हर काली रात के बाद सवेरा होता है । और यह भी सच है कि उस रात में भी कुछ तारे टिमटिमाते रहते हैं । भारतीय नौकरशाही की अक्षमता को लेकर कितने भी प्रश्न लगाए जाएं बावजूद इसके कुछ तारे तो टिमटिमाते ही हैं । इन्हीं टिमटिमाते तारों की संख्या बढ़ाने, उन्हें प्रोत्साहित करने के लिए वर्ष 2006 से हर वर्ष केन्द्र सरकार के स्तर पर सिविल सेवा दिवस मनाया जाता है । कुछ चीजें परम्परा में निश्चित भी हो गई हैं । स्थान हर बार विज्ञान भवन रहता है । हर वर्ष प्रधानमंत्री संबोधित करते हैं और साथ होते हैं उनके कार्मिक मंत्री, केबिनेट सचिव, कार्मिक सचिव और विशेष रूप से इस अवसर पर प्रमुख व्याख्यान के लिए बुलाया गया अतिथि । विज्ञान भवन के मुख्य सभागार में नयी और पुरानी पीढ़ी के लगभग एक हजार लोक सेवकों की उपस्थिति एक प्रेरणास्पद अनुभव बन जाती है । शुरू के वर्षों में संयुक्त सचिव या उसके समकक्ष भारत सरकार के अधिकारी ही इसमें शामिल होते थे । लेकिन पिछले कई वर्षों से भारतीय प्रशासनिक सेवा में ताजा-ताजा शामिल हुए नौजवान अधिकारियों से लेकर पुलिस सेवा, केन्द्रीय सेवाओं के अधिकारी भी बुलाये जाते हैं । इससे सिविल सेवा दिवस को मनाने का उद्देश्य और अच्छा बन गया है जिससे कि नई से नई पीढ़ी उन कामों से प्रेरणा ले सके जो देश के विभिन्न हिस्सों में, विभिन्न विभागों में उनके साथी, वरिष्ठ सहयोगी कर रहे हैं ।
21 अप्रैल 2013 को इस बार प्रधानमंत्री जी ने देश में महिलाओं के प्रति हो रहे अत्याचार पर विशेष रूप से चिंता जताई और शिक्षकों, नौकरशाहों समेत पूरे समाज को इस समस्या से लड़ने के लिए आगे आने का आह्वान किया । पिछले कुछ वर्षों में अक्सर इस अवसर पर प्रधानमंत्री जी ऐसी समस्या को सामने रखते हैं जो तात्कालिक रूप से देश के लिए सबसे बड़ी चुनौती होती है । पिछले वर्ष 2012 में टू-जी घोटाले की बातें हवा में थीं और वक्त के अनुकूल प्रधानमंत्री जी ने तंत्र को पारदर्शी और जिम्मेदार बनाने का आह्वान किया था । उनकी इस टिप्पणी पर महीनों तक बहस चलती रही थी जो उन्होंने नौकरशाहों को कहा था कि ‘उन्हें और हिम्मत से आगे आना चाहिए ।’ अखबारों में कई लेख इस संदर्भ में छपे थे कि क्या नौकरशाहों में अपने राजनेताओं के सामने हिम्मत बची भी है और यदि वे हिम्मत दिखाते हैं तो क्या राजनेता उनके बचाव में सामने आते हैं ? और तो और एक वरिष्ठ आई.एस.अधिकारी ने लिखा था कि ऐसे हिम्मती, ईमानदार अधिकारी को उनकी नौकरशाह बिरादरी भी कैसे अकेला छोड़ देती है । यदि सिविल सेवा दिवस उस बहाने भी देश की किसी ज्वलंत समस्या निशाने पर लाता है तो यह भी कम बड़ी उपलब्धि नहीं कही जाएगी ।
हर वर्ष लगभग सात-आठ पुरस्कार दिये जाते हैं । इस वर्ष समेत कुछ पुरस्कारों को याद करना पूरी पीढ़ी को ताकत देता है । इस बार जिला मैजिस्ट्रेट बदायूँ श्री अमित गुप्ता को पुरस्कार दिया गया मैला ढोने से आजादी और स्वच्छता के कदमों को उठाने के लिए । इस कार्यक्रम का भी नाम बहुत अच्छा रखा । ‘डलिया जलाओ’ । डलिया यानि जिसमें हमारे मेहतर गंदगी को इकट्ठा करते हैं । माननीय सुप्रीम कोर्ट ने 2003 में सिर पर मैला ढोने पर प्रबंध तो लगाया था लेकिन बदायूँ समेत अभी कई जिलों में ऐसे दृश्य मिल जाते हैं जब डलिया या टोकरी लेकर सफाईकर्मी दिखाई देते हैं । सबसे पहला कदम सार्वजनिक रूप से इन डलिया/टोकरियों को जलाया गया । इसके बदले उन्हें नौकरियां दीं, बच्चों के लिए पढ़ने के विशेष इंतजाम किये, उनके लिए घर बनवाए और इस तरह पूरे जिले को मैला ढोने वाले सफाई कर्मचारी से मुक्त किया गया । इन्हीं कर्मचारियों को राज मिस्त्री के काम सिखाए गए और उन्हीं से शौचालय बनवाए गये । क्या इससे देश के दूसरे नौकरशाहों को प्रेरणा नहीं मिलेगी ?
इतने ही महत्वपूर्ण पुरस्कार में शामिल हैं ओमप्रकाश चौधरी जिला अधिकारी दंतेवाड़ा । आप सबको पता है दक्षिण, बस्तर और दंतेवाड़ा नक्सलवादी हिंसा से जूझ रहा है । साक्षरता दर सिर्फ 33 प्रतिशत । बच्चे या तो स्कूल जाते ही नहीं या छोड़ देते हैं । जिला अधिकारी ने एक मिशन की तरह कुछ काम शुरू किए । जैसे पांच सौ सीटों वाले आवासीय विद्यालय बनवाए । जो स्कूल हिंसा की घटनाओं के कारण बंद हो गये थे या तोड़ दिये गये थे उनका पुनर्निर्माण कराया । जो स्कूल छोड़ चुके थे उन्हें विशेष रूप से स्कूल वापस लाया गया । उससे भी महत्वपूर्ण काम यह है कि शिक्षा को और रुचिकर बनाया और ग्रीष्मकालीन कैम्प, विज्ञान संग्रहालय, जिला पुस्तकालय खोल कर शिक्षा के प्रति जागरुकता पैदा की । जिला अधिकारी के ये प्रयास नक्सलवाद से जूझते सभी राज्यों के लिए एक मिसाल बन सकते हैं ।
इसी वर्ष एक और पुरस्कार मिला ‘कौशल्य वर्धन केन्द्र’ योजना को । इस योजना के तहत गुजरात के लाखों बेरोजगार यूवाओं को प्रशिक्षित किया गया और लगभग एक हजार से ज्यादा कौशलों की पहचान की गई है । इन्हें 72 प्रशिक्षण पाठ्यक्रमों में ट्रेनिंग दी जा रही है । अब तक साढ़े चार लाख नौजवानों को प्रशिक्षण दिया जा चुका है । कई बात बहुत अच्छी लगी इस पुरस्कार की । इसका नाम कौशल्य वर्धन केन्द्र । विशेषकर तब जब अंग्रेजी नामों की बाढ़ आई हुई हो । परम्परागत रूप से अपने बूते रोजगार पैदा करने में गुजरात का कोई सानी नहीं है । साठ के दशक में वर्गीज कुरियन ने अमूल और डेरी उद्योग में किसानों को शामिल कर लाखों-करोड़ों लोगों को रोजगार दिया है । उतना ही महत्वपूर्ण काम समाज सेवी ईला भट्ट ने किया है । जिसके बूते आज गुजरात की लाखों महिलाएं अपने बूते जीवन चला रही हैं । और अब कौशल्य वर्धन केन्द्र । क्या हिंदी राज्य के नौकरशाह, राजनेता इससे कुछ सीख सकते हैं ?
पिछले वर्षों के ऐसे कई पुरस्कार याद आ रहे हैं । वर्ष 2010 में चित्तौड़गढ़ के जिलाधिकारी डॉ. समित को यह पुरस्कार दिया गया था औषधियों को किफायती दर पर उपलब्ध कराने के लिए । उन्होंने बाकायदा विज्ञान भवन में प्रस्तुति दी कि कैसे दवाओं के जैनरिक नाम से दवाएं सस्ती उपलब्ध हो सकती हैं । उन्होंने जिले के करोड़ों रुपये तो बचाए ही सरकारी अस्पतालों में दवाओं की उपलब्धि भी सुनिश्चित कराई । बात रेंगते-रेंगते केन्द्र सरकार की समझ में भी आ गई है और इस बार के बजट में सरकार ने भी कुछ दिशा-निर्देश जारी किये हैं । हालॉंकि निराशा इस बात से भी होती है कि जो सरकार ऐसे प्रोग्राम को पूरे देश के सामने पुरस्कृत कर रही है उसे हर जिले में, हर स्तर पर लागू करने में देरी क्यों ? दवाएं जिस रफ्तार से आसमान छू रही हैं उसमें गरीब के लिए मरना आसान होता है बजाए दवाएं खरीदने के ।
वर्ष 2010 में दिया गया एक और पुरस्कार याद रखने लायक है । यह पुरस्कार मिला जबलपुर के जिलाधीश श्री संजय को । खचाखच भरे विज्ञान भवन में पूरी प्रस्तुति देखने लायक थी । संजय दूबे ने सड़कों के बीचों-बीच रास्ता रोकने वाले धार्मिक मंदिरों, मस्जिदों के अतिक्रमण की समस्या सुलझाई । पूरे जबलपुर शहर में सौ से ज्यादा ऐसे निर्माण थे जिनसे ट्रेफिक जाम हो जाता था या लोगों को आने-जाने में असुविधा होती थी । इस देश को कुछ समझने वाले जानते हैं कि मंदिर, मस्जिद को छूना सॉंप और बिच्छूओं को छूना है । मिनट के अंदर सांम्प्रदायिक सौहार्द बिगड़ सकता है । जिलाधीश ने हर मंदिर, मस्जिद या ऐसे निर्माण के संतों, महंतों, मोलानाओं के साथ बैठकें कीं । उनकी बाकायदा विडियो रिकार्डिंग कराई । लिखित में हस्ताक्षर लिए और फिर उतनी ही पारदर्शिता से उन्हीं की उपस्थिति में अतिक्रमण को हटाकर दूसरी जगह ले जाया गया । यदि जरूरी हुआ तो नयी मूर्तियां लगवाई और दूसरे खर्चे भी दिये । पूरे शहर का हर समुदाय उनके इस काम की तारीफ से गद-गद था और विज्ञान भवन का सभागार भी । हालॉंकि हर वर्ष की तरह इन विषयों पर जो पैनल विमर्श होता है उनमें एक नौजवान नौकरशाह की आवाज भी अभी तक गूँज रही है कि जब देश के एक शहर में ऐसा हो सकता है तो सैंकड़ों नगरों और महानगरों में जो ये धार्मिक स्थल रास्ता रोक कर बने हुए हैं उनको हटाने में इस प्रोग्राम से प्रेरणा क्यों नहीं ली जाती ? जाहिर है मंच पर बैठे मंत्री या वरिष्ठों के पास इसका कोई जवाब नहीं था ।
और भी प्रमुख पुरस्कारों को याद करें तो वर्ष 2011 में हिमाचल प्रदेश में प्लास्टिक कचरे से मुक्ति शामिल है । वर्ष 2012 में जम्मू एंड कश्मीर में पंचायती चुनावों की व्यवस्था और गुजरात राज्य में जल समस्या के लिए भागीदारी, वैज्ञानिक प्रबंध । 2006 में एक और महत्वपूर्ण पुरस्कार कर्नाटक को दिया गया था जिससे आप अपनी जमीन के रिकार्ड ऑन लाइन प्राप्त कर सकते हैं । हिंदी प्रदेशों से संबंध रखने वाले लोगों को पता है कि पटवारी, अमीर से लेकर तहसीलदार द्वारा जमीन के रिकार्डों में कैसी मनमर्जी हेराफेरी की जाती है और दस्तावेज पाने में तो श्री लालशुक्ल के राग दरबादी के मुख्य पात्र लंगड़ की तरह पूरी उम्र ही निकल जाती है । रेलवे के वर्ष 2008 में कंप्यूटर प्रणाली से टिकट आरक्षित करने की योजना को भी शाबाशी मिली । बहुत प्रशंनीय काम यह रहा है लेकिन इसे अभी और बेहतर करने की जरूरत है । जम्मू कश्मीर राज्य में भूकंप से निबटने की योजना को भी 2008 में पुरस्कार दिया गया था ।
दर्जनों ऐसे उदाहरण और सैंकड़ों नौकरशाह हैं जिनसे पब्लिक सेवा में जुड़े हजारों, लाखों सरकारी कर्मचारी प्रेरणा ले सकते हैं । सिविल सेवा दिवस मनाने का उद्देश्य भी यही है ।