पूरे साल सिसकियां और सितम्बर में जार-जार जोर से रोने-कराहने वाले मैंने हिन्दी के लेखक मित्र से पूछा-क्या तुम्हारे बच्चे हिन्दी पढ़ते हैं ?
मानो सौ किलोमीटर की रफ्तार से चलती उनकी कार में कोई ब्रेक लग गया हो-‘उनकी मर्जी । मैं कौन होता हूं रोकनेवाला ? ये कोई मेरा काम है ? स्कूलों में ध्यान दिया जाना चाहिए । सरकार को देखना चाहिए कि कैसे हिन्दी में काम आगे बढ़े ? हिन्दी अखबार कुछ नहीं कर रहे । सम्पादक कुछ नहीं कर रहे ।‘ उन्हें नहीं रोकता तो वे विराम नहीं लेते । हिन्दी की दुर्दशा के नाम पर उनके दिमाग में भाषण का एक-दो घंटे का टेप है जो जरा-से इशारे पर ही चल पड़ता है । वे इस बात का जवाब नहीं देंगे कि उनके दोनों बच्चे केवल अंग्रेजी की तरफ क्यों गए ? हिन्दी न सही, कोई और विषय होता, लेकिन अंग्रेजी तो नहीं पढ़ते । अंग्रेजी भी इतनी पढ़ ली कि घर में भी उन्हें उस पिता के सामने हिन्दी बोलने में हिचक आती है जो केवल और केवल हिन्दी से जीविका चलाते हैं । मैंने एक दिन हिन्दी की एक पत्रिका की ओर इशारा करके उनके बच्चे से पूछा-‘पढ़ा, इसमें क्या है ?’उसने मूंह बिचका दिया-‘पता नहीं इसमें क्या होता है ? मैं कभी नहीं पढ़ता, टाइम ही नहीं मिलता ।‘ यह बच्चा ग्रेजुएशन में था । फिर किसके बच्चों को समय मिलेगा ? हिन्दी आए, लेकिन उनके घर में नहीं । हिन्दी-भाषी पता नहीं किस कुंठा, असुरक्षा में अपने बच्चों को जब तक मजबूरी न हो हिन्दी से दूर रखने की कोशिश करता है । पूरी पट्टी की यही दशा है ।
जो हाल इन बुद्धिजीवियों, लेखकों का है, राजनेताओं का उनसे कम नहीं । जे.पी.आन्दोलन से निकलकर राजनीति के लिए निकले प्रसिद्ध राजनेता हाल ही में एक टी.वी. चैनल में हाजिर थे-पूर्व मुख्यमंत्री, पत्नी और अपने आठ-नौ बच्चों के साथ । प्रसिद्ध अभिनेता फारुख शेख ने बच्चों से परिचय देने को कहा । बड़ी बेटी से लेकर सबसे छोटे बच्चे तक ने अपना परिचय खालिस अंग्रेजी में दिया और अंग्रेजी नफासत के साथ । फारुख शेख को टिप्पणी करनी पड़ी-‘आपके पिता, मां तो हिन्दी ही बोलते हैं, लेकिन आप में से तो किसी ने एक शब्द हिन्दी का नहीं बोला !’ बच्चों के चेहरे पर कोई झेंप नहीं । उल्टे गर्व कि उन्हें हिन्दी बोलनी नहीं आती । पिताजी उसी भाषा का खाते हैं, बल्कि उसकी भदेसता का उससे भी ज्यादा । मिट्टी की बातें करते हैं । जनता की दुहाई, गरीब का साथ, जाने क्या-क्या, बीच-बीच में और एक कदम आगे जाकर उर्दू, मगही की बातें भी करते हैं । लेकिन उनके परिवार की जिन्दगी में है तो सिर्फ अंग्रेजी, अंग्रेजी स्कूल, अंग्रेजी ड्रैस । उसका क्रिकेट, कहीं से भी भारतीय नहीं । हिन्दी से उन्हें भारत की गद्दी चाहिए बस । हिन्दी-पट्टी के ज्यादातर नेताओं की स्थिति यही है।
गांधी यहीं सबसे ज्यादा प्रासंगिक होते हैं-‘मेरा जीवन ही मेरा संदेश है । आप जो दूसरों से चाहते हो, वैसा परिवर्तन स्वयं में लाओ । दूसरे उसी को देखेंगे और तभी आपकी बात सुनेंगे ।‘ आज हिन्दी की सबसे ज्यादा दुर्गति हिन्दी प्रदेशों में है । सबसे ज्यादा अंग्रेजीदां पब्लिक स्कूल यदि कहीं है तो हिन्दी प्रदेशों में । हिन्दी की किताब कहीं से गायब है तो हिन्दी के शहरों, गांवों, कस्बों से । यह परिदृश्य बदल सकता है बशर्ते कि हिन्दी का उच्च वर्ग अपने जीवन में भी कुछ मानदंड अपनाए । कथनी और करनी का यह अन्तर दूसरी समस्याओं के संदर्भ में भी गौरतलब है । सारे देश में ये बाजार के विरोध में बोल-बोलकर दाम वसूलते रहे, लेकिन बाजार की हर चीज, अपसंस्कृति का हर पहलू, सबसे पहले इन्हीं के घरों में घुसा । देशभर में ये क्रिकेट पर ही चलता रहा ।
हिन्दी-प्रदेश से आए और हिन्दी माध्यम से ही संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षाओं में उर्त्तीण नौकरशाहों का व्यवहार भी इतना विदूषक का-सा लगता है कि नफरत होती है । भाषा रातों-रात तो आती नहीं, लेकिन वे पद के नशे में पहले दिन से ही अंग्रेजी बोलने की ऐसी भोंडी, अवांछित कोशिश में लग जाते हैं कि अंग्रेजीदां भी शरमा जाएं । एक दक्षिण भारतीय ने बताया कि सबसे कम दक्षिण में हिन्दी में काम हिन्दी-भाषी ही करते हैं । यहां तक कि राजभाषा के नियमों की अवहेलना भी । मानो वे तंत्र में आए ही अंग्रेजी सुधारने के लिए हैं । बड़ी नौकरी, बड़ा रौब और आंदोलन, भूख-हड़ताल, माध्यम की सुविधा का हक तो केवल इस सरकारी दुर्ग में प्रवेश के लिए ही था । हिन्दी पढ़ा के क्या अपने बच्चों को गांव भेजना है ? इनके दिमाग में है अमेरिका, इंग्लैंड, यहां तक कि अंग्रेजी के साथ एक और भाषा के विकल्प के रूप में इन सभी के बच्चे फ्रेंच, जर्मनी, स्पेनिश पढ़ रहे हैं; गलती से भी हिन्दी नहीं । दर्शन साफ है । ये बच्चे अंग्रेजी के जहाज से जब यूरोप पहुंचेंगे तो आस-पास घूमने, नौकरी के लिए पहले से ही वे भाषाएं आ जाएं तो सोने पे सुहागा !
देश की राजधानी और हिन्दी-क्षेत्र के जिस मुहल्ले-सोसाइटी में मैं रहता था, उसमें मैंने नोटिस बोर्ड पर कभी कोई परिपत्र, सूचना हिन्दी में नहीं देखी । छोटी-से छोटी बात तक अंग्रेजी में । ’आज पानी की टंकियों की सफाई होनी है । ‘’दीपावली पर सभी लोग आमंत्रित हैं’ या ‘कामवाली सोसाइटी में आते वक्त गेट के रजिस्टर में अपना नाम लिखे’ जैसी बातें भी केवल अंग्रेजी में । सब बातें घर में उन लोगों, महिलाओं, नौकरों तक पहुंचानी होती हैं जो हिन्दी, उसकी बोलियां या दूसरी भाषाएं जानते हैं, अंग्रेजी नहीं । फिर कभी-कभी तो हिन्दी में नोटिस बोर्ड पर कुछ लिखा ही जा सकता है । उस कॉलोनी की कार्यकारिणी में कई दिग्गज हिन्दी के लेखक थे और हर साल हिन्दी-दिवस पर ट्रॉफी, गिफ्ट लाते थे । मैंने महसूस किया कि हिन्दी की याद दिलाने के बावजूद इसी वक्त वे राष्ट्रीय, सेकुलर, अहिन्दी-भाषियों की चिंता करने वाले बन जाते और उसकी दवा उन्हें केवल अंग्रेजी लगती हैं । फिर ये भाषण किसकों ?
क्या हिन्दी-पट्टी के ये लेखक, बुद्धिजीवी, राजनेता, सरकार, नौकरशाह अपनी रोजाना की जिन्दगी में भी हिन्दी को जगह देंगे ? हिन्दी का भविष्य इसी आचरण पर निर्भर करेगा ।