हर वर्ष की तरह पिछले हफ्ते दिल्ली के मशहूर निजी स्कूलों में दाखिले में बेईमानी, रिश्वतखोरी की कुछ और नायाब दास्तानें सामने आयी हैं । दिल्ली जैसे महानगर के बाशिंदों के लिये ये बातें अब खबरें बनने लायक भी नहीं रही क्योंकि हम सबके हाथ कम ज्यादा समझौते और चुप्पी के इन अपराधों में रंगे हैं । इसलिये यह शौर्य गाथा दोस्त की नहीं मेरी और आप, हम सबकी है ।
शेरपा तेनजिग और एडमंड हिलेरी ने जब ऐवरेस्ट पर झंडा फहराया होगा तो उनकी आंखें संभवत: ऐसे ही चमक रही होंगी । अफसोस उस समय उन आंखों की चमक देखने वाला आसपास कोई नहीं था । लेकिन इस दोस्त की चमक के हम गवाह हैं कि कैसे उनके बच्चे का दिल्ली के एक नामी स्कूल में दाखिला हुआ । शादी, समारोह ऐसे ही किस्सों को विस्तार से सुनने के लिए होते हैं । वे बता रहे थे मैंने दिल्ली के उस प्रिंसिपल को कहा कि मेरा भी नाम नहीं यदि मेरा बच्चा यहां दाखिल नहीं हुआ तो । मैंने अमुक एम.पी. से बात की । वे तो उस पार्टी के प्रवक्ता हैं । हमने उनके बहुत इंटरव्यू छापे हैं जब मैं अमर, समर अखबार में था । फिर टेलीविजन पर भी रोज बाइट देता था । उन्होंने मुझे घर पर संदेश देकर बुलवाया । मेरे सामने ही उन्होंने केन्द्रीय मंत्री को फोन मिलाया और बस अगले दिन नजारा देखने लायक था । जब मैं स्कूल पहुंचा तो गेट पर दो लोग खड़े थे । पता नहीं उन्होंने मुझे कैसे पहचान लिया ? उस दिन प्रिंसिपल एक राजनीतिक पार्टी के दफ्तर गये हुए थे लेकिन वे सबको बता गये थे । जब तक हमने चाय पी तब तक फीस की रसीद और सब कुछ हाजिर । भई मानो या न मानो स्कूल बहुत अच्छा है । बड़ा अनुशासन है । यहां के बच्चे तो सीधे इंग्लैंड, अमेरिका जा रहे हैं ।
उनकी पत्नी भी साथ ही खड़ी थीं । अब उन्होंने जोड़ा- पता नहीं मौहल्ले वालों को कैसे पता लगा । शाम को लौटे तो घर पर कई लोग बैठे हुए थे । कोई कह रहा था हम तो लाख खर्च कर सकते हैं । अब हम उन्हें कैसे समझाएं ! अब छोटी का भी दाखिला वहीं कराएंगे और इसीलिए हमने यह फैसला किया कि अब मकान भी इसी इलाके में लेंगे ।
दोस्तों ! ये है हजारों दास्तानों में से एक । देश की राजधानी दिल्ली के स्कूलों की । पत्रकार, अफसर राजनीतिक पार्टी के नेता और शिक्षा के माफिया की । दोस्त की ईमानदारी की तारीफ करूंगा इस सच बयानी की जिसे हम सब छिपा जाते हैं । क्या बोफर्स मामले की प्रसिद्ध पत्रकार चित्रा सुब्रमणियम की किताब ‘इंडिया इज फोर सेल’ जो 1998 में प्रकाशित हुई थी उसमें गलत लिखा था कि हमारे बुद्धिजीवियों के बड़े वर्ग को कुछ दाखिले या विदेशों की सैर सपाटे, मकान या किसी कमेटी की सदस्यता से आसानी से खरीदा जा सकता है । टी.एन.शेषन ने भी कुछ वर्ष पहले ऐसा ही कुछ जोड़ा था कि, अफसर, पत्रकारों को दारू की बोतल या एक विदेशी पैन से भी खरीदा जा सकता है । निश्चित रूप से ऐसे पत्रकारों से कई गुना ज्यादा वो हैं जो जान हथेली पर रखकर रिपोर्टिंग कर रहे हैं और लोकतंत्र को जिंदा बचाए हुए हैं । हाल के टू.जी., थ्री.जी. स्केम हों या पुराने भागलपुर में आंखें फोड़ने की घटनाएं या गुजरात के नरसंहार के खिलाफ उठी हुई आवाजें ।
यहां मसला स्कूल और बच्चों के दाखिले का है । सत्ता उदारीकरण का भले ही कितना ढोल पीटे कि अब हर नागरिक के से जहां चाहे जा सकता है । स्टारटप खोल सकता है, पढ़ सकता है यदि ऐसा है तो फिर अपने नजदीक के स्कूलों में दाखिलें के लिए इतनी तिकड़मों और समझौतों की जरूरत क्यों ? उदारीकरण के बाद तो स्कूलों के दाखिलें और भी पहाड़ बनते जा रहे हैं । निजीकरण बढ़ रहा है और सरकारी स्कूल बंद हो रहे हैं । इंडियन एक्सप्रेस 21 नवम्बर की खबर बताती है कि जहां प्रतिव्यक्ति दिल्ली की आय बढ़ी है बिजली, पानी, इंटरनेट, मोबाईल, घर, टेलीविजन कई गुना बढ़े हैं वहीं सैंकड़ों सरकारी स्कूल बंद हुए हैं । 2006 के मुकाबले स्कूल और कम हो गये और बच्चे तीन गुना ज्यादा । इसी वर्ष की एक और बड़ी खबर थी कि सरकारी स्कूलों में ग्यारहवीं, बारहवीं की कक्षाओं में विज्ञान, कामर्स जैसे सभी विषयों की सीटें कम कर दी गई हैं । सरकारी तर्क कह रहे हैं कि हमारे पास न जगह है, न शिक्षक । फिर गरीब कहां जाएंगे ? सरकार तो रात-दिन इन्हीं गरीबों के नाम पर खा-कमा रही है । बस यहीं निजी स्कूल मौके का फायदा उठा रहे हैं । और ये स्कूल हैं राजनीतिक दलों के हाथों में जिन्होंने न शिक्षाविद कोठारी की समान शिक्षा का नाम सुना, न तीन वर्ष पहले गांगुली समिति की सिफारिशों को माना । क्या सरकार अपने ही आयोग और समितियों की रिपोर्ट का मजाक उड़वाने के लिये है ? यहां सूत्र खोजा जा सकता है कि वो किन पत्रकारों के बच्चों का दाखिला कराएंगे और क्यों ? यह अचानक नहीं है कि यू.पी., बिहार से दिल्ली पहुंचे हजारों नौजवान पहले शाहजहां रोड़, संघ लोकसेवा की तैयारी में जुटते हैं और वहां से असफल होकर पत्रकारिता की दुनिया में । दोनों के केन्द्र में सत्ता की पकड़ है । यह अलग बात है कि पत्रकारिता के वीर बालक कुछ दिनों बाद नौकरशाही के वीरों को कम आंकने लगें । लेकिन दोनों की समानता इस बात में है कि विशेषाधिकार की तलाश दोनों ही पक्षों को है । और ये विशेषाधिकार उन्होंने सीखें हैं अपने उन राजनैतिक आकाओं से जिन पर आप न संसद में मुकदमा चला सकते, न असेम्बली में । नतीजा पूरी व्यवस्था का हर नागरिक ऐसे समझौतों, शौर्यगाथा की तरफ बढ़ता ।
2012 में कही और सुनी गई ऐसी शौर्यगाथाओं की शुरूआत अस्सी के दशक से धीरे-धीरे सामने आने लगी थी । और समूची दिल्ली या उसके आसपास का इलाका या देश के दूसरे विशेषकर हिंदी पट्टी के बड़े नगरों के स्कूल इन्हीं शौर्यगाथाओं के प्रमाण हैं । काश ! हम सभी ने उन विकल्पों के बारे में भी सोचा होता जिससे मेरे ही बच्चे नहीं पूरे समाज के बच्चों का हित जुड़ा होता । यहां तमिलनाडू के उस कलैक्टर को नमन करने का मन करता है जिसकी शौर्यगाथा एक साल पहले आपने अखबार में पढ़ी होगी । तमिलनाडू का कलैक्टर अपनी बेटी के दाखिले के लिए सरकारी स्कूल की लाइन में खड़े थे । वहां के किसी कर्मचारी ने उन्हें पहचान लिया । उन्होंने बड़ी विनम्रता से कहा मेरी बेटी वहीं पढ़ेगी जहॉं ज्यादातर बच्चे पढ़ते हैं । बस स्कूल बेहतरी की तरफ बढ़ने लगा । हम सब इससे सीख सकते हैं । क्या समान शिक्षा, अस्पताल के हक के लिये सड़कों पर उतरकर शौर्य दिखाने का वक्त आ गया ?