश्नों को लेकर ‘हंस’ ने एक ऐसी जगह बनाई जो आने वाले समय में भी याद की जाएगी । हर वर्ष प्रेमचंद के जन्मदिवस 31 जुलाई को ‘हंस’ द्वारा आयोजित गोष्ठी इस बात का प्रमाण रही है । देश भर के लेखक, पत्रकार, पाठक सैंकड़ों की संख्या में इस दिन का इंतजार करते हैं और उसमें शरीक होते हैं ।
लेकिन पिछले कुछ साल से ‘हंस’ की यह वार्षिक गोष्ठी अपनी चमक खोती जा रही है और इसका एहसास पूरे हिन्दी समाज को है । दो वर्ष पहले छत्तीसगढ़ के पुलिस अधिकारी को बुलाने को लेकर विवाद रहा तो इस वर्ष वरवर राव ने दिल्ली पहुंचने के बावजूद भी गोष्ठी में आने से मना कर दिया और एक विवादास्पद बयान भी दे डाला । वरवर राव जाने-माने कवि और सक्रिय सामाजिक कार्यकर्त्ता हैं । उनकी प्रतिबद्धताएं भी सर्वज्ञात हैं लेकिन जब ‘हंस’ की गोष्ठी का विषय, ‘अभिव्यक्ति और प्रतिबद्ध’ हो तो कितना अच्छा होता कि वे उसी मंच पर पर अपनी बात रखते । उनकी कद-काठी के बुद्धिजीवी को कोई कुछ कहने से रोक भी नहीं सकता था और अच्छा रहता कि वे अपने दूसरे सहभागी अशोक वाजपेयी और गोविन्दाचार्य के बारे में जो भी विचार रखते हैं उसे भी सांझा करते । मौजूदा दौर में ‘हंस’ संपादक राजेन्द्र यादव ने यह विषय यही सोच कर रखा होगा और वैसे ही अलग-अलग रंग के बुद्धिजीवियों का चुनाव उन्होंने किया भी । वरवर राव मार्क्सवादी, विचारक, कवि हैं तो अशोक वाजपेयी एक कलावादी खेमे के हिन्दी के प्रतिष्ठित कवि । गोविन्दाचार्य की पहचान एक राजनेता की रही है लेकिन पिछले लगभग दस वर्षों से तो वे राजनीति से दूर ही हैं और स्वदेशी जागरण, पर्यावरण, गंगा बचाओ जैसे समाज के बुनियादी सरोकारों में संलग्न हैं । यह भी जोड़ने की जरूरत है कि राजनेता के रूप में भी उनकी छवि किसी गुण्डे, अपराधी राजनेता की नहीं रही है । रही दक्षिण पंथी विचार की बात तो यदि हम संविधान को मानते हैं और देश की सर्वोच्च संस्था संसद का सम्मान करते हैं तो वहां भी दक्षिणपंथ से लेकर वामपंथ सभी हैं और सीधे विदेशी निवेश का मामला हो या भ्रष्टाचार के खिलाफ संघर्ष का, पिछले कुछ महीनों में दक्षिणपंथी और वामपंथी लगातार मंच सांझा करते रहे हैं । इसलिए दिल्ली पहुंचने के बाद न जाने किन दोस्तों की सलाह पर उनका गोष्ठी में न आना ‘हंस’ के ज्यादातर पाठकों, भागीदारों को खटका है ।
यह खटकने की बात इसलिए भी जरूरी है कि हमारे लेखक पत्रकार, कवि, साहित्यकार बार-बार जनता से सहिष्णु बनने की अपील करते हैं । एक पवित्र लेखन की आवाज भी समाज में सरसता और परस्पर सम्मान की बात होती है । ‘हंस’ का मंच भी एक सम्मानित स्थान रखता है जहां आने के लिए वरवर राव अपनी सहमति दी तो जिन विचारों के पक्षधर वरवर राव रहे हैं उन्हें अपने कार्यों में भी उतरने की जरूरत है । प्रेमचंद की परम्परा भी यही है । वे अपनी कहानी और साहित्य में साम्प्रदायिकता, जातिवादी, महाजनी सभ्यता से लड़ते नजर आते हैं तो अपने जीवन में भी वही करते हैं । कभी प्रगतिशील लेखक मंच में भागीदारी तो कभी आर्य समाज के लोगों के बीच जाकर सुधार की बातें करेंगे । प्रेमचंद लिखते हैं कि राक्षस से राक्षस मनुष्य में भी एक देवता होता है । हमारी कोशिश यह होनी चाहिए कि उसका देवत्व सामने आए । हमें उसकी सदप्रवृत्तियों को सामने लाने की जरूरत है । प्रेमचंद अपने मूल्य गांधी से भी लेते हैं तो रूस के टॉलस्टाय, गोर्की और दूसरे चिंतकों से भी ।
याद करें इतिहास के उन पृष्ठों को जब पूना पेक्ट में परिस्थितियों ने गांधी और अम्बेडकर को आमने-सामने कर दिया था । अपनी-अपनी जगह दोनों ही ठीक थे । अम्बेडकर अस्पृश्यता जैसे पाप के विरोध में हिन्दू समाज से अलग होने की बात कर रहे थे तो गांधी अस्पृश्यता मिटाने की भी और हिन्दू समाज को एक साथ बचाए रखने की भी । अंतत: परस्पर संवाद और सद्भावना से सहमति बनी । शायद दोनों ने ही एक-दूसरे के प्रति कभी दुर्भावना नहीं रखी । इसी का परिणाम था कि जब भारत का संविधान बनाने की जिम्मेदारी की बात आई तो गांधी की नजरों में अम्बेडकर सबसे आगे थे । प्रधानमंत्री नेहरू के नेतृत्व में जो मंत्रिमंडल बना उसमें इसीलिए सभी विचारों को प्रतिनिधित्व मिला । श्यामा प्रसाद मुखर्जी मौजूदा विमर्श के अर्थ में दक्षिणपंथी थे लेकिन वे नेहरू के मंत्रिमंडल में शामिल थे । कन्हैया लाल मुंशी भी वैसी ही विचारधारा के थे लेकिन आजादी का पूरा दौर एक सहिष्णुता का दौर रहा है । बड़े लक्ष्य को पाने के लिए हमें विचारों के अडि़यलपने से बचना होगा । अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता इसीलिए तो जरूरी है कि विपरीत विचारधारा की बातें भी सुन सके । बल्कि हमें ऐसी जगहों में और भी जाने की जरूरत है जहां विरोधी ज्यादा हों । उस कचरे को साफ करने का आनंद और भी ज्यादा होना चाहिए जो आपकी नजरों में गंदा है । सिर्फ उससे बचके चलना तो अच्छा विकल्प नहीं है । कभी वरवर राव और तो कभी गोविन्दाचार्य या साहित्य में कभी अज्ञेय अछूत मान लिए जाएं और कभी राम विलास शर्मा तो नई पीढ़ी ऐसी गोष्ठी और विमर्श से क्या सीखेगी ? सहिष्णुता या मतभेद की कट्टरता ? क्या यह प्रेमचंद की विरासत के विपरीत नहीं होगा ?
देश की राजनीति में असहिष्णुता बढ़ रही है लेकिन बुद्धिजीवियों के खेमे में उससे कई गुना ज्यादा । पिछले ही वर्ष वरिष्ठ कवि मंगलेश डबराल द्वारा भारतीय नीति प्रतिष्ठान में जाने को लेकर लम्बी बहस चली थी । इसी बीच देश और भी कई कट्टरताओं से गुजरता रहा है । वे चाहे मकबुल फिदा हुसैन के चित्रों को फाड़ना हो या बंगाली लेखिका तसलीमा नसरीन की किताबों पर प्रतिबंध या उनके आने-जाने पर रोक । आशीष नन्दी के जयपुर में दिए एक छोटे से वक्तव्य ने एक अवांछित तूफान पैदा कर दिया था । स्कूल और विश्वविद्यालय में भी यह कट्टरता पैर पसार रही है । आपको याद होगा अम्बेडकर और नेहरू के कार्टून को लेकर चला विवाद या दिल्ली विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में तीन सौ रामायण के पाठ को शामिल करना । हिन्दी का समझदार बुद्धिजीवी इन सभी मोर्चों पर एक सार्थक लड़ाई लड़ता रहा है और उसके परिणाम भी बहुत अच्छे आए हैं । ‘हंस’ की गोष्ठी में ज्यादातर ऐसे ही बुद्धिजीवी शिरकत करते हैं । अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का यह दायरा और बढ़े इसके लिए जरूरी है कि हम बार-बार ऐसे मंचों पर वरवर राव, गोविन्दाचार्य या विपरीत विचाराधारा के लोगों को बुलाए । उनकी बात सुने, उनसे संवाद करें । लोकतंत्र का तकाजा यही है और प्रेमचंद की परम्परा और विरासत भी । वरवर राव जैसी वरिष्ठ बुद्धिजीवियों को अपने विचारों का और लोकतंत्रीकरण करना होगा ।