देश के कोने कोने में समझी, गीतों में गुनगुनाने वाली हिन्दी भाषा साहित्य की स्थिति उतनी दयनीय नहीं है जितनी दीनता से प्रचारित की जा रही है। मेरे सामने बैठी है एक मेधावी छात्रा- सिविल सेवा परीक्षा की उम्मीदवार। उसे शेर से उतना डर नहीं है, जितना टपके से। यानी यूपीएससी की परीक्षा अंग्रेजी में देने वाली को हिन्दी में फेल होने का डर सता रहा है। बाकी सब में आश्वस्त है’.हिंदी में सिर्फ क्वालीफाई करना है और इसका स्तर है सिर्फ मैट्रिक’ मेरठ की इस छात्रा को मैं समझाता हूं ‘कि खड़ी बोली इस हिन्दी का जन्म तो तुम्हारे क्षेत्र से ही हुआ है और दसवीं तक तो पढ़ी ही है आदि आदि। उसका डर सुनिए –‘ न बोलने का अभ्यास है न लिखने का .पहली क्लास से ही दिल्ली में अंग्रेजी में पढ़ाई हुइ्र है। हिन्दी में जैसे-तैसे पास होती रही। पिछले सात-आठ सालों से तो एक शब्द नहीं लिखा।हिंदी होती भी तो बहुत कठिन है मात्राएँ ,बिंदु …. ‘ ऐसा नहीं कि हिन्दी समाज के ही हिस्से इनके मां-बाप को हिन्दी में कमजोर होने का पता न हो, मगर हिन्दी न आना तो उनके रूतवे को बढ़ाता ही है। पूरा देश ही इस ग्रथि का मारा है।
सितंबर महीने में ऐसी बातें सुनकर और दिल बैठ जाता है लेकिन हिन्दी अधिकारियों के चेहरे पर चमक इन्ही दिनों आती है विशेषकर मालदार विभाग, तेल कम्पनिया ,उपक्रम ,बैंक जो हिन्दी के नाम पर फूहड प्रतियोगिताओं के लिए गिफ्ट खरीदने निकल पड़ते हैं .सरकारी गाडि़यों में होटल तलाशते लंच, डिनर । पिछले साठ सालों से वैसी ही कवायद बल्कि प्रतिवर्ष और गिरावट।
दोहराने की जरूरत नहीं कि हिन्दी की ऐसी स्थिति हमारी शहरी शिक्षा व्यवस्था ने सबसे ज्यादा की है। किसे नहीं पता कि अंग्रेजी के पब्लिक स्कूल में हिन्दी बोलने पर सरेआम दंड की व्यवस्था है। स्कूल ने अपने शिक्षकों को आदेश दे रखे हैं हिन्दी न बोलने के । हिन्दी का शिक्षक भी नहीं बोलेगा हिन्दी में, हर क्लास के मोनीटर को भी यह काम सोंपा गया है और एक विशेष खुपिया टीम को। स्कूल से बाहर करने तक की धमकी। रही सही कसर हिन्दी का शिक्षक पूरी कर देता है जो जापानी, फ्रेंच, अंग्रेजी की तरह न नंबर देने में उदार है ,न उसे बीस तीस साल पहले पढ़ी कोर्स की किताबों के अलावा हिन्दी की नवीनतम पुस्तकों की कोई जानकारी जिससे अपने विद्यार्थीयों को प्रोत्साहित कर सके।उनकी बला से पढो तो भला न पढो तो . जब भी स्कूली बच्चों से बात हुई है और उनसे उनके प्रिय अध्यापक जानना चाहा ,हिन्दी शिक्षक सबसे पीछे रहता है। आखिर हिन्दी वही पढ़ और पढ़ा रहा है न जिसे किसी कालिज के किसी और विषय में दाखिला नहीं मिला और फिर न कोई और नौकरी।ऊपर से रात दिन की धरम वादी ,जातिवादी राजनीति सब कुछ सिखाती है पढ़ना लिखना छोडकर . खामियाजा भुगत रहा है पूरा हिन्दी समाज उसकी भाषा ,साहित्य।
कारणों का अंत यहीं नहीं है। दिल्ली की एक मशहूर दुकान में मुझे प्रेमचंद के उपन्यास गोदान की तलाश थी। लगभग दस हजार किताबों के बीच एक कोने में हिन्दी की कुछ किताबें थीं। ढूंढते ढूंढते यह पता लगा कि 12वी तक अंग्रेजी की दर्जनों पुस्तकें, उपन्यास, कहानी, डायरी, यात्रा, अध्यात्म सहित पूरक पुस्तक के रूप में हर क्लास में लगा रखी है। अच्छी बात . जाहिर है अंग्रेजी दुरस्त करने के प्रयास में ज्यादा. वस्ते का बोझ बढ़े तो हमारी वला से। जब न सरकार टोके, न अभिभावक और इस रस्ते मुनाफा भी स्कूल को हो तो हिन्दी सप्ताह में रोने वालों की कौन सुने । हिन्दी पखवाड़ा तो ये स्कूल भी अंग्रेजी में उसी जश्न से मनाते हैं जैसे पूरी भारत सरकार।
क्या स्कूल में नन्हें-मुनने बच्चों को अपनी भाषा मं बोलने-खेलने से इतनी क्रूरता से मना करना मानवाधिकारों का उल्लंघन नहीं है? कहां है वे हिन्दी के दिग्गज पत्रकार लेखक, राष्ट्रवादी, धर्मवादी, दलित मंच जो संविधान ,मानवाधिकार, मानवीय गरिमा अस्मिता के नारे लगाते हुए यू्.एन.ओ. तक पहुंच जाते है लेकिन अपनी भाषा के मुद्दे पर उतने ही कायर। हिन्दी के ऐसे अखवारों की संख्या भी लगातार बढ़ रही है जो अंग्रेजी सिखाने के काम से प्रचार ओर प्रसार पा रहे हैं। हिन्दी के गाल पर सबसे बड़ा तमाचा तो दिल्ली, नौएडा, ग्रेटर नौएड़ा में गगनचम्बी रिहायसी सोसाइटियों के नामो ने लगाया है- जे पी ग्रीन, व्हाइट हाउस, अल्फा, वीटा, गामा। । हालांकि इसकी शुरूआत मयूर विहार दिल्ली की उस समाचार सोसायटी से हुई है जिसके चारों नाम अंग्रेजी में लिखे हुए हैं। अफसोस यहां कई ऐसे हिन्दी के लेखक ,पत्रकार रहते हैं जो हिन्दी के नाम पर करोड़ों का वारा-न्यारा कर चुके हैं और सितम्बर माह में फिर किसी होटल में होंगे । समाचार तो शब्द भी मूलत; हिन्दी का है। समाचार की ही प्रेरणा से कला विहार के हिन्दी के साहित्यकार ,कलाकार भी नोटिस बोर्ड पर अपनी बात अंग्रेजी में ही कहते हैं- बचत हुए कि कहीं हिन्दी वाले न मान लिए जाएं। हिन्दी वाला मतलब जैसे हिन्दू धर्म व गाय की तरह ज्वलनशील!
हिंदी समेत सभी भारतीय भाषाओं में पढने वालो के लिए यूपीएससी द्वारा आयोजित सिविल सेवा परीक्छा में पहली बार खिड़की खुली थी वर्ष १९७९ में –डॉक्टर दौलत सिंह कोठारी की सिफारशों से .तब सरकार थी जनता पार्टी की और प्रधानमंत्री थे मोरारजी देसाई.इसे खिरकी इस रूप में कहेंगे कि केंद्र की कई राष्ट्रिय परिक्ष्हओं –वन सेवा , चिकित्षा ,इंजीनियरिंग आदि में नहीं ,केवल सिविल सेवा में .लेकिन अंगरेजी में पास करना इसमें भी अनिवार्य था .चालीस साल बाद भी अन्य परीक्षाओं में अपनी भाषाओं में यह नहीं है .और तो और तत्कालीन यू पी ऐ सरकार ने २०११ में अंग्रेजी सिविल सेवा के पहले चरण सीसेट में लाद दी थी .पुरे देश में इसके खिलाफ आन्दोलन हुआ तब नयी सरकार ने २०१४ में कांग्रेसी सरकार के इस आदेश को पलटा.लेकिन अन्य परीक्षाओ में आज भी हिंदी और भारतीय भाषाएँ नहीं है .पूरी तरह अंग्रेजी का दबदबा .सिविल सेवा परीक्षा में पिचानवे प्रतिशत अंग्रेजी माध्यम वाले ही चुने जाते हैं .देश की एक एक पद पर जातिवार गणना करने वाले भी अंग्रेजी के आतंक में चुप्पी साधे रहते हैं.
प्रश्न यह भी है की क्या देश की भाषाओं को न जानने वालो को इस देश का शाशन सौंपा जाना चाहिए ?कोठारी आयोग ने स्पष्ट सब्दो में कहा था कि जिन्हें भारतीय भाषाए नहीं आती उन्हें इन सेवाओं में आने का कोई अधिकार नहीं है .इन्हें न केवल भाषाए ,बल्कि भारतीय साहित्य का भी ज्ञान होना चाहिए –देश के समाज को समझने के लिए .लेकिन बावजूद ऐसी सिफारशो के अंग्रेजी ने भारतीय शिक्षा व्यवस्था, नौकरशाही . न्याय सभी को बर्बाद कर दिया .मौजूदा सरकार भी धीरे धीरे कांग्रेसी रह पर चल रही है .स्टाफ सिलेक्शन कमीशन जो सारे मंत्रालयों के लिए हर साल बीस हज़ार कर्मचारियों की भरती करता है उसमे तो अंग्रेजी और भी कठिन स्तर की है .नतीजा सारा देश अंग्रेजी की कोचिंग के हवाले .क्या संस्कृति ,साहित्य को सिर्फ राष्ट्र भक्ति के नारे बचायेंगे ?
ऐसे दुर्भाग्यपूर्ण, दयनीय समय में बच्चों को हिन्दी से डर लगने लगे तो क्या आश्चर्य। अपनी भाषा सीखने के लिए जब न शिक्षा, स्कूल मौका दे ,न समाज ,न नौकरी की परीक्षाएं तो सितम्बर का पखवाड़ा भी क्या जुम्विश भरेगा। वैसे भी स्मृति पर्व तो मुर्दा चीजों का ही मनाया जाता है। जय हो!