मैं उस पर कहानी लिखना चाहता था ।
कई वर्षों तक यह विचार मेरे अन्दर चहलकदमी करता रहा कि बात कैसे आगे बढ़े । आँखों में आँखें डालकर उसकी आँखें बताना चाहती थीं अपनी कहानी । मुझे इतना भर पता था कि पड़ौस के चौधरी की सेवा के लिए इसे रखा गया है । पिछले दस-बारह साल से ।
वो मुझे अक्सर बालकॉनी में दिख जाती थी । उम्र लगभग पचास बरस ? कुछ कम भी हो सकती है । गदराया बदन, चमकीली आँखें । बंगाली में ही कुछ-कुछ बोलते, बतियाते हुए । कभी-कभी फ्लैटों की चारदीवारी के पास सटी पान की दुकान तक ऊँची आवाज में संवाद करते हुए । पता नहीं उसे कैसे पता था कि कौन-कौन बंगाली लड़के, मजदूर दुकान के आस-पास से गुजरते हैं । वह दूर से ही आवाज लगाती जोर-जोर से बतियाती, हंसती, डांटती, सुझाव देती और तुरत-फुरत फिर अन्दर चली जाती । शायद मालिक या मालकिन के इशारे पर । मेरे लिए पहेली की तरह था यह सब ।
उससे परिचय की कई परतें हैं । जब मैं इस फ्लैट में किराये पर आया तो कई दिन तक जैसे महानगर में होता है, कोई संवाद नहीं हुआ । फिर संडे को हमने एक-दूसरे को देखा । मैं कपड़े धोकर सुखा रहा था । उसे यकीन हुआ कि हो न हो मैं इस घर का नौकर हूँ । उसने खुद पहल कर बात करनी चाही- बंगाली में ही । जिसके भाव थे ‘कहॉं से हो, प्यारे ! क्या-क्या काम करते हो ? दिन में कहॉं चले जाते हो ? इस घर में और कौन-कौन हैं ?’
फिर धीरे-धीरे तार जुड़ते गये,
‘आप कहॉं से ?’
‘वीरभूमि ।’
‘बंगाल में या बिहार में ?’
वह क्या जवाब देती ? मुझे भी पक्का नहीं पता था कि नक्शे में वीरभूमि कहॉं है ।
वीरान बालकॉनी में मानो उनकी परछाई अभी भी खड़ी है कुछ सुनने, बतियाने के लिए ।
मनुष्य कितना भी अकेलेपन में शांति की तलाश करे सच्ची शांति दुनिया के साथ दु:ख-दर्द बॉंटने में मिलती है ।
बालकॉनी में खड़कन के साथ ही हम आ खड़े होते ।
वह कुछ कहना चाहती थी ।
मैं कुछ सुनना चाहता था ।
लेकिन कैसे ? जब मैं उसकी बात भी पूरी तरह नहीं समझ सकता । बंगाली भी ऐसी जिसे दूर दराज के ठेठ गॉंवों, देहात में बोला जाता होगा ।
वक्त ऐसे ही गुजरता रहा । वर्ष-दर-वर्ष ।
टुकड़े-टुकड़े सच किस्से, घटनाएं छनकर आती रहीं । मुकम्मिल पूरी कभी नहीं ।
पता लगा उसका नाम केया है ।
खुद के साथ-साथ पड़ोसियों की आँखों का डर भी रहता । कहानी के चक्कर में मेरी भी चटखारेदार कहानी न बन जाये । फिर यह यकीन भी था कि मौका तो मिलेगा ही !
लेकिन अचानक ये खबर । उफ्फ !
मैं क्यों नहीं पूछ पाया वह सब । सारे प्रश्नों की चमगादड़ें मुझसे लिपट रही हैं ।
क्या हुआ था ? क्यों घर छोड़ना पड़ा ? कैसे शादी हुई थी ? बच्चे की याद आती होगी ? वो कौन थी जिसे उसका आदमी जबरन घर ले आया था ? सास-श्वसुर मोहल्ला, समाज ? कोई कुछ नहीं बोला, फिर दिल्ली किसके साथ आयी ? प्लेसमेंट एजेंसी कैसे गयीं ?
बीच-बीच में, मैं बस इतना पूछ पाता था- ‘आपका बेटा ठीक है ।’ उसकी आँखें जलती-बुझतीं । ‘हॉं ।’
‘कभी चिट्ठी लिखता है ?’
‘फोन, फोन ।’ वो कानों पर हाथ रखकर बताती । बस ।
‘कभी दिल्ली आया ?’
उसके होंठ सिल जाते ।
बस फिर बन्टी के बारे में शुरू हो जाती । मानो प्रसंग सिर्फ अपने एकांत के लिए है, पब्लिक के लिए नहीं । ‘आज छुट्टी है बंटी की ?’
‘नहीं लेट जाएगा ?’
‘परीक्षा ?’
कुछ शब्द मानो उसने दिल्ली में ही सीखे थे ?
‘कुछ दिनों बाद होगी ?’ मैं जवाब देता ।
‘गौरव की भी कुछ दिन बाद होगी । फिर वह हैदराबाद जायेगा नौकरी पर । उसकी नौकरी लग गयी है । पर एक साल बाद जायेगा । बहुत होशियार है ।’
उसकी आँखों की चमक बताती मानो अपने बेटे की बात कर रही है ।
‘आपका बेटा भी तो गौरव के बराबर है । उसकी भी नौकरी लगेगी । फिर उसके साथ रहना ।’ मैं उसकी उम्मीदों को पंख लगाता ।
उसने मानो सुना ही न हो । ‘गौरव के पापा का भी ट्रांसफर हो जायेगा । कलकत्ता जायेंगे ।’
‘और आप ?’
उन्होंने खुले आसमान की ओर हथेलियॉं उलट दीं ।
मैंने महसूस किया इस प्रश्न से मानो वे डर गयी हैं ।
चौधरी की बूढ़ी मॉं जब तक जिन्दा रहीं उसकी नौकरी पक्की ही नहीं, मॉं के किसी भी बेटा, बेटी, पोती से ज्यादा जरूरी थी । बरसों-बरसों से बिस्तर पर पड़ी मॉं का मरना जहॉं चौधरी परिवार के लिए एक बड़ी राहत थी वहीं केया के लिए जिंदगी की अनिश्चितता की शुरूआत, शायद केया इसे जानती होगी कि बुढि़या को जिंदा रखने के लिए कितना जरूरी है । सर्दियों की ठिठुरती रात में पड़ोस के टायलेट से आवाजें आती रहतीं । बंगला तो समझ में नहीं आती थी, लेकिन खटर-खटर से लगता कि मॉं ने बिस्तर गन्दा कर दिया है और वह अकेली ही सफाई में लगी है ।
ऐसा रोज ही होता था ।
बेटे ने केया को रखा ही इसलिए था । उनकी पत्नी को तो खुद अपना रूमाल भी धोते किसी ने नहीं देखा होगा, सास की सेवा वो क्या करती । पूरे रहन, सहन से वे किसी ऐसे जमींदार की बेटी लगती थीं जिसने जमीन पर पैर ही नहीं रखे हों ।
शहर से लौटने पर एक दिन पता लगा कि चौधरी साहब की मॉं नहीं रही । और भी ऐसी ही बातों की भिनभिनाहट कि नब्बे बरस की थीं और पिछले दस बरस से तो सब कुछ बिस्तर पर ही होता था । अच्छा हुआ, मोक्ष मिल गया । दिल्ली के इतने छोटे घरों में कितना मुश्किल है ऐसे बीमारों को झेलना, आदमी कहॉं तो खुद रहे और कहॉं बूढ़े मॉं-बाप को । ये नौकरानी न होती तो कितना मुश्किल होता । कोई बहू नहीं उठा सकती गू-मूत । ऐसे काम तो नौकर-चाकर ही कर सकते हैं । मेरी पत्नी ने अपनी ओर से जोड़ा ।
कई महीने बीते होंगे इस बात को । सर्दियों के अँधेरे भुकभुके में, मैं ‘मॉर्निंग वाक’ की रफ्तार में था । देखा केया एक बच्चे का स्कूल बैग पकड़े खड़ी है, बस के इंतजार में ।
पहले तो पहचानने में दिक्कत हुई । कुछ अंधेरा, कुछ अचानक । लेकिन उससे ज्यादा निचुड़ा सा शरीर । पुरानी कद-काठी की एकदम आधी । उससे ज्यादा मानो वो अपने को छुपाने की कोशिश कर रही हो ।
मेरे पैर फिर भी ठिठक गये । ठीक तो हो ? यहॉं कैसे ? मैंने तो सुना था कि घर वीरभूमि वापस चली गयी हो ।
उसके सिर्फ पहचानने भर को होंठ हिले । इस बीच स्कूल बस में बच्चे चढ़ने लगे । उसका सारा ध्यान बच्चे को बस में चढ़ाने में था । बस के जाने तक टुकुर-टुकुर देखता रहा ।
‘मैं अब यहां ‘मानस सोसायटी’ में हूँ । किसी को बताना नहीं । उसने उंगली से दो-दो बार इशारा करके मना किया ।’ मैं कुछ समझा, कुछ नहीं समझा । इससे आगे पूछने की हिम्मत नहीं हुई ।
कई बार ऐसा होता है कि आप कुछ आँखों के भावों को और ज्यादा जानना चाहते हैं शायद वे आँखें भी बोलना चाहती हैं लेकिन इससे आगे बर्फ जमी रहती है । मैं मदद भी क्या कर सकता था ? क्या उसे अपने घर ठिकाना दे सकता हूँ ? यदि बीमार है तो क्या अस्पताल ले जा सकता हूँ ? जब वह खुद ही अज्ञातवास में रहता चाहती है तो आग्रह कर भी कैसे सकता हूँ ।
मैंने पत्नी को जरूर सब कुछ बता दिया सिर्फ यह सुनने के लिए कि दुनिया भर की महिलाओं से तो तुम्हें सिम्पेथी है, अपनी पत्नी से नहीं । और जोड़ते हुए कि वैसे तो आपके पास बिल्कुल समय नहीं होता, इन बातों को कैसे सूँघते फिरते हो । सुबह-सुबह टहलने जाते हो या नैन मिलाने ।
और वाकई एक दिन अचानक उसी बालकॉनी में नैन फिर मिल गये । वे पुराने दिनों की तरह ही अल्गनी पर कपड़े सुखा रही थीं । काले झकाझक बाल, बिखरे हुए । शरीर सूखकर जरूर कॉंटा हो गया था । पहचान से परे ।
वे लौटकर फिर चौधरी के घर आ गयी थीं । कैसे आयीं ? क्यों आयीं ? और क्यों चली गयी थीं- ये प्रश्न अभी भी मेरे दिमाग में फड़फड़ा रहे हैं ।
रविवार का दिन था । वे सामने के ब्लॉक में चौधरी की बहन को खाना लेकर जा रही थीं । इस बार उन्होंने पहल की । बिट्टू, बंटी ठीक हैं ? आप ठीक हैं ? इनकी बहन बीमार चल रही है । दोनों वक्त खाना पहुँचाती हूँ । दवा देने जाती हूँ । उसने शादी नहीं की । रेडियो की आर्टिस्ट है बहुत बड़ी । बहुत दिनों के बाद मुझे चेहरे पर रंगत लौटती दिख रही थी । वैसे ही जैसे पहले चौधरी की मॉं की सेवा करते हुए दिखती थी । सेवा के लिए, जीने के लिए अब एक और मकसद जो मिल गया था ।
अमीरों के चेहरे जिस सेवा शब्द से कुम्हला जाते हैं, रोजी-रोटी की खातिर गरीबों के उतने ही तृप्त ।
‘ठीक हो जाओ अब । बहुत कमजोर हो गयी हो आप ?’
उनकी आँखें में ऑंसू ढुलक गये । वो खाना नहीं देती थी । एक भी दिन मछली, मांस कुछ नहीं । सब कुछ खुद ही खा जाते थे । घर से भी नहीं निकलने देते थे । कभी-कभी मारते भी थे । डर भरी नजरों से इधर-उधर देखती हुई वे सिसकने लगीं ।
कहीं मेरी नजर से चौधरी को कोई गफलत न हो मैंने बात को तुरन्त समेटा । ‘कोई बात नहीं । अब सब ठीक हो जायेगा ।’
हुआ शायद यह कि मॉं के मरने के बाद ऐसी नौकरानी का क्या हो तो उसे जाने के लिए कह दिया गया । लेकिन वह जाती कहॉं- वीरभूमि ? जहॉं से उसके पति ने खदेड़ दिया था । चितरंजन पार्क ? आखिर वहॉं गयी तो प्लेसमेंट एजेन्सी की बदौलत फिर इसी एरिया में भेज दिया गया ।
अपने पुराने घोंसले चौधरी के घर को, उसकी स्मृतियों को वह जिन्दा भी रखना चाहती थी और दूर भी भागती थी ।
क्यों न भागे ? जब तक मॉं के लिए जरूरत थी, ऐसे काम के लिए जिसे खूनी रिश्ते तो कदापि नहीं करते, उसे रखा गया । एक दिन के लिए भी कहीं नहीं जाने दिया गया । ‘बूढ़ी मॉं के खत्म होते ही मानो उसे भी बुढि़या के पुराने लत्ते, कपड़े, पलंग बिछौना के साथ बाहर कर दिया गया ।’
गौरव सिर्फ सात साल का था जब वे इस घर में आयी थीं । बिल्कुल अपने बेटे की उम्र का ।
अन्दर ही अन्दर मानो वे अपने बेटे को बड़ा होते देख रही थीं । ‘गौरव अब टी.वी. बन्द करो । होमवर्क करो । ये गीले मोजे हैं, इन्हें मत पहनो । कभी बालकॉनी में गौरव की मालिश कर रही हैं, कभी उसके साथ बंगाली में बातचीत ।’
क्या बच्चों पर सिर्फ उनके जन्म देने वाली मॉं का ही अधिकार होता है, उन्हें खिलाने पिलाने वाले नौकर, चाकरों का कुछ नहीं ?
एक दिन उसने बताया था कि जब चली गयी थी, तो गौरव की बहुत याद आती थी । मैं उसे दूर से देखने की कोशिश करती थी । अब कभी नहीं जाऊँगी ।
अस्पताल में पड़ी केया की पुतलियों में क्या पता गौरव की यादें भी रही हों ।
दिल्ली जैसे शहरों में परिचय के अंतिम लैम्प पोस्ट होली, दीवाली अभी भी कुछ भूमिका निभा रही है । उसी दिन पता चला कि केया कई महीनों से बीमार है । शरीर सूज गया था । यहॉं से पहले चित्तरंजन पार्क गयी । वहॉं से उनका भाई गॉंव छोड़ आया है ।
अमीर बीमार होते हैं तो दिल्ली पहुंचते हैं । गरीब दिल्ली में भी बीमार हों तो शहर छोड़ देते हैं । ये शहर जीने के लिए तो मजदूरी का जुगाड़ कर सकते हैं बीमारी में दवा का नहीं । ये बड़े-बड़े अस्पताल ऑल इण्डिया मेडिकल साइंस, मैट्रो अस्पताल सिर्फ बड़े पैसे वालों के लिए हैं । गरीब को गॉंव में ही मरना है । अपनों के बीच मरने की तसल्ली तो है ।
चौबीस घंटे भी नहीं होंगे उनकी बीमारी की खबर मिलने के कि मालकिन ने बताया केया खत्म हो गयी । अभी फोन आया है । वे कंघी से बाल संवारती जा रही थीं ।
गौरव भी साथ खड़ा था ।
मॉं-बेटे के चेहरे से कहीं नहीं लग रहा था किसी मौत की सूचना दे रही हैं ।
‘अरे ! कल ही तो पता चला कि बीमार है ।’
‘हार्ट का आपरेशन करना पड़ा । दिल की सफाई की, एंजियोप्लास्टी की । उसी में खत्म हो गयी । यहॉं भी उसकी तबियत ठीक नहीं रहती थी । उसके दिल में सूराख था । उसे चढ़ने-उतरने में सांस फूल जाती थी ।’
‘लेकिन वो तो बार-बार चौथी मंजिल से उतरकर बाजार जाती थी । चौधरी साहब की बहन को खाना पहुंचाने के लिए भी तो उसे तीसरी मंजिल पर चढ़ना पड़ता था ।’
मालकिन को कोई जवाब नहीं सूझा । शायद अन्दर इस जवाब को सोख गयी हों कि नौकर काम के लिए रखे जाते हैं, इलाज के लिए नहीं ।
‘किसने बताया ।’
‘उसके भाई का फोन आया था ।’
कौन था उस समय उसके पास ? क्या बेटा था ? पति तो क्या ही होगा ? क्या उम्र थी इनकी ? मैंने कुछ प्रश्न बुदबुदाये कुछ नहीं और वापस कमरे में बैठ गया ।
क्या-क्या घटा होगा ?
कौन रहा होगा अंतिम क्षणों में उसके पास ?
उसका नौजवान बेटा जिसे पन्द्रह बरस पहले पॉंच वर्ष की उम्र में छोड़ना पड़ा था । क्या बचा होगा मॉं-बेटे का संबंध ? कभी-कभी जाती तो थीं लेकिन अपने गॉंव वीरभूमि जाती थीं या दिल्ली में ही चित्तरंजन पार्क में रह रहे अपने भाई संबंधियों के पास । बेटा पिता ने अपने पास रखकर मॉं को घर से निकाल दिया था । कोई भी औरत क्यों बरदाश्त करती ? पति ने एक औरत को घर में रख लिया था । इसने बखेड़ा किया तो घर से बाहर हॉंक दी गयी ।
भुगतना औरत को ही पड़ता है । तालिबान हो या कोई और नाम । पचास की उम्र भी कोई उम्र होती है ? बूढ़े अमीरों की उम्र के लिए कितने गरीबों को अपनी उम्र कुरबान करनी पड़ती है । इनके कष्ट और कराह कौन सुनता है ? मैं फिर बालकॉनी में आकर खड़ा हो गया हूँ – उधर देख रहा हूँ जहॉं ठहरकर वे टूटी-फूटी बंगला, हिंदी में हाल-चाल पूछती थीं । अपने बताती थीं, डरते-डरते । मालकिन की पदचाप से वे भी पीछे हट जाती थीं जैसे मैं । अगली बार के इन्तजार में ।
शाम को वे कभी-कभी मालकिन के साथ सब्जी, सामान का भारी थैला लादे मिलतीं । मैं सोचता कि कई मालकिनों से उनकी नौकरानियॉं कितनी अच्छी हैं । गुदड़ी में लाल । एक चेहरा खुदा के इशारे से रानी, महारानी, कहलाने लगता है और कभी उससे भी सुन्दर नौकरानी, डायन न जाने क्या-क्या ।
बाअदब सबसे नमस्ते करती । मालकिन ठीक ही कह रही है उसे सब जानते थे सब्जी वाला, दूधवाला, चौकीदार……।
शहर की जिंदगी भी एक विचित्र संयोग-वियोग है । कई चेहरे दिखते हैं फिर कभी न दिखने के लिए गायब हो जाते हैं । कोई मकान छोड़कर चला जाता है, कोई दुनिया । लेकिन दुनिया फिर भी चलती रहती है ।
मुझे उसकी सपनीली आँखें दिखाई दे रही हैं । अस्पताल के एक कोने में अर्धचेतन । आपरेशन हो चुका है । डॉक्टर, सिस्टर के साथ राउंड पर था । सिस्टर ने आवाज लगाई । बेड नं.103 । अरे कौन है इनके पास ? इन्हें तो कल शाम को ही बेड खाली करना था । सिस्टर मानो डाक्टर को खुद सफाई दे रही है । सिस्टर ने झुककर केया की आँखों में झॉंका फिर हाथ के इशारे से पूछा कहॉं हैं सब ? कौन है आपके साथ ?
दिली (दिल्ली) ?
‘दिल्ली नहीं यहॉं कौन है आपके साथ ?’
कोई हो न हो सपने तो होंगे ही इन पुतलियों में । क्या सपनों पर हक सिर्फ अमीरों का है ।
क्या प्रेम, स्नेह, याचना भरी वे आँखें कभी नहीं दिखाई देंगी ? मैं उन्हीं आँखों से क्षमा मॉंग रहा हूँ । एक लेखक के नाते भी । आपसे आपकी व्यथा भी नहीं सुन पाया ? आप बहुत कुछ कहना चाहता थीं । वक्त, हिम्मत, धैर्य नहीं था तो सिर्फ मेरे पास । आँखें मुंदते वक्त यदि मैं भी पल के लिए स्मृतियों में आया हूँ तो ईश्वर ! मुझे माफ करना ।
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