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हिन्दी के पुरस्कार

Jul 23, 2010 ~ 1 Comment ~ Written by Prempal Sharma

हर वर्ष फरवरी-मार्च में हिन्दी जगत एक अजीब कोहराम से भर जाता है । साहित्य अकादमी का पुरस्कार समारोह और राष्ट्रीय संगोष्ठी, पिछले कई वर्ष से फरवरी-मार्च में ही आयोजित होती हैं । देश भर के लेखक एकत्रित होते हैं। बहुत अच्छा लगता है सर्दियों की चुप्पी और हाइवर्नेशन जैसी स्थिति से निकलकर साहित्य अकादमी के आस-पास खिले फूलों या इंडिया इंटरनेशनल सैंटर, लोदी रोड के खुशनुमा माहौल में दूर-दूर के लेखकों के बीच गपियाना । किसको छोड़कर, किसकी ओर लपकँ ?

लेकिन अन्दर ही अन्दर हिन्दी जगत में पिछले कई बरस से एक और राग छिड़ने लगता है । किसी फिल्म में नायक के सामने खलनायक के चरित्रों को गढ़ता । इनको क्यों दिया ? उनको क्यों नहीं ? उनको दिया जाता तो प्रश्न होता कि इन्हें क्यों नहीं? या मुझे क्यों नहीं? कहने की हिम्मत अभी नहीं आयी है। यह भी सहज स्वाभाविक हैं। सभी भाषाओं में ऐसा होता होगा। प्रश्न उठना-उठाना अच्छे जनतंत्र के लक्षण हैं। लेकिन यहाँ आपत्ति दूसरे मुद्दे से हैं। और वह है जब हिन्दी सात राज्यों की भाषा है तो उसके लिये एक से ज्यादा पुरस्कार क्यों नहीं? इस बहस को शुरू करते ही तराजू हाथ में लिये यह कहा जाता है कि देखो, कहाँ लाख-दो लाख की कोकणी, या दस बीस लाख की सिंधी या मैथिली और कहाँ पचास करोड़ से भी ज्यादा हिन्दी भाषी। हजारों लेखक और सैकड़ों पत्र-पत्रिकायें ! इतनी विधायें । और यह भी कि जहाँ कुछ भाषाओं में अच्छे लेखक बहुत खोज-खोज कर पैदा किये जाते हैं हिन्दी के दिग्गज लेखकों को अकसर साठ-सत्तर वर्ष तक इंतजार करना पड़ता है । कुछ मायनों में इस दर्द को समझा जा सकता है । अकादमी को कोई और रास्ता निकालने की जरूरत लगती है ।

लेकिन इसका दूसरा पहलू भी मेरे दिमाग में हाल ही में उभरना शुरू हुआ है । यदि पचास करोड़ की हिन्दी प्रति करोड़ या प्रति दस करोड़ की दर से पुरस्कार की मांग करेगी तो तमिल, तेलुगु, मराठी वाले भी इसी अनुपात में क्या नहीं माँगेंगे ? फिर इस पचास करोड़ में मैथिली, राजस्थानी, संस्कृत शामिल मानी जायेंगी या नहीं ? और क्या संसद सदस्यों की संख्या के नियम के अनुसार वैसा ही बिल पार्लियामेंट में लाया जायेगा कि अमुक तारीख को जितनी जनसंख्या है उसी के हिसाब से पुरस्कारों की संख्या निश्चित की जाये । प्रकारांतर से जनसंख्या वृद्धि पुरस्कारों की संख्या को परस्पर प्रभावित करेंगी । इसका मतलब हर भाषा के कई पुरस्कारों की संभावना बनेगी जो एक अवांछित विवाद को जन्म देगा ।

हमारे मनीषियों ने जब साहित्य अकादमी की स्थापना की थी जिनमें पंडित जवाहर लाल नेहरू, मौलना आजाद, डा. राधाकृष्णन और राजेन्द्र प्रसाद जैसे दिग्गज नेता थे, ने इस पक्ष पर अवश्य सोचा होगा । यह सर्वविदित है कि हिन्दी को देश की राजभाषा बनाने पर कुछ क्षेत्रों में हिन्दी के साम्राज्यवाद  के खिलाफ आवाज उठी थी । सन 1965 में तो इसने उत्तर, दक्षिण के बीच विवाद का एक भयानक मोड़ ले लिया था । तभी यह निर्णय हुआ था कि हिन्दी तो राजभाषा बनी रहेगी लेकिन उसे थोपने जैसी कोई बात नहीं होगी । और सरकार सभी राष्‍ट्र भाषाओं को पढ़ने का पर्याप्त और समान अवसर देगी । संविधान में हर क्षेत्र में इसी समानता के प्रावधान भी हैं ।

अब यदि पुरस्कारों की खातिर ऐसा कोई कदम उठाया जाता है जिससे हिन्दी भाषा या क्षेत्र का हिस्सा बढ़े तो इसका गैर हिन्दी प्रांतों में गलत संदेश जायेगा विशेषकर आज की स्थितियों में जब केन्द्र-राज्य संबंध एक-दूसरे की निर्भरता पर ज्यादा टिके हैं । फिलहाल की फिजा में इसके कुछ और खतरनाक पहलू भी होंगे । देश की अधिसंख्य जनता यहाँ हिन्दू हैं और इसीलिये कुछ दल विशेष इस भ्रम या गर्व के तर्क में जिंदा रहते हैं कि एक दिन यह देश हिन्दू देश घोषित कर दिया जायेगा । हमारे संविधान की आत्मा इसकी इजाजत नहीं देगी । यहाँ सभी धर्म, संप्रदायों का समान अधिकार है । जनसंख्या, अनुपात में आरक्षण के सिद्धांतों को अपने चरम पर ले जाना वोट की राजनीति का हिस्सा है । ऐसा न हो कि कला, संस्कृति के ऐसे प्रश्न भी ऐसी किसी मांग से उतने ही प्रदूषित हो जायें । कल यह भी मांग उठ सकती है कि उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश या मध्य प्रदेश और छतीसगढ़ के लिये अलग-अलग पुरस्कार क्यों नहीं ? इसका अंत तब बहुत दुर्भाग्यपूर्ण होगा ।

इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण प्रश्न है कि क्या लेखक सिर्फ पुरस्कार के लिये लिखता है ? क्या एक के बजाय यदि दस पुरस्कार भी कर दिये जायें तो क्या ये पुरस्कार उसकी गुमनामी के अंधेरे की भरपाई कर देंगे जिसमें हिन्दी लेखक आज है । बड़े से बड़े हिन्दी लेखक को वह चाहे ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेता ही क्यों न हो, आज आम हिन्दी जनता नहीं जानती । उसकी लिखी पुस्तकों के संस्करण अब हजार-पाँच सौ से घटकर कंप्यूटर सुविधा ने 200-300 तक कर दिये हैं और यह सब भी केवल पुस्तकालयों में ही ठँसी जाती हैं । घूस के और कमीशन के रास्ते ।

क्या पुरस्कार बढ़ाने की मॉग हमें और हास्यास्पद नहीं बना देगी कि लेखक पुरस्कार विजेता हो और पाठक उसके पाँच भी न हों । वैसे पुरस्कारों की संख्या इतनी कम भी नहीं हैं । सभी राज्यों की अकादमियाँ हैं जो मनमर्जी हर वर्ष शिखर से पायदान तक के दर्जनों, कौड़ियों पुरस्कार देती हैं । कुछ पुरस्कार के.के. बिड़ला, ज्ञानपीठ, मोदी धन्नासेठी संस्थाओं के भी हैं तो कुछ साहित्यिक दिग्गजों जैसे श्रीकांत वर्मा, देवीशंकर अवस्थी आदि के नाम से भी ।

वक्तआगयाहैजबलेखकोंकोपुरस्कारऔरउसकीराजनीतिसेअपनेसरोकारोंकोबचानाहोगा।विशेषकरतबजबएकतरफतोआपकहतेहोकिपुरस्कारोंका कोईमहत्वनहींहैंतोदूसरीतरहउसीकेमहत्वमेंलेखककीमहत्ताभूलजातेहो ।अच्छाआदर्शयहभीहोसकताहैकियदिलेखकसाहित्यअकादमीकेकार्यकलापयानिर्णयसेअसहमतिरखताहैतोवहपुरस्कारकेलियेमनाकरे ।हिन्दीलेखकमेंतोकमसेकममुझेयहत्यागनहींदिखायीदेताऔरविगतकेसमझौतोंऔरशतरंजकोदेखतेहुयेभविष्यमेंभीसंभावनानहींदिखती ।उड़ियाकेजगन्नाथप्रसाददासनेतोपुरस्कारलेनेसेमनाकरदियाथा ।औरभीभाषाओंमेंऐसाहुआहैलेकिनहिन्दीमेंकिसीलेखकनेकमसेकममेरीजानकारीमेंपुरस्कारोंकेलियेमनानहींकिया ।हिन्दीलेखकअपनीरही-सहीप्रतिष्ठाकीखातिरहीसहीत्यागीरूपमेंसामनेआयेनकिलालचीरूपमेंऔर-औरकीमाँगकरता ।

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Prempal Sharma

प्रेमपाल शर्मा

जन्म:
15 अक्टूबर 1956, बुलन्द शहर (गॉंव-दीघी) उत्तर प्रदेश

रचनाएँ:
कहानी संग्रह (4)
लेख संग्रह (7)
शिक्षा (6)
उपन्यास (1)
कविता (1)
व्यंग्य (1)
अनुवाद (1)


पुरस्कार/सम्मान :
इफको सम्मान, हिन्दी अकादमी पुरस्कार (2005), इंदिरा गांधी राजभाषा पुरस्कार (2015)

संपर्क:
96 , कला कला विहार अपार्टमेंट्स, मयूर विहार फेस -I, दिल्ली 110091

दूरभाष:
011 -22744596
9971399046

ईमेल :
ppsharmarly[at]gmail[dot]com

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