कौन कहता है कि अच्छी किताबें कम होती जा रही हैं । पिछले कुछ वर्षों से मुझे हर दो चार महीने के बाद ऐसी किताब हाथ लग जाती है जिसके निशान पूरी उम्र बने रहेंगे । यहां उन पुस्तकों की फेहरिस्त में जाने का अवसर नहीं है बस इतना कह सकता हूं कि राम चन्द्र गुहा की किताब ‘आखरी उदारवादी’ उतनी ही महत्वपूर्ण है । रामचन्द्र गुहा की ख्याति इधर उभर कर आए प्रसिद्ध इतिहासकार के रुप में है विशेषकर उनकी चर्चित कृति ‘इंडिया आफ्टर गांधी’ से । लेकिन इस किताब को पढ़ते हुए लगता है कि यदि वे मौजूदा राजनीति और इतिहास के अपने मन पसन्द चरित्रों पर जीवनी लिखे तो यह और भी रचनात्मक और ऐतिहासिक काम होगा । मौजूदा पुस्तक में शामिल लेख तो यही साबित करते हैं ।
पुस्तक का शीर्षक ‘आखिरी उदारवादी’ लेख प्रसिद्ध अर्थशास्त्री धर्मा कुमार पर हैं । धर्मा कुमार दिल्ली विश्वविद्यालय के दिल्ली स्कूल आफ इक्नोमिक्स में प्रोफेसर थीं । मूलत: तमिलवासी लेकिन लालन-पालन बंगलौर में हुआ और कार्य क्षेत्र बना दिल्ली । कुछ बचपन लाहौर और बम्बई में बीता । पिता मशहूर रसायन शास्त्री और प्राध्यापक थे । इस लेख के बहाने रामचन्द्र गुहा सत्तर के दशक से लेकर धर्मा कुमार की 2001 में उनकी मृत्यु पर्यंत तक उनके सक्रिय बुद्धिजीवी रूप, कांग्रेस, वाम या दक्षिणपंथी विचारधाराओं के टकराव और उनके बीच धर्मा कुमार जैसी अर्थशास्त्री के उदारवादी नजरिए को बहुत खूबसूरती से उभारते हैं । उनकी साफगोई, उनके शोध से लेकर उनके घर जुटने वाला बौद्धिक समुदाय । गुहा लिखते हैं ‘धर्मा कुमार ऐसे बुद्धिजीवियों से परेशान हो जाती थीं, जो स्वतंत्र चिंतन नहीं करते थे और भेड़चाल की गिरफ्त में थे या किसी विशेष राजनीतिक दल के पिछलग्गू थे । विचारधारा की लक्ष्मण रेखा खींचने से उन्हें नफ़रत थी । उनका मानना था कि एक व्यक्ति को किन्हीं खास मुद्दों पर मतभेद रखना चाहिए और साथ ही अन्य सवालों पर एकमत भी होना चाहिए । लेकिन भारतीय बुद्धिजीवी रूढि़वादी होते हैं और एक सांचे में ढले होते हैं ।’ (पृष्ठ-176)
उस दौर की कई महत्वपूर्ण घटनाओं पर धर्मा कुमार के विचारों को गुहा इस लेख के माध्यम से सामने लाए हैं । आपातकाल की समाप्ति के बाद लोकतांत्रिक अधिकारों की रक्षा के लिए बने नए नागरिक संगठनों का उन्होंने समर्थन किया । सलमान रुश्दी के उपन्यास ‘सैटेनिक वर्सेज’ को जब सरकार ने प्रतिबंधित कर दिया, तब इस फैसले का सबसे पहले सार्वजनिक विरोध करने वालों में धर्मा एक थीं । उन्होंने कहा, ‘प्रतिबंध सरकार की कमजोरी को प्रदर्शित करता है । एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र में ईशनिंदा को संज्ञान लेने लायक अपराध नहीं माना जा सकता । भारत के राष्ट्रपति किसी एक या सभी धार्मिक विश्वासों के संरक्षक नहीं है ।’
एक उदारवादी होने के नाते धर्मा ने सार्वजनिक संस्थाओं पर जाति तथा धर्म के प्रभाव को सीमित करने का प्रयास किया । दिल्ली स्कूल के अन्य विद्धानों की तरह धर्मा कुमार ने भी मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू किए जाने का विरोध किया था । उनकी सोच थी कि पिछड़ी जातियों के लिए नौकरी में आरक्षण लागू करने पर अन्य लोग भी वैसी ही मांग करेंगे । (पृष्ठ-177-178) और इसी अंदाज में उन्होंने बाबरी मस्जिद के विध्वंश का भी विरोध किया । लेख का अंत होते-होते दिल्ली शहर का एक और क्रूर चेहरा उभरता है । कैंसर से जूझती हुई वे बिल्कुल अकेली पड़ गईं । दोस्त उनसे मिलने आते रहते थे, लेकिन उनकी संख्या अधिक नहीं होती थी । इस मायने में दिल्ली बौद्धिक समाज ने खुद को कलंकित किया । दर्जनों लोग, जो धर्मा के परिचित थे, जिनकी सहायता धर्मा ने की थी, जो धर्मा के अच्छे दिनों में उनसे बातचीत का मौका पाकर और उनका मेहमान बनकर खुश हो जाते थे, उन सब ने धर्मा को भुला दिया । उनमें बहुत सारे ऐसे थे जो अखबारों और जनसभाओं में विशाल उत्पीडि़त जनसमूहों के साथ खुद को जोड़ते थे और उनके प्रति चिंता जताते थे । (पृष्ठ-185) पूरा लेख स्मृति और इतिहास में सने बेजोड़ गद्य का नमूना है ।
राम गुहा अपनी ईमानदार अभिव्यक्ति के लिए मशहूर हैं । बिना किसी चिंता और आतंक के । पुस्तक में एक महत्वपूर्ण लेख जोसफ स्टालिन पर है । शीर्षक है ‘इतिहास के सबसे बड़े अपराधी’ । बहुत रोचक और जानकारियों से भरा । आप कहीं-कहीं दुराग्रह भी देख सकते हैं इसमें भारतीय कंम्यूनिस्टों की खूब खबर ली है । यहां तक कि उन्होंने देश के प्रधानमंत्री नेहरु को भी नहीं बख्शा । स्टालिन की प्रशंसा करते हुए नेहरु ने न केवल स्टालिन की चालबाजियों की अनदेखी की थी बल्कि जनता के प्रति किये गये अपराधों को भी नजरअंदाज कर दिया था । गुहा जिल्स नाम के राजनेता के हवाले से लिखते हैं कि ऐसा कोई अपराध नहीं था जो उनके हाथों हुआ न हो । हम किसी भी आधार पर उनका मूल्यांकन करें, इतिहास के सबसे बड़े अपराधी होने का तमगा उन्हें ही मिलेगा और उम्मीद की जा सकती है कि आने वाले समय में भी उन्हें कोई इससे बेदखल नहीं करेगा । वे कालिगुला की तरह आपराधिक मनोवृत्ति, बोर्जिया की तरह चालाक और इवान द टेरिबल की तरह क्रूर थे । अगर हम इंसानियत और मानव-मुक्ति के नजरिए से देखें तो इतिहास में उनके जैसा कोई दूसरा क्रूर और स्वार्थी तानाशाह मिलना मुश्किल है । वे सिलसिलेवार ढंग से काम करते थे, सब कुछ अपने कब्जे में कर चुके थे और पूरी तरह से एक अपराधी थे । वे उन दुर्लभ और भयानक कठमुल्लों में थे जो मानव आबादी के दसवें हिस्से को खुश करने के लिए बाकी के नौ हिस्सों का संहार करने की क्षमता रखते थे । (पृष्ठ-164) एक और इतिहासकार कांक्वेस्ट को उदधृत करते हुए गुहा कहते हैं कि स्टालिन का व्यक्तिव कितना ही सादगीपूर्ण, संघर्ष भरा तथा सयंमित क्यों न दिखाई देता हो, उनके जीवन के बारे में यही कहा जा सकता है कि उसमें सीखने लायक कोई बात नहीं है और उनका जीवन नीरस है । (पृष्ठ-161)
एक बहुत महत्वपूर्ण लेख सी.राजगोपालाचारी पर है । इतिहास के विद्यार्थियों के लिए बहुत जरूरी । राजा जी की इतनी संक्षिप्त और रोचक जीवनी अन्यंत्र नहीं मिलेगी । कैसे वे गांधी के संपर्क में आए और क्यों गांधी उन्हें अपना ‘कांशस कीपर’ कहते थे । भारत के प्रथम गवर्नर जनरल रहे । नेहरु मंत्रीमंडल में शामिल हुए फिर तमिलनाडू के मुख्यमंत्री और अंतत अलग पार्टी बनाई । राजाजी हमेशा पाकिस्तान के साथ मधुर संबंधों के पक्ष में रहे । उनकी इच्छा यह भी थी कि कश्मीर के लोग सम्मान और प्रतिष्ठा के साथ जिंदगी व्यतीत करें । और साथ ही वे बाजार आधारित अर्थनीति की वकालत करने वाले शुरूआती लोगों में थे । उन्होंने भारतीय अर्थव्यवस्था के इतिहास के पूरे कालखंड की आलोचना प्रस्तुत की और इसे समझाने के लिए ‘लाइसेंस-परमिट-कोटा राज’ और ‘हिंदू विकास दर’ जैसे मुहावरे गढ़े । आज शायद ही किसी को याद हो कि ये दो मुहावरे राजाजी के दिमाग की उपज थे ।
गुहा के आकलन में राजाजी का राजनीतिक जीवन समन्वय का मूर्त रूप था । हिंदू और मुसलमान, भारत और पाकिस्तान, भारत और इंग्लैंड, उत्तर भारत और दक्षिण भारत, नीची जाति और ऊंची जाति के बीच समन्वय जैसे प्रसंग उनके सार्वजनिक जीवन में बार-बार घटित होते रहे । एक ऐसे समाज में जहां टकराव और दुश्मनी को जानबूझ कर भड़काया जाता है, ‘उनका रास्ता कांटों भरा था । जैसा कि एक बार उन्होंने अपने एक क्वैकर मित्र को लिखा, जिनका जन्म सामंजस्य बिठाने के लिए हुआ है । लगता है दुनिया में उनकी जिम्मेवारियों का कोई अंत नहीं है ।’ (पृष्ठ-31 )
राम चन्द्र गुहा की बातों पर यकीन करें तो उनके इन्हीं गुणों के कारण शुरु में गांधी ने राजा जी को ही उत्तराधिकारी चुना था । बाद में उन्होंने नेहरु के पक्ष में अपना मन बदला । इस लेख में नेहरु का राजा जी के संदर्भ में कुछ-कुछ तानाशाह का रुप भी उभरता है ।
राम चन्द्र गुहा की दृष्टि और अनुभव बहुत बड़े दायरे में फैले हैं । इसीलिए पुस्तक में मशहूर पर्यावरणवादी अनिल अग्रवाल, नेपाली राजनेता बी.पी.कोईराला, अंतरिक्ष वैज्ञानिक सतीश धवन, बंगलौर के वैद्ययार, पी.जी. वैधनाथन से लेकर अटल बिहारी वाजपेयी और नीरद बाबू की नजर में नेहरु पर भी सारगर्भित लेख शामिल हैं । अपने-अपने क्षेत्र की इन विभूतियों के योगदान और दृष्टि को सामने लाते हैं ।
हिंदी लेखकों के लिए इस पुस्तक का विशेष महत्व है । इसका कारण पुस्तक में शामिल कम-से-कम पांच लेख हैं । दक्षिण एशियाई अच्छी जीवनियां क्यों नहीं लिख पाते और क्यों उन्हें लिखना चाहिए, आत्मकथा लेखन की कला, किताबों की फुटपाथी दुकानें, विचार पत्रिकाएं, कन्नड़ के टैगोर: शिवराम कारंत । वाकई हिंदी में आत्मकथा या जीवनी मुश्किल से ही मिलेगी । यह गुहा की नजरों में पूरे भारतीय साहित्य पर भी लागू है ।
कलकत्ता के इतिहासकार रूद्रांशु मुखर्जी बताते हैं कि जबकि पश्चिम में ‘बीसवीं सदी का उत्तरार्ध महान जीवनियों का काल’ रहा, इसका ‘भारतीय लेखकों और विद्वानों पर कोई प्रभाव’ नहीं पड़ा । एक ऐसा देश जो कि व्यक्तियों के प्रति सनक रखता है, वहां भी जीवनी लेखन एक कला के रूप में फल-फूल नहीं पाया । भारत के पड़ोसी देशों का रिकॉर्ड भी इस मामले में कोई बहुत अच्छा नहीं है । मोहम्मद अली जिन्ना, जुल्फिकार अली भुट्टो और एस.डब्लू.आर.डी. भंडारनायके की स्तरीय या जैसी भी सबसे सुलभ जीवनियां उपलब्ध हैं, ये सब पश्चिमी विद्वानों ने कलमबद्ध की हैं । (पृष्ठ-253)
एक ओर लेख ‘आत्मकथा लेखन की कला’ में रामचन्द्र गुहा ने तीन आत्मकथाओं पर टिप्पणी की है । ये आत्मकथा हैं ‘गांधी’, ‘जवाहर लाल नेहरु’ और ‘नीरत सी चौधरी’ की । पश्चिमी आत्मकथाओं के साथ तुलना करते हुए गुहा लिखते हैं कि पश्चिमी आत्मकथाएं, चाहे वे अपरिपक्व हों या परिपक्व, आत्मविश्लेषण ज्यादा करती हैं । उन्हें आत्मसात कर लिया गया होता है और साथ ही उनमें स्वनिंदा भी होती है । आमतौर पर समाज को इनसे काफी दूर रखा जाता है । ज्ञान बांटने की न्यूनतम कोशिश रहती है । इसके विपरीत, भारतीय आत्मकथाएं गंभीर होती हैं । जैसे कि गांधी, नेहरू और (कह सकते हैं कि) चौधरी की आत्मकथाओं में कोई एक भी मनोरंजक या मजाक वाली टिप्पणी मिली हो, यह कोई नहीं कह सकता । (पृष्ठ-267)
एक बेहद बेजोड़ लेख दिल्ली के दरियागंज के फुटपाथ पर लगने वाले बाजार पर है । बीस वर्ष पहले दिल्ली सरकार और उसके नौकरशाह इसे बंद करना चाहते थे । यह पढ़कर अच्छा लगा कि गुहा जैसों की भूमिका और उनके जुड़ाव ने इस फुटपाथी बाजार को बंद होने से बचाया । इस बाजार का महत्व वही जान सकता है जो किताबों की दुनिया से इतनी गहराई से जुड़ा हो ।
कम-से-कम हिंदी के हर लेखक और पाठक को इस पुस्तक में शामिल कन्नड़ लेखक शिवराम कारंत लेख अवश्य पढ़ना चाहिए । गुहा उन्हें कन्नड़ का टेगौर कहते हैं । क्यों ? टेगौर की तरह उनके क्षेत्र भी कम-से-कम 16 हैं । शिवराम कारंत सर्वाधिक प्रभावशाली कन्नड़ उपन्यासकार, ख्यातिप्राप्त नाटककार, नर्तक, नृत्य निर्देशक, विश्वकोश संग्राहक, समाज सुधारक, देशभक्त और शिक्षाविद थे । उनकी अनगिनत प्रवृत्तियों को लेकर कन्नड़ में एक मुहावरा प्रचलित है : ‘आदू मुत्तादा सोपिल्ला, कारंथरू मादादा केलासाविला’ मतलब कि कुछ शाक-भाजी हैं जिन्हें बकरा नहीं खाता, लेकिन ऐसा कोई काम नहीं है, जिसे कारंत ने नहीं किया हो । (पृष्ठ-213)
शिवराम कारंत की उपलब्धियों की तुलना टैगोर से की जा सकती है । वास्तव में उनकी जीवन शैली और किसी खास चीज के प्रति उनका लगाव कहीं बड़ी पहेली है । जरा इन बातों पर ध्यान दें : टैगोर की तरह कारंत ने भी युवाओं के साथ-साथ वयस्कों के लिए भी लिखा । उनके द्वारा लिखित प्रवेशिका को पढ़कर स्कूल जाने वाले कन्नड़ बच्चों की पीढ़ी-दर-पीढ़ी जवान हुई । उन्होंने इसका पूरा ध्यान रखा कि इन पाठ्यपुस्तकों में पर्याप्त संख्या में चित्र हों । इस काम के लिए उन्होंने के.के.हेब्बर का सहारा लिया । हेब्बर कन्नड़ में बंगला के नंदलाल बोस के समकक्ष हैं । कारंत का चिल्ड्रेन इनसाइक्लोपीडिया बहुत ही आकर्षक तरीके से तैयार किया गया था । उन्होंने कई तस्वीर खुद ली थी । यहां तक कि रंगों का चयन भी जर्मनी में खुद ही किया था । (पृष्ठ 213-216 I)
एक और छोटा अध्याय है ‘हाफ मार्क्स’ । खिलंदड़ अंदाज में ही रचनात्मकता फूटती है यह गुहा के सभी लेखों में स्पष्ट है । बिना लाग-लपेट के दोस्तों, दुश्मनों की उपस्थिति को नजरअंदाज करते हुए यही कह सकते हैं । उन्हें डंके की चोट पर सुनाते हुए । मार्क्स की ‘दास कैपिटल’ प्रकाशित हुई 1868 में । डार्विन की ओरिजन ऑफ स्पेसीज से नौ वर्ष पहले । कार्ल मार्क्स ने 1868 में दास कैपिटल की रचना कर यह सोचा होगा कि उन्होंने अर्थशास्त्र के क्षेत्र में वही भूमिका निभाई है जो द ओरिजिन ऑफ स्पीसीज की (1859) रचना कर जीवविज्ञान के क्षेत्र में चार्ल्स डार्विन ने निभाई है । जहां एक ओर जीवविज्ञान की किताबें हमेशा डार्विन के साथ शुरू और खत्म होती हैं, वहीं अर्थशास्त्र के क्षेत्र में मरणोपरांत जर्मन क्रांतिकारी को जो स्थान प्राप्त हुआ है वह सबसे सटीक तरीके से पॉल सैमुएलसन की इस टिप्पणी में दर्ज है कि ‘मार्क्स एक उत्तर-रिकार्डोवादी साधारण अर्थशास्त्री’ थे । जे.एन.यू. में यह माना जाता है कि दास कैपिटल अर्थशास्त्र के सिद्धांत का पहला और निश्चय ही आखिरी ब्रह्म वाक्य है, जबकि एक व्यक्ति को सैमुएलसन से सहमत होने की ओर भी प्रवृत्त होना चाहिए। मार्क्स की मुख्य अवधारणा यह थी कि सभी परिमाणों का स्रोत दोनों में ही खामी है ।
क्या ‘महात्मा गांधी की मार्कशीट’ जैसा लेख आपको कहीं और मिल सकता है ? इसे पढ़कर पता लगता है कि चालीस प्रतिशत नंबर पाने वाले शख्स अपने कामों की बदौलत दुनिया के लिए एक मिसाल बन सकता है ।
प्रस्तावना की टिप्पणी भी बहुत रोचक और गंभीर पठनीयता का आमंत्रण देने वाली है । वे साफ-साफ अपने को नेहरू का प्रशंसक बताते हैं । उससे अगली पीढि़यों का नहीं । वे लिखते हैं नेहरू एक लोकतांत्रिक व्यक्ति थे जबकि इंदिरा और राजीव स्वेच्छाचारी । साथ ही मां-बेटे स्वार्थी, जुगाड़ू थे जबकि नेहरू शालीन और आदर्शवादी । इंदिरा, राजीव पर निडर टिप्पणी पढ़ने और सोचने को विवश करती है । प्रस्तावना में ही छिटक आयी एक और टिप्पणी ध्यान खींचती है और उसे सभी को जानना भी चाहिये । राजमोहन गांधी गांधी के पड़पोते हैं, लेकिन बहुत प्रसिद्ध पत्रकार और इतिहासकार के रूप में भी उनकी विशिष्ट पहचान है । अपनी किताब द गुड बोटमैन में राजमोहन गांधी यह पूछते हैं कि क्यों महात्मा गांधी ने नेहरू को अपना उत्तराधिकारी चुना ? यह चुनाव पेचीदा है (या था) क्योंकि कई मामलों पर ये दोनों व्यक्ति भिन्न राय रखते थे । एक धार्मिक और संयमी था जबकि दूसरा नहीं । एक औद्योगिकीकरण के पहले की दुनिया का हिमायती था तो दूसरा यह दावा करता था कि आधुनिक कारखाने ही भविष्य हैं । एक बहुत ही अराजकतावादी था जिसने सार्वजनिक संस्थानों से मुंह फेर लिया था और दूसरे ने राज्य का सर्वोच्च पद संभाला । ऐसे में गांधी ने व्यक्तित्व और विचारधारा में बुनियादी भिन्नताओं के बावजूद नेहरू को अपना उत्तराधिकारी क्यों चुना ?
इस पहेली को सुलझाने के लिए राजमोहन गांधी हमें 1947 के गर्मी के दिनों में वापस ले जाते हैं । संयुक्त भारत के आखिरी दिनों में महात्मा गांधी खुद को एक सिंधी और पंजाबी, सभी समाजवादियों के चहेते और कम्युनिस्टों के पिता कहते थे । राजमोहन कहते हैं, यह बहुल पहचान यह दर्शाता है कि महात्मा किस तरह ‘सभी भारतीयों को अपने परिवार में शामिल’ करने की कोशिश कर रहे थे । ऐसा ही जवाहर लाल नेहरू ने अपने पूरे राजनीतिक जीवन में किया । गांधी के दूसरे करीबियों के बारे में ऐसा पूरे विश्वास के साथ नहीं कहा जा सकता है । वल्लभाई पटेल और सी.राजगोपालाचारी, निश्चय ही ये दोनों उस अंतिम सूची में शामिल रहे होंगे जिसके आधार पर गांधी ने अपना उत्तराधिकरी चुना । हालांकि, एक ओर जहां पटेल सांप्रदायिक सौहार्द के प्रति पूरी तरह प्रतिबद्ध थे तो दूसरी ओर राजगोपालाचारी एक ऐसे धार्मिक बहुलवादी थे जिन्होंने ‘छुआछूत’ खत्म करने के लिए काम किया, लेकिन दोनों ही अपनी छवि को तोड़ने में पूरी तरह सफल नहीं हो सके थे । पटेल एक गुजराती हिंदू के रूप में जाने जाते थे, जबकि राजाजी एक तमिल अयंगर के रूप में । (लेखक की प्रस्तावना)
ऐतिहासिक व्यक्तियों, तथ्यों पर लिखी बेजोड़ गद्य की किताब है लेकिन इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण है कोई किताब आपके दिमाग के आयतन को कितना विस्तार देती है ।
दिनांक : 26/4/13
प्रेमपाल शर्मा
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पुस्तक : आखिरी उदारवादी और अन्य निबंध
लेखक : रामचंद्र गुहा
प्रकाशक : पेंगुइन बुक्स
मूल्य : 399 रुपये
पृष्ठ : 291
ISBN : 978-0-143-41839-9