विनोद मेहता की आत्मकथा लखनऊ ब्वॉय वर्ष 2011 में आयी थी। अपनी साफगोई टटकी भाषा और पत्रकारिता जगत, मालिक, सरकारी हस्तक्षेप, भ्रष्टाचार के किस्सों पर अपनी वेवाक राय के कारण खासी मसैहूर रही। उसी की अगली कडी़ है एडीटर अनप्लग्ड। उतनी ही पठनीय और वौद्धिक खुराक लिए। शायद लखनऊ ब्वॉय से और दो कदम आगे। क्यों लिखी ? बडे चुटीले अंदाज में शुरु के पृष्ठों में बतौर भूमिका ‘सूर्यास्त की ओर कदम’ में लिखते हैं ‘सत्तर साल तक आउटलुक के एक ही दफ्तर में काम करते रहने के बाद अचानक मेरे सामने सुझावों का अम्वार था। क्या आपको गोल्फ या बागवानी पसंद है? नहीं। संगीत ? बहुत नहीं। एन.जी.ओ. का काम जैसे कंडोम बांटना ? कतई नहीं। सचमुच लेखन के अलावा मैं कुछ और सोच भी नहीं सकता।‘
बिल्कुल ठीक किया विनोद मेहता जी ने ऐसी किताब लिखकर। संक्षेप में जीवनी समेटी जाए तो 1974 में अंग्रेजी पत्रिका डिवोनियर के संपादक पद से शुरु करके इंडिपेडेंट, संडे आर्व्जवर, इंडियन पोस्ट पाइनियर होते हुए 1995 में आउटलुक का संपादन सभाला और इंडिया टुडे जैसी पत्रिकाओं को जबॅरदस्त चुनौती दी। ‘लखनऊ ब्वॉय’ में इन सभी की पूरी दास्तान है और यह भी कि वे अकेले ऐसे संपादक हैं जिन्हें सबसे ज्यादा पत्र-पत्रिका शुरु करने का और छोड़ने का श्रेय जाता है। इसलिए विनोद मेहता की ये किताबें आजा़दी के बाद की मीडिया, राजनीति या कहें पूर्ण व्यवस्था का प्रमाणिक आईना है। नई किताब का वैचारिक पक्ष और भी बेहतर लगता है। बाईस पेजी पहले दो अध्यायों में अपनी पूरी यात्रा के वरक्स पूरी भारतीय पत्रकारिता पर उन के एक-एक शब्द महत्वपूर्ण है। खुशवंत सिंह, सी.आर.ईरानी, गिरी लाल जैन जैसे दिग्गज संपादक और उनके मालिकों से लेकर तरुण तेजपाल, कूमी कपूर, सागरिका घोष, साकेत दत्ता के साथ संबंध, समीकरण उठा-पटक की दास्तानें।
टाइम्स ऑफ इंडिया में समीर जैन ने क्यों और कैसे संपादक के पद को महत्वहीन बना दिया उसकी झलक पठनीय है। विनोद मेहता के अनुसार समीर जैन को उनके पिता अशोक जैन ने यशस्वी गिरिलाल जैन के साथ काम सीखने के लिए नात कर दिया था। गिरिलाल ने उसे बिल्कुल तवज्जों नहीं दी और वे इधर उधर कॉरीडोर में घूमते रहते थे। समीर ने इसी का बदला पूरी संपादकीय कौम से लिया। टाइम्स ऑफ इंडिया, इकोनोमिक टाइम्स से लेकर जितने भी अखवार पत्रिकाएं हैं सभी बिना नाम, बिना चेहरे के संपादक हैं।
आउटलुक की लम्बी पारी को याद करते हुए उनका मानना है कि संपादक को समय-समय पर केलकुलेटड खतरा लेना ही चाहिए । अच्छी पत्रकारिता की यही पहचान है। ज्यादा सावधान संपादक बहुत ‘वोर’ चीजें प्रकाशित करता है। मैनें हर बार यही किया। 2011 में जब टाटा के राडिया टेप के कारण मुझे त्यागपत्र देना पडा़(पृष्ठ 13) नक्सवादी हिंसा में सरकारी दमन के खिलाफ अपनी पत्रकारिता और हस्तक्षेप की कामयावी को वे अपने कैरियर की सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि मानते हैं।
लखनऊ ब्वॉय में उन्होंने कुछ चुनिंदा लोगों, दोस्तों पर एक अध्याय शामिल किया था जिनमें शामिल थे सलमान रश्दी, मोदित सेन, बी.एस.नागपाल, शोभाडे, सोनिया गांधी और एडीटर यानि अपना कुत्ता। किसी को जानना हो तो एक प्रमाणिक रास्ता यह भी है कि वह व्यक्ति उन चरित्रों के बारे में क्या सोचता है। इस किताब में भी उन्होंने छ: लोग जिनके वे प्रशंसक हैं शामिल किया है। ये हैं ख्वाजा अहमद अब्बास, रस्किन बोंड, सचिन तेंदुलकर, जॉनी बाकर, खुशवंत सिंह और अरुंधति रॉय। लेकिन शीर्षक के अनुरुप केवल इनकी प्रशंसा नहीं है उनका पूरा व्यक्तित्च अपनी मानवोचित खामियों के साथ मात्र 2-3 पृष्ठों में सामने आता है । इस अध्याय को शुरु करने से पहले उनहोंने ‘हीरो वर्शिस’ के प्रति तिरस्कार भी जाहिर किया है। एक श्रेष्ठ निबंध की भूमिका वतौर वेहद ज्ञानबर्धक है ये दो पृष्ठ इस लेख के । ‘मुझे अक्सर ऐसे नायकों की पूजा पसंद नहीं है क्योंकि कहीं न कहीं उनके पैर भी उसी मिट्टी के बने होते हैं। जर्मन नाटककार कवि वटोल्ट वैख्त के महूर नाटक गैलीलियो से एक वाक्य उन्होंने ठीक ही उद्दृत किया है । जिस देश में नायक की दरकार होगी वह कभी सुखी नहीं होगा।(पृष्ठ122) वे फिर कुछ नायक गिनाते हैं। नेल्सन मंडेला कुछ-कुछ नायकत्व के करीब हैं लेकिन उनके लीबिया के निरंकुश शासक गददाफी और उत्तरी कोरिया के तानाशाह किम दो-सुंग के सर्मथन को क्या कहा जाए। ऐसी ही एकाध खामी वे महात्मा गांधी, मदर टेरेसा की गिनाते हैं। फिर एक-एक कर लिखते हैं अपने चेहतों पर। फिल्मकार ख्वाजा अहमद अब्बास एक कट्टर कम्यूनिस्ट थे। फिल्मों की भव्यता से जुडे़ होने के बाबजूद एक फकीर की तरह जिंदा रहते थे। राजकपूर की मशहूर फिल्में आवारा, बूट पॉलिश, श्री चार सौ बीस, जागते रहो, बॉबी मेरा नाम, जोकर के साथ-साथ कई मशहूर उपन्यास किताबों के लेखक। कई बार फिल्में फ्लॉप भी हुई। लोग समझेते थे कि जनता जो चाहती है वैसी फिल्में बनाओ। उनका अडि़यल वैचारिक जबाव था ‘मैं केवल वह काम करूंगा जो मुझे अच्छा लगता है, जो मेरी सामाजिक चेतना के करीब है।‘ (पृष्ठ 127) दुनिया जानती है कि वह नेहरू के बहुत करीब थे। अपने अंतिम दिनों में जब नेहरू बीमार थे अब्बास उनसे मिलने आये। बीमारी में भी नेहरू ने उठकर अब्बास का स्वागत किया यह कहते हुए, मैं मरते दम तक अपनी तहजीव नहीं भूल सकता। दोस्ती, मिठास परस्पर सम्मान के ऐसे ही विवरण अंग्रेजी लेखक रस्किन बॉंड के बारे में है।
अपने चेहते व्यक्तियों के साथ-साथ इस किताब में पिछले कुछ वर्षों में चर्चित विवादास्पद चेहेर-नीरा राडिया, रतन टाटा, अरविंद केजरीवाल और नरेन्द्र मोदी प्रत्येक पर अलग से अध्याय शामिल हैं। हरेक के बारे में छोटी-मोटी जीवनी की तरज पर ‘ नीरा 1995 में लंदन से भारत आयीं। अपने पति को तलाक देकर। सुब्रत रॉय सहारा में सम्पर्क अधिकारी से शुरु करके जल्दी ही सिंगापुर एअर लाइन में पहुंची और शीघ्र ही रतन टाटा और मुकेश अंबानी के करीब पहुंच गयी। इतनी जल्दी कैसे नीरा की कंपनी आगे बढी़ यह अभी भी रहस्य है। यहां तक कि रातों रात टाटा समूह ने अपनी नब्बे कंपनियों के जनसंपर्क का काम राडिया की पीआर कंपनी को सोंप दिया । और फिर पूरी दास्तान ख्याति, कुख्याति की। आजा़दी के बाद की लाविग का सबसे धमाकेदार हिस्सा कि कैसे यूपीए सरकार के मंत्री बनवाने और हटाने तक में नीरा की भूमिका रही। एक एक विवरण। दलाली की कला की जादूगरनी नीरा के बारे में विनोद मेहता ने बेहद संतुलित गद्य लिखा है।
2जी घोटाले में रतन टाटा की संलिप्ता सामने आयी राडिया टेप से यह खुलासा हुआ तो रतन टाटा भड़क गए। कहॉं तो उनकी लाइन यू-टाटा रिश्वत नहीं देते, टाटा राजनीति नहीं करते’ और कहां नीरा के साथ मिलकर इतना बडा़ घोटाला। नतीजा टाटा की सभी नब्बे कंपनियों के आउटलुक के विज्ञापन बंद। और तो और टाटा के रेस्ट्रां, होटलों में भी जाने की पाबंदी। टाटा ने विनोद मेहता और आउटलुक के खिलाफ आपराधिक मानहानि का मुकदमा ठोक दिया जो अभी भी कोर्ट में है। मेहता लिखते हैं कि यदि टाटा जीतते हैं तो वे तिहाड़ में होंगे(पृष्ठ 64) । इस लेख में निजता के अधिकार पर भी लंबी टिप्पणी है। वे मानते हैं कि निजता का अधिकार होना चाहिए लेकिन यदि सार्वजनिक हितों की बात हो तो लोकतंत्र के नाते निजता का न्यौछावर करना होगा।‘’। बावजूद व्यक्तिगत खुन्नस, कोर्ट, कचहरी के मेहता की भाषा पूरे लेख में शालीन और संयत है। वे टाटा की प्रसंशा में लेख समाप्त करते हैं कि टेटली चाय, जगुआर और कोरस तीन विदेशी ब्रांडों पर कब्जा करके टाटा ने कंपनी का चेहरा ही बदल दिया।
‘मीडिया और कार्पोरेट’ भी एक जरुरी अध्याय है। लेख की शुरुआत इन शब्दों से होती है। शायद ही कोई सप्ताह ऐसा होता है कि जब मीडिया के कार्पोरेटीकरण का शोर नहीं मचता । जिसे देखों वही इसे मीडिया की स्वतंत्रता के साथ-साथ लोकतंत्र के लिए खतरा बताता है। ‘मैनें यह शब्द 1990 में जरूर सुने लेकिन क्या आज़ादी से पहले के चारों प्रमुख अखवार टाइम्स ऑफ इंडिया(पश्चिमी भारत), हिन्दुस्तान टाइम्स(उत्तर), स्टेटमेन(पूर्व)और हिन्दु (दक्षिण)ाभ् भी बडे़ औद्यौगिक घरानों ने ही नहीं निकाले थे?‘अस्सी के दशक में गुवाहाटी से सेन्टोनल, कोलकत्ता से टेलिग्राफ और 1988 में जेके समूह के विजपत सिंघानिया, दि इंडिपेडेट भी मीडिया में आगे आये और फिर थापर(पायोनियर) अम्बानी(संडे अखवार) भी इसमें कूदे। अम्बानी पर कटाक्ष करते हुए विनोद मेहता लिखते हैं ‘अम्बानी बोले’ ‘सूचना ही ताकत है और हमें मीडिया साम्राज्य खडा़ करना है। उस साम्राज्य का क्या हुआ यह प्रसंग अलग पूरी किताब मांगता है(पृष्ठ 69)
पत्रकारिता के छात्रों के लिए बहुत महत्वपूर्ण विवरण इसमें हैं। जैसे प्रणव रॉय के NDTV के 14.7 प्रतिशत जिंदल के ऑसवाल ग्रुप ने खरीद लिये हैं और गौतम अडानी भी यदि इसके शेयर खरीद लेते हैं तो प्रणव और राधिका मजे से विदेश जा कर वस सकते हैं। विनोद शर्मा का न्यूज एक्स चैनल है और उन्होंने एमजे अकबर का संडे गार्जियन भी अभी खरीदा है। दैनिक भास्कर, टीवी-18, अम्बानी, मारन सभी मीडिया घरानों के विवरण इसमें हैं। मेहता लिखते हैं कि शायद ही किसी ने ट्रस्ट बनाया हो। इकोनोमिक एंड पोलिटिकल वीकली के समीक्षा ट्रस्ट या ट्रिव्यून को छोड कर। स्टेटसमैन ट्रस्ट 1970 के मध्य में समाप्त हो गया।(पृष्ठ 76)
मीडिया में इतने वर्ष रहने के बाद उनका निष्कर्श गौरतलब है। मीडिया का कार्पोरेट घराने में आना इतना बुरा नहीं है जितना कि चंद लोगो की मोनोपोली या कब्जा। रूपर्ट मर्डकोच और सिल्विया बर्लूाकोनी इसी के उदाहरण है। एक लोकतांत्रिक व्यवस्था इसे कैसे रोकती है यह महतवपूर्ण है। लगातार शिकायत करने या रोने चिल्लाने के बजाये संपादक को अपने मालिक के साथ एक रचनात्मक संबंध विकसित करना होगा। यह मुश्किल जरुर है लेकिन असंभव नहीं (पृष्ठ 77) । विनोद मेहता का मानना है कि मुकेश अम्बानी और समीर जैन दोनों ही भारतीय मीडिया पर छाने की तैयारी में है।
मीडिया से जुडे़ चर्चित, मशहूर बहुत कम लोग विनोद मेहता की तरह अपनी कुर्षो की मजाक उडा़ पाते हैं। उन्हीं के शब्दों में संपादक, पत्रकार समझते हैं कि उनके एक एक शब्द का दुनिया इंतजार कर रही है। मैनें अपने कुत्ते को संपादक यूं ही नहीं कहता(पृष्ठ 262)। शुरु की भूमिका में भी वे यही बात और विस्तार से कहते हैं। किसी भी पत्रकार, संपादक के लिए सबसे मुश्किल, दुखद क्षण होता है जब सामने वाला पूरी अनभिज्ञता से कहता है मैनें पढा़ नहीं। फिलहाल केन्द्रीय मंत्री रविशंकर का उदाहरण देते हुए वे लिखते हैं कि यदि कोई खबर उनकी या पार्टी के पक्ष में हो तो तुरंत वे धन्यवाद भेजेंगे। वरना चुप्पी। आप बताना भी चाहें तो कहेंगे ‘अच्छा ! पत्रिका भिजवा देना।’ शब्द से जुडे़ हर शख्स को इससे सीखने की जरूरत है।
पुस्तक का सबसे लम्बा अध्याय है दि डानेस्टी। वंशबाद। राजनीति शासन के अध्येताओं के लिए बहुत जरुरी। मेहता मानते हैं कि नेहरु से थोड़ा शुरु होकर इसे असली रूप इन्दिरा गॉंधी ने दिया। उनके बाद संजय और फिर राजीव, सोनिया। राहुल पर प्रश्न खडा़ करते हुए वे लिखते हैं कि प्रियंका क्यों नहीं। व्यंग्य करते हुए लिखते हैं कि करुणानिधि, बादल, मुलायम सिंह यादव, लालू यादव सबको इन्दिरा गाँधी का आभार मानना चाहिए इस वंशबाद को शुरु करने के लिए। राजनीति के दो मुख्य चेहरे नरेन्द्र मोदी और अरविंद केजरीवाल का भी बहुत दिलचश्प आकलन पुस्तक में है।
यों हिन्दी में भी प्रभाष जोशी, राजेन्द्र माथुर से लेकर सैंकडो़ प्रखर पत्रकार है लेकिन सत्ता को ऐसी चुनौती शायद ही किसी ने दी हो। राडिया टेप, कोलगेट और कुछ अन्ना, केजरीवाल का असर कि केवल सत्ता ही नहीं बदली, सत्ता में वह पार्टी अपने अकेले वूते पर आई जो भारतीय राजनीति में अभी तक हाशिये पर थी। मीडिया को चौथा स्तम्भ यूं ही नहीं कहा जाता। एक जगह उन्होंने इसी किताब में लिखा भी कि यदि टाटा मानहानि के मुकदमें में जीतते हैं तो वे तिहाड़ जेल में होंगे। बावजूद इसके ऐसी निडर कलम के मालिक है मेहता और कई बार लिखते हैं कि अगले जन्म में भी संपादक (फिल्मी पत्रिका का नहीं) बनना चाहूंगा।
पुस्तक: एडीटर अनप्लग्ड/ विनोद मेहता
प्रकाशक:पेग्विन पृष्ठ 273
मूल्य 599/- रूपये