हिन्दी समाज की मौत का मर्सिया
पश्चिमी उत्तर प्रदेश विशेषकर बुंदेलखंड झांसी क्षेत्र का इतना विस्तार और बारीकी से चित्रण शायद ही हिन्दी साहित्य की किसी कृति में हुआ हो। मैथिलीशरण गुप्त, सियाराम शरण गुप्त, सुभद्रा कुमारी चौहान जैसे कई नामी साहित्यकार इस भू-भाग ने दिए हैं लेकिन ज्ञान चर्तुवेदी अप्रतिम हैं। व्यंग्यकार और उपन्यासकार दोनों रूपों में। हिन्दी में कोई व्यंग्यकार, उपन्यासकार के दो रूपों में इतनी उंचाई पर शायद नहीं पंहुचा। सभवत: श्रीलाल मुक्ल भी नहीं। ज्ञान चतुर्वेदी को पढ़ते समय श्रीलाल बार-बार याद जरूर आते हैं। उत्तर प्रदेश का वहीं समाज, उसकी विद्रुपताएं, दुख:-सुख जीवन मरण इतना गडड मडड़ और पीडाजनक है कि कई बार पढ़ते पढ़ते आंखे बंद करने को मजबूर हो सकते हैं। सोचते हुए कि आखिर इससे बाहर निकलने का रास्ता क्या हो सकता है? कब तक बरदाश्त करते रहेंगे इसे? शुरुआत कहां से हो? समाज की, व्यक्ति की एक एक कोशिका इतनी सड़ चुकी है तो सुधार कैसे हो पाएगा? क्या सारी कोशिकाओं को बदला जा सकता है? ‘हम नं मरब’ में डॉ. ज्ञान चतुर्वेदी की कथा शैली सचमुच अद्वितीय कही जा सकती है।
हर दृश्य चमत्कृत करता है। बव्बा की मौत के बाद जिस आडंबर की सतत पुनरावृत्ति होती है वह हिन्दी साहित्य में तो वेमिशाल ही कहा जाएगा । मौत के मातम के लिए चौकडी़ जमाए बडे़-वूढ़े रिश्तेदार। उनकी कहीं से शुरु होकर कभी न खत्म होने वाले किस्से। कही पर तीर कहीं पर निशाना । महंत को उतावली है यह तमगा लेने की कि मरने के बाद बव्बा सबसे पहले उन्होंने ही देखे। बाकई यही होता है। हर चीज में यहां होड़ है। मौत किसी की हो दिखने का तगमा अभी तक मंझली बहू के नाम ही बंधता आया है। इस बार वह कैसे पीछे रह गई? एक एक शब्द पढ़ते वक्त अतीत की वे सब रीलें चलने लगती हैं जिन मौतों के गवाह आप रहें हैं। एक एक कर्मकांड, उन्हें निभाने के पाखंड, रिवाज परंपरा धर्म के नाम पर। लेकिन पीटे जा रहें उन लकीरों को। किसी की क्या मजाल जो उनसे पीछा छुडा़ए । धर्म, आत्मा, परमात्मा या बजुर्गों की तौहीन न मान लिया जाए इन पर प्रश्न करना। इसलिए समाज वहीं खडा है दौ चार सौ साल पहले या कहिए उससे भी पहले की सड़न में लिपटा और इक्कीसवी सदी तक सांस लेता या कहे बार बार सिर उठाता।
उर्दू के कथाकार मंटो का बडा़ मशहूर कथन है कि हमारे यहां मरते ही आदमी किसी भट्ठी में धुलकर मानों भक्क साफ हो जाता है। वहीं कथाएं वब्बा के साथ जुडती जाती हैं। दिनभर की गप्पों, बतकहियों में । लेकिन सभी की निगाहों में कोई न कोई स्वार्थ, लालच, लक्ष्य है। महंत को बव्वा इसलिए याद आ रहें हैं कि इस बहाने किसी छूटी हुई जमीन जायदाद का हल अपने हित में खोज लेंगे। बव्बा के तीनों बेटों की चेतना में तो सिर्फ हिस्सा बांट है ही। लेकिन ‘बाप’ की तेहरवीं पूरी होने की मर्यादा सीमा रेखा उनके आचरण को ऐसा विदूप बना देती है कि भारतीय समाज की महानता की सारी परतें किर्च-किर्च हो जाती है।
हिन्दी समाज का ऐसा कोलाज जिसे जानना भी जरूरी है और जिसे जानकर डर भी लगता है। हर पृष्ठ समाज और भाषा पर पकड़ का अदभुत नमूना। ‘वैसे बूढे़ के पांच बेटे और चार बेटियां और भी है। कुल नौ बच्चे । यूं तो पांच और भी हुए थे पर वे मर मरा गए; शर्म से नहीं, बस यूं ही। स्थिति कुछ यूं रही कि जीवन में, जब भी फुर्सत मिली, आते-जाते वे संतानोत्पत्ति के कार्य में ही संलग्न रहे। यही सिलसिला कदाचित चलता रहता परंतु बीच में बुढा़पा आकर खडा़ हो गया। फिर न जाने कब ये बच्चे भी बड़े हो गए। लड़कियों की शादी तो जैसे तैसे निबटा ही । वे अपनी अपनी सुसराल में सुख से हैं। उनकी मार कुटाई होती रहती है सो कोई उल्लेखनीय बात नहीं क्योंकि बेटियां सुसराल में न पिटेंगी तो कहां पिटेंगी? लड़कों का वही हुआ जो आमतौर पर ऐसे निम्न मध्यमवर्गीय परिवारों में उनका होता है। वे न इधर के रहे, न उधर के । आवारा टाइप निकल आए। आवारा और बेरोज़गार। छोटी सी खेती थी। उसी के सहारे बेरोज़गारी ढकी रही। बिरादरी में यही कहा जाता रहा कि लड़के तो खेती देखते हैं। क्या देखते हैं, यह सभी को साफ़ दीखता था परंतु इसी दिखने दिखाने में बूढ़ेने इन सबकी शादी भी निबटा ली। अब तीन लड़के तो कदम आवारा घूमते हैं। हां अपने पिता की परंपरा का निर्वाह करके वे भी कसकर बच्चे पैदा कर रहे हैं।‘(पृष्ठ:304)
एक और अंश। ‘ भाईचारे की बातें और पाप-पुण्य के किस्से सुनबे में बडे़ बढि़या लगते हैं गप्पू।…. पर जे भी याद रखियो कि जे बातें बस सुनबे-सुनाबे में ही अच्छी लगती हैं। प्रवचन के खातिर भौत सही बातें हैं जे सब। खूब बोलो।खूब तालियां पिटवाओ। पर ये बातें हमारे तुम्हारे करबे की नहीं हैं। इन्हें दूध मलाई चाटबे वाले महात्मा लोगन के लाने छोड़ दो न? हमें ऐसी बातें नहीं करनी चाहिए। इन बातों पर विश्वास भी नहीं करना चाहिए। सच्ची बात यही है कि इस जगत में सब कुछ पेसा ही है। पैसा ही पुण्य है, पैसा ही पाप और पैसा ही मोक्ष। पैसा इस जीवन की धुरी है। आदमी को जीवन चलाना है तो उसे सांस के अलावा पैसे भी चाहिए ही। कुत्ते, बिल्ली की बात छोड़ दी जाए। हम तो कहते हैं कि कुत्ता भी कुत्ते का जीवन इसीलिए जीता है क्योंकि बेचारे के पास पैसा नहीं है। आज यदि एक कुत्ते के पास लाख रूपये आ जाएं तो दस आदमी उसकी लल्लो चप्पो करते घूमेंगे।….’ (पृष्ठ:301)
भाषा की ताकत क्या होती है इसे ज्ञान चर्तुवेदी के लेखन से जाना जा सकता है। ‘भेंचो’ यहां गाली नहीं है और न ‘चूतिया’ शब्द अश्लील। एक असभ्य, बर्बर समाज में ये शब्द दुर्भाग्य से उसके जीवित होने के, संवाद करने के आधार, औजार बन गए हैं। संस्कृति के नाम पर यहां तुलसीदास की चंद चौपाइयां बची हैं और शेष जगह में भेंचो से शुरु और खत्म होती गालियां। स्कूल का मास्टर वैसे ही सहजता से इन्हें दोहरा रहा है जैसे बव्बा भी तेरहवीं में आए बूढे बडे़, रज्जन, नन्ना, गप्पू, कप्तान, मुन्ना लाल, फूफा जी, मामा जी….। , इसे हम समाज माने या जानवरों का ऐसा झुंड जो किसी भी अर्थ में जंगली जानवरों से ज्यादा जंगली और हिंसक है। बल्कि बईमानी में जानवरों से भी दस कदम ज्यादा।
कभी कभी कथा का प्रवाह जरूर ठहरा हुआ लगता है जब बात-बेबात के प्रसंग पृष्ठ उन्हीं बातो को चुबलाते हुए दर पृष्ठ चलते जाते है। भाषा, विश्व के चमत्कारों से पाठक वोर कतई नहीं होते मगर पुनरावृत्ति का अहसास तो होता ही है। वैसे इस उपन्यास को कथाविहीन ही कहा जा सकता है। एक सड़े हुए तालाब को कथाकार बार-बार अपनी कलम से के डंडे से वस चलाये रहा है और तल में बैठी सडी़ गली काई, कंकाल बाहर भीतर आते जाते रहते हैं।
\साहित्य समाज का दर्शण होता है यह बात साक्षात नजर आती है ऐसे उपन्यास को पढ़ने पर। शरतचंद के उपन्यास बंगाली समाज में स्त्री की स्थिति और दूसरी स्थितियों के दर्पण हैं तो ज्ञान चुर्तवेदी के उपन्यास- वारामासी हो या नरक यात्रा या हम न मरब हिन्दी पट्टी की गिरावट या समाज के आडंबर का आइना।
इतने मामूली कथानक या कहिए कथा विहीन उपन्यास की पठनीयता लगभग चार सौ पृष्ठों में बनाए रखना एक बडे़ उपन्यासकार द्वारा ही संभव है। कितनी स्मृतियों का जखीरा होगा कथाकार के अंदर। मात्र एक मृत्यु शब्द के आगे पीछे वसी दुनिया समाज को तार-तार देखना और दिखाना।
जीवन के किसी भी टुकडे़ में, संवाद, जन्म, मौत में व्यंग्य कैसे पैदा किया जा सकता है ज्ञान जी का जबाव नहीं और यह सिर्फ वक्त काटने के लिए नहीं है। इसमें उस समाज की पीडा़, विद्रूपता, आडंवर, कमीनगी तैरकर ऊपर आती रहती है। इस यथार्थ को किसी भी दूसरी भाषा में अनुवाद करना भी एक चुनौती होगा। अपनी तरह का उत्कृष्ट समाजशास्त्र का दस्तावेज। उत्तरभारत की वेमिसाल तस्वीर! आपको अच्छी लगे या बुरी इससे निजात का इसमें उठाए प्रश्नों के हल से ही संभव है।
पुस्तक: हम न मरब – उपन्यास
लेखक: ज्ञान चर्तुवेदी
राजकमल प्रकाशन, दरियागंज
दिल्ली.110002
पृष्ठ-328, मूल्य-495/- रू