डॉ. नरेन्द्र दाभोलकर की हत्या पूरे देश के लिए शर्मनाक कही जा सकती है । पेशे से डॉक्टर महाराष्ट्र निवासी यह शख्स पिछले चालीस वर्षों से समाज में व्याप्त अंधविश्वासों और कुरीतियों के खिलाफ लड़ रहा था । समाज को इन बुराईयों से मुक्ति के लिए उसकी निष्ठा देखिए कि उन्होंने अपना डॉक्टरी का पेशा भी छोड़ दिया था । पिछले 15 वर्षों से वे महाराष्ट्र सरकार से ‘अंधविश्वास निर्मूलन कानून’ बनाने के लिए आग्रह कर रहे थे जिससे कि जादू-टोने और तंत्र-मंत्र के बहाने धर्म की आड़ में धंधा करने वालों पर रोक लगाई जा सके । महाराष्ट्र के कई शहरों में फैले उनके छोटे-छोटे संगठन जमीनी स्तर पर वैज्ञानिक चेतना फैलाने के अभियान में जुटे थे । अपनी बात को फैलाने के लिए एक मराठी साप्ताहिक साधना का भी संपादन कर रहे थे जिसके हर अंक में पूरी प्रमाणिकता के साथ उन अंधविश्वासों की पोल खोली जाती थी । जाहिर सी बात है कि ऐसे कानून आने से जिन पंडे, पुजारी, मुल्लाओं या राजनेताओं के धंधे बंद हो जाते उन सबकी आंखों की किरकिरी डॉ. नरेन्द्र बन गए थे पिछले कुछ दिनों से वे जादुई रत्नों, पत्थरों से जनता को ठगने वालों के खिलाफ मुहिम में जुटे थे । सारी समस्याओं के समाधान के लिए रत्न, पत्थर के ताबीज, अँगूठी बेचने वाला यह कारोबार करोड़ों का है । इसीलिए अंतत: उनकी सरेआम गोली मारकर हत्या कर दी गई ।
लेकिन डॉ.नरेन्द्र की शहादत खाली नहीं गई है । अगले ही दिन जो महाराष्ट्र सरकार वर्षों से उस बिल को लटकाए हुए थी उसके मंत्रिमंडल ने उसे लागू करने की सहमति दे दी है । शहादत के अगले दिन पूना भी बंद रहा और महाराष्ट्र के कई शहरों से डॉ. नरेन्द्र के समर्थन में आवाजें उठीं । दिल्ली और दूसरे शहरों के बुद्धिजीवी और उनके भी वक्तव्य डॉ. नरेन्द्र के समर्थन में आए हैं और लगातार आ रहे हैं ।
डॉ. नरेन्द्र दाभोलकर की मौत ने एक साथ ऐसे कई राष्ट्रीय प्रश्न उठाए हैं जिनसे पूरा भारतीय समाज ग्रसित है । भारत के पहले प्रधानमंत्री नेहरू द्वारा संविधान में वैज्ञानिक सोच के कार्यान्वयन के बावजूद भी मौजूदा समाज और शिक्षा व्यवस्था का ढॉंचा ऐसा रहा है कि जिसमें ऐसे अंधविश्वास और अवैज्ञानिकता लगातार बढ़ती रही है । यदि कहा जाए कि जो समाज जितना इन अंधविश्वासों में डूबा हुआ है वह उतना ही पिछड़ा, धर्मांध, जातिवादी और अविकसित है । बिहार, उत्तर प्रदेश हिंदी प्रांतों की तुलना में तो महाराष्ट्र कहीं ज्यादा सजग है और आगे है । वह चाहे स्त्री की आजादी हो, लिंग अनुपात हो या साक्षरता और दूसरे पक्ष । इसका बहुत बड़ा कारण महाराष्ट्र उन राज्यों में से है जो एक समय धर्म और ब्राह्मणवाद की ऐसी चपेट में था जिससे पूरा समाज सिसक रहा था । इसीलिए ज्योतिबा फुले, राणाडे, साहूजी महाराज, अम्बेडकर……… जैसे सामाजिक कार्यकर्ता और नेता यहीं पैदा हुए और इनकी आवाज पूरे देश में भी फैली ।
दुखद पक्ष के साथ-साथ फिर महाराष्ट्र राज्य ने नरेन्द्र दाभोलकर की शहादत के बहाने भारतीय समाज में जादू टौने से मुक्ति की एक नई उम्मीद जगाई है । विशेषकर हिन्दी पट्टी के राज्यों को तो युद्धस्तर पर इन अंधविश्वासों के खिलाफ लड़ने की जरूरत है । मैं रोजाना की जिंदगी से कुछ अनुभवों के सहारे अपनी बात कहना चाहूंगा :-
पिछले वर्ष आपने निर्मल बाबा के कारनामे सुने थे । आपने उनका अंदाज देखा होगा कि कैसे ऐसे बाबा लोगों को मूर्ख बनाते हैं । कोई पुत्र के लिए तो कोई पति के प्रमोशन के लिए तो कोई बेटे को विदेश भेजने के लिए बाबा के सामने हाथ जोड़े खड़ा होता था । बाबा की सलाहों को भी याद कीजिए । किसी को बताते थे कि गोल गप्पे खाओ तो किसी को अमुक मंदिर जाने की सलाह । या शताब्दी में यात्रा करो तो आपका बिजनेस भी उसी रफ्तार से दौड़ने लगेगा । ये सभी चेहरे शिक्षित खाए-पीए वर्ग से थे । तो गांव, देहातों के गरीबों को ऐसे ही बाबाओं, मुल्लाओं के दूसरे अवतार मूर्ख बना रहे हैं और पैसा भी ऐठ रहे हैं । कभी-कभी तो ये जान भी ले लेते हैं । एक बच्चे को सॉंप ने काट खाया बजाए डॉक्टर के पास ले जाने के पड़ौस के बाबा के मंत्र गूँजने लगे । बच्चा खत्म हो गया । अगर आप संवेदनशील हैं और समाज को बदलने का जज्बा भी रखते हैं तो आप का गुस्सा वैसा ही बन सकता है जैसा नरेन्द्र दाभोलकर कर रहे थे । आंकड़ों पर यकीन करें तो सॉंप काटने से ही इस देश में हजारों की मौत हो जाती है ।
एक घटना दिल्ली स्थित सरकारी कायार्लय की । ऐसी घटनाएं सुनकर इक्कीसवीं सदी में सिर शर्म से झुक जाता है । सरकार की कुर्सी किसे प्यारी नहीं है । लेकिन सरकारी कर्मचारी चाहता है वह और उसकी कुर्सी अमर हो जाए । पहले रिटायरमेंट की उम्र अट्ठावन वर्ष थी । वर्ष 1998 में साठ हो गई । अब भी जब-तब बासठ तक करने की बात खाली-पीली बैठे हुऐ मंत्रालयों के बाबू करते रहते हैं । क्या कभी कामवाली, सफाई कर्मचारी, सब्जी बेचने वाले या रिक्शे वाले से रिटायरमेंट जैसे शब्द सुने हैं ? तो संक्षेप में दास्तां ये कि नीचे से ऊपर तक वातानुकूलित उस भव्य मंत्रालय के एक कमरे में दफ्तर खुलते ही चुपके-चुपके रोज हवन होने लगा । हवन कर्ता मंत्रालय के ही एक एम.बी.बी.एस. डॉक्टर थे । उनका मुखिया भी रिटायर हो रहे थे और यह डॉक्टर भी । उन्हें किसी ने सलाह दी कि हवन करने से केबिनेट से मंजूरी हो सकती है । हाय रे ये देश, इसके एम.बी.बी.एस. डॉक्टर और सरकारी मंत्रालय । प्रोफेसर इम्तियाज अहमद ने एक भाषण में ठीक ही कहा था- संविधान तो हमने सैक्यूलर, वैज्ञानिक बना दिया, समाज को वैसा दूर-दूर तक नहीं बना पाये ।
तरह-तरह के अनुभवों के बीच एक और अनुभव । उस भव्य मंत्रालय में जैसे ही नया अफसर किसी कमरे में आता या जाता है कोई मेज को वास्तु शास्त्र के हिसाब से पश्चिम की तरफ करता तो कोई पूर्व की ओर । कोई फैंगसूई लटकाता तो कोई अमुक रंग के फूल की मांग करता । खर्च तो प्रशासन को ही भुगतना पड़ेगा और इसी के चलते न तो छत्तीसगढ़ के आदिवासियों के लिए पैसा बचता, न पहाड़ों पर रेल बिछाने के लिए । क्या वक्त और संसाधनों की यह बरबादी ऐसे अतार्किक, अवैज्ञानिक सोच का ही परिणाम नहीं है ?
अनुभव बताता है कि राजनेताओं के भरोसे इस समस्या को नहीं छोड़ा जा सकता । संसद में ऐसी बातों पर चर्चा नहीं होती । संसद निर्मल बाबा पर भी चुप रहती है, भविष्य बताने वाली तीन देवियों पर भी और मीडिया के खिलाफ भी । क्योंकि उन सबके अपने-अपने बाबा हैं । कोई पेड़ पर रह रहे देवराह बाबा का पंजा चूमता है तो कोई साईं बाबा का । खोज-खोज कर पहाड़ों में छिपे बाबाओं के साथ तस्वीर खिंचवाते हैं । इलेक्शन से पहले भी और इलेक्शन के बाद भी । विज्ञान ने कंप्यूटर का आविष्कार किया लेकिन हमारे राजनेताओं और पिछले दिनों हार्बर्ड, इंग्लैंड और आई.आई.एम. से पढ़े हुए नौजवानों ने साथ मिलकर उन कंप्यूटरों का इस्तेमाल क्षेत्रवार, जातियों, धर्मों के आंकड़ों के लिए किया है । न्याय मूर्ति काटजु यह बात पूरे जोरों से उठा रहे हैं कि ऐसी ‘सोच के चलते हम जाति और धर्म की जकड़न से कभी मुक्त नहीं हो सकते । अगर वैज्ञानिक सोच नहीं हुई तो क्या पूरा लोकतंत्र ही खतरे में नहीं है ?’
यदि महाराष्ट्र के राज्य में ‘अंधविश्वास निर्मूलन कानून’ बनने वाला है तो यह उत्तर भारत के लिए और भी जरूरी है और सोचें तो पूरे देश के लिए क्यों नहीं ? क्यों संसद चुप रही इस मुद्दे पर ? एक तीखी टिप्पणी यह आई कि उत्तर भारत के बुद्धिजीवी और नेता इस हत्या के खिलाफ वक्तव्य तो दे देंगे लेकिन अपने जीवन में उन्हें कौन लागू करेगा ? नरेन्द्र दाभोलकर की शहादत को सबसे बड़ी श्रंद्धाजलि यही होगी कि हम सभी ऐसे अंधविश्वासों के खिलाफ लड़ें और वैज्ञानिक चेतना को फैलाने में जी-जान से जुट जाएं । खंड-खंड में धर्म और जाति में विभाजित समाज की मुक्ति भी इसी रास्ते से ही संभव है ।