आलोचना-समालोचना लोकतंत्र का मौलिक अधिकार है। लेकिन यदि संस्थाएं, व्यक्ति या मीडिया हर समय एक पूर्वाग्रह से ग्रसित रहे तो उल्टा इन्हीं के शब्दों पर संदेह होने लगता है। ताजा मामला केन्द्र सरकार द्वारा देश की उच्चतर नौकरशाही में सिविल सेवा परीक्षा से चयनित अधिकारियों के विभागों के आवंटन, उनकी सीनियरिटी आदि का है। खबर है कि केंद्र सरकार यूपीएससी द्वारा चयनित अधिकारियों को विभिन्न मंत्रालयों, विभागों का आवंटन तीन महीने के आधारभूत पाठयक्रम उर्फ़ ट्रेनिंग में उनकी दक्षता, अभिरूचियों को ध्यान में रखकर करेगी। और स्पष्ट कहें तो यू.पी.एस.सी. में जो प्राप्तांक है उनके साथ प्रशिक्षण में प्राप्तांक जोड़कर ही अंतिम रूप से विभाग बांटे जायेंगे। हालांकि मामले पर अभी विचार शुरू ही हुआ है लेकिन चिड़ीमार आलोचकों ने यहा तक अनुमान लगा लिया है कि इससे दक्षिणपंथी झुकाव, आर.एस.एस. की विचारधार को आरोपित किया जाएगा। एकदम वे सिर-पैर की हाय हाय !
सभी जानते हैं कि ब्रिटिस कालीन इंडियन सिविल सर्विस का नया अवतार इंडियन एडमिनेस्ट्रेटिव सर्विस है। इसके प्रमुख हिमायती और वास्तुकार सरदार पटेल ने इसे देश की अखंडता, एकता के लिए सबसे जरूरी स्टीलफ्रेम माना था। उन्होंने इसलिए इसकी स्वायत्तता, आजादी, निर्भीकता के लिए संविधान और सेवा नियमों में आवश्यक प्रावधान जुड़वाये। भर्ती यू.पी.एस.सी. से होती है और प्राप्त अंको के आधार पर सरकार के लगभग पच्चीस विभागों में अधिकारी आवंटित किये जाते हैं। आजादी के बाद से ही परीक्षा में उम्र सीमा, पाठयक्रम, विषय, माध्यम आदि में समय-समय पर परिवर्तन होते रहे हैं। इनमें सबसे बड़ा परिवर्तन वर्ष 1979 में भारतीय भाषाओ के लिए कोठारी समिति की सिफारिशों के आधार पर किया गया था जो इक्का – दुक्का परिवर्तनों के बाद अभी तक लागू है।
प्रशिक्षण में प्राप्त अंकों को सिविल सेवा परीक्षा के अंकों में जोड़कर विभागों का बंटवारा केवल इस सरकार का ही विचार नहीं है। अस्सी के दशक से ही इन बातों पर लगातार विचार होता रहा है कि नवनियुक्त अधिकारियों की दक्षता, कार्य क्षमता,- कुशलता कैसे बढ़ायी जाए। वर्ष 1986 में कार्मिक मंत्रालय के एक निर्णय के अनुसार संबंधित विभागों को यह अधिकार दे दिया गया कि वे प्रशिक्षण में प्राप्त अंकों के आधार पर सीनियरिटी बदल सकते हैं। रेल मंत्रालय जैसे बड़े विभागों ने इसे लागू भी कर दिया और जो आज भी जारी है लेकिन सीनियरिटी के बदलाव से जिन्हें नुकसान हुआ उनके दर्जनों मामले अभी भी पिछले तीस वर्ष से हाई कोर्ट में लंबित है। प्रशिक्षण के नंबरों को जोड़ने के पीछे तत्कालीन कांग्रेस सरकार का नजरिया यह था जिससे अधिकारी मौज-मस्ती की बजाय और ज्यादा निष्ठा, लगन से प्रशिक्षण पर ध्यान दें। अच्छी बात यह रही कि तब इतने प्रखर बुद्धिजीवी नहीं हुए थे जो कांग्रेस पर विचारधारा आरोपित करने का दोष मढ़ पाते।
नौकरशाही को और सक्षम, विवेकपूर्ण, तुरंत निर्णायक बनाने के उद्देश्य से अनेक मंत्रालयों ने अपने अपने व्यावहारिक अनुभव, रिपोर्टों के आधार पर यह प्रश्न भी उठाया कि कई बार अधिकारी की अभिरूचि कुछ और होती है और विभाग दूसरा। जैसे जिसकी रूचि पढ़ने लिखने, पत्रकारिता , संपादन ,समाचार में है लेकिन विभाग अंकों के आधार पर मिला रेलवे या पुलिस या इसका उल्टा। कई बार विभागों की प्राथमिकता देते वक्त उम्मीदवार को पता भी नहीं होता उस विभाग के कार्यों के बारे में। ऐसे में कई अधिकारी अपने को पूरी उम्र ‘मिसफिट’ पाते हैं और नुक्सान पूरे तंत्र का होता है। ऐसे अधिकारियों की संख्या लगातार बढ़ रही है जो हतासा में दो-चार साल बाद ही नौकरी छोड़ देते हैं या लापता हो जाते हैं। इसलिए कार्मिक मंत्रालय और संघ लोक सेवा आयोग की कई समितियों योगेन्द्र अलघ आदि ने ऐसे सुझाव बार बार दिए हैं कि क्यों न विभागों का बंटवारा प्रशिक्षण के बाद किया जाए। इसकी ताकीद मसूरी अकादमी के साथ साथ यूपीए काल में प्रशासनिक सुधार आयोग ने भी प्रकारांतर से की है
परिवर्तन शास्वत नियम है और सभ्यता, हर तंत्र का विकास परिवर्तन से ही संभव है। एक तरफ हमारे बुद्धिजीवी पुलिस, राजस्व नौकरशाही में जारी ब्रिटिश व्यवस्था को जार-जार रोते है लेकिन परिवर्तन किसी भी शुरूआत की आहट से ही उन्हें न जाने कहॉं से आर.एस.एस. का भूत डराने लगता है। बार-बार ऐसे भूत को आवाज लगाने से उनकी विश्वसनीयता तो कम होती ही है, तंत्र सुधार की तरफ बढ़ने से हाथ भी खींच लेता है। प्रशासनिक सेवाओं में सुधार का एक महत्वपूर्ण सुझाव छठे वेतन आयोग ने वर्ष 2008 में दिया था। तब यू.पी.ए. सरकार थी। सुझाव था क्यों न हर विभाग के उच्च स्तरों पर जैसे निदेशक, संयुक्त सचिव पदों पर कुछ प्रतिशत लेटरल एंट्री की जाए। उद्देश्य था तंत्र के बाहर की प्रतिभाओं को भी देशहित में सरकार में शामिल होने का मौका देना। परस्पर सीखने, साथ बढ़ने का अवसर भी मिलेगा। ब्रिटेन सहित कई आधुनिक राष्ट्रों की नौकरशाही में लेटरल एंट्री है। मनमोहन सरकार के पूरे समर्थन के बावजूद भी बात आगे नहीं बढ़ी। तत्कालीन सचिव, कार्मिक मंत्रालय के अखवार में छपे लेख के अनुसार, बाहर से ऐसी प्रतिभाओं के खिलाफ सबसे उग्र विरोध जातिवादी आरक्षित संगठनों से आया। हमारा लोकतंत्र किसी भी चुनौती को पार कर सकता है। वोट बैंक की राजनीति को नहीं। शुक्र है तब भी किसी ने ‘कांग्रेसी विचारधारा’ को थोपने का सगूफा नहीं छोड़ा।
लेकिन प्रशिक्षण के नंबरों को जोड़कर विभाग बांटने का मामला इतना आसान नहीं है और न इसे इतनी जल्दवाजी में किया जाना चाहिए। हमारे प्रशिक्षण संस्थान-मसूरी, नागपुर, सिंकदराबाद से लेकर बडौदा तक से भाई भतीजावाद, लापरवाही, अंसवेदनशीलता की खवरें आती हैं। प्रशिक्षण के दौरान ली जाने वाली परीक्षा भी इतनी चुस्त –दुरस्त नहीं है . यू.पी.एस.सी. के एक एक नंबर से जिंदगी का खेल बनता बिगड़ता है लेकिन आयोग की पारदर्शिता, वस्तुनिष्ठता और ईमानदारी पर कभी उंगली नहीं उठी।संविधानिक सुरक्षा के कारण यू.पी.एस.सी. के सदस्य निष्पक्ष और निडरता से काम करते हैं . इन प्रशिक्षण केन्द्रों के दिए सीनियरटी नंबरो पर तो आज भी सैंकड़ो मामले लंबित हैं।इसलिए कम से कम मौजूदा पशिक्षण ढांचों में यह संभव नहीं है. इस पेड़ को उगाने के लिए सही जमीन तैयार करनी पड़ेगी। वरना अधिकारियों के बीच तालमेल, समझ के दायरे को बढ़ाने के लिए प्रशिक्षण का जो प्रयोजन है वह भी मात खायेगा। उल्टे उनमें परस्पर वैमनस्य ईर्श्या और तनाव बढ़ेगा। नतीजतन नौकरशाही में और गिरावट की सम्भावना .
नौकरशाही और उसके रंग ढंग में सुधार की जरुरत तो तुरंत है लेकिन उसका यह रास्ता मंजूर नहीं . फिलहाल दो विकल्पों पर तुरंत ध्यान देने की जरूरत है। पहला साक्षात्कार के समय ही विशेष प्रबंध मनोवैज्ञानिक परीक्षण के लिए हो जो उम्मीदवार की अभिरूचियों, क्षमता को देखते हुए विभागों का क्रम सुझाए। दूसरा कदम जो तुरंत संभव है वह है प्रशिक्षण संस्थानों के पाठयक्रम में ऐसा बदलाव जो अधिकारियों में जनता के प्रति संवेदनशीलता, उत्तरदायित्व, भाई-चारा, पारदर्शिता, ईमानदारी और बराबरी के व्यवहार के साथ साथ नबावी-फिजूलखर्ची, आफिसर-लाइकक्वालिटी जैसे जुमलों से दूर रखें। नौकरशाही में बदलाव लाये बिना देश में बदलाव असंभव है।
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