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अनुशासन में शासन (जनसत्ता)

Dec 02, 2014 ~ Leave a Comment ~ Written by Prempal Sharma

दर्द है कि हर रोज रिसने के बावजूद भी कम नहीं हो रहा । दफ्तर खुलते ही दिल्‍ली स्थित केंद्र के सरकारी कर्मचारी आह भर-भरकर पुराने दिनों को याद करते हैं । क्‍या वो जमाना था जब कभी भी आओ कभी भी जाओ और कहां ये नौ बजे के दफ्तर में नौ से पहले पहुंचना वरना छुट्टी कटेगी और तनख्‍वाह भी । पुराने बाबू बताते हैं कि ऐसा समय पालन तो केंद्र सरकार के कार्यालयों में कभी नहीं देखा गया । सार्वजनिक वेबसाइट पर उपलब्‍ध आंकड़े इसकी गवाही दे रहे हैं । जहां भी बायोमेट्रिक मशीने लग गई हैं पिचानवे प्रतिशत कर्मचारी समय पर दफ्तर पहुंच रहे हैं । उन्‍हें मैट्रो की लाइन और दफ्तर की सीढि़यों पर भागते और हॉंफते हुए देखा जा सकता है । अब न बच्‍चों के स्‍कूल का बहाना, न मनमर्जी पड़ौसी को अस्‍पताल में जाकर देखने का नाटक । जो सरकारी कर्मचारी सुबह नौ बजे के दफ्तर में दस बजे अपने घर के आसपास की सड़कों को अपने कुत्‍तों को घुमाते हुए गंदगी फैला रहे होते थे वे सब रास्‍ते पर आ गये हैं । बड़े साहबों की बड़ी-बड़ी गाडि़यां साफ करने वाले सफाई कर्मचारी तक तनाव में आ गये हैं । कहते हैं कि अच्‍छे दिन क्‍या आए हर साहब कहता है कि सुबह आठ बजे तक गाड़ी साफ हो जानी चाहिए । लेकिन ऑंखों ही ऑंखों में शरारत दिखाता हुआ यह कहने से भी नहीं चूकता कि अब पता चलेगा जब समय पर दफ्तर पहुंचना पड़ेगा । ‘एक देश लेकिन कानून अलग-अलग । आपको तनख्‍वाह भी ज्‍यादा मिले और समय पर भी नहीं पहुंचना । यह कहां का न्‍याय है ।’

लेकिन इस सबकी नौबत आई क्‍यों ? हर व्‍यवस्था के कुछ नियम कानून होते हैं जिसमें समय की पाबंदी भी एक महत्‍वपूर्ण बात है । जब सरकार तनख्‍वाह पूरी देती है, आपकी सुख-सुविधाओं का पूरा ध्‍यान रखती है, आपके लिए अस्‍पताल हैं, स्‍कूल हैं, घूमने की आजादी और छठे वेतन आयोग के बाद तो यह भी नहीं कह सकते कि आपका शोषण हो रहा है तो फिर लापरवाही, कामचोरी, खून में कैसे आई ? क्‍या सरकारी कर्मचारी ने कभी सोचा कि उसी के घर में जो बैंक में नौकरी कर रहा है वह समय पर पहुंचता है और कई घंटे ज्‍यादा काम करता है । जो प्राइवेट नौकरी में हैं वह देसी फैक्‍ट्री हो या विदेशी कम्‍पनी उसे कभी देर से दफ्तर पहुंचते नहीं देखा और इन सबको तनख्‍वाह भी केन्‍द्र सरकार के कर्मचारी से कम ही मिलती है तो यदि अब दफ्तर में समय पर पहुंचना भी पड़ रहा है तो यह हाय-हाय क्‍यों ? क्‍या इस देश की व्‍यवस्‍था के डूबने का एकमात्र कारण केन्‍द्र, राज्‍य सरकार के कर्मचारियों में एक लापरवाही का भाव जिम्‍मेदार नहीं है ? आप कोई भी संस्‍था देख लीजिए । सरकारी स्‍कूल क्‍यों डूबे ? आप पाएंगे कि पचास फीसदी शिक्षक या तो गायब हैं या किसी बहाने छुट्टी पर हैं । विश्‍वविद्यालयों का तो कहना ही क्‍या । वहां तो उपस्थिति दर्ज कराने की भी आजादी नहीं है और न विश्‍वविद्यालयी अनुशासन में कोई ऐसा हिसाब-किताब रखा जाता कि आप कब आए और कब गये । विश्‍वविद्यालय के प्रोफेसर कहते हैं कि हम तो चौबीसों घंटे ड्यूटी पर होते हैं क्‍योंकि हम उन बातों को सोचते और पढ़ते रहते हैं जो हमें विश्‍वविद्यालय में पढ़ानी हैं । क्‍या खूबसूरत जवाब है । फिर जे.एन.यू., दिल्‍ली विश्‍वविद्यालय के प्रोफेसरों से कोई पूछे कि अपने ज्ञान को कभी कुछ शोध पत्रों में भी छपवाएं । कम से कम दिल्‍ली में तो यह नहीं दिखता । दशकों से ऐसा चल रहा है और नतीजा वही हुआ जो होना था । सरकारी स्‍कूल भी डूबे और विश्‍वविद्यालय भी । पिछले कई वर्षों से हमारे ज्‍यादातर शिक्षण संस्‍थान गुणवत्‍ता के नाम पर और नीचे ही गिर रहे हैं ।

बहरहाल सरकार के इस कदम की तारीफ की जानी चाहिए । क्‍योंकि लोकतंत्र का तकाजा है कि सरकारी संस्‍थाएं लोक की उम्‍मीदों पर खरी उतरें । कल्‍पना कीजिएगा कि आप अपने किसी परिचित को लेकर अस्‍पताल पहुंचते हैं और अगर डॉक्‍टर और नर्स न हो, अस्‍पताल में गंदगी फैली हुई हो तो क्‍या आप बर्दास्‍त कर पाएंगे ? आप जो टैक्‍स सरकार को देते हैं आप तुरंत उसका हिसाब मागेंगे । आप बैंक में जाएं और ताला बंद मिले तो क्‍या माथा नहीं पीट लेंगे । राज्‍य का पहला काम जनता के प्रति जवाबदेही होना है और ऐसे कदमों से सरकारी कर्मचारी की जवाबदेही बढ़ेगी । आज यदि केन्‍द्र सरकार में ऐसा हो रहा है और जो निरंतर सफलता की तरफ बढ़ रहा है तो निश्चित रूप से कल मेरठ, आगरा, पटना, इलाहाबाद की सभी संस्‍थाएं वह चाहे अस्‍पताल हों या जिलाधीश का कार्यालय या थाना कोतवाली, पटवारी, सेल्‍स टैक्‍स , बिजली सभी पर इसका असर होगा । देशभक्ति सिर्फ सीमाओं पर लड़ने या ललकारने, हुंकारने का नाम नहीं है । पूरी निष्‍ठा से अपना काम करना भी सबसे बड़ी देशभक्ति और समय की जरूरत है ।

नयी व्‍यवस्‍था में यदि कोई कमी है तो यह कि समय पर पहुंचे तो पहुंचे कैसे । केंद्रीय सचिवालय के मैट्रो स्‍टेशन पर शाम को एक-एक घंटे तक मैट्रो का इंतजार करना पड़ रहा है । क्‍योंकि ऐसा कभी सोचा ही नहीं गया कि एक साथ हजारों लोग दफ्तर छोड़ेंगे । ये तो गनीमत है कि दिल्‍ली मैट्रो की वजह से यह समय पालन संभव भी हो पाया वरना त्राहि-त्राहि मच जाती । दफ्तरों में काम करने वाली महिलाओं पर दोहरी मार पड़ी है । हमारी सामाजिक व्‍यवस्‍था में उन्‍हें घर पर भी सब कुछ देखना पड़ रहा है और दफ्तर में मिली पुरानी रियायत भी गायब । अब तो वे खुद कह रही हैं कि चाइल्‍ड केयर लीव हमें भले ही न दो लेकिन आने-जाने के लिए या तो सरकार ऐसी व्‍यवस्‍था करे कि हम समय पर पहुंच पाएं या हमें कुछ छूट मिलनी चाहिए ।

लेकिन सरकारी कर्मचारी के दुख का अंत नजर नहीं आ रहा । इस हफ्ते रिटायरमेंट की उम्र साठ से अट्ठावन की खबर ने उन्हें और मायूस कर दिया है । कहां तो वे बासठ की उम्र के सपने ले रहे थे और कहां वक्‍त से पहले जाना हो सकता है । हालॉंकि नये समय के पालन को देखते हुए पहली बार सरकारी कर्मचारी स्‍वैच्छिक अवकाश उर्फ वी.आर. की सोच रहे हैं ।

Posted in Lekh, Samaaj
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Prempal Sharma

प्रेमपाल शर्मा

जन्म:
15 अक्टूबर 1956, बुलन्द शहर (गॉंव-दीघी) उत्तर प्रदेश

रचनाएँ:
कहानी संग्रह (4)
लेख संग्रह (7)
शिक्षा (6)
उपन्यास (1)
कविता (1)
व्यंग्य (1)
अनुवाद (1)


पुरस्कार/सम्मान :
इफको सम्मान, हिन्दी अकादमी पुरस्कार (2005), इंदिरा गांधी राजभाषा पुरस्कार (2015)

संपर्क:
96 , कला कला विहार अपार्टमेंट्स, मयूर विहार फेस -I, दिल्ली 110091

दूरभाष:
011 -22744596
9971399046

ईमेल :
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