विदेशी भाषा की ऐसी गुलामी के वाकये शायद ही किसी स्वाधीन देश में होते हों । राममनोहर लोहिया नेशलन लॉ यूनिवर्सिटी लखनऊ इस परीक्षा के इस वर्ष के राष्ट्रीय संयोजक के नाते प्रवेश परीक्षा में हिंदी के प्रश्न पत्र के बारे में विचार कर ही रही थी कि विरोध के स्वर पहले ही शुरू हो गये हैं । देश के 16 नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी में कानून की पढ़ाई के लिए एक समान प्रवेश परीक्षा होती है । अभी तक यह परीक्षा सिर्फ अंग्रेजी माध्यम में होती आई है । लॉ यूनिवर्सिटी लखनऊ का विचार है कि हिंदी माध्यम भी परीक्षार्थियों के लिए उपलब्ध रहना चाहिए । इसी साल नवंबर में इस पर विचार भी हुआ था । लेकिन इसके विरोध में दक्षिण के विश्वविद्यालयों के साथ-साथ कई और विश्वविद्यालय भी खड़े हो गये हैं । इनका तर्क है कि जब इन सभी लॉ यूनिवर्सिटीज में पढ़ने, पढा़ने का माध्यम अंग्रेजी है तो हिंदी माध्यम से चुने जाने वाले वहां करेंगे क्या ? और दूसरा तर्क यह दे रहे हैं कि दुनियाभर में अंग्रेजी ही कानून की भाषा है और तीसरा कि हिंदी में कानून की किताबें हैं ही कहां ।
सचमुच ‘सिर मुड़ाते ही ओले पड़े’ कहावत ऐसे ही मौकों के लिए बनाई गई है । यानि कि अपनी भाषाओं की शुरूआत के बारे में सोचना भी जैसे इस देश में गुनाह हो गया हो । इन अंग्रेजीदॉं लोगों से कोई पूछे कि क्या लखनऊ, भोपाल, जोधपुर, दिल्ली जैसी जगहों पर जो बच्चे दाखिला लेना चाहते हैं यदि उनकी पढ़ाई हिंदी क्षेत्र के दूर-दराज के गॉंव, कस्बों में हुई है तो क्या वे इस परीक्षा को कभी पास कर सकते हैं ? सत्ता और शिक्षा व्यवस्था ने उन्हें हिंदी समेत अपनी भाषाओं में पढ़ने की सुविधा उपलब्ध कराई है और आगे चलकर उन्हें अंग्रेजी माध्यम में परीक्षा देनी पड़े तो क्या यह उनके साथ अन्याय नहीं होगा ? क्या बिहार, उत्तर प्रदेश, झारखंड, राजस्थान, हरियाणा के लाखों गांव में अपनी भाषा में पढ़ने वालों को इस आधार पर नकार देना किउन्हें अंग्रेजी नहीं आती मूल अधिकारों के खिलाफ नहीं है ? क्या अकलमंदी या बुद्धिमत्ता पर अंग्रेजी का ही विशेषाधिकार है ? अंग्रेजी वालों का दूसरा तर्क भी निराधार है कि दुनियाभर में कानून की भाषा सिर्फ अंग्रेजी है । क्या जापान, चीन या दूसरे देशों का कामकाज अपनी भाषाओं में नहीं होता ? और उतना ही कमजोर तर्क यह कहना है कि हिंदी या प्रादेशिक भाषाओं में कानून की पुस्तकें उपलब्ध नहीं । उपलब्ध तो तब होंगी जब उनका इस्तेमाल बढ़ेगा और इस्तेमाल की पहली सीढ़ी शिक्षा व्यवस्था है । किताबें उपलब्ध न होने का रोना तो ये साठ के दशक में भी रोते थे अब और ज्यादा ।
कितना विचित्र लगता है कि पूरी पढ़ाई अपनी भाषाओं में करने के बाद वकालत का काला चोगा पहनते ही जब देश के ज्यादातर वकील अंग्रेजी बोलने की कोशिश करते हैं । इलाहाबाद उच्च न्यायालय का एक वाक्या भूले नहीं भूलता । लगभग दस वर्ष पहले शायद काटजू साब इलाहाबाद उच्च न्यायालय की कुर्सी पर थे । एक ऐडवोकेट अंग्रेजी में बोलने की कोशिश में लगे थे । जब काटजू साहब की समझ में बात नहीं आई तो उन्हें कहना पड़ा कि ‘आप बिहार से हैं और अपनी बात हिंदी में कहें तो ज्यादा अच्छा रहेगा ।’ हमारे न्यायालयों में ऐसे दयनीय उदाहरण रोज मिलते हैं । लेकिन इससे भी महत्वपूर्ण पक्ष जनता को मिलने वाले न्याय का है । भाषा अपनी जनता के लिये होती है या दुनिया की चाकरी के लिये । न्याय जनता के लिए है या भाषा के लिए । जमीन, जायदाद, फौजदारी के अनगिनत मामलों में मुवक्किल को यह पता भी नहीं लगता कि उनके वकील ने क्या जवाब दाखिल किया है और क्या वह कोर्ट में कह रहा है । क्या लोकतंत्र का पहला कदम न्याय की ऐसी व्यवस्था नहीं है जिस पर उसका यकीन बन सके ? और इस यकीन के पीछे क्या सबसे महत्वपूर्ण पक्ष भाषा का नहीं है जिससे देश की आम जनता को लगातार वंचित किया जा रहा है । यह अचानक नहीं है देशभर में नेशनल लॉ स्कूल की प्रतिष्ठा बड़े जोरों से गाई-बजाई जा रही है लेकिन इस गाने-बजाने में वही शामिल हैं जो अंग्रेजी जानते हैं; नगरों, शहरों में पढ़े हैं उसे विशेषाधिकार की तरह इस्तेमाल करते हैं । लेकिन इसका फायदा किसको मिलेगा ? उन बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को जिनका विस्तार दुनियाभर में है । यानि कि बहुत सस्ते दामों पर उनको ऐसे पालतू वकील मिल जाएंगे जो भारत की जनता को अंग्रेजी में मूर्ख बना सकें । याद कीजिए भारत में जब ईस्ट इंडिया कम्पनी की शुरूआत हुई थी तो सबसे पहले उन्होंने अंग्रेजी जानने वाले वकीलों का ऐसा ही वर्ग तैयार किया था । देश के राजा, जमींदार के मामलों में भी यही वकील पैरवी करते थे और ब्रिटिश साम्राज्य की भी । हश्र क्या हुआ ? देखते देखते ईस्ट इंडिया कम्पनी ने पूरे देश पर कब्जा कर लिया ।
हमें आजादी तो मिली लेकिन अब फिर कई तर्कों से वही शुरूआत हो रही है जिसमें देश की जनता को न्याय मिलना असंभव है । राष्ट्र, संस्कृति, स्वाभिमान, स्वदेशी की बात करने वालों के लिए अब परीक्षा की घड़ी आ गई है । सिर्फ अतीत में चोंच डुबोने से काम नहीं चलने वाला । बच्चों की मौजूदा किताबों, कॉपियों, डायरियों पर नजर डालिये कि कैसे अच्छी शिक्षा के नाम पर अंग्रेजी सभी भारतीय भाषाओं को निगलती जा रहा है । क्या यह स्वाधीन राष्ट्र की पहचान है ?
इन सभी लॉ यूनिवर्सिटीज को यह सोचने की जरूरत है कि अब आई.आई.टी. की परीक्षा में भाषा का माध्यम उपलब्ध है, देश की सर्वोच्च परीक्षा सिविल सेवा परीक्षा में भारतीय भाषाओं का माध्यम उपलब्ध है तो लॉ यूनिवर्सिटीज में भी यह क्यों नहीं होना चाहिए ? लोहिया लॉ यूनिवर्सिटी लखनऊ के इस विचार की तारीफ की जानी चाहिये और एक लोकतांत्रिक देश के नागरिक के मूल अधिकार के नाते केंद्र और सभी राज्य सरकारों को इसका समर्थन करना चाहिए । और न केवल हिंदी बल्कि दूसरी भारतीय भाषाओं में भी इस प्रवेश परीक्षा में अपनी भाषा के माध्यम की छूट मिलनी चाहिए ।