अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की बहस कुछ वर्षों में एक सतत उपस्थिति बन चुकी है । देश के दक्षिण से खबर थी कि एक विश्वविद्यालय ने पाठ्यक्रम से कविता हटा दी है और मद्रास विश्वविद्यालय ने इस्लामिक विदुषी डॉ. अमीना वदूद का भाषण अंतिम समय पर मना कर दिया । आपको याद होगा महाराष्ट्र में बाल ठाकरे के निधन पर दो लड़कियों द्वारा फैस बुक पर की गई टिप्पणी और उनकी गिरफ्तारी । फिर खबर आई उत्तर भारत से । लेखक कंवल भारती के खिलाफ उनकी फैस बुक पर की गई टिप्पणी के आरोप में मुकदमा दर्ज कर लिया गया है । यदि पिछले एक वर्ष की बड़ी-बड़ी घटनाओं को भी याद करें तो पिछले वर्ष 2012 के मई, जून में एन.सी.ई.आर.टी. की किताबों में छपा कार्टून हावी रहा तो इस साल के शुरू में समाज शास्त्री आशीष नन्दी द्वारा जयपुर साहित्यिक महोत्सव में भ्रष्टाचार से संबंधित टिप्पणी ।
आजादी के इस मसले पर अनंत चलने वाली बहस और माहौल का दुखद पक्ष यह है कि कोई दल या संगठन यह नहीं कह सकता कि उसने अभिव्यक्ति की आजादी को रोकने की कोशिश नहीं की । दामन में दाग सभी पर हैं । आखिर दिन-रात लोकतंत्र की दुहाई देने वाले ये दल, संगठन कब लोकतंत्र की आत्मा को समझेंगे । आईए सिलसिलेवार इस पर विचार करते हैं । पहले कार्टून विवाद :-
वर्ष 1949 में बनाया के.शंकर का कार्टून आजादी के इतने वर्ष बाद भी ऐसा बवाल खड़ा कर सकता है इसकी हमारे संविधान निर्माताओं ने कभी कल्पना भी नहीं की होगी । संसद से सड़क तक जिस ढंग से एन.सी.ई.आर.टी. और राजनीति शास्त्र की किताबों के सलाहकार योगेन्द्र यादव और परसीकर की लानत मलानत की गई वह अद्वितीय ही कहा जाएगा । आरोप लगाए गए कि ये पुस्तकें महापुरुषों की अवमानना ही नहीं लोकतंत्र के प्रतिनिधियों के प्रति एक अनादर का भाव भी पैदा करती है । जबकि सच्चाई इसके ठीक विपरीत थी और अब भी है । बहुत खुलेपन से कृष्ण कुमार की अगुआई में पाठ्यक्रम बना और विशेष रूप से राजनीति शास्त्र का । उसकी सर्वत्र सराहना हुई है । पहली बार चित्र, कार्टून और चुलबुले अंदाज में उन्नी, मुन्नी के संवादों के माध्यम से पढ़ने की किताबों को इतना आनंददायी बनाया गया वैसा उससे पहले कभी नहीं हुआ था । प्रतिनिधियों के खिलाफ गुस्सा भड़काने की बात तो सिरे से गलत है । पहली बार ऐसी किताबें बनीं जिनमें देश का मौजूदा लोकतंत्र साक्षात नजर आता है । चुनाव उस पर चलने वाले आरोप-प्रत्यारोप, जीत-हार, नफा-नुकसान और उस सबसे ऊपर लोकतंत्र या संसद को सर्वोच्च मानने, पहचानने का सबक । इसे पढ़कर जो छात्र निकलेंगे वही देश के लोकतंत्र की उम्मीद हैं । एक अर्थ में यह बहस सार्थक कही जाएगी क्योंकि इसमें कई बुद्धिजीवी और संगठनों की भी पोल खुल गई है । जयपुर और मुम्बई की बहसों के भी लगभग ऐसे ही निष्कर्ष हैं । ऐसे हर मौके पर बुद्धिजीवी या तो बंटे नजर आते हैं या बहुत चालाकी से चुप बने रहते हैं । जरा गौर कीजिए हिन्दी के ज्यादातर ज्ञानपीठ, साहित्य अकादमी पुरस्कृत कवि, लेखक ऐसे किसी मुद्दे पर अपना मुंह नहीं खोलते । अभिव्यक्ति की आजादी के लिए यह भी कम बड़ा खतरा नहीं है ।
निरंतर बढ़ते सोशल मीडिया के प्रचार-प्रसार के दौर में इस देश के नागरिक और संस्थाओं को एक धैर्य और समझदारी से काम लेने की जरूरत है । क्योंकि जल्दबाजी में उठाया हुआ कोई भी कदम एक भयानक, हिंसात्मक रूप ले सकता है । हमारे बुद्धिजीवियों के विचार और मुद्राएं भी आज कसौटी पर हैं । वे जिस दल विचारधारा या अस्मितावादी समूहों से संबंधित हों उन्हें देश हित में इससे ऊपर उठाने की जरूरत है । कार्टून विवाद के संबंध में पीछे मुड़कर देखा जाए तो क्या अम्बेडकर ऐसी किताबों का बहिष्कार करते । दुनिया का इतना अच्छा संविधान बनाने वाला महापुरुष अपने को कभी भी मूर्ति पूजा में ढलने की इजाजत नहीं दे सकता था । महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश और केरल में हाल में ही घटी घटनाओं से इन राज्यों की सरकारों को भी सबक लेना चाहिए कि ऐसे असहमति के विचारों से ही तो लोकतंत्र मजबूत होता है । देश के कई राज्य जिस ढंग से जाति और धर्म के ध्रुवीकरण की तरफ बढ़ रहे हैं उसे दूर करने का एक ही उपाय है कि अभिव्यक्ति की गली को इतना संकरा न करें कि कंवल भारती के बहाने या बाल ठाकरे के बहाने निरंतर चलने वाली ऐसी बहसों से समाज के शिक्षा, स्वास्थ्य के विकास के वे काम भी रुक न जाएं जिनके लिए सरकार लोकतंत्र के रास्ते सत्ता में आती है । 15 अगस्त 1947 को मिली आजादी की एक और वर्षगांठ अभी पूरी हुई है । आईए हम सब एक और ऐसे उन्मुक्त भारत के भविष्य के साथ जुड़ें चंद राज्यों की आड़ में सत्ता किसी को प्रताडि़त न करे ।