Posts in category Samaaj
ओबीसी क्रीमी लेयर _ढोल की पोल (Sanmar...
ओबीसी के संदर्भ में देश-विख्यात ‘क्रीमीलेअर’ में सरकार ने मामूली सा बदलाव किया है लेकिन उसे इस रूप में गाया-बजाया जा रहा है जैसे कोई सामाजिक क्रांति सरकार ने कर दी हो। मात्र इतना सा फैसला है- जो सीमा अभी तक 6 लाख थी,उसे बढ़ाकर 8 लाख कर दिया गया है। और स्पष्ट शब्दों में कहें तो केंद्र सरकार की नौकरियों में ओबीसी वर्ग के लिए आरक्षित 27 फीसदी पद [...]
भोजपुरी हिन्दी जोड़ो, तोड़ो नहीं
हिन्दी समेत सारी भारतीय भाषाऐं संकट के दौर से गुजर रही हैं। हताशा में लोग यह भविष्यवाणी तक कर देते हैं कि 2050 तक अंधेरा इतना घना हो जाएगा कि सिर्फ अंग्रेजी ही दिखायी देगी। भविष्यवाणी की टपोरी बातें को न भी सुना जाए तो हिन्दी की मौलिक बौद्धिक, कथा उपन्यास की किताबों की छपाई-संख्या बता रही है कि अपनी भाषा, बोलियां हैं तो महासंकट म [...]
जातिमुक्त भारत: संभावना की तलाश
कोई ऐसा काम है जिसे आधुनिक राज्य, राष्ट्र नहीं कर सकता? गुलामी प्रथा दूर हुई या नहीं? यह सिर्फ भारतीयों या अफ्रीकनो को दास बना कर सुरीनाम, मॉरीशस, अमेरिका आस्ट्रेलिया, न्यूजीलेंड तक ले जाने तक सीमित नहीं थी। पहले तो इन्होंने अपने यूरोप, इंग्लैंड के गरीब, वंचितों को ही दास बना कर शुरू किया था। उपनिवेश या कहें तत्कालीन इतिहास की जरूरत थ [...]
गांवों में बहार है।
हाल ही में दिल्ली के एक प्रोफेसर ने फेसबुक पर लिखा कि बाईस साल बाद वे अपने गांव जा रहे हैं। गांव भी पश्चिमी उत्तर प्रदेश का, मात्र साठ-सत्तर किलोमीटर दूर। फर्राटेदार कार से घंटा-दो घंटा। लेकिन वे बस से जा रहे थे। रास्ते के ढाबे, चाय की चुस्कियों के विवरणों से पता चल रहा था कि जैसे आंखों देखा हाल जानने और लिखने के लिए ही उन्होंने गांव की [...]
सरकार और समाज (जनसत्ता – 6.5.1...
नयी सरकार ने गद्दी संभालते ही बड़े धुँआधार ढंग से स्वच्छता अभियान शुरू किया है । गांधी से लेकर ईश्वर का नाम लेते हुए । बहुत अच्छी बात है । शायद हमारे देश की गिनती दुनिया के सबसे गंदे देशों में होती है । महात्मा गांधी ने भी दक्षिण अफ्रीका में कदम रखते ही अपना सामाजिक जीवन स्वच्छता अभियान से ही शुरू किया था । लेकिन महान भारत में यह करना [...]
अनुशासन में शासन (जनसत्ता)
दर्द है कि हर रोज रिसने के बावजूद भी कम नहीं हो रहा । दफ्तर खुलते ही दिल्ली स्थित केंद्र के सरकारी कर्मचारी आह भर-भरकर पुराने दिनों को याद करते हैं । क्या वो जमाना था जब कभी भी आओ कभी भी जाओ और कहां ये नौ बजे के दफ्तर में नौ से पहले पहुंचना वरना छुट्टी कटेगी और तनख्वाह भी । पुराने बाबू बताते हैं कि ऐसा समय पालन तो केंद्र सरकार के कार्यालयो [...]
कुंडली और प्रेम (नवभारत टाइम्स)
बहुत जरूरी मुद्दा है विशेषकर परम्परा की कुंडली और आधुनिक के ‘प्रेम’ के बीच झूलती पीढ़ी के लिए । मानवीय रिश्तों, संवेदनाओं के पवित्र शब्द विवाह, प्रेम, के बीच कुंडली, गोत्र ज्योतिष को सिरे से खारिज करने की जरूरत है वरना दुनिया भर के लिए 21वीं सदी में भारत मध्यकाल में ही खड़ा नजर आएगा । कई चेहरे उभर रहे हैं दिल्ली में आसपास के मित्रों, रि [...]
स्वाधीनता और लोकतंत्र : शिक्षा के आई...
हाल ही में अंडमान जाना हुआ । आजादी के साठ-पैंसठ वर्ष बाद । इतना आसान भी नहीं है वहां जाना । लेकिन वहां जाए बिना आजादी का अर्थ भी नहीं समझा जा सकता । सेल्यूलर जेल के सामने खड़े होकर आप भय, गुस्सा, गर्व, आत्मग्लानि, देश-प्रेम की कई लहरों पर चढ़ते-उतराते हैं । आजादी की चाह रखने वालों को कैसी-कैसी यातनाएं दी गईं । छह बाई छह फीट की मोटी दीवार [...]
स्कूली पाठ्यक्रम और समाज
कल 31 जुलाई मुंशी प्रेमचंद का जन्मदिन था । हर वर्ष की तरह दिल्ली में हंस पत्रिका की ओर से एक गोष्ठी का आयोजन किया गया था । प्रमुख वक्ता थे अरुणा राय, देवी प्रसाद त्रिपाठी, योगेन्द्र यादव, अभय कुमार दुबे और मुकुल केशवन । मुकुल केशवन इतिहास के प्रोफेसर हैं । उन्होंने एक महत्वपूर्ण बात कही कि 1885 में जब कांग्रेस की स्थापना हुई उस समय यू [...]
बनारस और भारत रत्न (Jansatta)
पिछले दिनों चुनावों के शोर के बीच बनारस लगातार चर्चा में रहा । चुनाव से पहले भी और चुनाव के बाद भी । गंगा के घाट, बनारस की सांझी संस्कृति, पप्पू की चाय से लेकर सड़कों पर रास्ता रोके सांड भी चर्चा में आए लेकिन बनारस के हिन्दू विश्वविद्यालय की जो धूम तीस-चालीस साल पहले थी वह सब की नजरों से अलग छिपी ही रह गई । चुनाव के उस दौर में संयोग से म [...]
मंदिर के प्रांगण में (Jansatta)
पुरी के मंदिर में वैसे दूसरी बार आया हूं पर पुरानी एक भी स्मृति साथ नहीं दे रही । बीस बरस पहले आया था । बस इतनी याद बाकी है कि इतनी ही भीड़ थी । एक तरफ से घुसती दूसरी तरफ निकलती । कहीं कुछ छूट न जाने वाले अंदाज में । हर मूर्ति के आगे सिर झुकाती, मंत्र सा कुछ बुदबुदाती या टुकुर-टुकुर मुंह बंद किये नकल करती । आज वर्ष 2014 में मुलाकात उसी भीड़ [...]
पश्चिमी उत्तर प्रदेश : स्त्री की नि...
देश के अलग-अलग हिस्सों से स्त्रियों पर होने वाले अत्याचार या हिंसा से अखबार भरे रहते हैं । हिन्दी भाषी राज्यों में तो हिंसा की ये घटनाएं छोटी-छोटी बच्चियों तक को अपनी चपेट में ले रही हैं । ऐसा नहीं कि ये हाल में बढ़ी हों । नयी बात सिर्फ यही है कि मीडिया और समाज की सजगता से अब इन्हें छिपाया नहीं जा सकता । चालीस-पचास वर्ष पहले अपने बचपन [...]
यार, ज़रा कह देना (Jansatta)
उन्हें बेटी की शादी के लिए लड़के को देखने जाना था । उनका फोन आया यार जरा कह देना । वे आपको जानते हैं, आपके गहरे दोस्त हैं । मुझे हामी भरनी ही थी । हॉं-हॉं बच्चों की शादी के लिए भला इतना भी नहीं करेंगे । मैं टटोलने की कोशिश करता हूं । कहॉं तक बात पहुंची है ? उनकी चुप्पी जानकर फिर पूछा । आपने लड़का तो देख लिया होगा ?‘नहीं अभी तो कुछ नहीं । [...]
राजनीति का ककहरा
बड़ा रोचक खेल है राजनीति । कभी सॉंसों को तेज-तेज चलाने वाला तो अगले ही पल कभी गला भींचता । इधर फूंक-फूंककर कदम रखते हुए कुछ नवीनता के मोह या स्वाद बदलने की खातिर में उस गली में टहल रहा हूं जिसे लोकतंत्र का जश्न कहते हैं । ‘अजी क्यों दे इनको वोट ! इनसे पूछो कि तुम हमारे लिए क्या करोगे ? क्या दोगे ? हम इनकी बातों में नहीं आने वाले ।’ ये सज [...]
जाति की जमीन (Jansatta)
वे एक मेधावी महिला थीं । पचास के पेटे में । वर्ष 1972 में दिल्ली बोर्ड की हायर सैकेंडरी परीक्षा में 20वीं रैंक माने रखती है । उन दिनों बोर्ड का टॉपर 75 प्रतिशत के आसपास होता था । फिर आपने हिन्दी विषय क्यों चुना ? मैंने क्यों चुना ? मैं तो अर्थशास्त्र पढ़ना चाहती थी । गणित भी अच्छा था । साईंस भी मुझे अच्छी लगती थी । मेरे मॉं-बाप का फैसल [...]
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