हाल ही में ग्यारह जुलाई को भारत समेत दुनिया भर में जनसंख्या दिवस मनाया गया। भारत के हर राजनैतिक दल के अंग्रेजी समेत अपनी भाषाओं के अखवारों में विज्ञापन भी छपे हैं। एक संदेश देते कि खुशहाल परिवार के लिए जनसंख्या को स्थिर बनाना बहुत जरुरी है। वर्षो से ऐसा होता आ रहा है लेकिन क्या बढती जनसंख्या को इतनी सी औपचारिकताएं रोक पायेंगी? क्या ‘दो बच्चे –भविष्य अच्छे’ की कविता का भावार्थ देश की लगभग आधी निरक्षर जनसंख्या समझ पाएगी ? या हम दुनिया की तर्ज पर सिर्फ दिवस मना कर खाना पूर्ति करते रहेंगे? स्पष्ट शब्दों में किसी राजनैतिक दल ने जनसंख्या नियंत्रण के लिए कानून बनाने का आव्हान नहीं किया।
विश्व जनसंख्या दिवस पर सरकारी रूप से घोषित भारत में जनसंख्या 127 करोड़ है। ऐसा अनुमान है कि वर्ष 2030 तक हम चीन को पीछे छोडते हुए दुनिया भर में अव्वल हो जाएंगे। दुनिया की आवादी का सत्रह प्रतिशत। क्या इतनी आवादी हमारे संसाधन ढो पायेंगे? माना हरित क्रांति के बाद खाद्यानों के उत्पादन में हमें कुछ आत्म निर्भरता मिली है। लेकिन दाल, खाद्य तेल, मेवे और दूसरी सैंकडों चीजों का हम अरबों रूपये का आयात करते हैं।
दिल्ली जैसे किसी भी महानगर का उदाहरण ले लीजिए। दिल्ली की सीमा पर वसे इन्द्रापुरम में पांच लाख की आबादी वसने का अनुमान था। आज वहां पांच गुना आबादी है और अभी भी मकान ढूंढे नहीं मिलते। दिल्ली का फैलाव पडोसी राज्यों में मूल दिल्ली से ज्यादा हो गया है। दिल्ली विश्वविद्यालय के अस्सी से अधिक कॉलेजों में लगभग साठ हजार सीटें हैं और इस बार आवेदन आए हैं लगभग तीन लाख बच्चों के । यही हाल दिल्ली की मैट्रो का जो उसकी सफलता पर प्रश्नचिन्ह लगा रही है। स्कूल, अस्पताल, सड़क, बाजार कोई क्षेत्र ऐसा नहीं है जिसके दबाव में देश के सभी महानगर क्षमता के अंतिम बिंदु पर सांस नहीं ले रहे हैं। भारत में भीड़, भगदड़ के दृश्य पूरी दुनिया में अजूबे की तरह देखे-दिखाए जाते हैं। सिर्फ आबादी के दबाव में सीएनजी के बावजूद प्रदूषण पर नियंत्रण भी बेकावू हो रहा है।
दुनिया भर के देशों ने जनसंख्या नीति पर विचार किया है और प्रतिबंध लगाए हैं। सत्तर के दशक तक चीन की प्रति महिला बच्चे की दर 5.8 प्रतिशत थी। क्या हश्र होता चीन का यदि रोक न लगाई होती ? तुरंत एक से ज्यादा बच्चा पैदा करने पर दंड का प्रावधान किया गया। पडो़सी कोरिया में और भी ज्यादा छ: के करीब थी। वहां भी नियम बनाए गए। आज विकास की दौड में दोनों देशों को इसका फायदा मिल रहा है। लेकिन ऐसा भी नहीं है कि यह सनातन प्रतिबंध लगा है। वर्ष 2013 में चीन ने इसमे ढील दी है । जनसंख्या की स्थिरता के लिए औसत बृद्वि 2.1 की होनी चाहिए जबकि चीन में 1.6 से भी कम हो गई थी। परिणाम वूढे़ ज्यादा और नौजवान कम। इसका सबसे बुरा असर फैक्टरियों के उत्पादन पर पडा़ जहां कामगार ही नहीं मिलते। चीन को उम्मीद थी कि एक साल में कम से कम बीस लाख लोग दूसरे बच्चे की तरफ जाएंगे। लेकिन केवल दस लाख के करीब आबादी ने ही दूसरा बच्चा पैदा किया है। कारण ? अध्ययन बताते हैं कि खाते-पीते परिवारों में एक से ज्यादा बच्चे की इच्छा ही नहीं है। विकास बाकई सबसे बडा़ प्रतिबंध है जनसंख्या का। जनसंख्या के खिलाफ सरकारी प्रचार-प्रसार ने चार पांच दशकों में परिवार की परिभाषा ही बदल दी है। चीन में भारत की स्थितियों को देखते हुए तो अविलंब ऐसे कानून की जरूरत है। गौर कीजिए पिछले दिनों कुछ नेता अप्रत्यक्ष रूप से दूसरे धर्म की बढती जनसंख्या के उदाहरण दे देकर पांच सात बच्चे पैदा करने की वकालत और दुष्प्रचार कर रहे हैं। माना कि पढी़-लिखी महिलाओं पर ऐसी बातों का असर नहीं होता लेकिन भारतीय समाज की सच्चाई इससे दूर भी नहीं है। गरीबी, अशिक्षा, पुत्र रत्न की इच्छा के चलते ऐसे उदाहरणों की कमी नहीं है जहां एक दंपत्ति के दस बारह बच्चे है। इतने बडे परिवार को स्वस्थ रखना और आगे बढने के अवसर देना केवल व्यक्तिगत समस्या तक सीमित नहीं माना जा सकता। कुपोषण, अशिक्षा के चलते दुनिया भर में अंधे, विकलांग, बीमार बच्चे और बूढ़े दुनिया भर में भारत में सबसे ज्यादा है। विकास के सारे कामों पर जनसंख्या वृद्वि ने पानी फेर दिया है। विकास का हर ढांचा जनसंख्या दबाव से लडखडा रहा है।
बीच बीच में सरकारों ने कुछ कदम भी उठाए हैं लेकिन आधे मन से ही आपातकाल में कांग्रेस के कुछ अति उत्साह में नसबंदी आदि के ऐसे जबरन मामले सामने आए या उनका दुष्प्रचार किया गया कि उसके बाद इस राष्ट्रीय पार्टी ने वोट बैंक की खातिर फिर कभी नाम नहीं लिया। सबसे दुर्भाग्यपूर्ण प्रगतिशील माने जाने वाले बामदलों का रवैया है। प्रतिपल चीन का उदाहरण देते और वहां से प्रेरणा लेने वाले ये दल चीन की जनसंख्या नीति को आज चालीस साल बाद भी लागू करने की बात क्यों नहीं करते? इसे विचित्र बात ही कहें गे कि चीन की जनसंख्या नीति की बात जनसंख्या दिवस पर मुंबई की शिव सेना ने उठाई है।
गुजरात, राजस्थान, मध्यप्रदेश जैसे राज्यों ने कुछ कानून बनाए है जिसके अंर्तगत दो से ज्यादा बच्चे होने पर पंचायत जैसी संस्थाओं के लिए अयोग्य माने जाएंगे। कुछ मामलों में न्यायालय की लडाई के बाबजूद जनप्रतिनिधियों को पद भी छोडना पडा है। यहीं केन्द्र सरकार का दायित्व शुरु होता है। ऐसे मामलों को राज्य विशेष पर नहीं छोड़ा जा सकता। इस मसले पर पूरे देश और हर नागरिक के लिए समान नीति लागू करने की जरूरत है। नि:संदेह विकास के पैमाने अच्छी शिक्षा, स्वास्थ्य, जीवन स्तर जनसंख्या पर नियंत्रण के सबसे प्रभावी अस्त्र हैं। लेकिन पहले हम इस स्थिति तक तो पहुंचे। चीन और पश्चिम के देशों ने भी तो यही किया है। हम बहुत दिन तक दुनिया के नौजवान देश बने रहने की खुशफहमी में नहीं रह सकते। जनसंख्या दिवस की सार्थकता तभी है जब हम इसके दुष्प्रभावों के मद्देनजर तुरंत नीतिगत निर्णय लें।