जाने माने पत्रकार कुलदीप नैयर की हाल ही में आत्मकथा आई है । मूल अंग्रेजी में लिखी हुई ‘बियोंड द लाइन्स’ । हिंदी अनुवाद का नाम रखा है ‘एक जिन्दगी काफी नहीं’- आजादी से आज तक के भारत की अन्दरूनी कहानी । नि:संदेह हिंदी शीर्षक ज्यादा सटीक है । उनके बचपन और बंटवारे के वक्त मौजूदा पाकिस्तान से भारत आकर बसने से लेकर आज तक का वृतांत समेटे । पूरे बीस-बाइस वर्षों में लिखी गयी इस आत्मकथा में इतिहास, राजनीति, समाज, प्रेस, सब कुछ है और बेहद कसी हुई भाषा में । इसके बावजूद भी इस उप महाद्वीप सरीखे देश और उसमें रोज घटता घटनाचक्र इतना व्यापक और चुनौतीपूर्ण है कि पांच सौ पृष्ठ भी थोड़े लगने लगते हैं । युगांक धीर का अनुवाद हिंदी में इसे और ज्यादा पठनीय बनाता है ।
कुलदीप नैयर अकेले ऐसे शख्स हैं जिनका नाम मैंने 1975 में अपने कॉलेज के दिनों में सुना था । 1975 के उन वर्षों को याद करें तो वे बड़े गहमा-गहमी के वर्ष थे । 1975 में आपातकाल से पहले जयप्रकाश आंदोलन की देश भर में रैलियां ; तत्कालीन सत्ता के दॉंव-पेंच, धमकी और इन सबके बीच हर प्रमुख अखबार में कुलदीप नैयर की प्रखर कलम । यूनिवार्ता की स्थापना और शुरूआत करके वे स्टैट्समैन में उन दिनों काम कर रहे थे । 1977 के दौर में इंडियन एक्सप्रेस में आये । कोर्स के अलावा जिन किताबों को मैंने सबसे पहले पढ़ा होगा उसमें कुलदीप नैयर की ‘द जजमेंट’ और ‘बिटवीन द लाइंस’ थी । पाठ्यक्रम की पुस्तकों से परे जाकर देश को जानने, समझने के इतने खूबसूरत दरवाजे । उसके बाद सैंकड़ों बार कुलदीप नैयर को सुना, पढ़ा होगा । और इस पूरी पुस्तक को खत्म करने के बाद लगता है कि वाकई वो इतनी ही बड़ी एक और जिन्दगी के हकदार हैं । मेरे और मेरी आने वाली पीढि़यों को अपनी कलम से शिक्षित, प्रशिक्षित और प्रेरणा देने के लिए । आपातकाल के साथ जैसे जयप्रकाश नारायण, जनता पार्टी का नाम जुड़ा है कुछ-कुछ वैसे ही कुलदीप नैयर का भी । इसलिए सबसे पहली बात पुस्तक में शामिल आपातकाल के प्रसंगों की ।
1971 में बांग्लादेश के निर्माण के बाद तत्कालीन विपक्ष के नेता अटल बिहारी वाजपेयी ने भी इंदिरा गांधी की दुर्गा कह कर तारीफ की थी । इंदिरा गांधी की प्रतिष्ठा वाकई लोकप्रियता के आसमान पर थी । विपक्षी पार्टियां कमजोर तो थीं ही उनमें इतने मतभेद भी थे कि सरकार के लिए शायद ही कोई खतरा पैदा हो । ऐसे में अचानक जे.पी. की आवाज इंदिरा गांधी को बैचेन करने लगी । बकौल कुलदीप नैयर (पृष्ठ-262) ‘जे.पी. न तो संसद में थे और न दिल्ली में रहते थे । फिर भी, वे जब भी कुछ कहते थे तो लोगों का ध्यान सहज ही उनकी तरफ खिंच जाता था । उनकी गांधीवादी पृष्ठभूमि थी और उन्होंने कोई भी सरकारी पद स्वीकार करने से इनकार कर दिया था, नेहरू के अनुरोध करने पर भी नहीं । इसलिए उनकी छवि किसी साधू संन्यासी जैसी बन चुकी थी और सभी देशवासी उनका बहुत मान करते थे । उन्हें प्यार से ‘जे.पी.’ के नाम से जाना जाता था । जे.पी. ने सत्तर की उम्र पार कर लेने के बाद इंदिरा गांधी से टक्कर लेने की ठानी थी । इसका कारण था बढ़ता भ्रष्टाचार, सत्ता का दुरुपयोग, चारों तरफ बढ़ती बेरोजगारी से युवाओं में असंतोष । गुजरात में शुरू हुए नवनिर्माण आंदोलन को भी जे.पी. का समर्थन मिला और चिमनभाई सरकार को इस्तीफा देना पड़ा । जे.पी. ने देश की युवा पीढ़ी को अपने आंदोलन के साथ जोड़ लिया ।
इसी बीच आया 12 जून 1975 को इलाहाबाद हाईकोर्ट को फैसला । जिसमें न्यायमूर्ति जगमोहन लाल सिन्हा ने इंदिरा गांधी के चुनाव को रद्द तो किया ही उन्हें अगले छह वर्ष के लिए किसी भी संवैधानिक पद के लिए अयोग्य घोषित कर दिया । यह फैसला सोशलिस्ट नेता राज नारायण द्वारा दायर याचिका पर लिया गया था । न्यायालय ने इंदिरा गांधी के चुनाव में सत्ता के दुरुपयोग के प्रमाण अपने निर्णय में प्रस्तुत किये । कुलदीप नैयर लिखते हैं कि ‘स्वयं इंदिरा गांधी अपने पद से त्याग पत्र देने को तैयार थीं लेकिन दो प्रमुख सलाहकार संजय गांधी और मुख्य मंत्री सिद्धार्थ शंकर ने उन्हें त्याग पत्र देने की बजाय इमरजेंसी लगाने की सलाह दी । संजय गांधी के बारे में कुलदीप नैयर लिखते हैं कि (पृष्ठ-270) दून स्कूल से अधूरी पढ़ाई छोड़कर निकले और इंग्लैंड में रॉल्स कम्पनी में एक मोटर मैकेनिक के रुप में शार्गिदगी कर चुके संजय गांधी के पास कोई शैक्षणिक योग्यता नहीं थी । लेकिन वे राजनीति में आने के लिए लालायित थे । इलाहाबाद हाई कोर्ट के इस फैसले के बाद उन्हें खुलकर सामने आने का अवसर मिल गया । अपनी मॉं के माध्यम से वे सत्ता और पैसे की ताकत का अनुभव करना चाहते थे । इमरजेंसी से बहुत पहले से ही इंदिरा गांधी उनके साथ राजनीति पर बातचीत करने लगी थीं । कई बार संजय के साथ खाने के दौरान वे अपने बड़े बेटे राजीव गांधी का जिक्र करते हुए कहती थीं कि उसे तो राजनीति का क-ख-ग भी नहीं आता । राजीव गांधी तब एक एयरलाइन में पायलट थे और किसी ने कल्पना भी नहीं की थी कि इंदिरा गांधी के बाद वही प्रधानमंत्री बनेंगे ।
लगभग 50 पृष्ठों में तत्कालीन समय का एक-एक ब्योरा इस पुस्तक में मौजूद है । यह भी कि ‘जस्टिस कृष्ण अय्यर का पलड़ा स्वयं इंदिरा गांधी की तरफ झुका हुआ था । और यह भी कि आपातकाल घोषित करने से पहले उन्होंने न कैबिनेट की सलाह ली और न राष्ट्रपति को विश्वास में लिया ।’ बेहद रोमांचक पृष्ठ हैं भारतीय राजनीति के जिन्हें कुलदीप नैयर से बेहतर न कोई जानता, न लिख सकता । उन्होंने अपनी भूमिका में लिखा भी है (पृष्ठ-10) अगर मुझे अपनी जिन्दगी का कोई अहम मोड़ चुनना हो तो मैं इमरजेंसी के दौरान अपनी हिरासत को ऐसे ही एक मोड़ के रूप में देखना चाहूंगा, जब मेरी निर्दोषता को हमले का शिकार होना पड़ा था ।
पुस्तक लगभग बीस अध्यायों में विभाजित है और हर अध्याय भारतीय राजनीति की एक मुख्य प्रवृत्ति को उजागर करता है । जैसे बांग्लादेश युद्ध, इमरजेंसी, चुनाव 1977, ऑपरेशन ब्लू स्टार, राजीव गांधी और वी.पी.सिंह का दौर, बाबरी मस्जिद विध्वंश, भाजपा सरकार और मनमोहन सिंह सरकार । तीन और अध्याय भी इसमें शामिल हैं । भारतीय मीडिया, मानवाधिकार और भारत-पाक संबंध । भारत-पाक संबंधों को सामान्य बनाने की उनकी सतत पहल जग जाहिर है । पुस्तक की शुरुआत ही विभाजन की उन वीभत्स घटनाओं से होती है जिनसे वे गुजरे थे । उन्हें हिंदी नहीं आती थी क्योंकि उनकी बचपन की पढ़ाई उर्दू, फारसी व अंग्रेजी में हुई थी । इसीलिए वे लगातार उर्दू को उत्तर प्रदेश, दिल्ली, बिहार, पंजाब, आंध्र प्रदेश में दूसरी भाषा बनाने की वकालत भी करते हैं । शायद ही भारतीय महाद्वीप का कोई और पत्रकार होगा जिसने इतनी हिम्मत, साफगोई और भावनात्मक स्तर पर दोनों देशों सहित बांग्लादेश, नेपाल, भूटान को भी एक महासंघ बनाने की बात की होगी । वे लिखते हैं कि ‘इन सम्बन्धों में बेहतरी मेरी चाह भी रही है और कामना भी । मेरे लिए यह प्रतिबद्धता का मामला है न कि पुरानी यादों से जुड़ी भावनाओं का । मैं उम्मीद करता हूँ कि एक न एक दिन इस क्षेत्र के सभी देश साथ मिलकर सांझे हितों के लिए काम करेंगे । दक्षिण एशिया के सभी देश यूरोपीय संघ की तरह अपना एक सांझा संघ बनाएंगे । इससे उनकी अलग-अलग पहचान पर कोई असर नहीं पड़ेगा, लेकिन इससे उन्हें गरीबी की समस्याओं से लड़ने में मदद मिलेगी, और साथ ही अमीर और बेहद गरीब देशों के बीच की खाई भी पाटी जा सकेगी । मुझे पूरा यकीन है कि एक दिन दक्षिण एशिया शान्ति, सद्भावना और सांझे हितों के मामले में परस्पर सहयोग की दुनिया होगी । विकास, व्यापार और सामाजिक प्रगति इन सांझे हितों में सबसे ऊपर हैं । महाद्वीप पर लम्बे समय से छाए नफरत और दुश्मनी के बादलों के बीच भी मैं यही उम्मीद और कामना करता रहा हूं ।’ कुलदीप नैयर सही मायनों में क्षेत्र के शांतिदूत हैं ।
जो व्यक्ति साठ वर्षों के समय में इतनी सक्रियता से और इतनी महत्वपूर्ण भूमिकाओं में रहा हो उसकी तत्कालीन राजनेताओं आदि पर टिप्प्णी भी गौर तलब है । नेहरु के बारे में लिखते हैं (पृष्ठ-176) नेहरू ने आसान विकल्पों का रास्ता चुना था । ऐसे समझौते किए थे जो उन्हें नहीं करने चाहिए थे । देश का आर्थिक नक्शा बदलने में उन्होंने इतनी धीमी रफ्तार दिखाई थी कि गरीबी ने बड़ी सख्ती से देश में अपने पॉंव जमा लिए थे । फिर भी वे मेरे हीरो थे और मैं उनकी कमियों के लिए यह तर्क देता था कि देश को एक रखने के लिए उन्हें सभी तरह के हितों, प्रदेशों और धर्मों का ध्यान रखना पड़ता था । इसके बावजूद मुझे यह भी लगता था कि पटेल की मृत्यु और चीन के साथ लड़ाई के बीच उन्हें 12 वर्ष का समय मिला था । इस अवधि में वे देश के विकास को ज्यादा तेज रफ्तार दे सकते थे और एक कल्याणकारी राज्य की कहीं ज्यादा गहरी आधारशिला रख सकते थे । उनके विचारों में आधुनिकता और परम्परा का अनूठा संगम दिखाई देता था ।
नेहरु की मृत्यु के बाद गद्दी की जोड़-तोड़ में लगे नेता और उनके कारनामे भी कम रोचक नहीं हैं । मोरारजी देसाई, लाल बहादुर शास्त्री के साथ-साथ जयप्रकाश नारायण तक का नाम उभरा था । यहां मीडिया, अखबार की भूमिका का प्रसंग भी कम रोचक नहीं है । कुलदीप नैयर लिखते हैं कि उन्होंने यू.एन.आई. की तरफ से खबर जारी की कि प्रधानमंत्री पद के लिए मोरारजी देसाई ने अपनी दावेदारी का ऐलान कर दिया है । (पृष्ठ-178) मैंने सोचा भी नहीं था कि यह छोटी-सी खबर मोरारजी को इतना नुकसान पहुँचा देगी जितना कि इसने पहुँचाया । सरकारी संस्था ‘प्रेस इन्फॉर्मेशन ब्यूरो’ (पी.आई.बी.) से जुड़ा रहने के कारण मुझे छपे हुए शब्द की ताकत का इतना अन्दाजा नहीं था । मोरारजी के समर्थकों का कहना था कि इससे उन्हें कम-से-कम 100 वोटों का घाटा हो गया । लोग सोचने लगे कि मोरारजी देसाई इतने महत्वाकांक्षी हैं कि अपना दावा पेश करने के लिए उन्होंने नेहरू की चिता की आग ठंडी होने की भी प्रतीक्षा नहीं की ।
बाद में मुझे इस खबर के चमत्कार का अहसास जरूर हो गया था । के.कामराज संसद भवन की सीढि़यों से उतरते हुए मेरे कान में फुसफुसाए थे, “थैंक्यू !” शास्त्री ने मुझे घर बुलाकर कहा था, “अब किसी और स्टोरी की जरूरत नहीं है । मुकाबला खत्म ही समझो !” उनके कहने का मतलब था कि पलड़ा उनके पक्ष में झुक चुका था और उनके चुने जाने में कोई सन्देह नहीं रह गया था । मैंने उन्हें यह समझाने की कोशिश की कि इस खबर के पीछे किसी को फायदा या नुकसान पहुंचाने की मंशा नहीं थी । उन्होंने होंठों पर उँगली रखकर मुझे चुप रहने का संकेत किया । बाद में, पार्टी का नेता चुने जाने के बाद उन्होंने संसद भवन की बाहरी सीढि़यों पर सबके सामने मुझे गले से लगा लिया । जहां तक मोरारजी देसाई का सवाल था, वे जिन्दगी भर यही समझते रहे कि मैंने शास्त्री की तरफदारी करते हुए ही वह खबर जारी की थी । मैं जब भी इस मामले का जिक्र करता तो वे कहते, “लोगों को इस्तेमाल करने का शास्त्री का अपना तरीका था, और लोगों को इसका पता तक नहीं चलता था ।” मेरे ख्याल से मोरारजी को अपने समर्थकों को दोष देना चाहिए था, जो नेहरू की अन्त्येष्टि के दिन ही सीना ठोंककर उनकी दावेदारी की बात करने लगे थे । इससे बहुत से सांसद उनसे उखड़ गए थे ।
जवाहर लाल नेहरु के बाद बने प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री । शास्त्री जी के बारे में कुलदीप नैयर लिखते हैं- एक निर्बल को बलवान की भूमिका सौंप दी गई थी । एक निरीह से व्यक्ति को पृथ्वी के सिंहासन पर बिठा दिया गया था । वह व्यक्ति जिसने 1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन के दौरान टाइफाइड से ग्रस्त अपनी बेटी के इलाज के लिए पैसे न होने के कारण मौत के मुंह में जाते देखा था, अब देश का प्रधानमंत्री था । जब कामराज योजना के अन्तर्गत शास्त्री को सरकार से बाहर बैठना पड़ा था तो उन्होंने अपने भोजन को एक सब्जी तक सीमित कर दिया था, और अपनी सबसे मनपसन्द सब्जी आलू खाना छोड़ दिया था क्योंकि उन दिनों आलू काफी महँगे बिक रहे थे । गरीबी ने उन्हें विनयशील बना दिया था और लोगों को यह बड़ी प्यारी खूबी प्रतीत होती थी । अहंकार, दम्भ और घमंड से भरे राजनीतिज्ञों की भीड़ में उनकी विनम्रता हर किसी का मन मोह लेती थी । शास्त्री जी की मृत्यु से संबंधित कुछ प्रसंग बहुत विस्तार से पहली बार सामने आये हैं । सच और अनुमान को जन्म देते । इस पर किसी ने टिप्पणी की कि ये सचाई तभी सामने आतीं तो अच्छा रहता । अब बहुत देर हो चुकी है ।
बहुत कम पत्रकारों में इतनी साफगोई और निष्पक्षता बची है । इंदिरा गांधी के पास नेहरु जैसा रुतबा तो नहीं था लेकिन फिर भी लोग उन्हें नेहरु की परम्परा की कड़ी के रुप में ही देख रहे थे । कुलदीप नैयर लिखते हैं कि उनके चुनाव पर (पृष्ठ-211) दूसरी राजनीतिक पार्टियों की प्रतिक्रिया उम्मीद के अनुसार ही थी । दक्षिणपंथी उनके वामपंथी रुझान को लेकर आशंकित थे । जनसंघ और राजगोपालाचारी द्वारा गठित दक्षिणपंथी ‘स्वतंत्र पार्टी’ खुलेआम उनके रुस-समर्थक होने की बात कर रहे थे । वामपंथियों को वे मोरारजी देसाई की तुलना में कहीं ज्यादा रास आ रही थीं, हालॉंकि वे उनके पुराने और कटुतापूर्ण रवैये को नहीं भूले थे । कांग्रेस अध्यक्ष के रुप में वे कम्युनिस्टों के प्रति बहुत ज्यादा कठोर रही थीं । उन्होंने ही नेहरु को केरल की कम्युनिस्ट सरकार को बर्खास्त करने के लिए बाध्य किया था, हालॉकि विधानसभा में उनका बहुमत था । मुख्यमंत्री ई.एम.एस. नम्बूदिरपाद नेहरु से मिलने के लिए शिमला तक गए थे । वहॉं से निराश वापस लौटने के बाद उन्होंने कहा था कि नेहरु ‘नाखुश और बेबस’ थे ।
ऐसे ही बेजोड़ आकलन वी.पी.सिंह, मनमोहन सिंह, राजीव गांधी, अटल बिहारी वाजपेयी, अडवाणी से लेकर सारे नेताओं के हैं । कुछ बेहद रोचक प्रसंग भी हैं जैसे नेहरु की मृत्यु पर बनारस से हवन सामग्री और चंदन जैसी चीजों का इंतजाम इंदिरा गांधी के इशारे से हुआ था । विजयलक्ष्मी पंडित इससे बेहद नाराज थीं क्योंकि यह नेहरु के सिद्धांतों के खिलाफ था । एक और प्रसंग कि कैसे इंदिरा गांधी नहीं चाहती थीं कि लाल बहादुर शास्त्री की समाधि दिल्ली में बने लेकिन जब ललिता शास्त्री ने आमरण अनशन की धमकी दी तो इंदिरा गांधी को ‘जय जवान जय किसान’ के साथ समाधि दिल्ली में बनानी पड़ी ।
पुस्तक में ये प्रसंग विवरण भर नहीं हैं । आजाद भारत की हर सत्ता को उन्होंने बहुत करीब से देखा है उनकी उपलब्धियों और षड़यंत्र सभी को । भाषा और वाणी के उतार चढ़ाव के साथ ऐसी पठनीयता रचते हैं कि कहानी और उपन्यास भी असफल हो जाएं । इतिहास का निर्माण ऐसे पत्रकार लेखक ही करते हैं । वे जो खुली आंखों और कलम से उस दौर के गवाह रहे हैं । इन्हीं विवरणों से आज का राजनीति शास्त्र और कल का इतिहास लिखा जायेगा । जीवनियॉं भी उन सभी चरित्रों की जिन्होंने इस दौर में अपनी छाप छोड़ी । इसीलिये ऐसी किताबें इतनी ही तैयारी और धैर्य के साथ ज्यादा लिखी जानी चाहिये ।
आत्मकथा लिखने में बीस बाईस वर्ष कम नहीं होते । इसीलिये उनके जीवन दर्शन के भी कई रंग पुस्तक में झलकते हैं । ‘मुझे नहीं मालूम कि जीने की कला क्या है । मैं सिर्फ जीया हूं । कई बार सिर्फ सुबह उठकर रोजमर्रा के ढर्रे का पालन करते हुए और रात को वापस बिस्तर में लेटते हुए । परिस्थितियां मुझे एक स्थिति से दूसरी स्थिति में धकेलती रही हैं और मैं उनके साथ अपना तालमेल बिठाने की कोशिश करता रहा हूं । मैं अकसर सोचता रहा हूं कि जिन्दगी को मैं नियंत्रित कर रहा हूं या जिन्दगी मुझे नियंत्रित कर रही है । समय एक निर्बाध नदी की तरह गुजरता रहा है, सिर्फ बहता रहा है ।
लेकिन इस निर्बाध नदी की यात्रा नि:संदेह आजाद भारत का प्रामाणिक दस्तावेज है । इस देश के हर नागरिक के लिये प्रासंगिक ।
दिनांक : 5/ 1/13
प्रेमपाल शर्मा
96, कला विहार अपार्टमेंट,
मयूर विहार, फेज-1 एक्सटेंशन,
दिल्ली-91.
फोन नं.011-22744596 (घर)
011-23383315 (कार्या.)
पुस्तक का नाम : एक जिन्दगी काफी नहीं (बियोन्ड द लाइन्स)
लेखक : कुलदीप नैयर
अनुवादक : युगांक धीर
प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन, 2012
पृष्ठ : 472
कीमत : 600/- रुपये
आई.एस.बी.एन. : 978-81-267-2325-6
me sh. kuldeep neyyar ji ka bahut purana samrtak hu. unki aatm-katha ka saransh padkar man ko bahut achchha lga. me unki yah or “IN JAIL” book mangwana chahta hu. pl. margdarshan de.