पिछले कई बरसों की तरह स्कूलों में दाखिले को लेकर फिर गहमागहमी शुरू हो गयी है । भारतीय संदर्भ में दाखिलों की मारा मारी, कोर्ट-कचहरी, मुकदमेबाजी के बीच इसीलिये समय आ गया है कि स्कूल नाम की संस्था, उसकी अनिवार्यता पर ही पुनर्विचार किया जाए । स्कूल भेजने के पीछे शहरी कामकाजी मध्यवर्ग की सोच यह है कि बच्चों को स्कूल भेजने से कम से कम कुछ घंटे तो उनकी खटर-पटर, हुड़दंग से मोहलत मिलेगी । उन्हें दिन भर संभाले भी कौन ? और यह भी कि स्कूल में कुछ तो सीखेंगे । इसी सोच का विस्तार है जब यही मध्यवर्ग बच्चे के दो साल पूरे होने से पहले प्ले स्कूल में डालता है, फिर नर्सरी, फिर के.जी. । यानि विधिवत स्कूल शुरू होने से पहले ही और दो-तीन तरह के स्कूलों की कवायद । अब जबकि शहरों में ऐसे पढ़े-लिखे, कामकाजी दम्पतियों की संख्या बढ़ रही है, गॉंव से पलायन कर सब नगरों, महानगरों में पहुंच चुके हैं तो ऐसे निजी स्कूलों की संख्या बढ़ने के बावजूद भी उनकी मांग से कहीं कम है और इसीलिए दाखिलों की मारामारी, मुकदमेबाजी का यह दौर आया है । दिल्ली जैसे महानगरों में दाखिलों की यह भीड़ केवल नर्सरी और प्रायमरी स्कूलों तक ही सीमित नहीं है, विश्वविद्यालय के स्तर पर भी यही हालात हैं । हालॉंकि समस्या के आयाम कुछ मामलों में समान होते हुए भी बिल्कुल अलग हैं । यह समस्या और भी गंभीर इसलिए हुई है कि इस बीच सरकारी स्कूल कुछ अव्यवस्था का शिकार और कुछ निजीकरण की आंधी के चलते लगातार कम हो रहे हैं । महानगरों की जनसंख्या का दबाव यहां भी स्पष्ट है । दिल्ली के सीलमपुर, नंदनगरी, त्रिलोकपुरी जैसी घनी आबादी की जगहों पर सरकारी स्कूलों की एक-एक क्लास में औसतन अस्सी से सौ बच्चे पढ़ते हैं और फिर भी कुछ दाखिलों से वंचित रह जाते हैं क्योंकि क्लास में उतनी बैठने की व्यवस्था ही नहीं है । सत्ता या व्यवस्था यदि चाहे तो ऐसी जगहों पर स्कूलों की संख्या भी बढ़ा सकती है उसी में 2-3 पारी और बड़े क्लासरूम भी बनाए जा सकते हैं । लेकिन ठीक उसी वक्त सत्ता उन सरकारी स्कूलों का बहाना लेकर ऑंख मूंदना चाहती है जिन सरकारी स्कूलों में बच्चों की संख्या कम है । रेलवे समेत ऐसी सभी सरकारी स्कूलों की यही नीयत और नियति है ।
पिछले दस-पन्द्रह सालों में शिक्षा व्यवस्था में बदलाव को लेकर बड़ी-बड़ी बातें हुई हैं । कुछ काम अच्छे भी हुए हैं जैसे- एन.सी.एफ. 2005 में शिक्षा के एक लचीले सॉंचे का प्रारूप, एन.सी.ई.आर.टी. द्वारा विशेषकर सामाजिक ज्ञान की स्कूली किताबों का पुनर्लेखन आदि, ग्रेड प्रणाली और कुछ-कुछ मूल्यांकन में नवीनता के प्रयोग । लेकिन जहां अच्छी बातें देशभर में राजनैतिक सामाजिक कारणों से नहीं पहुंच पाईं वहीं कुछ बातें कई वजहों से विरूपित भी हो गई हैं । शिक्षा में परीक्षा का प्रश्न ऐसी ही विकृतियों का शिकार हुआ है और यहीं से स्कूल की अनिवार्यता से मुक्ति का रास्ता भी निकलता है । स्कूल के दाखिले की समस्या पर पुनर्विचार करते हुए यह प्रश्न और बड़ा होकर सामने आ खड़ा होता है । अब हर बच्चा और हर अभिभावक जानता है कि दसवीं तक की परीक्षा सिर्फ नाम मात्र की रह गई है । सी.बी.एस.ई. बोर्ड ने दसवीं में पढ़ने वाले बच्चों को यह विकल्प तो दिया था कि वे चाहे तो बोर्ड की परीक्षा दे सकते हैं, लेकिन व्यवहार में स्कूल प्रशासन ने अपने निहित प्रयोजनों के तहत ज्यादातर मामलों में बच्चों को ऐसा नहीं करने दिया । यहां तक कि जो बच्चे दसवीं की बोर्ड की परीक्षा देना भी चाहते थे उन्हें डरा धमका कर स्कूल द्वारा आयोजित आंतरिक परीक्षा में ही बैठना पड़ा । इन स्थितियों से निजी स्कूलों की शिक्षा व्यवस्था पर तो शायद कोई अंतर नहीं आया क्योंकि वहां तो अभिभावकों और प्रबंधन की अधकचरी समझ के चलते मंडे टेस्ट, मासिक टेस्ट और बढ़ गये लेकिन सरकारी स्कूल उसी अनुपात में और जर्जर हो गये । सरकारी स्कूलों के शिक्षकों की चुनौती और भी विकराल इस रूप में आ कर खड़ी हो गई जब बच्चों की उत्तर कापियों में शिक्षकों को संबोधित अभद्र भाषा में यह भी लिखा हुआ मिला कि ‘फेल करके देख’ । क्योंकि पढ़ना जारी रखने, प्रोत्साहित करने के लिए कुछ वर्ष पहले फेल करने पर अघोषित पाबंदी लगाई गई और इन गरीबों के मां बाप ट्यूशन आदि की कोई वैकल्पिक व्यवस्था करने में भी असमर्थ है तो इसका वही अंजाम होना था जैसाकि प्रथम और दूसरी संस्थाओं की मूल्यांकन रिपोर्ट बताती हैं कि पांचवी के बच्चे दूसरी की किताब नहीं पढ़ सकते और आठवीं का बच्चा अंग्रेजी तो छोड़ो अपनी भाषा में भी दो वाक्य नहीं लिख सकता ।
परीक्षा से मुक्ति के संदर्भ में थोड़ी देर के लिये मान भी लिया जाये कि मौजूदा परीक्षा प्रणाली बच्चों की समझ को बढ़ाने में इतनी मदद नहीं करती जितनी कि उन्हें शिक्षा से दूर करने में लेकिन क्या भारतीय संदर्भ में परीक्षा से बचा जा सकता है ? क्या 12वीं में बोर्ड आतंक पैदा नहीं करता ? या आई.आई.टी., मेडिकल या अन्य किसी भी व्यावसायिक पाठ्यक्रम में प्रवेश परीक्षा के उन्हीं रटंत सिद्धातों पर नहीं होता जिसे दसवीं तक समाप्त कर दिया गया है । वक्त के साथ ये प्रवेश परीक्षाएं तो और बढ़ी ही हैं । किसी वक्त दिल्ली के स्नातक, स्नातकोत्तर पाठ्यक्रमों में बोर्ड के नम्बरों के आधार पर प्रवेश मिल सकता था । अब हर पाठ्यक्रम में प्रवेश परीक्षा है और इसमें बैठने वाले भी चंद सीटों के लिये हजारों, लाखों में । विद्यार्थियों पर भी बोझ और उससे ज्यादा उनकी जांच करने वाले शिक्षकों, परीक्षकों पर । दोनों ही पक्ष परीक्षा की कवायद से हताहत और बेहाल । इसी का अगला विस्तार नौकरी की परीक्षाएं हैं वह चाहे यू.पी.एस.सी. की सिविल सेवा परीक्षा हो या बैंक, कर्मचारी चयन आयोग, सरकारी-गैर सरकारी उपक्रमों में भर्ती । या तो यहां भी परीक्षा से मुक्ति के उपाय सोचें जायें वरना पहले परीक्षा से दूरी और फिर अंतत उसी कुऍं में कूदना एक विचित्र स्थिति को जन्म दे रही है ।
पिछले कुछ दिनों से शिक्षा को परीक्षा से आजाद करने के प्रयोग भी हो रहे हैं । ठीक भी है और हर प्रयोग की तरह इसका स्वागत किया जाना चाहिये बजाये इसके कि परीक्षा और भारी भरकम बनायी जाए । लेकिन जब शिक्षा को परीक्षा से मुक्ति दिलाई जा रही है तो एक प्रयोग स्कूल के बंधन से मुक्ति का भी सोचा जा सकता है । परीक्षा से मुक्ति के पीछे भी दर्शन तो बच्चे की समझ को स्वाभाविक रूप से पल्लवित, पोषित करना है और यह यदि स्कूलों की चारदीवारों से बाहर हो, और पूरा समाज भी पढ़ने-पढ़ाने की प्रक्रिया में शामिल हो तो क्या बुरा है ?
क्या कोटा या इसके कोचिंग क्लासों की सफलता इसी घर स्कूल की व्यवस्था का बाजारीकृत रूप नहीं ? धड़ल्ले से चल रहे हैं और इनमें लाखों पढ़ रहे हैं । बाजारू सफलता के सबसे अच्छे परिणाम भी दे रहे हैं । यहां कोचिंग या ट्यूशन को बढ़ावा देने की वकालत करना नहीं है बल्कि उस विकल्प की तलाश है जिसे समाज मौजूदा शिक्षा व्यवस्था के जंगल से गुजरते हुए खुद ही चुन चुका है । शायद ही शहरों में किसी का बच्चा हो जो ट्यूशन या कोचिंग के लिये नहीं जाता हो । यानि वही ‘घर स्कूल’ से मिलता-जुलता विकल्प । कोटा की सफलता का सबसे महत्वूपर्ण तथ्य भी इसकी पुष्टि करता है । कोटा में आई.आई.टी., मेडिकल की तैयारी करने वाले बच्चों को स्कूल जाने की अनिवार्यता नहीं है । वे केवल बोर्ड की परीक्षाओं या प्रेक्टिकल परीक्षा जैसे अवसर पर ही स्कूल का मुंह देखते हैं । स्कूल जितना कम जाना सफलता उतनी ही ज्यादा । बारहवीं में स्कूल न जाने के इस मॉडल को दूसरे शहर भिलाई, आगरा, भोपाल और आंध्र प्रदेश भी अपना रहे हैं । सी.बी.एस.ई. और आई.आई.टी. परीक्षा के संयोजक स्कूल आने का महत्व और पाठ्यक्रम की कितनी भी तारीफ करें, आंकड़े गवाह हैं कि स्कूल न आने पर उनकी सफलता का प्रतिशत बढ़ता ही है, कम नहीं होता । पहले स्कूल, फिर कोचिंग के ज्यादा दबाव से मुक्ति भी ।
निजी महंगे स्कूलों में दाखिला मिलेगा नहीं और सरकारी स्कूलों में पढ़ाई का स्तर और स्थितियां ऐसी हैं तो अभिभावकों और बच्चों को स्कूल नाम की संस्था से मुक्ति का विकल्प ही क्यों न दिया जाए ? कोई चाहे तो स्कूल में दाखिला ले वरना घर पर रहकर या मजमर्जी कहीं भी पढ़े । कम-से-कम उन्हें दाखिले, आने-जाने, भारी भरकम फीस स्कूल की प्रताड़ना जैसी जिल्लतों से तो मुक्ति मिलेगी । बोर्ड की पहली परीक्षा अब देखा जाए तो बारहवीं के स्तर पर है तो अंतत: उस कसौटी पर तो उन्हें आगे की पढ़ाई के लिये गुजरना ही पड़ेगा वे चाहे कहीं भी पढ़ें । जाने-अनजाने स्कूल की कैद से मुक्ति या आजादी इन बच्चों को सोचने समझने का बड़ा आसमान दे सकती है विशेषकर उन अभिभावकों, मां-बापों के लिए तो एक नया विकल्प खुल ही सकता है जो पढ़े-लिखे हैं, जिनके घर किताबें हैं, पुस्तकालय हैं और घर पर ही कुछ करना चाहते हैं । न जाने कितनी शहरी महिलाओं ने स्कूलों में पढ़ाने का विकल्प इसीलिए चुन रखा है कि उनकी पढ़ाई, डिग्री का कुछ तो फायदा हो । वे कुछ व्यस्त भी रहेंगी । जबकि सभी को पता है कि इसके बदले में उन्हें कितनी कम पगार मिलती है और जाने-आने की हजार परेशानियां अलग । घर-स्कूल की अवधारणा इन अभिभावकों को पास-पड़ोस के बच्चों को अपने बच्चों के साथ पढ़ाने का विकल्प और कुछ कमाने का जरिया भी दे सकती है । ज्यादा लचीलेपन और रचनात्मक आजादी के साथ । दुनिया भर में बढ़ने वाले नये धंधे या ‘न्यू स्टार्टअप’ क्या ऐसी ही अवधारणा नहीं है ? क्या फिलिप कार्ट, ओला, शादी डॉटकॉम, मेन्टर पोलिस, मेक माई ट्रिप किसी मकसद से ऐसी ही अवधारणाओं का विस्तार नहीं है ?
‘नो नॉलिज, विदाउट कॉलेज’ जैसे जुमले हमने बचपन में सुने थे लेकिन उन्हीं दिनों हमने सैंकड़ों ऐसी विभूतियों के बारे में भी सुना था जिनकी शिक्षा दीक्षा घर पर ही हुई । रवीन्द्र नाथ ठाकुर, संपूर्णानंद, रामचंद्र शुक्ल से लेकर विदेशी डार्विन और दूसरे अनेक वैज्ञानिकों, कलाकार तक । माना कि इनमें से कई के पास घर पर शिक्षक बुलाने की संपन्नता, सुविधाएं थीं लेकिन एक विकल्प तो था कि जब चाहे तब पांचवीं, सातवीं या आठवीं में दाखिला ले सकते हैं । उस दाखिले के लिए भी स्कूल या शिक्षक कुछ न कुछ परीक्षा तो लेते ही थे । दाखिलों की अंधी दौड़ में तो इसे और प्रोत्साहन देने की जरूरत है विशेषकर जब एक तरफ सरकारी स्कूलों के शिक्षकों का पढ़ने-पढ़ाने के प्रति रवैया ही ठंडा हो रहा हो और निजी स्कूल दाखिले के नाम पर मनमानी कर रहे हों । क्या हकीकत यह नहीं है कि निजी चमकीले अंग्रेजी स्कूलों में कोई भी पैसे और प्रभुत्व वाला निदेशक, प्राचार्य या शिक्षक बन सकता है ?
इन सब कारणों से जब तक इन स्कूलों की तरफ दौड़ जारी रहेगी निजी पूजी किसी भी नियम को नहीं मानने वाली । अमीरी, अंग्रेजी के इतने स्तर बन चुके हैं, वे जिेतने कुशल खिलाड़ी हैं, गरीब उन्हें उनके बनाए खेल, व्यवयस्था को शिकस्त दे ही नहीं सकते । ऐसे में अच्छा हो कि घर स्कूल की अवधारणा से स्कूल शिक्षा का खाका ही पुनर्भाषित किया जाए ।
घर स्कूल में एक खतरा यह हो सकता है जैसे ब्रिटिश शासन द्वारा स्थापित स्कूलों से पहले मदरसे, गुरूकुल अपने-अपने ढंग से शिक्षा देते थे जो कई बार अवैज्ञानिकता और कूप मंडूकता को और बढ़ा देती थी यह खतरा फिर आ सकता है । लेकिन इसकी संभावना 21वीं सदी में उतनी नहीं है । यहां उन अभिभावकों पर भरोसा किया जा सकता है जिनकी शिक्षा औपचारिक राष्ट्रीय स्कूलों में हुई है; जिन्हें पाठ्यक्रम की थोड़ी बहुत समझ है । ऊपर से उन्हें अनिवार्य रूप से उन्हीं किताबों, पाठ्यक्रमों को पढ़ने, पढ़ाने की अनुमति दी जायेगी जो एन.सी.ई.आर.टी. या राज्यों की सरकार ने बनाये हैं । विशेषकर तब जब छठी या नवीं क्लास में अनिवार्य रूप से उन्हें औपचारिक स्कूलों में तो एक प्रवेश परीक्षा के माध्यम से आना ही पड़ेगा, तब वे स्वयं उन्हीं किताबों या व्यवस्था को अपनायेंगे । बस उन्हें स्कूल न आने, बड़ी-बड़ी फीस भरने से आजादी और मिलेगी ।
निश्चित रूप से गरीबी या जो पढ़े-लिखे नहीं हैं उन्हें दिक्कतें आ सकती हैं क्योंकि वे अपने बच्चों को घर पर पढ़ाने में सक्षम नहीं हैं । लेकिन इन्हें तो सरकारी स्कूल उपलब्ध हैं ही या उनकी संख्या थोड़ी और बढ़ाई जाये । रही अमीरों की बात वे अपने बच्चों की पढ़ाई का इंतजाम घर पर करें कोचिंग सैंटर भेजें या पैसे के बूते स्कूल जाएं । स्कूलों की मारामारी के चलते तो ये अमीर भी इस व्यवस्था को मंजूर करेंगे । धक्के तो एक पैर की चिडि़या के लिये इन अमीरों को भी कम नहीं खाने पड़ते । पिछले दिनों आपने दिल्ली, बंगलौर, बम्बई के नामी गिरामी स्कूलों में बच्चों के साथ कदाचार की सैंकड़ों खबरें देखी होंगी । ये शिक्षक द्वारा पिटाई, जातिवादी संबोधन या भेदभाव की दूसरी क्रूरताएं के अलावा हैं । यानि कि इतनी जोड़-तोड़, मशक्कत के बाद और जिस उम्मीद से स्कूल चुना जाता है वहां से भी अधिकांश मामलों में खाली हाथ लौटना पड़ता है । वैसे घर स्कूल की अवधारणा कोई नयी बात नहीं है । अमेरिका और दूसरे देशों में स्कूलों की जकड़बंद शिक्षा के खिलाफ ‘खतरा स्कूल’ जैसे आंदोलन लगातार चलते रहे हैं । जॉन होल्ट और जॉन टेलर गेट्टो जैसे शिक्षाविद भी ऐसे स्कूलों को विमूढ़ बनाने का कारखाना मानते हैं । जॉन टेलर गेट्टो की एक मशहूर किताब है ‘डबिंग अस डाउन’ (हिंदी अनुवाद-मूढ़ बनाने का कारखाना- एकलव्य प्रकाशन) । वे लिखते हैं- ‘लगातार बजने वाली घंटियॉं, एक कक्ष से दूसरे कक्ष में, प्रतिदिन आठ घंटे की कैद, आयु के अनुसार सब्जी-भाजियों की तरह विभाजन, निजता की कमी और निरंतर निगरानी, क्रियाशील समुदाय से पूरी तरह काटकर तथा स्कूल के बाकी सभी पाठ्यक्रमों की रचना इस प्रकार की गई है कि हमारे बच्चों को यह न सीखने दिया जाये कि वे किस तरह सोच-समझकर कार्य करें- वे हमेशा दूसरों पर निर्भर बने रहें’ तीस वर्ष तक सरकारी स्कूलों में पढ़ाने और लगातार पुरस्कार जीतने के बाद जॉन टेलर गेट्टो इस दु:खद निर्णय पर पहुंचे कि ‘स्कूलिंग का शिक्षा में कोई वास्ता नहीं है- बहुत ही थोड़ा सा बल्कि युवाओं को यह सिखाना कि कैसे आर्थिक और सामाजिक प्रणाली की चाकरी की जाये ।’
रवीन्द्र नाथ टैगोर ने भी इन औपचारिक परम्परागत स्कूलों को यातनागृह या जेल की संज्ञा दी है । इन स्कूलों के बारे में यहां गांधीजी की बात पर भी ध्यान देने की जरूरत है । वे लिखते हैं कि- ‘पोरबंदर में मुझे भी स्कूल भेजा जाता था । वहां मुश्किल से कुछ पहाड़े सीखे होंगे लेकिन और लड़कों के साथ गुरूजी को गाली देना जरूर सीख गया था ।’ और तो और बीसवीं सदी की समाप्ति पर प्रसिद्ध अमेरिकी पत्रिका टाईम ने भी जिन व्यवसायाओं के बंद होने की बात की थी उसमें शिक्षक और स्कूल दोनों ही शामिल हैं । सूचना क्रांति और ज्ञान के लोकतांत्रीकरण के बाद तो टाईम्स पत्रिका की भविष्यवाणी और भी स्टीक लगती है । परम्परावादी भारतीय समाज में तो घर-स्कूल और भी सार्थक भूमिका निभा सकते हैं क्योंकि परिवार दुनिया भर में बच्चों की पहली पाठशाला है । भारत में तो और भी ज्यादा ।
ज्यादा जनसंख्या और कम कॉलिज होने की वजह से ऐसी स्थिति की तरफ विश्वविद्यालयी शिक्षा भी बढ़ रही है । लेकिन यहॉं स्कूल की तरह आने की सख्त पाबंदी नहीं है । यानि कि छात्रों का कॉलेज में नाम तो लिखा हुआ है लेकिन उत्तरोत्तर कलास करने बहुत कम ही जा रहे हैं । 15 वर्ष पहले जब बड़ौदा की यूनिवर्सिटी के बारे में पता लगा कि दाखिला तो हजारों का होता लेकिन कॉलेज दस से बीस प्रतिशत ही आते हैं तो आश्चर्य हुआ था । आज देश के ज्यादातर विश्वविद्यालयों में यही हाल है । अनेकों कारण गिनाए जा सकते हैं कॉलेज न आने के लेकिन एक सच यह है कि ये कहीं न कहीं ट्यूशन या कोचिंग ले रहे हैं । कॉलेज या विश्वविद्यालय में उनके नाम तो सिर्फ सर्टिफिकेट लेने के लिए हैं । जैसा जिसका ऊँचा नाम, उतनी ही बड़ी फीस । अब ये चाहे कॉलेज आएं या न आएं ।
विश्वविद्यालय के स्तर पर हमने विकल्प खोजे हैं । दिल्ली में ही स्कूल ऑफ ओपन लर्निंग है, नॉन कॉलिजियेट है, पत्राचार पाठ्यक्रम है, इंदिरा गांधी मुक्त विश्वविद्यालय है और देश भर में सैंकड़ों विश्वविद्यालय प्राइवेट डिग्री की सुविधा देते हैं । बी.एड. या शिक्षक की डिग्री तो बरसों से लगातार प्राइवेट हैं ही जिसका लाभ अनेक सामाजिक, आर्थिक कारणों से लड़कियां, महिलाएं उठा रही हैं । वे अपने पैरों पर खड़ी भी हुई हैं । घर बैठे शिक्षा पाने के विकल्प से अब तो कई विश्वविद्यालय विज्ञान की डिग्री भी घर बैठे पढ़ने की सुविधा देते हैं ।
स्कूलों में दाखिलों को लेकर बच्चे, अभिभवक फिर दर-दर की ठोकरें खा रहे हैं । दिसंबर 13 में दिल्ली सरकार ने जो एक तर्कसंगत फार्मूला बनाया था जिसमें घर से दूरी एक महत्वपूर्ण कारक थी उसे हाईकोर्ट की पहले एक सदस्यीय बैंच और फिर दो सदस्यीय बैंच ने सही नहीं पाया । यानि कि हर निजी स्कूल आजाद कि वे दाखिला किसी को भी दे या न दें उनकी मर्जी और नियम बना सकती है ।
यह मामला पिछले कई वर्ष से एक कोर्ट से दूसरी कोर्ट में चल रहा है । गांगुली समिति भी बनी, उसकी सिफारिशें ज्यादातर जनता को पसंद आयी सिर्फ निजी स्कूलों के प्रबंधकों और पैसे वाले मां-बाप को छोड़कर मगर फिर बेताल ताल पर । कोर्ट ने किसी भी नियम प्रणाली को यह कहकर खारिज किया है कि यह स्कूल की आजादी के मूल अधिकार का उल्लंघन है । इसीलिये सरकार चाहे तो पूरे स्कूल, कॉलेज संस्था की अनिवार्यता पर भी पुनर्विचार कर सकती है ।
स्कूल से मुक्ति के पक्ष में कुछ अनुभव :-
अनुभव एक– एक शिक्षिका/अभिभावक की आपबीती – यह शिक्षिका एक जाने-माने निजी स्कूल में पढ़ाती है और अकेला बेटा एक दूसरे निजी स्कूल में । जनवरी की सर्दियों का एक ठिठुरता दिन । गुस्सा, दु:ख, अफसोस जैसे बारी-बारी उनके परिवार के हर शख्स के मुंह से निकल रहा था । पहले शिक्षिका मां ने बयान दिया पता नहीं ये स्कूल क्या कर रहे हैं ? बेटा 12वीं में है ! विज्ञान में । नयी प्रिंसिपल आई हैं । उन्हें फिटनेस का दौरा पड़ता है । सारे बच्चे साढ़े सात बजे स्कूल के मैदान में होने जरूरी है । वे जब से आई हैं तब से सारा ध्यान पी.टी. एक्सरसाइज पर । इससे पहले के प्रिंसिपल कोई न कोई सांस्कृतिक, खेल के कार्यक्रम कराते रहते थे । मेरा बेटा पढ़ेगा कब ? स्कूल से लौटते ही आई.आई.टी. की
कोचिंग कलास में जाता है । वहां का होमवर्क करते-करते लेट सोता है । अब सुबह स्कूल की पी.टी. पर पहुंचना जरूरी
वरना गैर हाजिरी लग जाएगी तो परीक्षा में बैठने में भी परेशानी आएगी । और स्कूल कुछ कराता भी तो नहीं है । कई बार पूरा दिन बच्चों को बेकार बिठाये रहते हैं । एक शिक्षक नहीं आता तो उसकी जगह दूसरा आकर अपना समय काटता है । बच्चों को आजाद भी छोड़ दें तो वे कम से कम अपने हिसाब से कोचिंग या अपने विषय तो पढ़ सकते हैं वह भी नहीं करने देंगे । मेरा बच्चा पढ़ने में ठीक ठाक है लेकिन अब उसके नंबर अच्छे नहीं आ रहे । क्लास के किसी भी बच्चे से पूछो किसी का भी स्कूल आने का मन नहीं है । इतनी-इतनी फीस भरी हुई है । साल में डेढ़ लाख फीस जाती है । लेकिन स्कूल कुछ कराए तो । कोचिंग वाले पैसा लेते हैं तो कुछ तो कराते हैं । हमें पता होता तो किसी ऐसे
स्कूल में कराते जहां कलास में जाना अनिवार्य नहीं होता । 12वीं के इस बच्चे की दादी भी बताने लगीं इसे अस्थमा है जब से सुबह सर्दियों में जल्दी स्कूल जाना जरूरी हुआ है रात भर खॉंसता रहता है । हमने तो ऐसे स्कूल कहीं नहीं देखे इससे अच्छा तो बच्चा घर पर ही पढ़ ले ।
अनुभव दो– आसाम के रहने वाले शशांक पिछले तीन-चार साल से दिल्ली में हैं । दिल्ली से बाहर उनका ट्रांसफर कभी भी हो सकता है । कई चिंताएं उनके चेहरे पर पढ़ी जा सकती हैं । जैसे-तैसे तो अभी बेटी का दाखिला मयूर विहार के एक पब्लिक स्कूल में कराया था, कितने पापड़ बेलने पड़े और पैसा देना पड़ा । अब दूसरे शहर में जाकर फिर दाखिले के
कष्ट से गुजरना पड़ेगा । शशांक दिल्ली स्कूल ऑफ इक्नोमिक्स में पढ़े हैं और उनकी पत्नी जन्तु विज्ञान में एम.एस.
सी. हैं । पत्नी उनसे रोज पूछती है कि ट्रांसफर कहां होगा जिससे कि वहां दाखिले के फार्म भरे जा सकें । उनकी चिंता
और भी ज्यादा है कि आसाम में भी दाखिले के फार्म जनवरी के अंत तक जमा हो जाते हैं । तीन-चार साल की बेटी और इतनी चिंताएं ! मैंने सुझाव दिया कि आप अपनी बेटी को खुद ही क्यों नहीं पढ़ा देती । वे बोलीं ‘मैं तो तैयार हूं । मैं तो कहीं नौकरी भी नहीं करती । अपनी बेटी के साथ-साथ और भी बच्चों को पढ़ा सकती हूं घर पर ।
अनुभव तीन– अमेरिका में पिछले दिनों हजारों मॉं-बाप ऐसे हैं जो अपने बच्चों को घर पर शिक्षा दे रहे हैं । उन्होंने पहले अपने बच्चों को परम्परागत स्कूलों में दाखिल कराया था लेकिन उन्हें शीघ्र ही लगने लगा कि जब ऑनलाइन कंम्पयूटर पर बच्चे पढ़ सकते हैं, आपस में संवाद कर सकते हैं घर बैठे किसी भी शिक्षक की मदद ले सकते हैं, पुस्तकालय जा सकते हैं तो स्कूल क्यों जाया जाए ?अनुभव बताते हैं कि इससे उनकी शिक्षा की गुणवतता बेहतर ही हुई है और जाने आने के खटरागों से मुक्ति भी । भारत जैसे देश में जहां घंटे बच्चों को घंटे आने जाने में लगते हैं वहां तो इस विकल्प को तुरंत देने की जरूरत है । एक अमेरिका में बसे एक भारतीय ने अपने अनुभव बताए कि शुरू में हमें लगता था कि बच्चों की सामाजिक समझ और समझ पर असर पड़ेगा लेकिन नहीं उलटा और बेहतर हुआ है क्योंकि वे स्कूल से लौटने के बाद उतने थके मांदे भी नहीं होते जिन बच्चों के साथ वे पहले खेलते थे उनके साथ खेलने के लिए उन्हें अब और ज्यादा समय मिलता है ।
अनुभव चार– हाल ही में तमिलनाडु के एक शहर तंजौर में कुछ दिन बिताए । तमिलभाषी श्रीनिवासन ने भी घर-स्कूल अवधारणा को पूरे देश के हित में बताया । श्रीनिवासन के दो बच्चे हैं । एक बच्चा पांचवी में और एक दूसरी में है । स्कूल में दाखिला नहीं हुआ तो घर पर ही पढ़ाना शुरू कर दिया था और जब चौथी क्लास में दाखिले के लिए गया और स्कूल ने टेस्ट लिया तो बड़ा बच्चा प्रथम आया । इससे अच्छी बात उन्होंने यह बतायी कि जब उन बच्चों को छोटी उम्र में स्कूल भेजा जाता था तो कोई दिन ऐसा नहीं होता था कि जब बच्चे रोते-रोते स्कूल न जाते हों । हमें मार-पीट कर उसे कपड़े पहनाकर स्कूल भेजा जाता था । उसने एक बहुत मनोवैज्ञानिक बात बताई जब बच्चों को लगा कि विरोध के बावजूद स्कूल जाना ही है तो वे रोबोट की तरह तैयार हो जाता । अनिच्छा के बावजूद भी अकसर ऐसे बच्चे मॉं-बाप के प्रति भी एक छिपे आक्रोश का भाव रखने लगते हैं कि उनके मॉं-बाप उनकी बात क्यों नहीं सुनते । व्यस्क –होने के बाद वे कई रूपों में इसे प्रकट करते हैं । एक पुराने सहकर्मी बताते हैं कि उनके पिता बचपन में उन्हें सुबह चार बजे उठा देते थे । उसका नतीजा यह निकला कि जब बड़ा होकर ‘मैं कॉलिज चला गया तो मनमर्जी उठने की इच्छा हुई तो मैं बहुत देर तक सोता रहता था ।’ और एक मॉं-बाप का अनुभव कि बच्चों को स्कूल में दाखिले के दबाव में कई बार छोटी उम्र में दाखिल करना पड़ता है इससे भी उनके विकास पर उलटा असर पड़ता है । यदि दाखिले का दबाव न हो तो बच्चों को 6-7 साल के या उसके बाद ही स्कूल भेजें तो अच्छा रहे । एक पिता ने अपने अनुभव बताए कि उनके बड़े बेटे को जो 6 साल की उम्र में स्कूल गया उसकी समझ पढ़ाई में रुचि, और पूरा विकास उस बच्चे से कई गुना बेहतर हुआ जिसे छोटी उम्र में स्कूल में जबरन भेजा गया था ।