स्थापना/प्रस्तावना – आरक्षण खत्म नहीं होना चाहिए, इसकी पूरी प्रक्रिया, पद्धति, कार्यान्वयन की समीक्षा हो । यदि जरूरत हो तो बढ़ाये और समयबद्ध कार्यक्रम के तहत पूरा करें ।इसकी सियासत पर तुरंत रोक लगे.
1 जब तक कोई समाज असमानता की इतनी परतों – जातिगत, क्षेत्र, धर्म, नस्ल, नियम, विश्वास, अंधविश्वास, लैंगिक आदि में जकड़ा हो, इनसे मुक्ति की तलाश और प्रयास में कुछ कदम सत्ता या शासन को उठाने ही होंगे । उसे चाहे आरक्षण का नाम दें या सकारात्मक (Affirmative) कदम का । यह पूरे समाज, राष्ट्र की सुख शांति और विकास के लिए जरूरी है ।मिड डे खाना ,अगानवादी.स्कूल ,अस्पताल से लेकर हर सार्वजनिक स्थलों पर रोज दलितों के साथ भेदभाव और अत्याचार की ख़बरें आती हैं. आरक्षण का विरोध करने वालो का फर्ज है कि पहले इन बुराईयों,भेदभावो के खिलाफ सामने आयें , . आरक्षण की जड़ यह असमानता और भेदभाव है .
- लेकिन कोई भी कदम, उपचार, नीति उसी रूप में सदा के लिये कारगर नहीं हो सकती । बिल्कुल दवा की तरह । उसे बराबर जॉंचने की जरूरत है कि क्या उपचार ठीक भी हो रहा है । या उल्टा असर है । यहॉं तक कि अच्छे प्रगतिशील धर्मों के लिये भी यही सिद्धांत लागू होता है । हिन्दी के विद्धान, मनीषी हजारी प्रसाद द्विवेदी का कथन यहॉं महत्वपूर्ण है –‘ जो धर्म परंपरायेन , वक्त के साथ नहीं बदलतीं, जिन पर पुनर्विचार नहीं किया जाता, वे उस धर्म को भी नष्ट कर देती हैं ।‘ विज्ञान का नाम ही बार-बार अपने को जांचने, परखने, परीक्षण और प्रश्न करने का है । इसीलिये जिस वैज्ञानिक युग में हम जी रहे हैं या भारत आगे बढ़ रहा है । वहॉं हर कार्य के लिये यही वैज्ञानिक विधि अपनाने की जरूरत है । अत: पिछली सदी में शुरू किये आरक्षण के कदम, कसौटियों को नये सिरे से इन्हीं समाज शासत्रिय वैज्ञानिक पद्धतियों पर कसा, परखा जाना चाहिए. बल्कि यह मांग की जानी चाहिये कि जब अन्य संस्था ओं की समीक्षा की गयी है तो इस मुद्दे पर सरकारें क्यों बचती रही हैं ? समीक्षा शब्द से ही बैचेनी क्यों ?
- सामाजिक समानता के रास्ते आर्थिक और फिर राजनैतिक बराबरी के लिये लगभग सौ वर्ष पहले आरक्षण की जो सुरुआत मुख्यत: दक्षिण और महाराष्ट्र में फूले, साहूजी महाराज आदि ने की और सामाजिक बराबरी के मसीहा बाबा साहेब अम्बेडकर ने जिसके लिये अपना पूरा जीवन लगा दिया उसमें इसे उम्मीद के मुताबिक सफलता क्यों नहीं मिली ? समाज के दबे कुचले, पिछड़े, साधनहीन वर्गों के लिये गांधी, नेहरू, पटेल की संदिच्छिओं के बावजूद क्यों इन्हीं कार्यों में से काशीराम, मायावती या दूसरे राजनेताओं को आगे आना पड़ा है ? आधी शताब्दी कम नहीं होती. और इस दौर में शासन भी मोटा-मोटी एक ही पार्टी का रहा ।क्या नीतियों में कमी रही या शासन की नीयत में? या समाज में गैर बराबरी की संरक्षक सामंती, धार्मिक शक्तियों इतनी मजबूत रहीं कि बराबरी का स्वप्न अभी भी उतना ही दूर है । या यह गैर बराबरी अब धर्म जाति की अपनी-अपनी सत्ता, अस्मिता को कायम रखते हुए जाति विशेष के अंदर भी एक कैंसर की तरह चारों ओर फैल रही है ?
- क्या इन कट्टर बहसों के धुरवान्तों में आरक्षण शब्द भी एक ऐसे धर्म का यर्थाथ नहीं होता जा रहा कि अपने-अपने भगवानों, पैगम्बरों ने जो कह दिया , कर दिया उस पर बहस करना गुनाह होगा । जो बोले उसे फांसी पर लटका दो । क्या हर महत्वपूर्ण मुद्दे को ‘होली कांऊ’ बनाना या घोषित करने से किसी का भी भला होने वाला है ? क्या संविधान की आस्था इसकी इजाजत देती है ? क्यों यह मूल अधिकार, नीति निर्देशक तत्व और संविधान के संशोधन, समीक्षा और प्रगतिशील चेतना के खिलाफ नहीं है ?
- समीक्षा, संशोधन के चंद उदाहरण – संघ लोक सेवा आयोग द्वारा भारतीय नौकरीशाही के उच्च पदों के लिये की जाने वाली भर्ती प्रक्रिया की कई बार समीक्षा की गयी है । इसमें सबसे प्रमुख है वर्ष 1974 में गठित कोठारी समिति जिसने वर्ष 1976 में अपनी रिपोर्ट दी और संसद में बहस के बाद वर्ष 1979 की सिविल सेवा परीक्षा से उसे लागू किया गया । इसकी क्रांतिकारी सिफारिश थी अपनी मातृभाषाओं में उत्तर लिखने की छूट । अंग्रेजी का एकाधिकार समाप्त । वाकई करिश्माई था यह कदम । परीक्षा में बैठने वाले उम्मीदवारों की संख्या एक साथ दस गुना बढ गयी और अपनी भाषा में पढ़े नौजवान पहली बार अंग्रेजी के दुर्ग में प्रवेश कर सके ।
क्या इस समीक्षा से फायदा पूरे देश को नहीं हुआ ?
क्या यह लोकतंत्र के हित में नहीं हुआ ?
ठीक दस बरस बाद वर्ष 1989 में फिर प्रोफेसर सतीश चंद की अध्यक्षता में एक समिति बनी यह जांचने के लिए कि क्या कोठारी समिति की सिफारिशें ठीक है ? उनका कार्यान्वयन ठीक है ? ठीक दस बरस बाद 1999 में प्रोफेसर योगेन्द्र कुमार अलघ की अध्यक्षता, फिर समीक्षा की गयी । नयी सरकार ने हाल ही में सीसेंट विवाद आदि के चलते फिर एक समिति गठित की है ।
क्या ऐसी समीक्षा लोकतंत्र के खिलाफ है ? नहीं । बल्कि उस कहावत को सार्थक करती है – ‘चलता पानी निर्मला’ यानि कि जिस नदी का पानी चलता रहता है, वह निर्मल, शुद्ध बना रहता है जबकि तालाब का ठहरा हुआ पानी सड जाता है ।
आरक्षण को इसलिए राष्ट्रहित में ऐसे तालाब में बदलने से बचाने की जरूरत है जिसमें राजनेता और समाज के स्वार्थी तत्व सिर्फ सत्ता की मछलियों की खातिरबदबू फैला रहे है । शिक्षा के मसले पर भी बार-बार समीक्षा हुई है । 1948 में राधाकृष्णन आयोग, 1964 में कोठारी आयोग आदि । इसके अलावा, डाक्टर जाकिर हुसैन, प्रोफेसर यशपाल समिति ने भी बहुमूल्य सुझाव दिये हैं । एन सी ई आर टी के पाठ्यक्रम में बदलाव बार- बार के विवाद के बावजूद एक जीवित लोकतंत्र का उदाहरण है ।
राज्यों के पुनगर्ठन, भाषा आदि के पक्षों पर भी समीक्षा की गयी है । प्रशासनिक आयोग का गठन, ज्ञान आयोग भी इसी वैज्ञानिक दृष्टि की कड़ी है ।
आजादी के बाद का सबसे चमकीला उदाहरण सूचना का अधिकार है । क्या अंग्रेजों के जमाने में लागु सरकारी गोपनीय नियम (Official secret Act 1923) से देश चल सकता है ? लाल फीताशाही, भ्रष्ट्राचार से लड़ने के खिलाफ सूचना का अधिकार सबसे प्रभावी हथियार शामिल हुआ है । कुछ विद्धानों के अनुसार संसद से भी बेहतर ।
क्या ‘आरक्षण की बहस’ को भी संसद से मुक्त नहीं किया जाना चाहिये ? क्या देश में बुद्धिजीवी, पत्रकार, संपादक, समाज विज्ञानी, शिक्षाविद, वैज्ञानिकों की टीम ऐसी समीक्षा , बहस नहीं कर सकती ?
६ समाज में जातिवाद विशेषकर ग्रामीण भारत में मद्देनजर आरक्षण की जरूरत अभी भी बनी हुई है । सही शिक्षा का अभाव, धार्मिक अंधविश्वास और वर्ण, धर्म की जकड़बंदी अभी अपनी अमानवीयता को नहीं छोड़ सकती । मनुष्य- मनुष्य के बीच भेद का ऐसा कलंक दुनिया कि किसी भी सभ्यता में न है न सोचा जा सकता । दुर्भाग्य यह कि ऐसा भयानक कलंक शताब्दियों तक न केवल टिका रहा बल्कि और क्रूर होता गया । आजादी के बाद या कहें ब्रिटिश काल के अच्छे मानवीय पक्षों के सम्पर्क में ‘जाति प्रथा’ पर जोरदार हमला हुआ है लेकिन यह राक्षस अभी मरा नहीं है। लेकिन क्यों ? यदि एक दवा कारगर नहीं हो तो दूसरी आजमायी जाये और यहीं इसे जारी रखने और समीक्षा की जरूरत है । क्यों निर्धारित कोटा पूरा नहीं हो पाया ? क्यों समान शिक्षा या अंतिम आदमी तक शिक्षा, स्वास्थ्य पहुँचाने की बजाय पूरी नीतियों ‘क्रीमीलेयर’ बनाने में तब्दील हो गयी ? मुकम्मिल समीक्षा हो, देश व्यापी बहस हो और फिर कदम उठाये जाये ।
- समीक्षा के लिए कुछ और जीवंत उदाहरण .
(क) दो वर्ष पहले भारतीय विदेश सेवा की अमेरिका में तैनात एक महिला खाबरगड़े चर्चा में आयी थीं । कारण उनकी नौकरानी ने उन पर अत्याचार के आरोप लगाये थे । मामला गंभीर था अमेरिका के कानूनों के अनुसार । लेकिन भारत में महिला अधिकारी के पक्ष में जो आवाजें उठीं, वे उनकी जाति समर्थक ज्यादा थीं । तभी पता चला कि अत्याचारी दलित है और नौकरानी ईसाई । खैर यह पक्ष अलग बहस की मांग करता है लेकिन आरक्षण की समीक्षा के संदर्भ महत्वपूर्ण बात यह है कि श्रीमती खाबरगड़े के पिता भी आई.एस.एस. सेवा में थे और दलित आरक्षण ले चुके हैं । उनकी बेटी भी उसी का फायदा लेकर विदेश सेवा में है । इनके बच्चे जो अमेरिका में पढ़ रहे हैं को भी मौजूदा कानून के अनुसार दलित आरक्षण के हकदआर हैं ।
क्या वाकई इनके बच्चों को आरक्षण मिलना चाहिए ?
अमेरिका, इंग्लैंड में रहते, पढ़ते ये कौन सी अस्पृश्यता, सामाजिक भेदभाव के शिकार हुए ?
आजादी के बाद दलितों की वो तीसरी-चौथी पीढ़ी जिसके पिता, दादा उच्च सरकारी सेवाओं, विश्वविद्यालयों में रहे हैं, महानगरों में जिनका जीवन सबसे पॉश कालोनियों में बीता है क्या वे इस सामाजिक रियायत के हकदार हैं ? मौजूदा वक्त में ऐसे हजारों सरकारी अधिकारी हैं जिनके बच्चों ने गॉंव देखा तक नहीं है, वे पढ़ने के लिये इंग्लैंड, अमेरिका में रहे हैं, लेकिन भारत में कदम रखते ही उन्हें आरक्षण का सहारा चाहिये ।
क्या यह समता,बराबरी के सिद्धान्त के वैसे ही खिलाफ नहीं है जैसे सवर्णों को मिली जन्मजात विशेसाधिकार ?
क्या खुर्जा के किसी गॉंव में मजदूर, मोची का लड़का दलितों में ऐसे सवर्गों के रहते कभी आरक्षण का फायदा उठा पायेगा ?
यदि जरूरत हो तो आरक्षण का प्रतिशत और बढ़ाया जाये लेकिन समृद्ध (क्रीमी लेयर) को इससे तुरंत बाहर करने की जरूरत है । इन्द्रा साहनी के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने क्रीमी लेयर के सिद्धान्त को एस. सी. ,एस. टी. कोटा पर भी लागू करने की थी । ओ. बी. सी. के लिये यह सिद्धांत कुछ कर्मियों के बावजूद लागू हो गया,. राजनैतिक दबाव, लोकतंत्र की दुहाई देते हुए इस जरूरी समानता के खिलाफ दलितों का एक वर्ग आज तक डटे हुए हैं । आरक्षण के नाम पर सामाजिक असंतोष की जड़ें यही हैं । चार बरस पहले राजस्थान के गुर्जरों का भी यही दर्द था । पूरा देश जानता है कि राजस्थान के मीणाओं ने आदिवासियों के लिये आरक्षित कोटा कैसे हड़प लिया है । जो कोटा बस्तर, नागालैंड, लद्दाख, भील, झारखंड के सचमुच आदिवासियों और उनकी संस्कृति, पिछड़ेपन को ध्यान में रखकर नियत किया गया था पचास के दशक में दबाव की राजनीति के तहत मीणा एस. टी. समूह में शामिल हो गये । क्योंकि वे अपेक्षाकृत समृद्ध हैं, तीन-चार पीढ़ी से प्रशासन में है अत: दौड़ में आगे भी । उसी क्षेत्र में रहने वाले गुर्जर इसी से आहत है कि वे भी दबाव बनाकर क्यों नहीं आदिवासी के फायदे के हकदार बने ।? नतीजा -हिंसा, आंदोलन, रेल रोको, सड़क तोड़ो । फिर जाट भी इसी दौड़ में शामिल हुए । और ताजा मामला गुजरात के पटेलों का है जिसे बिहार के नीतिश, लालू ने भी तुरंत समर्थन दिया है । कभी पटेलों की मांग के खिलाफ बोलने वाली कांग्रेस पीछे से पटेलों की मांग को हवा दे रही है । भारतीय जनता पार्टी का रवैय्या भी मंडल आयोग से लेकर जाट आरक्षण तक ऐसा ही रहा है ।
इस राजनैतिक, सामाजिक विकृति को एक बड़े समीक्षा आयोग से ही हल किया जा सकता है ।
- यू.पी.एस.सी. के ताजा परिणाम – भारत की उच्च नौकरशाही के लिये आयोजित सिविल सेवा परीक्षा के परिणाम भी आरक्षण समीक्षा की तुरंत मांग करते हैं । पिछले दो दशकों में गॉंव, देहात पिछड़े क्षेत्रों से आने वाले उम्मीदवार लगातार कम हो रहे हैं । वे चाहे दलित हों या स्वर्ण । वर्ष 1979 में जब कोठारी समिति ने अपनी भाषा में परीक्षा देने की इजाजत दी थी तो पहली पीढ़ी के पढ़े, लिखे, गॉंवों में रहने वाले मोची, बढ़ई, कुम्हार, जाटव् , मजदूरों के बच्चे सफल हुए थे । अब वे गायब हैं पूरी तरह । उनका कोटा वे हड़प रहे हैं जो शहरों में है, जिनके पिता अफसर हैं जो दिल्ली के चाणक्यपुरी और शाहजहॉं रोड में रहते हैं और जिनका माध्यम अंग्रेजी है । मौजूदा स्थिति के क्रीमी लेयर अपने ही दलित भाइयों का हक माँर रहा है । भाषा, आर्थिक स्थिति के सभी आंकड़े इस बात के गवाह हैं कि ओ.बी.सी. की तरह क्रीमी लेयर एस.सी.एस.टी. कोटा में भी लागू होनी चाहिये और सख्ती से ।
9. कुछ बातें क्रीमी लेयर के बारे में – मंडल कमीशन के निर्णय में क्रीमी लेयर शामिल हुआ था और बहुत अच्छी मंशाओं के साथ । लेकिन यहॉं भी राजनीति हुई । समानता के सिद्धान्त पर इसे भी एस.सी.एस.टी. पर लागू किया जाना चाहिये था । ओ.बी.सी. पर लागू भी हुआ है तो हास्यापद ढंग से । जिस देश की सरकारें और योजना आयोग वी.पी.एल के मामले में प्रतिदिन प्रति व्यक्ति छब्बीस रूपये की आय जीने के लिये पर्याप्त मानती हों वही क्रीमी लेयर को तब मानती है जब प्रतिदिन दो तीन हजार से ज्यादा आय हो । क्या प्रति व्यक्ति आय और क्रीमी लेयर निर्धारण में कोई वैज्ञानिक दृष्टि अपनायी जाती है या जैसे स्वर्ण अपने लिये कोई न कोई जुगाड़ ढूंढ लेते हैं वैसे ही लोग इन वर्गों में आरक्षण के नाम पर पैदा हो गये हैं । वाकई अमीरों से गरीब नहीं जीत सकते । वे चाहे किसी भी जाति, धर्म के हों – भारतीय परिवेश में ।
- जे.न.यू. का अनुभव – इस समीक्षा में मदद कर सकता है और यह हैभी उतना है वैज्ञानिक । इसमें जाति का महत्व तो है लेकिन उतना ही वंचित सुविधाएं (Deprivations) का है । जैसे इसके मुख्य घटक हैं –जहॉं पैदा हुए, बचपन बीता, आरभिक शिक्षा हुई ? शिक्षा का माध्यम, आर्थिक स्थिति, लड़का या लड़की, पिता का व्यवसाय, कॉलिज शिक्षा जाति आदि । इस फामूले में एक दलित जो बांडा या उड़ीसा, केरल के गॉंव में पला बड़ा है उसे दिल्ली में चाणक्यपुरी में पले बढ़े से पहले रखा जायेगा । सिर्फ जाति के प्रमाण-पत्र से काम नही चलेगा ।
- पिछड़ा आयोग के सदस्य रहे और जाने-माने समाजशास्त्री धीरूभाई सेठ की टिप्पणी भी यहॉं विचारणीय है –‘ आयोग का मेरा अनुभव मुझे बताता है कि जाति प्रथा का असर मंद करने के लिए जो ताकतें और प्रक्रियाऍं खड़ी हुई थीं, वे अब खुद जाति प्रथा की अनुकृति बनती जा रही हैं । प्रगति के कई सोपान चढ़ चुकी पिछड़ी जातियों का एक बड़ा और मजबूत निहित स्वार्थ बन चुका है । वे अपने से नीची जातियों के साथ वही सुलूक कर रहे हैं जो कभी द्विजों ने उनके साथ किया था । मैं आयोग की पहली टीम का सदस्य था । कुल मिला कर स्थिति यह बनी है कि आयोग के सदस्य, उससे जुड़ी नौकरशाही और पूरा का पूरा क्षेत्र ही इसी जबरदस्त निहित स्वार्थ की नुमाइंदगी करता नजर आता है । ये लोग सब मिल कर पूरी कोशिश में रहते हैं कि किसी भी तरह से पिछड़ी जातियों को अत्यधिक पिछड़े और कम पिछड़े में वर्गीकृत न होने दिया जाए । जब मैं आयोग में था उस समय भी प्रभुत्वशाली पिछड़ी जातियों द्वारा ऐसे किसी भी कदम के खिलाफ प्रतिरोध होता था ।
आयोग की पहली टीम का ज्यादातर वक्त तो मंडल आयोग द्वारा बनाई सूची को तर्कसंगत बनाने में खर्च हो गया, क्योंकि सूची में बड़ी खामियॉं थीं । अब स्थिति यह है कि मजबूत पिछड़ी जातियों के हितसाधक आरक्षण के फायदे निचली ओ.बी.सी. जातियों तक नहीं पहुंचने दे रहे हैं । खास तौर से दक्षिण के ओ.बी.सी. जिन्हें सबसे पहले आरक्षण मिल गया था । इन तगड़ी ओ.बी.सी. जातियों को सत्ता भी मिल गई है । वे आरक्षण के फायदे अपने हाथ से नहीं निकलने देना चाहते । जो समुदाय पिछड़े नहीं रह गये हैं, उनकी शिनाख्त नहीं की जा रही है, और न की जाएगी ।
इंद्रा साहनी वाले फैसले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए निर्देशों के विरोध में जाता है यह रवैया । लोकतांत्रिक संस्थाओं की एक समस्या होती है कि एक सीमा के बाद नौकरशाही और राजनीतिक हित मिल कर उन्हें आपस में होड़ कर रहे हितों के औजार में बदल देते हैं । यह हमारे लोकतांत्रिक निज़ाम के पिछड़ेपन का चिह्न है । (पृष्ठ, 102, 103 और 105) (पुस्तक : सत्ता और समाज- संपादन- अभय कुमार दुबे)
पिछड़ों के लिये आरक्षण की पूरी बहस पर इससे बेहतर टिप्पणी नहीं हो सकती। पुस्तक में ‘आरक्षण के पचास साल’ खंड के अंतर्गत चार उप शीर्षकों में इस मुद्दे पर विचार किया है । ये अध्याय हैं- धर्म, जाति निरपेक्ष नीति के विविध आयाम; आरक्षण विरोधियों के तर्कों की असलियत; आरक्षण नीति; एक पुन: संस्कार की आवश्यकता थी अति पिछड़ों और निजी क्षेत्र में आरक्षण का सवाल । धीरूभाई के शब्दों में- आरक्षण के जरिए प्रगति के अवसरों को हड़पने की इस होड़ ने हमारी लोकतांत्रिक चुनावी राजनीति को अलोकतांत्रिक रुझानों से ग्रस्त कर दिया है । इसक कारण झूठे-सच्चे आश्वासन दिए जाते हैं, और अंतत: समाज को तनावग्रस्त होना पड़ता है । बिरादरियों के बीच का भाई-चारा खत्म होता है । गुज्जरों को दिया गया आश्वासन तो एक उदाहरण है, मुसलमानों को धर्म आधारित आरक्षण देने के अध्यादेश तक जारी किए जा चुके हैं । हिंदू समाज की संरचना की जानकारी रखने वाला कोई भी प्रेक्षक जानता है कि प्रजापतियों (कुम्हारों) को समाज में अछूत या दलित नहीं माना जाता । लेकिन, पिछले दिनों उन्हें भी (उत्तर प्रदेश में प्रजापतियों को) अनुसूचित जाति का दर्जा देने का प्रयास किया जा चुका है । (पृष्ठ 244)’
संक्षेप में (आरक्षण नीति : एक पुन: संस्कार की आवश्यकता) धीरू भाई के निष्कर्ष हैं :- इन्दिरा साहनी मामले में सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया था कि आरक्षण का अनुचित लाभ उठा रहे समुदायों की शिनाख्त की जाए और उन्हें इस लाभ से बाहर किया जाये । आरक्षण नीति का पुन: संस्कार करने के लिए आरक्षित समुदायों के बीच पूरे देश में न केवल राज्य स्तर पर बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर अनिवार्य तौर से श्रेणियॉं बनाना उचित होगा। मसलन, अनुसूचित जनजातियों में माला और जाटव जैसे समुदाय हैं जो वाल्मीकियों और पासियों के मुकाबले बहुत आगे बढ़ चुके हैं । उपश्रेणियॉं बनाने से यह भी पता लग सकेगा कि आरक्षण का लाभ उठाने से वंचित रह गई जातियॉं कौन-कौन सी हैं और अत्यधिक कमजोर जातियों को आरक्षण का लाभ उठाने के काबिल बनाने के कौन-कौन से कार्यक्रम चलाए जा सकते हैं । अगर इन पहलुओं पर जोर नहीं दिया जाएगा तो पूरी बहस आरक्षण के प्रतिशत के आस-पास ही सिमट कर रह जाएगी । पिछड़े वर्गों में घुस आए अगड़े समुदायों और उनके बीच बन चुके जातिगत कोटिक्रम का स्वार्थ यही है । (पृष्ठ 246 और 247)
१३. एम्स, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय सरीखे अल्पसंख्यक विश्वविद्यालय, शिक्षण संस्थान, विदेशी विश्वविद्यालयों में आरक्षण का सवाल जैसे सैंकड़ों ज्वलनशील बहसें हवा में जिन्दा हैं और कभी भी 1990 के मंडल आयोग की याद ताजा करा सकती हैं । कुछ वर्ष पहले एम्स में यह दोहराया जा चुका है । गुजरात में पटेल लामबंद हो रहे हैं ।जाट और गुर्जर पहले से ही सड़कोंपर हैं । वक्त का तकाजा है धीरूभाई सेठ जैसे समाजशास्त्री, चिंतक, गैर पार्टी कार्यकर्ता की बातों पर ध्यान देकर सरकार ‘क्रीमीलेयर’ को बाहर करते हुए आरक्षण को और प्रभावी बनाये । देश हित के लिये भी समाज के हित के लिये भी ।
12 हाल ही में हुए एक महत्वपूर्ण अध्ययन कास्ट इन ए डिफरेंट माउल्ड (caste in a different mould; understanding the discrimination) लेखक : राजेश शुक्ला, सुनील जैन, प्रीति कक्कर बिजनेस स्टैंडर्ड का प्रकाशन 2010) में दिए गए तथ्य आंखे खोलने वाले हैं । संक्षेप में जहां उत्तर प्रदेश में एक दलित की औसत आय उनचालीस हजार रुपये प्रतिवर्ष है, वहीं पंजाब में तिरेसठ हजार है । बिहार में ओबीसी की औसत आय चालीस हजार है, जबकि महाराष्ट्र में चौहत्तर हजार । कर्नाटक में एक आदिवासी की औसत आय प्रतिवर्ष बासठ हजार रुपये हैं तो बिहार में सवर्ण जाति की भी सिर्फ इक्यावन हजार । इतना ही अंतर आदिवासी जनता के बीच है । एक अनपढ़ आदिवासी परिवार की औसत आय केवल साढ़े बाईस हजार प्रतिवर्ष हैं जबकि आदिवासी ग्रेजुएट की पिचासी हजार । गांव के आदिवासी की औसत आय सैंतीस हजार रुपये है तो शहरी का एक लाख से ज्यादा । यानि देश के अलग-अलग हिस्सों में सामाजिक, आर्थिक पिछड़ेपन की तस्वीर इतनी भिन्न है कि उसे सिर्फ जाति के नाम पर इकहरे मानदंड से व्याख्यायित नहीं किया जा सकता । इस पुस्तक के सभी ऑंकड़े धीरूभाई की स्थापनाओं को प्रमाणित करते हैं ।
दिल्ली के चाणक्य पुरी में रहने वाले दलित, आदिवासी किसी भी पैमाने से आरक्षण के हकदार नहीं हैं । बल्कि अपनी ही जाति के वंचितों की बाधा बन रहे हैं । आज यदि आरक्षण और अपनी भाषा के अप्रतिम योद्धा लोहिया होते तो धीरूभाई सेठ, राजेंद्र सच्चर, वीजी वर्गीज और दूसरे विद्वानों की तर्ज पर खुद अपने नारे और उसके सिद्धांत को बदल देते । वे पांच साल इंतजार के हक में भी नहीं थे ! 75 वर्ष के बाद तो आरक्षण की समीक्षा होनी ही चाहिए। ख़त्म करने का तो सवाल ही नहीं है .