आइए आपको पुस्तक खरीद की लेबोरेटरी में ले चलते हैं । एक आवाज आयी ‘इस साल ढाई लाख की खरीद की जानी है ।’ यह मत पूछिए कि यह कहां से आयी ? यह आवाज कहीं से भी आ सकती है :- पुस्तकालयाध्यक्ष, हिन्दी अधिकारी, विभाग के सर्वेसर्वा या समिति के धाकड़ सदस्य, या इन सबकी सहमति से । ‘ढाई लाख ही क्यों ?’ क्योंकि अंग्रेजी में ढाई लाख की खरीदी गयी हैं इसलिए । राजभाषा नियम के अनुसार पुस्तक खरीद में 50% हिन्दी की खरीदी जाएंगी 50% अंग्रेजी की । ‘यह नियम किसने बनाया ?’ हिन्दी अधिकारी बोले ‘सरकार ने ।’ लेकिन क्यों ? क्योंकि हिन्दी को बढ़ावा मिले । खरीदने से और थोक के भाव लाइब्रेरी के खरीदने से विशेषकर उन पुस्तकालयों में जहां 90% किताबें तो कभी भी इश्यू नहीं हुईं और बाकी दस प्रतिशत में से साल में केवल एकाध बार ही होती हैं, तो उससे हिन्दी को बढ़ावा कैसे मिलेगा ? अंग्रेजी वाले तो ऐसे प्रश्न कभी भी नहीं करते । केवल हिन्दी वाले करते हैं । इसलिए तो हिन्दी आगे नहीं बढ़ती । मैंने कुछ और कुरेदने के अंदाज में पूछा अच्छा ! आपने इस बरस कौन-कौन सी किताबें पढ़ीं या पिछले 5-7 बरस में जो अच्छी लगी हों उन्हें मंगवा लेते हैं । वे फिर तुनक गए- आप कौन होते हैं पूछने वाले । मैं पढ़ूं या नहीं पढूं । मेरे पास दफ्तर के सैंकड़ों काम हैं । मैं कोई खाली बैठा हँ जो इन टटपूंजिया लेखकों को पढ़ता रहूं । फिर इन टटपूंजिया लेखकों को लाइब्रेरी में क्यों अटा रहे हो ? लाइब्रेरी में तो रखने की जगह भी नहीं है । हम कुछ नहीं जानते । धारा 3/3 के तहत नियम पचास प्रतिशत खरीद का है वरना यह राष्ट्रपति के आदेश का उल्लंघन होगा ।
पुस्तकालयाध्यक्ष से पूछा कि ढाई लाख रुपए की किताबों को रखोगी कहां ? तो उनका जवाब और भी लाजवाब था । कुछ तो हम वीड-आउट कर देंगे और दूसरी बात यह है कि पिछले दिनों हिन्दी की पुस्तकें भी महंगी हो गयी हैं इसलिए ज्यादा नहीं आएंगी । नेशनल बुक ट्रस्ट, साहित्य अकादमी, चिल्ड्रन बुक ट्रस्ट की सस्ती और अच्छी किताबें क्यों नहीं लेते ? सस्ती किताबें ज्यादा आएंगी और ज्यादा जगह घेरेंगी । हम रखेंगे कहा ? हम बार-बार ज्यादा बड़ी जगह की मांग करते हैं तो कोई सुनता नहीं । उन्होंने संबंधित अधिकारी की ओर देखा । वे भी तुरंत तैयार बैठे थे जवाब को । जगह क्या मैं अपने खेत में प्लाट काट कर दे दूं । जो भी करना हो इसी जगह में कीजिए । हम कानून का पालन करेंगे । तो कानून के पालन का एक ही रास्ता है महंगी पुस्तकें खरीदो जिसमें ढाई लाख कम से कम जगह में समा जाए । अच्छा हो नोटों की ही जिल्द बनवा दो । सबसे कम जगह । प्रकाशको ! सुन रहे हो न ? हमने यही सुनकर तो पाठक-लेखक को दान-पुण्य की खाते भर खरीद में डाल रखा है । अपनी अन्नदाता सरकार की ये खरीद-नीति उर्फ राजभाषा नीति है ।
आइए ! आपको वीडिंग आउट सेक्शन की तरफ ले चलते हैं । प्रेमचंद, रवीन्द्रनाथ टैगोर, रांगेय राघव, चतुरसेन, सुदर्शन, बच्चन तक वीड-आउट में औंधे मुंह पड़े थे । मेरा मन हुआ सबको आधे दामों में ले लूं । आधे दाम क्यों मुफ्त में ले लो । क्योंकि आप सदस्य हैं अत: पहला चुनाव आपका । फिर बाकी ले जाएंगे या रद्दी में ? वैसे कोई मुफ्त भी नहीं लेता वे कहने लगे । लेकिन ये क्लासिक रचनाएं हैं ये सरकारी फाइलें नहीं जिनको जला दिया जाए । पुस्तक तो शताब्दियों तक जिंदा रहती हैं । इन्हें थोड़ी मरम्मत से ही ठीक किया जा सकता है । फिर नयी कहां रखेंगे ? कौन पढ़ता है ?
वाकई पाठक तो इस पूरे विमर्श में कहीं आया ही नहीं ? धन्य हो मेरे देश !
कुछ अकस्मात से अंग्रेजी पुस्तकों की फाइल मेरे पास आ गयी । दो लाख की खरीद पर पांच अधिकारियों ने एक दिन में ही हस्ताक्षार कर रखे थे । तत्काल की पर्ची के चलते । कई आश्चर्य एक साथ कुलबुलाए । तत्काल की पर्ची क्यों ? क्योंकि बजट को तुरंत खत्म नहीं किया गया तो अगले वर्ष पैसा नहीं मिलेगा । अत: फाइल व्यक्तिगत रूप से हर अफसर के पास ले जायी गयी । क्या किसी भी अफसर ने पुस्तकों की सूची भी देखी । पुस्तकों को साक्षात देखना या उनको खरीदने की उपयोगिता की तह में जाना तो दूर की बात है । सूची देखते तो अस्सी पाउंड से लेकर दो सौ पाउंड या डॉलरों की किताबों को वे ऐसे नहीं मंगवा लेते । चयन समिति में पुस्तक प्रेमी कैसे रखे जाते हैं यह इसका उदाहरण है । जिन्होंने व्यक्तिगत रूप से किसी सामयिक पुस्तक को मंगाने की इच्छा व्यक्त की थी वे दो-चार ही थीं, मात्र पांच-सात हजार की । इसमें भी पांच अंग्रेजी पुस्तकों की मांग उसी विभाग के एक ऐसे हिन्दी अधिकारी ने की थी जिसने कभी हिन्दी की पुस्तकें न पढ़ीं, न कोई संस्तुति की ।
मुझे माजरा समझ में आ गया कि अंग्रेजी की फाइल क्यों जल्दी निकल जाती है । ऐसा ही अनुभव मुझे एक प्रशिक्षण कालेज के दिनों में हुआ था । मार्च महीने में सिर्फ एक हफ्ता बचा था । ई-मेल आया कि जो फैकल्टी जिस किताब को चाहती है शाम तक बता दें । पहले तो यह ई-मेल छुट्टी के दिन था जिससे किसी को पता ही नहीं चले । और फिर पुस्तक- कौन-सी, कहां से – कुछ तो सोचने-समझने को समय चाहिए । प्रश्न उठाना ही टकराहट का जन्म था । आनन-फानन में 3 अफसरों की कमेटी ने ढाई लाख की खरीद की मंजूरी दे दी । वही डॉलर-पाउंड की अंग्रेजी किताबें । एक ही शहर से और एक ही सप्लायर्स से ।
हर खारे हुएं की यही दास्तान है ।
कुछ नए फार्मूले : प्रकाशन व्यवसाय के
हिन्दी में अंग्रेजी साहित्य । देश की नस-नस में यह बात समा गयी है कि अंग्रेजी के बिना काम नहीं चलने वाला । गांव के छोटे कोनों पर सैंट थामस, सैंट एंजिल, सैंट कोलम्बस के बोर्ड लग गए हैं । लेकिन (इस देश में या तो अंग्रेजी संतों का बोलबाला है या अयोध्या की तरफ मुंह उठाए, त्रिशूल थामे देशी संतों का) अंग्रेजी तो सीखते-सीखते धीरे-धीरे ही आएगी । हिन्दी प्रकाशक भी इस नब्ज को जानते हैं । वे अंग्रेजी की किताबों को थोक के भाव हिन्दी में ला रहे हैं जैक लंदन, डी.एच. लारेंस से लेकर अभी तक के सभी इंग्लिश, अमेरिकन लेखकों को । इनका साहित्यिक मूल्य क्या है, चेतना क्या है, क्यों हिन्दुस्तान में इन्हें पढ़ना चाहिए, इससे मतलब न प्रकाशक को है न अनुवादक को । प्रकाशक को धंधे की जरूरत है और अनुवादक को पैसे की । जिल्द वाली पचास गुनी कीमत पर सरकारी लाइब्रेरी के हवाले, पेपर बैक्स अंग्रेजी के भूखे हिन्दी मध्यवर्ग को जिससे वह भी शान से कह सके कि उसने भी डी.एच. लारेंस का ‘सन्स एंड लवर्स’ या इधर के बेस्ट सेलर्स कहे जाने वाले गॉडफादर सीरिज पढ़ी हैं । एक सूटेबल ब्यॉय अंग्रेजी में आते ही हिन्दी में लाने की तैयारी शुरू हो जाती है । कभी-कभी तो पहले भी । किसी ने विक्रम सेठ से पूछा कि सूटेबल ब्यॉय में ऐसा क्या है तो बोले लखनऊ के मुजरों का वर्णन, भारतीय समाज आदि ।
लखनऊ को जानने के लिए हिन्दी पाठक अमृतलाल नागर, भगवती चरण वर्मा या श्री लाल शुक्ल की बजाय इन्हीं प्रकाशकों के बूते विक्रम सेठ को पढ़ रहा है जो सिर्फ लखनऊ पिकनिक मनाने आए होंगे कभी ।
जो हिन्दी प्रकाशक हिन्दी लेखक को कभी रायल्टी नहीं देना चाहता हो, न उसकी किताबों की विधिवत लोकार्पण की व्यवस्था करता हो, वह इन्हीं अंग्रेजी लेखकों की किताब के रिलीज करने पर उन्हें हवाई जहाज से बुलाता है, उन्हें पंचसितारा होटलों में ठहरने की व्यवस्था करता है, उनके लाख नखरे उठाता है और कभी-कभी तो भीड़ जुटाने के लिए गरीब हिन्दी जनता को भोजन में भी शामिल कर लेता है, मामला सरकारी खरीद और अंग्रेजी नाम से बिक्री के अर्थशास्त्र का है । बड़े से बड़े हिन्दी लेखक, आलोचक टुकर-टुकर इसमें शामिल हो रहे हैं ।
इन्हीं फार्मूलों की वजह से पिछले दस बरस में जो भी प्रकाशक प्रकाशन के क्षेत्र में आया है, लौटकर नहीं गया । देश के सभी उद्योगों पर उदारीकरण का उल्टा असर पड़ा है । हिन्दी प्रकाशन का कुटीर उद्योग सरकारी खरीद के बूते आगे ही बढ़ा है । कुछ के प्रिंटिंग प्रेस थे, कुछ प्रूफ रीडर थे, यहां तक कि कुछ लिखते भी थे । सभी ने पाया जो रंग प्रकाशन के क्षेत्र में है वो कहीं नहीं । सरकारी खरीद की व्यवस्था तो लेखक खुद ही करता है । कइयों की तो शर्त ही यह हो जाती है कि इतनी प्रतियों का बिल तुम्हारे नाम ।
इस पुस्तक मेले में या तो इन अंग्रेजी के अनुवाद (गौर कीजिए यूरोप की अन्य भाषाओं में जर्मन, फ्रेंच, इटली के महारथी तक भी नहीं हैं) हावी थे या ज्योतिष, तंत्र, धर्म, अध्यात्म की पुस्तकें, तर्क, वैज्ञानिक चेतना या समाज विज्ञान की सिरे से हिन्दी में गायब है । उसकी कोई जगह नहीं है । न मूल में न अनुवाद में । हिन्दी के नाम पर वहीं कहानी, कविता । या पिछले दिनों कुछ संपादकों के सम्पादकियों का चुरकुट ।
पुस्तक मेला 2004 आने वाला था । मेरे बेटे पूछने लगे पापा आपकी किताब आएगी इस बार ? मैंने कहा, आप बताओ ? उन्होंने मेरे मुंह की तरफ देखा और फिर छोटा बोला- पापा आपकी किताबें कहीं भी तो नहीं मिलतीं । फिर अपने बड़े भाई से कहने लगा इतनी तो महंगी होती हैं । 200 रुपए । कोई कैसे खरीद सकता ? पचार-साठ की तो भी ठीक है ।
वे पुस्तक मेले गए । हॉल नं.13 में हिन्दी की किताबें थीं । इस हाल में सबसे ज्यादा बुक स्टाल थे लेकिन सबसे कम भीड़ । खरीदने वाला तो कोई था ही नहीं । हमने तो बस नेशनल बुक ट्रस्ट और एकलव्य के स्टाल से खरीदीं । इतनी बढ़िया किताबें होती हैं और इतनी सस्ती, इतनी वैराइटी होती है । उनकी कहानियों की किताबें भी अच्छी होती हैं । पापा आप अपनी किताबें सस्ती क्यों नहीं करते ?
यह प्रश्न मेरे सामने कई बरसों से है । स्वयं मैंने पिछले वर्षों में जो किताबें खरीदी हैं, वे सब पेपरबैक्स हैं । जनचेतना, संवाद, साहित्य-उपक्रम प्रकाशनों की । कभी ऐसे ही सारी राजकमल पेपरबैक्स की खरीदी थीं । मेरे घर में जो भी जिल्दवाली किताबें हैं उनमें से 90 प्रतिशत या तो गिफ्ट की गयी हैं या समीक्षा-आलोचना के लिए मिली हैं ।
पुस्तक प्रकाशन और लेखक
बड़े और छोटे लेखकों के संदर्भ में मुझे अक्सर एक उपमा बड़ी सटीक लगती है । जब तक हिन्दुस्तान, पाकिस्तान ने परमाणु परीक्षण नहीं किए थे तब तक भारत की सैन्य ताकत पाकिस्तान के मुकाबले जल, थल, वायु में कई गुना ज्यादा मानी जाती थी । सैन्य विशेषज्ञों का कहना है कि दोनों देशों के परमाणु बम हासिल करने के बाद भारत उतना आगे नहीं रहा । यानि कि परस्पर एकाध परमाणु बम ही एक-दूसरे को नष्ट करने को पर्याप्त है जो दोनों के पास बराबर हैं । पाठक और लेखक के संदर्भ में मेरा कहना है कि जब से हिन्दी पाठक ने पढ़ना-लिखना बंद किया है तब से मैं भी अपने को राजेन्द्र यादव, विनोद कुमार शुक्ल या पंकज बिष्ट, संजीव से ज्यादा कम नहीं मानता । एक लाइन में कारण- न पाठक तथाकथित इन बड़ों को जानता, न मुझे । न वे इनकी किताब खरीदते, न मेरी । लाइब्रेरी में जैसे बड़े लेखकों की किताबें कमीशन पर खरीदी जाती हैं, वैसे ही अफसर, हिन्दी अधिकारी या परचून वालों की, और पाठक तो विशेषकर हिन्दी बैल्ट का इतनी महंगी प्रति पृष्ठ एक रुपये से लेकर पांच रुपये तक की पुस्तक खरीदने से रहा । अब तो उसके पास मुफ्त में मिली किताब के लिए भी जगह नहीं है ।
आखिर इस दुष्चक्र को कैसे तोड़ें ? मैं यहां एक व्यक्तिगत अनुभव से अपनी बात स्पष्ट करना चाहूंगा । लगभग बीस-पच्चीस बरस से मैं लिख रहा हूँ । मैं खुशकिस्मत मानता हूं अपने को कि मेरी किताबें भी समय पर और ठीक-ठाक प्रकाशकों से आयी हैं । पहला कहानी संग्रह तीसरी चिट्टी सचिन प्रकाशन, फिर दूसरा वाणी प्रकाशन । और पिछले वर्षों में मेधा बुक्स से छोटे निबंधों की तीन किताबें, फिर अगली दो किताबें सामयिक प्रकाशन से । मुझे नहीं पता कि रायल्टी कोई खास मिली हो । न मैंने हिसाब मांगने की हिम्मत की, न उन्होंने ही बताया । कारण यह भी कि जो रायल्टी की बातें सुनने में आती हैं कि तीन वर्ष में अलग-अलग विधाओं की पांच किताबों पर रायल्टी मिली एक हजार पांच सौ पच्चीस । तो आप प्रति महीने मिली रायल्टी का हिसाब लगा सकते हैं। सरकारी नौकरी के प्रति ऐन इसी वक्त निष्ठा जगती है कि आप इस नौकरी के बूते एक ठसक, स्वाभिमान, ईमानदारी से जीवन-यापन कर सकते हैं ।
सच कहूं मुझे एक गाल से बुरा तो लगता रहा है लेकिन दूसरे गाल से प्रसन्न भी हूं कि तिकड़मों की चाल में स्वयं फंसने या पुस्तकों को फंसाने से तो बच गया । वरना जो सिद्धांत आपने प्रशासन के दूसरे कामों में नहीं तोड़े वे पुस्तक को प्रोमोट करने में शायद तोड़ने पड़ जाते । प्रकाशक की नजर साफ अपने धंधे पर है । वह लेखक की तरह आडंबर ओढ़े झूठ-मूठ के लिए भी देश सेवा के लिए नहीं आया । उसके लिए यह बाकी धंधों की तरह ही है और लेखक भी उसका पुर्जा मात्र । इसी की बदौलत कई अच्छे लेखक जो दिल्ली से दूर छोटे कस्बों में बैठकर लिख रहे हैं अपनी पहली किताब को छपा देखने के इंतजार में ही बूढ़े हो जाते हैं ।
और दूसरी तरफ है कि महानगर के कुछ लेखक 21 कहानियां लिखकर 22 संग्रह छपवा लेते हैं और वह भी सबसे बड़े प्रकाशकों से । ऊपर से यह भाषण भी देते रहते हैं कि सरकारी खरीद बंद होनी चाहिए । अकादमियों/पुस्तकालयों को खरीद फरोख्त से दूर रहना चाहिए कि लेखक को पाठक की तलाश में निकलना चाहिए । यह भी कि प्रकाशकों को दाम कम रखने चाहिए ।
लेकिन क्या कभी इन बड़े लेखकों ने अपने प्रकाशक को इन सिद्धांतों पर कसा है ? क्या उसका प्रकाशक सिर्फ इसी सरकारी खरीद के बूते प्रतिवर्ष नयी गाडि़यां नहीं बदल रहा ? क्या उसके वैसे ही आफिस, घर नहीं हैं जैसे बड़े-बड़े उद्योगपतियों के हैं ? क्या इसी खरीद के बूते वह कभी-कभी इंडिया इंटरनेशनल सेंटर या अन्य पंच सितारा होटलों में दावतें नहीं दे रहा ? क्या ये लेखक हिम्मत कर पाएंगे कि पुस्तक की कीमत कम रखी जाए । या यह मांग करेंगे कि हमें सीधे रायल्टी दो । इन पंच सितारा में एक दिन ले जाकर हमारी जनवादिता का अपमान मत करो । या कोई अन्य शर्तें भी उससे मनवा पाएंगे कि हार्ड बाउंड और पेपर बैक में किताब छापी जाए जिससे कि सरकार की तुम जानो, पाठक को तब भी सस्ती कीमत पर किताब उपलब्ध रहे । क्या ये स्वयं किसी अकादमी की खरीद में सक्रिय नहीं होते या किसी अफसर के जरिये उसी सरकारी खरीद में अपनी पुस्तक नहीं लगवाते ? क्या इसी खरीद के बूते थोड़ी-बहुत रायल्टी उसे भी नहीं मिलती ? ज्यादातर तो प्रकाशक ही खाता है लेकिन इतना लालच तो रहता ही है कि अगली किताब भी इसी बैनर से आ जाएगी । या यह डर कि प्रकाशक नाराज हो गया तो दूसरा प्रकाशक कहां ढूंढ़ता रहूंगा ।
क्या हम दूध के धुले हैं ? हाल के ही पुस्तक मेले में सभी को फिर यह एहसास हुआ कि किताब बिकती है तो सिर्फ कम कीमत की, पेपरबैक ही । जनचेतना, साहित्य उपक्रम, संवाद या बड़े प्रकाशकों के भी वही संस्करण पाठक खरीद रहे थे जो वाजिब दामों में हैं । स्वयं प्रकाशक भी इसे समझ रहे हैं और कुछ ने वायदा भी किया पेपरबैक संस्करण निकालने का । लेकिन कुछ ने वहीं साफगोई से निरुत्तर भी कर दिया । बोले, आप में से कुछ लेखकों ने भी प्रकाशन शुरू किए हैं । जो कल तक तो किताबों की कीमत ज्यादा बताते थे, बढ़ी हुई कीमतों के खिलाफ इधर-उधर लिखते थे, उन्होंने क्यों नहीं उदाहरण पेश किया । उनकी कीमतें तो हमसे भी ज्यादा हैं । वे खुद उदाहरण क्यों नहीं बनते ? ये तो ज्यादा बड़े समाज प्रवर्तक हैं ।
अफसोस और आश्चर्य की बात यह है कि जो लेखक, संपादक प्रधानमंत्री तक की टोपी आए दिन छोटी-छोटी बातों पर अपने लेखों में उछाले रहते हैं वे अपने प्रकाशक के सामने मौन, नतमस्तक से लगते हैं । कई तो उसकी छापी किताबों को लाइब्रेरी में लगाने की पैरवी करते हैं तो दूसरे उन पुस्तकों को ही समीक्षा या अपनी टिप्पणी के योग्य मानते हैं जो उनके प्रकाशक ने ही छापी हैं । ऐसे में बड़े से बड़े आलोचक की समीक्षा क्या हो सकती है इसका अंदाज लगाया जा सकता है । लेकिन यह गठजोड़ है बड़ा खतरनाक । हिन्दी पट्टी में जब ऐसे गठजोड़ हर क्षेत्र में हैं, तो लेखक-पुस्तक-पुस्तकालय ही उससे कैसे बचे रहेंगे ?
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