भला हो इस देश के अख़वारों का जिन्होंने यह खबर मुख्य पृष्ठ पर छापी कि देश के एक प्रमुख शिक्षण संस्थान आई.आई.टी रुड़की में पहले वर्ष में बहत्तर छात्र फेल हो गए हैं। कोर्ट-कचहरी में मुकदमेबाजी के बाद संस्थान ने एक और मौका देने का तो फैसला कर लिया है लेकिन कुछ प्रश्नों का जवाब पूरी शिक्षा व्यवस्था और राजनीति नहीं दे पा रही । अख़बारों से छनकर जो तथ्य आ रहे हैं उससे साफ जाहिर है कि पढा़ई का अंग्रेजी माहौल इनकी असफलता का सबसे प्रमुख कारण है। इस ख़बर पर अंग्रेजी मीडिया विशेषकर क्यों चुप रहा? फिर जब संसद चली रही हो तो वहां इस पर बहस क्यों नहीं उठी? कहां गए उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश एवं बिहार जैसे हिन्दी भाषा राज्यों की आवाजें? हिन्दी को सबसे ज्यादा धोखा दे रहें तो हिन्दी प्रांत। रुडकी आज भले ही उत्तराखंड में हो, कल तक उत्तर प्रदेश में ही था। क्या इस घटना पर इन राज्यों की विधान सभाओं में बात उठेगी? भाषा के मुददे पर, तो कतई नहीं उठेगी। बहिष्कार होगा तो फेल हुए छात्रों की जाति के मुद्दे पर जो पूरे विमर्श को ही न केवल पटरी से उतार देगा बल्कि उसे विरुपित भी कर देगा। दिल्ली के एम्स के मामले में भी यही हुआ था। पांच बरस पहले डॉक्टरी पढ़ रहे अनिल मीणा ने आत्महत्या के साथ यह पत्र छोडा़ था कि मझे अंग्रेजी न आने की वजह से कुछ भी समझ में नहीं आता। यहां का सारा माहौल अंग्रेजीदॉं है। मैं आखिर क्या करुं? भारतीय राजनीति ने शिक्षा के इतने संवेदशील मुददे को भी जाति की भेंट चढा़ दिया।
शायद ही दुनिया के किसी देश में ऐसी मेधावी पीढी़ नौजवान ऐसे मसलों पर मजबूर होकर आत्महत्या की तरफ बढ़ती हो। तीन साल पहले लखनऊ की एक छात्रा ने भी अंग्रेजी न जानने के कारण ऐसा ही कदम उठाया था। फेल हुए ये अधिकांश छात्र गरीब ग्रामीण पृष्ठभूमि से हैं। उन्हें जाति में बांटना मुददे से भटकना होगा। बारहवीं तक विज्ञान, गणित, सभी उस कुछ हिन्दी माध्यम में पढा़ जो उनके लिए संभव थी। मेहनत और प्रतिभा के बूते आई.आई.टी. में चुने गए। वे सब एक स्वर से कह रहे हैं कि आई.आई.टी. में हमारी सबसे बडी़ समस्या सिर्फ अंग्रेजी है। प्रोफेसर अंग्रेजी में पढा़ते हैं, किताबें अंग्रेजी लेखकों की। हमारे आसपास के ज्यादातर बच्चे सिर्फ अंग्रेजी में प्रश्न करते और बोलते हैं। ऐसे माहौल में हम प्रश्न पूछने की भी हिम्मत नही जुटा पाते। धीरे-धीरे क्लास में आने का भी मन नहीं करता। नतीजा पिछड़त चले गए।
रुड़की संस्थान बाकी देश के अन्य संस्थाओं की तरह कितने भी तर्क दे कि इनकी मदद के लिए विशेष प्रयास किए जा रहे हैं, सीनियर छात्रों में से कुछ मेंटर के रुप में मदद करते हैं या कि अंग्रेजी सीखाने के विशेष इंतजाम। लेकिन ये ज्यादातर बातें थोथी और काग़जी हैं। सिर्फ भाषा की ही बात की जाए तो जो बच्चे सीमित सुविधाओं में अपनी भाषा में पढ़कर यहां तक पहुंचे हैं उनसे रातों रात आप ऐसी फर्राटेदार अंग्रेजी की उम्मीद कैसे पाल सकते हैं और क्यों? क्या कोई भी दो-चार महीनों में अंग्रेजी सीख सकता है? माना कि भारतीय भाषाओं में इंजीनियरिंग की किताबें उपलब्ध नहीं करायी जा सकती लेकिन पूरे माहौल को अंग्रेजी से मुक्त तो किया जा सकता है। अस्सी के दशक में कोठारी समिति, लोहिया जी का भारतीय भाषाओं को खुलेआम समर्थन आदि प्रयासों के चलते हिन्दी माध्यम की किताबें आना शुरु हो गई थी। अनुवाद भी और मौलिक किताबें भी। उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान जैसे राज्यों की ग्रंथ अकादमियों ने हिन्दी माध्यम में दर्जनों किताबें निकाली। उन दिनों उम्मीद की जा रही थी कि जल्दी ही सामाजिक विषयों-इतिहास, राजनीति शास्त्र की तरह विज्ञान, इंजीनियरिंग, चिकित्सा की किताबें भी उपलब्ध होंगी और इनकी पढा़ई भी भारतीय भाषाओं में । शब्दाबली आयोग आदि के प्रयास भी कामयाब रहे। लेकिन अस्सी के बाद सरकारों का रुख फिर अंग्रेजी की तरफ होता चला गया जो आज तक जारी है जो प्रोफेसर रुड़की, दिल्ली या कानपुर, इलाहाबाद में पढा़ रहे हैं और सिर्फ अंग्रेजी में बोलना शान समझते हैं वे सुबह-शाम सब्जी खरीदने किस भाषा में जाते हैं। रोजमर्रा के मजदूर कामगारों से यदि अपने काम के लिए हिन्दी में बात कर सकते हैं तो पढ़ाते वक्त भी ऐसे विद्यार्थियों का ख्याल रख सकते हैं। वशर्ते कि वे उन्हें हिन्दी वाला, गंवार या जाति के सांचे से नहीं देखें। विडम्बना बड़ी यह है कि इनमें से ज्यादातर प्रोफेसर इन्हीं हिन्दी प्रांतों के हैं जो सतत अंग्रेजी सुधारने को ही जीवन सुधारने का रास्ता मानते हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय तक में यह रोग उतनी ही जडें जमा चुका है जहां अस्सी कॉलेजों में पढ़ने वाले नब्बे प्रतिशत हिन्दी भाषी ज़रुर है पढ़ाने वाले तथाकथित जनवादी बुद्विजीवी सिर्फ अंग्रेजी में ही पढ़ाने में गर्व महसूस करते हैं। कुछ साल पहले राजनीति विज्ञान के हिन्दी प्रदेश के एक प्रोफेसर से जब एक छात्र ने हिन्दी में पढ़ाने के लिए कहा तो उनका जवाब था हिन्दी में पढ़ना है तो इलाहाबाद, पटना जाओ। पिछले पांच छ: वर्ष से हर वर्ष दिल्ली विश्वविद्यालय में पहले वर्ष में फेल होने वाले छात्रों की संख्या बढ़ती जा रही है। ये सभी बिहार, उत्तर प्रदेश के हैं। अंग्रेजी इतनी आती नहीं नतीजा पढ़ाई भी चौपट। दिल्ली में हर तरह की राजनीति होती हैं। दलित, सवर्ण भोजपुरी, मैथिली आदिवासी-दर्जनों मंच। लेकिन अपनी भाषा में पढ़ाने के लिए इन छात्रों की आवाज कोई नहीं सुन रहा। यहां तक कि विद्यार्थी संघ के चुनाव में भी यह मुददा नहीं बनता।
देश के दूसरे प्रतिष्ठित संस्थानों का जायका लेते हैं। देश भर में पिछले दस वर्ष में नेशनल लॉ कॉलेज खुले हैं। आई.आई.टी.के बाद नौजवान पीढ़ी की पहली पसंद। दाखिले, प्रवेश परीक्षा की भाषा यहां सिर्फ अंग्रेजी है। क्या अकल सिर्फ अंग्रेजी जानने वालों में ही होती है? कानून जानने वाले सिर्फ अंग्रेजी जानेगें और उनके मुवक्किल भारतीय भाषाएं। क्या समझ में आयेगा इनके न्याय या अन्याय? यही हाल मेडिकल परीक्षा और मेडिकल संस्थानों का। प्रबंधन के गुर सिखाने वाले आई.आई.एम. तो पहले से ही अंग्रेजी ज्ञान के दर्ष में डूबे हैं। देश भर में इनकी संख्या तो बढ़ रही है लेकिन भारतीय भाषाओं के लिए कोई जगह नहीं।
क्या पूरा हिन्दी समाज ही भाषा के प्रश्न पर गूंगा-बहरा हो चुका है। यदि ऐसा है तो न आई.आई.टी. देश को बचा पायेंगे न कोई दूसरे संस्थान। बल्कि देश फिर पराधीनता के करीब पहुंच रहा है। इसकी जिम्मेदारीहै तो पिछले साठ-सत्तर साल के शासन की।
कुछ कदम तुरंत उठाने की जरुरत है और यहां हम दक्षिण के तमिलनाडु, कर्नाटक जैसे राज्यों से भी सीख सकते हैं। कर्नाटक ने हाल में कन्नड़ को सभी स्कूलों में दसवीं तक पढ़ाना अनिवार्य किया है। तमिलनाडु सरकार के तो अधिकांश इंजीनियरिंग कॉलेज तमिल, अंग्रेजी दोनों को बढ़ावा दे रहे हैं। तमिलनाडु के स्कूलों में तमिल माध्यम से पढ़ने वाले छात्रों को आई.आई.टी. की प्रवेश परीक्षा की भी दरकार नहीं है। इन राज्यों के ये इंजीनियर अपनी क्षमता, प्रतिभा में किसी से कम नहीं हैं। कम से कम हिन्दी भाषी राज्यों से बेहतर ही कहे जा सकते हैं। पहले वर्ष में ऐसे सभी संस्थानों में अंग्रेजी और प्रांतीय भाषा पर विशेष ध्यान दिया जाए। भाशा ज्ञान सिर्फ साहित्य पढ़ने के लिए आवश्यक नहीं होता, गणित, भौतिकी, इंजीनियरिंग जैसे विषयों को भी तो किसी न किसी भाषा के माध्यम से ही पढ़ना, समझना होता है। इसलिए दोनों भाषाओं की समझ से इन छात्रों की रचनात्मकता बेहतर निखर कर आयेगी। दुर्भाग्य से देश के सभी संस्थानों में भाषा शिक्षण को दूसरे-तीसरे दर्जे का भी महत्व नहीं मिल रहा और इसीलिए यह हमारी शिक्षा व्यवस्था का सबसे कमजोर पक्ष बन रहा है। सारी रचनात्मकता, अंवेषण को चौपट करता।
पिछले दिनों लगातार इस बात को रेखाकिेंत किया जा रहा है कि हमारे इन उच्च संस्थानों के छात्र देश समाज और उनकी समस्याओं से कटे हुए हैं। कौन जिम्मेदार है? आपके कॉलेज, स्कूल की भाषा ही उसे धीरे-धीरे दूर कर देती है। केवल देश की भाषा की इन प्रतिभाओं को उन समस्याओं और उनके समाधान से जोड़ेगी जिनके लिए ये करोड़ों के संस्थान बनाये गये हैं। कम से कम विदेशों की तरफ भागने और इनकी अंग्रेजी के लिए तो भारत की गरीब जनता टैक्स नहीं दे रहीं।
शिक्षा, भाषा की सतत उपेक्षा से ये प्रश्न इतना जटिल रूप ले चुके हैं कि संस्थान अंग्रेजी पढ़ाए या इंजीनियरिंग। हमारे शिक्षण संस्थानों के सामने भी कम चुनौतियां नहीं है। एक तरफ क्लास में क्षमता से अधिक बढ़ती संख्या, प्रयोगशालाओं की कमी, लगभग सभी प्रमुख संस्थानों में पचास प्रतिशत फैकल्टी की कमी और ऊपर से रोज-रोज बढ़ते राजनैतिक दबाव। क्या यह अचानक है कि संस्थानों को सक्षम पढ़ाने वाले प्रोफेसर नहीं मिल रहे। क्यों वह नयी पीढ़ी जो आई.आई.टी. में पढ़ने, दाखिले को तो ज़मीन आसमान एक कर देती है, वहां उसे शिक्षक बनना मंजूर नहीं है। देश की गरीबी और जहां से चलकर ये छात्र यहां आये हैं उसे देखते हुए प्रोफेसरों की तनख्वाह इतनी कम भी नहीं है। कौन-सा समाज इन्हें सिर्फ देश से भाग जाने के पंख लगा रहा है?
समाज, अभिभावक समेत इन छात्रों को भी यह समझना होगी कि केवल कैम्पस में दाखिला अंतिम मंजिल नहीं है। इन्हें जातिवादी, राजनीति में भी उलझने की जरूरत नहीं है। सतर्कता से मेहनत की जरूरत है। काश! राजनीति से लदे हमारे विश्वविद्यालयों के प्रांगण ऐसा सपना नयी पीढ़ी को दे पाते! बिहार, उत्तर प्रदेश के चुनाव नजदीक हैं। जाति का मुददा चुनावी रणनीति में शामिल हो चुका है। काश! भाषा शिक्षा के लिए भी कुछ जगह बन पाये।
भाषा के मसले पर केन्द्र की नयी सरकार ने उम्मीद जगायी है। देश की सर्वोच्च नौकरियों में जाने के लिए सिविल सेवा परीक्षा में जिस अंग्रेजी ने 2011 में भारतीय भाषाओं के देश के गरीबों को लगभग बाहर कर दिया था 2014 के परिणाम भारतीय भाषाओं के पक्ष में गए हैं। हिन्दी लेखकों, प्राध्यापकों, नौकरशाहों की चुप्पी के बावजूद छात्रों का पिछले वर्ष का आंदोलन बेकार नहीं गया। वर्ष 2014 में आयोजित सिविल सेवा परीक्षा के प्रथम चरण सीसेट से अंग्रेजी को हटाने से मुख्य परीक्षा तक भारतीय भाषाओं के लगभग दो गुने छात्र पुहंचे और अंतिम चयन में भी गुणात्मक अंतर आया। एक उम्मीदवार जो अंग्रेजी की वजह से वर्ष 2013 में प्रारंभिक परीक्षा में भी पास नही हुआ था, 2014 में उसने लगभग 1400 में तेरहवां स्थान प्राप्त किया। मई, 2014 में सरकार ने एक और कदम उठाते हुए सीसेट का जो पर्चा अंग्रेजीदां इंजीनियरों के पक्ष में झुका हुआ था उसमें भी भारतीय भाषाओं के पक्ष में संशोधन किया है। यू.पी.एस.सी. परीक्षा के लिए एक नई समीक्षा समिति भी गठित की जा रही है जो इस पूरे मुददे पर विचार करेगी। कम से कम भाषा के मसले पर तो सरकार के कदम कुछ उम्मीद जगाते हैं। लेकिन अभी उसे कई मंजिलें पार करनी है। शिक्षण संस्थानों में अपनी भाषा में पढ़ाई की शुरुआत इसमें सबसे लम्बी छलांग होगी। अस्सी के दशक तक दिल्ली विश्वविद्यालय में दर्जनों कॉलेजों में हिन्दी माध्यम से पढ़ाना सुलभ था आज मजबूर होकर उन्हें अंग्रेजी माध्यम लेना पढ़ता है। फिर शुरु होती है और पीछे की यात्रा स्कूल स्तर पर अंग्रेजी में पढ़ने की । दिल्ली, मुंबई की यह हवा पूरे देश में फैल रही है। इसे शिक्षा, समाज देश के हित में तुरंत रोकना होगा।