सभ्यताओं के विकास में नागरिक जीवन को सुचारू और सर्वजन हिताय बनाने के लिए धीरे–धीरे संस्थाओं का जन्म हुआ । शायद शुरूआत विवाह संस्था से हुई हो । फिर कबीले और बस्तियां बनीं और अगले विस्तार के रूप में राज्य, राष्ट्र, देश बने होंगे । इनके अंदर भी सैंकड़ों परतें स्कूल, अस्पताल, धर्म के प्रतिष्ठान न जाने क्या–क्या । मनुष्य ने ही ये बनाए और शायद दुष्ट मनुष्य ही वे प्राणी हैं जो लगातार इनको तोड़ने की फिराक में रहतें हैं । हमारे देश के लिए आजादी के बाद का इतिहास तो संभवत: इन संस्थाओं को तोड़ने और विध्वंश की कहानी ज्यादा बयान करता है बजाय उनके निर्माण की । एम्स की स्नातकोत्तर परीक्षा में परचे लीक होने की कहानी इन्हीं सैंकड़ों संस्थाओं के अंत का एक नमूना है । देश की पूरी नौजवान पीढ़ी इन संस्थाओं में आस्था रखती है । आई.आई.टी. की प्रवेश परीक्षा हो, एम.बी.बी.एस. या एम.डी. की परीक्षा या प्रशासनिक सेवाएं आई.ए.एस., पी.सी.एस. से लेकर जजों की नियुक्ति । पिछले दस–बीस सालों में तो शायद हम अति की सीमा के बहुत करीब पहुंच चुके हैं । हरियाणा, पंजाब में जजों की नियुक्ति में ऐसा हुआ तो कुछ साल पहले चंडीगढ़ के पी.जी.आई. के दाखिले मेंभी नालंदा के उस डॉक्टर की कहानी आपके जेहन में जिंदा होगी जो डॉक्टरी के काम को छोड़कर आई.आई.टी. से लेकर प्रांतीय सेवाओं की इन सब परीक्षाओं में नकल करने, कराने और पास करने का पूरा गिरोह चलाता था । एक आम भारतीय की अपनी रोजमर्रा की जिंदगी को संभालने में इतनी सांस फूली रहती है कि शायद ही उसे यह सोचने का अवसर मिले कि ग्लेशियर की नोक भर के जो ये आपराधिक मामले सामने आए थे आखिर उन अपराधियों का हुआ क्या ? क्या सजा हुई ? कितने जेल मे हैं ? वक्त आ गया है कि समाज को जागरूक करने के लिये इन सबके बारे में मीडिया समय-समय पर खुलासा करता रहे । सरकार को भी न भूलने दे और न उन अपराधियों को जो ऐसे जघन्य अपराध करने के बाद बच निकलते हैं । नालंदा के उस शख्स के बारे में तो यह भी सुना था कि वह असेम्बली के चुनाव के लिए भी खड़ा
हुआ था । यानि इन अपराधों के बाद उनका लक्ष्य लोकतंत्र के उस मंदिर में प्रवेश करने का होता है जहां यह बदनामी उनके लिए रुकावट बनने के बजाय मार्ग प्रशस्त ज्यादा करती है ।
लेकिन एम्स और इन सभी परीक्षाओं में नकल, धांधली कोई नई बात नहीं लगती । क्या यह उसी स्कूली और विश्वविद्यालयी शिक्षा का अगला चरण नहीं है जहां व्यवस्थित ढंग से टीचर से लेकर प्रधानाध्यापक तक नकल कराते हैं । वे खुद गलत रास्तों से नियुक्त होते हैं । दिल्ली से सटे राज्य उत्तर प्रदेश में तो यह शिक्षा की एक नीति के रूप में जनता ने मान लिया है कि बिना नकल किए आप पास हो ही नहीं सकते । देखा जाए तो एम्स के ये अपराधी भी नोएडा और ग्रेटर नोएडा की सीमा में ही काम कर रहे थे । राज्यों की सीमाओं का प्रश्न छोड़ भी दिया जाए तब भी क्या इस अपराध की शुरूआत उस क्षण से ही नहीं हो जाती जब उत्तर प्रदेश में बोर्ड की परीक्षा के ठीक पहले माता–पिता और रिश्तेदार बच्चों की खातिर व्यूह रचना करते हैं कि कैसे परचा स्कूल से निकाला जाएगा ? और कौन उसको हल करेगा ? और फिर कैसे बच्चे के पास तक पहुंचेगा ? पूरी तरह से उत्तर लिखने तक के प्रबंध किये जाते हैं तो कुछ स्कूलों में अलग–अलग रेट बने हुए हैं । तीस–चालीस साल पहले हम ये सुना करते थे कि जहां कापियां जाती हैं उनका पता लगा लिया जाता है और फिर उन कॉपी जांचने वालों को पटा कर नंबरों में हेरा–फेरी की जाती है । क्या पूरी व्यवस्था को इसका अहसास नही है ? और ऐसे अहसास के बावजूद भी यदि सब चुप हैं, तो आप संस्थाओं के ध्वंस की कल्पना कर सकते हैं ।
ऐसी नकल के बूते बने डॉक्टर या इंजीनियर, क्या तो किसी मरीज का इलाज करेंगे और क्या पुल और सड़क बनाएंगे । जिन रास्तों से उन्होंने डिग्री ली है वैसे ही कागज ऐसी रिश्वत के बूते वे अपने–अपने विभाग में तैयार करेंगे जिनमें करोड़ों खर्च तो हो जाते हैं लेकिन जमीन पर कुछ नहीं होता । इसीलिए यह नकल सिर्फ नकल के रूप में न ली जाए यह बेईमानी और भ्रष्टाचार की वो पगडंडियां हैं जो इस राष्ट्र को सर्वनाश की तरफ ले जा रहीं हैं । कभी–कभी आश्चर्य होता है कि देश की उस आम ईमानदार चेतना को हुआ क्या । आखिर आजादी के वक्त की वह बारूद इतनी भीगी हुई क्यों है ? अन्ना आंदोलन के वक्त शायद यही बारूद तो शुष्क होकर चिंगारी देने लगा था । एक सामूहिक आक्रोश की इससे बेहतर अभिव्यक्ति आजादी के बाद शायद नहींदेखी । जे.पी. आंदोलन को इससे अलग देखने की जरूरत है । जहां जे.पी. आंदोलन राजनीतिज्ञों की अगुवाई में एक मौजूदा सत्ता के खिलाफ बढ़ा था, वहीं यह आंदोलन एक गुस्से के इज़हार के रूप में सत्ता प्रतिष्ठान की संस्थाओं, संसद, विधायिका को चेताने के लिए ज्यादा था । इस अहिंसक सविनय अनुरोध के साथ कि कुछ कीजिए वरना देश तो डूबेगा ही हम भी डूब जाएंगे और फिर हम छोड़ेगें आपको भी नहीं । इन संस्थाओं का निगरानी पक्ष भी चुस्ती के साथ मजबूत किया जाये तो नागरिकों की सुविधाएं तो बढ़ेंगी ही, लोकतंत्र को भी ये संस्थाएं मजबूत करेंगी ।
आखिर संस्थाओं के अंत को कैसे रोका जाए ? इसी हफ्ते पुरानी खबरों के क्रम में ही भयानक खबरें हैं कि दूध में सत्तर–अस्सी प्रतिशत मिलावट हो रही है । यूरिया, एसिड जैसे– विषैले पदार्थों को मिलाकर । क्या इन अपराधों के लिए मृत्युदंड नहीं होना चाहिए ? इसी हफ्ते की खबरें हैं कि बच्चों की मृत्यु दर सबसे अधिक इसी देश में है और यह वह सरकार कह रही है जो दस प्रतिशत विकास पर इतराती भी है । दिल्ली युनिवर्शिटी में आरक्षण के लाभ लेने के लिए फर्जी मार्क शीट से लेकर सैंकड़ों मामले आए हैं । मध्यप्रदेश मे सैंकड़ों डॉक्टरों के पास फर्जी सर्टिफिकेट मार्कशीट पकड़ी गयी हैं । जहां हजारों, लाखों लोग ऐसे अपराधों मे लिप्त हैं उसके सामने शायद दंड देने वाली सत्ता अपनी-अपनी राजनीति के कारण टुकुर-टुकुर देखती रहती है । यदि ऐसे दंड दिए जायें जिसे पीढि़यों तक लोग याद रखें तो शायद दुबारा करने की किसी की हिम्मत न पड़े । पिछले दिनों मलेशिया के प्रधानमंत्री ने दिल्ली की एक प्रेस कांन्फ्रेंस मे कहा था कि भारत का लोकतंत्र अच्छा जरूर है लेकिन जरूरत से ज्यादा लोकतांत्रिक है । उन्होंने अपनी बात को बढ़ाते हुए कहा कि इतना लोकतांत्रिक कि न संसद चलती है, न विश्वविद्यालय चल पाते, न पुलिस कुछ कर पाती, और न कानून । कुल मिलाकर न पूरा राष्ट्र । एक दशक पहले की घटना को याद करें कि जब सिंगापुर में एक अमेरिकी नागरिक ने एक दरवाजे पर कुछ कालिख पोत दी थी तो उसे कारावास का दंड सुनाया गया था । तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति ने सिंगापुर के प्रधानमंत्री से फरियाद लगायी लेकिन दंड माफ नही किया गया । न्याय व्यवस्था ऐसी हो तो मनुष्य अपराधी नही बनता । ऐसे एक गुनाह माफ करने का अर्थ है सैंकड़ों गुनाहों को जन्म देना।
इस बात पर भी विचार कीजिए कि ऐसी नकल कराने वाले गरीब अनपढ़ नहीं होते । वे शातिर रईस लड़के हैं जिनके पास एम.बी.ए., इंजीनियर और डॉक्टर की डिग्रियां हैं । देखा जाये तो इस देश का विनाश ऐसे डिग्रीधारी, संभ्रांतो ने ज्यादा किया है बजाए आम किसान, मजदूर नागरिक ने । परीक्षा एम.डी. की और एम.बी.ए. का छात्र उसमे कैसे प्रवेश परीक्षा तक पहुंच गया ? फिर जिन पर्यवेक्षकों की ड्यूटी लगी थी वे क्या कर रहे थे ? परत–दर–परत जाएं तो लगता है कि सिर्फ ये लड़के अपराधी नही पूरी व्यवस्था ही अपराधी है । इसी का अंजाम है कि धीरे-धीरे पिछले दस–पन्द्रह
वर्षों मे एम्स खुद अस्तपताल मे भर्ती है । आए दिन इस बात पर चिंता नही होती कि उसका स्तर गिर रहा है, कोई शोध नही हो रहा है, कुछ दूसरे वोट वैंकों की राजनीति पर ज्यादा सरगरमी रहती है । इस घिनौनी राजनीति की उत्तर भारत की लगभग सारी संस्थाएं शिकार हो गयी हैं । विश्वविद्यालय हों, प्रशासन या स्कूली व्यवस्था । परिणाम सामने है । दुनिया के पहले सौ से पांच सौ विश्वविद्यालयों मे न भारत का कोई विश्वविद्यालय आई.आई.टी.आता, न अस्पताल या शोध संस्थान ।
इतने गहरे अंधेरों के बीच कभी-कभी कुछ संस्थान उम्मीद भी बंधाते है । दिल्ली की उसी व्यवस्था के बीच दिल्ली मैट्रों ने काम की संस्कृति और सफलता के मानदंड बनाये है । जो सी.एस.आई.आर. करोडों के घाटे मे चल रही थी, वैज्ञानिक अनंद माशेलकर के नेतृत्व मे करोड़ों के मुनाफे मे आ गई । बिहार की कानून व्यवस्था के बारे मे भी कहा जाता है कि जैसे ही पुलिस प्रशासन जैसी संस्थाओं को काम करने दिया गया अपहरण और चोरी की घटनाए कम होती चली गयीं । दक्षिण के अस्पतालों, विशेषकर शंकर नेत्र अस्पताल के बारे मे भी बहुत अच्छी खबरें मिलती हैं । काश ! दूसरी संस्थाएं भी इनसे सबक ले पाती ।
प्रसिद्ध अंग्रेज़ी लेखक रुडयार्ड किपलिंग ने 1893 में एक बड़ी गम्भीर टिप्पणी की थी । तब तक आजादी के निशान दूर-दूर तक नहीं थे । कांग्रेस की स्थापना हो चुकी थी और कुछ–कुछ मांगे की जा रहीं थीं । किपलिंग का कथन आजाद भारत की संस्थाओं के इस हश्र को देख कर और प्रासंगिक लगता है । उन्होंने कहा था कि इस महाद्वीप के लोग मेहनती जरूर है लेकिन ये मेहनत करते तभी हैं, जब कोई इनको हांके । शासन इनके ऊपर अगर छोड़ दिया जाए तो ये फिर से छोटे-छोटे कबीलों और राज्यों की अव्यवस्था की तरफ लौट जाएंगे । याद कीजिए ब्रिटिश शासन ने इस महाद्विप पर पकड़ न्याय, राज्य, प्रशासन, शिक्षा, अस्पताल जैसी संस्थाओं को मजबूत करने के क्रम मे की थी । क्या हमें संस्थाओं के निर्माण के लिए फिर से विदेशों की तरफ लौटना पड़ेगा ?
दिनांक 13/1/2012
Leave a Reply