वाकई इस देश में जाति मरते दम तक पीछा मुश्किल से छोड़ती है । मेरी एक नजदीकी रिश्तेदार अस्सी की उम्र पार कर चुकी हैं । इस उम्र तक आते-आते बीमारियों से भी दोस्ती हो जाती है । परम्परावादी शब्दों का सहारा लिया जाए तो वे परम विदुषी और विद्धान दोनों हैं । बातों-बातों में संस्कृत के श्लोक, चौपाई, मुहावरों, कहावतों से लेकर नैतिक कहानियां उनके मुखारविंद पर आंखों में चमक के साथ खूब सुशोभित होती हैं । बातों-बातों में पता चला कि उनकी कामवाली से उन्हें परेशानी हो रही है । मैंने बिना मांगे सलाह दी कि उसे हटाकर दूसरी रख लो । उनके चेहरे पर चुप्पी पसर गई । उनके बुजुर्ग पति ने शिकायती स्वर में बताया कि वो कामवाली कई-कई रोज नहीं आती और इसके बावजूद भी ये उसे तनख्वाह के साथ-साथ दान-दक्षिणा भी देती रहती हैं । वो रोज नया बहाना बताती है । कभी कहती है कि सांई मंदिर गई थी और कभी चारो धाम की यात्रा पर । बस काम करने नहीं आएगी । इन्हें तीर्थ और पूजा की बातें करके खुश कर देती है । उसे हटा इसलिए नहीं सकती कि वह पंडिताईन है । ये सब्जी तो किसी से भी बनवा सकती हैं लेकिन कच्ची रोटी पंडित के हाथ की ही खाती हैं । मैंने कुरेदा जब बाहर की चीजें बिस्कुट, कचौड़ी, पकौड़े खा सकती हो तो ? इसका उनके पास कोई जवाब नहीं था ।
ये कोई अकेला उदाहरण नहीं है । इस सोच की जड़ें इतनी गहरी हैं जिसका अंदाजा लगाना भी मुश्किल है । दिल्ली के कॉफी हाउस में एक मुस्लिम लेखक मित्र ने बताया कि उन्हें एक प्रगतिशील खेमे के दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर ने घर पर बुलाया । हम सब अपने टिफिन लेकर उनके घर पहुंच गए । विचार, विमर्श, बात-चीत के बाद मुस्लिम दोस्त ने उनकी रसोई में खाना गरम करने की इजाजत मांगी । प्रगतिशील लेखक का मिमियाता सा जवाब था कि ‘मेरी मॉं अपनी रसोई में बाहर के खाने के प्रवेश की इजाजत नहीं देतीं ।’ उस प्रगतिशील सोच का क्या करें जो अपने घर में ही सुधार नहीं ला पाए । ऐसा नहीं कि यह पिछली पीढ़ी के साथ ही है । शहरीकरण ने कुछ बदलाव किए हैं लेकिन अभी दिल्ली उतनी ही दूर है । और यह केवल जाति विशेष तक भी सीमित नहीं है ।
इसी दिल्ली का एक और अनुभव । संयुक्त सचिव स्तर के एक मित्र के साथ उनके घर पर खाना खा रहा था । ये मित्र दलित समुदाय से हैं । कटोरी में सब्जी डालते वक्त उसकी कुछ बूंदें मेज पर गिर गईं । मित्र तमतमा गए और उन्होंने नौकर को ऐसी शब्दावलियों में गरियाया जिनका उल्लेख नहीं किया जा सकता । मैंने माहौल को हल्का करने के लिए समझाने की कोशिश की तो उनका कहना था कि ये जन्म से ही ऐसे होते हैं और ये लातों के भूत हैं बातों के नहीं । अलग-अलग जातियों से नामित इन गरीबों को सवर्ण भी इन्हें पुराने जन्म से धिक्कारते हैं और दलित भी । हिन्दू वर्ण व्यवस्था में अपनी हैसियत के हिसाब से दूसरों को नीचा या निम्नतर समझने की प्रवृत्ति हर स्तर पर बराबर है ।
सरकार में एक मंत्री के कार्यभार संभालने का मैं गवाह हूं । ऑफिस में पहुंकर सैक्यूलर सरकार के मंत्री ने एक यज्ञ किया । तीन मोटे-ताजे पंडितजी साथ थे । आगे चलकर और भी कई बातें पता चलती रहीं जैसे कि पंडितजी ने कहा है कि घर से दफ्तर आते वक्त ड्राइवर कभी भी बाएं से कार नहीं मोड़े । उनकी पूजा के लिए रोजाना कई सौ रुपये के विशेष फूल आते थे । क्या अंतर है इस दलित मंत्री के संस्कार और बनारस से चुने गए एक विख्यात ब्राह्मण केंद्रीय मंत्री के आचरण में ?
गांव के जाति विभाजन की वास्तविकता और किस्से तो सबके सामने है लेकिन समाजशास्त्रियों को शहरी वर्ग के इन नए पंडितों के आचरण पर भी कुछ शोध करने की जरूरत है । आप पाएंगे कि ज्योतिष में यकीन का मामला हो या वास्तु का अथवा शादी, विवाह में गोत्र, नाड़ी और जन्मपत्री, ऊंच-नीच का अथवा पूजा-पाठ की विधि-प्रविधियों का ऊपर से किसी भी जाति की चादर ओढ़ी हुई हो, आंतरिक संस्कारों में कोई अंतर नहीं है । संविधान प्रदत्त सुविधाएं भी ले ली और ब्राह्मणों के ढोंग, संस्कार भी । प्रसिद्ध विज्ञान लेखक जयंत नर्लीकर के शब्दों में पिछले बीस-तीस बरसों में यह अवैज्ञानिकता समाज के हर स्तर पर और बढ़ी है ।
ज्योतिबॉं फूले के शब्दों में यह जाति व्यवस्था सुधार से खत्म नहीं होने वाली इसे जड़ से उखाड़ना पड़ेगा । अंग्रेजों ने बाल हत्या, सती प्रथा जैसी कई धार्मिक कुरीतियों को उखाड़ फैंका था, आजाद भारत के सभी बुद्धिजीवी और सरकार मिलकर क्या जाति के खिलाफ लामबंद नहीं हो सकते ? हिन्दी पट्टी के बुद्धिजीवी पूना में शहीद हुए नरेन्द्र दाभोलकर से भी सीख सकते हैं । जातिवाद, कूपमंडूकता, बाबावाद के अंधेरे की तरफ बढ़ते भारत को बचाने का यही रास्ता है ।
दिनांक :25/10/13