मुझे हिन्दी में कुछ काम कराना था। वैसे ऐसा कम ही होता है। इसलिए नहीं कि मुझे अंग्रेजी ज्यादा आती है बल्कि इसलिए कि सरकारी फाइलों पर सड़ी-गली जैसी भी अंग्रेजी लिखो, लोग अर्थ उसी में से निकालते हैं,हिन्दी में लिखे से नहीं। यहॉं भ्रष्ट अनुवाद के बारेमें नहीं, कुछ और बातें कहना चाहता हूँ। एक हिन्दी आशुलिपिक मेरे साथ तैनात हुए। उस समय दिन के ग्यारह बज रहे थे। ‘बताइए क्या काम है?’ जैसे कोई ठेकेदार पूछता है। उससे काम लेना था । अत: मैंने नम्रता से बात आगे बढ़ाई। परिचय लिया-दिया। जैसे ही मैंने डिक्टेशन की बात की तो वे बोले कि ‘डिक्टेशन तो मैं नहीं ले सकता क्योंकि 10-12 साल से किसी ने दी ही नहीं है।’ वे चले गए।
दो-तीन दिन बाद एक दूसरे सज्जन आए। तब मैंने हाथ से लिख लिया था। उन्हें बताया तो वे बोले,‘साहब! कम्प्यूटर तो मुझे आता ही नहीं है। और टाइपराइटर अब है नहीं।’
मैं भौचक्का था-‘तो आप क्या करते हो ? आप तो हिन्दी के आशुलिपिक हैं?’
‘हूँ नहीं, था। मुझे डिक्टेशन तो हिन्दी स्टैनो के पद पर भर्ती के बाद आज तक नहीं दी गई और टाइप करने को ज्यादातर काम मिलता है अंग्रेजी का। अंग्रेजी का कुछ हो तो अभी कर देता हूँ।’
किसी विभाग ने राजभाषा-कर्मचारियों को डाक का काम दे दिया है तो दूसरे ने वाहनों के रखरखाव का, तो कहीं-कहीं पब्लिक रिलेशन का। यहॉं दोष एक कानहीं, पूरे तंत्र का है। इन्हें भी इन कामों को करने में ज्यादा फख्र होता है, ज्यादा मजा आता है। कुछ ताकत तो है ही इन कामों में; हिन्दी के गिड़गिड़ाने, रिरियाने से। लेकिन जब इनसे वह काम ही नहीं लिया जा रहा जिसकी खातिर इनकी भर्ती हुई है तो अच्छा हो कि वह दरवाजा बंद कर दिया जाए। हिन्दी के नाम पर करोड़ों का बजट खर्च करने का आरोप तो नहीं लगेगा।
सितंबर की आहट आते ही एक और फरमाइश से गुजरना होता है। ‘कोई टॉपिक बताइए-निबंध के लिए, भाषण-प्रतियोगिता के लिए, और कभी-कभी हिन्दी सैल में काम करने वाले यह भी अनुरोध करने में नहीं हिचकिचाते कि उनके बॉस का भाषण लिख दो। है न कमाल की बात? ‘मुझे क्या पता कि आपके बॉस क्या संदेश देना चाहते हैं? इसे तो आप ही ज्यादा बेहतर जानते हैं कि उनकी सोच क्या है और इसीलिए आप ही उसे अपनी भाषा में लिखकर दें तो अच्छा है।’ वे उदास हो गए। जो हिन्दी -अधिकारी साल में 1-2 मौलिक विषय भी न सोच पाएं, वह उस भाषा को कैसे आगे बढ़ाएंगे और कौन उनकी सुनेगा?
एक राष्ट्रीय प्रशिक्षण-संस्थान में एक हिन्दी -अधिकारी के कुछ मैलिक कारनामे जरूर नजर में आए । उन्होंने सितंबर के ऐसे ही पवित्र दिनों में वही सनातन काव्य-गोष्ठी कराने की मुनादी कर दी। अफसोस, जब कुछ कवि भी नहीं मिले तो उन्होंने आनन-फानन में लाइब्रेरी की कुछ पुस्तकों के कुछ पृष्ठों की फोटो-कापी कराई और ऐसे अवसरों पर चाय-पान की जुगत में इंतजार करने वाले अपने अधीनस्थों को थमा दी-‘चलो पढ़ो कविता।’ बेचारों ने पढ़ डाली। मौलिकता भी भली लगती बशर्ते कि वे यहॉं थोड़ी समझदारी से लेखकों के नाम भी उद्धत करते। लेकिन उससे उनके मौलिक कवि बनने का अवसर हाथ से चला जाता। कभी-कभी ऐसे अवसर पर आयोजित गोष्ठी में जाकर और रोना आता है। 10 लोग मंच पर होते हैं और 10 ही सामने। सामने बैठे मंच पर अफसरों के पी.ए. आदि होते हैं। ज्यादा जोर नाश्ते, कोल्ड ड्रिंक, गिफ्ट पर होता है। लगता है जैसे मिनी नर्सरी के कम्पीटीशन में आए हों। उन्हें क्या बताया जाए! अफसोस और ज्यादा तब आता है जब वे कभी-कभी यह सलाह भी मांगने लगते हैं कि गिफ्ट क्या दिया जाए?
आओ,हिन्दी के नाम पर दिए जाने वाले पुरस्कारों को भी देख लें-प्रैशर कुकर, थालियॉं, टाई, टिफिन, वीडियो गेम्स से लेकर साडि़यां तक। जिस हिन्दी की बदौलत इन रेवडि़यों को बांटने का सुयोग मिला, काश! उस भाषा की कोई किताब भी इन्हें याद आ जाती पुरस्कार में देने के लिए। पुस्तक वर्ष 2001 के बहाने ही सही। लगता है हिन्दी -अधिकारियों की इस पूरी फौज ने उस सीढ़ी को ही उठाकर फेंक दिया है जिस पर चढ़कर ये सत्ता की उस छत पर पहुंचे थे और अब अंग्रेजी की टाई लगाए खुद को ही पहचानने से इन्कार करते हैं। मगर हिन्दी के नाम पर बाकी दुनिया तो आपको खूब पहचानती है। एक-से-एक मौलिक प्रयोग चल रहे हैं राजभाषा के नाम पर! एक और अमीर संस्थान न केवल प्रतिभागियों को पुरस्कृत करता है पखवाड़े के लिए, वालंटियर की फौज को भी। ये वालंटियर ही तो सभागृह में श्रोताओं की कमी पूरी करते हैं। गिफ्ट खरीदते हैं। आने-जाने वालों का इंतजाम। निरीक्षण-समितियों की सुश्रूषा। बदले में सेवा का मेवा। लेकिन होते संस्थान के कर्मचारी ही हैं ये।
कई बार तो हिन्दी -दिवस आने से पहले अनौपचारिक बातचीत में यह फैसला होता है कि क्या गिफ्ट लिया जाए। यानि कि जो नहीं है उनके पास। यदि पिछले साल टिफिन लिया गया है तो इस बार टोस्टर।…..मुझे याद है, रेलवे के एक शीर्ष प्रशिक्षण-संस्थान में एक अंतर्राष्ट्रीय गोष्ठी की तैयारी में चिंता बार-बार ये उभरती थी कि उन मेहमान वक्ताओं को तोहफा क्या दिया जाए? हमारा प्रस्तुत करने के लिए पेपर क्या होगा- यह चिंता दूर-दूर तक नहीं थी। चिक्की, साड़ी से लेकर कलकत्ता के जूट बैग के मॉडल दिखाए जाते थे। हमारी सारी मीटिंगों में खाने-पीने, ठहरने की चिंता ही ज्यादा हावी होती है। कम्प्यूटर के नाम पर हिन्दी और भी पुस्तक-विरोधी हो रही है। मानो कम्प्यूटर के पीछे बैठे दिमाग को किसी विचार की जरूरत ही न हो। कमीशन भी जितना कम्प्यूटर में है, किताब में कहां हो सकता है?
भारत सरकार में पुस्तकों की खरीद का काम भी इन्हीं अधिकारियों को दे रखा है। अधिकांश ने अपने कॉलेज की पढ़ाई के बाद आज तक कुछ नहीं पढ़ा है। किन पुस्तकों की संस्तुति करेंगे-यह लायब्रेरी में उपलब्ध पुस्तकों से समझा जा सकता है। बजट है जिसे ठिकाने लगाना है, बस। सरकारी खरीद की बदौलत कई बार पुस्तक का संस्करण तो समाप्त हो गया, लेकिन पढ़ने को किसी को नहीं मिलती। गैर-हिन्दी प्रांतों की लायब्रेरी में हर 2-3 साल में बाहर से किताबों की छँटनी करके रद्दी फेंक दिया जाता है। कर लो समाज-परिवर्तन लेखकों! थोड़ी-बहुत रायल्टी भले मिल गई हो, पाठक के पास तो नहीं ही पहुँची पुस्तक और न पहुँचेगी।
हिन्दी के नाम पर गैर-हिन्दी जनों के सामने हिन्दी लेखकों का प्रतिनिधित्व भी यही चेहरे कर रहे हैं। कठिन भाषा, कठोर मुद्रा, कौतुकी व्यवहार। लाखों रुपए के सैकड़ों पुरस्कारों को बांटे जाने की मजबूरी या अनिवार्यता के चलते सरकार में ऐसे लोगों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है जो अपना परिचय इन्हीं पुरस्कारों से देते हैं। ‘जामुन की गुठली’ के गुण से लेकर ‘तहजीब की मंशा’ तक सौ-दौ-सौ पृष्ठों में सुंदर टाइप की हुई इन पुरस्कृत रचनाओं को ईश्वर ही जाने कौन पढ़ता होगा? पिछले दिनों एक कथाकार और संपादक ने सही ही कहा है कि इस सरकार को इस बात की भी जॉंच करनी चाहिए कि राजभाषा की मद में आबंटित पैसे का कितना सदुपयोग हो रहा है। जब सारे तंत्र की समीक्षा चल ही रही है तो हिन्दी के नाम पर चल रहे इस तंत्र को देखने को भी उतनी ही जरूरत है।