हाल ही में भारतीय मूल के पत्रकार फरीद जकारिया का अमेरिकी टाइम पत्रिका में छपा एक लेख सुर्खियों में आया है । उन पर आरोप था कि उस लेख में कुछ अंश ज्यों के त्यों कहीं और से उड़ाये गये हैं । जकारिया की सफाई के बावजूद एक महीने के लिए उनके कॉलम को पत्रिका ने हटा दिया । यह अलग बात है कि मामले की पूरी जॉंच के बाद वे फिर से टाइम पत्रिका और एक और न्यूज चैनल में बहाल कर दिये गये हैं ।
शोध और मौलिकता के पैमाने पर अमेरिका के इस कदम की तारीफ की जानी चाहिए । सुना है अमेरिका, यूरोप के सभी विश्वविद्यालयों में बिना उद्धृत किये या संदर्भ के स्पष्टीकरण के किसी शब्द या विचार की चोरी बिल्कुल बर्दाश्त नहीं की जाती । यहां तक कि ग्रेजुएट पाठ्यक्रमों तक में छात्रों से जो निबंध, लेख या छोटी-मोटी थीसिस लिखाई जाती है उसमें भी पूरी मौलिकता और नवीनता की अपेक्षा की जाती है । कंप्यूटर तकनीक से ऐसे प्रस्तुत सभी शोध पत्रों की जॉंच, स्केनिंग की जाती है । उद्देश्य सिर्फ यही कि ज्ञान के सृजन में आपका कुछ मौलिक स्वतंत्र योगदान अवश्य हो ।
आइये अब भारत के विश्वविद्यालयों की तस्वीर का जायजा लेते हैं । दिल्ली स्थित देश के सर्वाधिक प्रगतिशील विश्वविद्यालय का अनुभव सॉंझा करते हैं । राजनीति विज्ञान के अन्दर एक छात्र ने नब्बे के दशक में एम.फिल के लिए अपना शोध प्रस्तुत किया । निदेशक प्रोफेसर छात्र के इस काम से बहुत संतुष्ट और गद-गद थे लेकिन उन्होंने कहा कि इस थीसिस का इस्तेमाल पी.एच.डी. के लिए करोगे तो ज्यादा अच्छा होगा । एम.फिल में हम मौलिक विचारों के बजाय यह अपेक्षा करते हैं कि आपका अध्ययन क्षेत्र कितना विस्तृत है । संदेश जाहिर है कि कितने विद्वानों के कितने वक्तव्य, विचारों को थीसिस में पैबंद की तरह बुन सकते हैं । दूसरे शब्दों में ‘कट पेस्ट’ में आप कितने प्रवीण हैं । यह उदाहरण सिर्फ इसीलिए दिया है कि यदि दिल्ली के सर्वाधिक प्रगतिशील विश्वविद्यालय की धारणा शोध के बारे में ऐसी है तो दूसरे विश्वविद्यालयों का क्या होगा ? उत्तर प्रदेश, दिल्ली के विश्वविद्यालयों के स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम में शायद ही कहीं लघु शोध पत्र लिखाया जाता हो । स्नातक या स्नातकोत्तर होने के लिए ज्यादातर विश्वविद्यालय में अध्ययन, अध्यापन की ऐसी परिपाटी चल पड़ी है कि मूल पुस्तक की भी जरूरत नहीं पड़ती । आपकी मदद के लिए हाजिर हैं कुंजी, गैस पेपर या दूसरे शार्टकट । इन सभी गैस पेपर्स के पहले पृष्ठ पर यहां तक लिखा होता है कि ‘आपकी प्रतिभा इस बात में है कि कम पढ़कर ज्यादा-से-ज्यादा नंबर लाएं । आपके पास मूल पुस्तकों को पढ़ने के लिए समय कहॉं है । हमारा दावा है कि इन गैस पेपर्स को पढ़कर, रटकर आप फर्स्ट डिवीजन में पास हो सकते हैं ।’ यानि कि स्कूल से लेकर विश्वविद्यालयों तक कहीं भी मौलिक ज्ञान पर जोर नहीं है । है तो सिर्फ रटंत पर ।
एन.सी.ई.आर.टी. में राजनीति विज्ञान की पुस्तकों के सलाहकार रहे और पिछले दिनों एक कार्टून के विवाद के चलते सुर्खियों में आए प्रोफेसर योगेन्द्र यादव का अनुभव भी गौर करने लायक है । प्रोफेसर योगेन्द्र यादव का एक लेख 3 वर्ष पहले जयपुर से निकलने वाली दिगंतर संस्थान की पत्रिका ‘शिक्षा विमर्श’ में छपा था । स्कूली पाठ्यक्रम की पुस्तकें बनने के बाद हरियाणा के कुछ गॉंवों के स्कूलों में उनका जाना हुआ । पाठ्यक्रम को लागू हुए दो-तीन वर्ष हो चुके थे । इसलिए वे स्कूल के प्रधानाचार्य, प्राध्यापकों की प्रतिक्रिया जानना चाहते थे । उन्हें देखकर दु:ख हुआ कि वे किताबें पाठ्यक्रम में शामिल होने के बावजूद न बच्चों के पास हैं, न स्कूल के अध्यापकों ने देखीं । उनके बदले में हाजिर किताबें थीं कुंजी और दूसरी टीका पुस्तकें । हॉं, उन पर यह जरूर लिखा हुआ था कि ये एन.सी.ई.आर.टी. के नये पाठ्यक्रम पर आधारित हैं । इस उदाहरण से आप समझ सकते हैं कि बड़े-बड़े विद्वानों, इतिहासकारों द्वारा बनाये गये पाठ्यक्रम की क्या दुर्गति हो सकती है ? यहॉं घोड़े को पानी पिलाने का प्रश्न भी तब पैदा होगा जब उसे खींचकर तालाब तक लाया जाये । क्या हमारी शिक्षा व्यवस्था में कोई ऐसे निरीक्षण का प्रावधान है जो किताबों की गुणवत्ता या एन.सी.ई.आर.टी. की किताबों को सुनिश्चित कर सके ।
जब स्कूल और कॉलेज में अध्ययन, पठन-पाठन का यह रूप है तो पी.एच.डी. या शोध में भी यही प्रतिबिंबित होगा । यहॉं तक कि शोध या पी.एच.डी. तो और मजाक की चीज बन गयी है । सुना है कि दिल्ली समेत उत्तर भारत के लगभग सभी विश्वविद्यालयों में किराये पर शोध प्रबंध लिखे और लिखाए जा रहे हैं । कहीं बीस हजार में तो कहीं इससे भी कम पर घर बैठे कई गृहणियॉं और दुकानदार पैसे के बूते डॉक्टर साहब कहलाने लगे हैं । पिछले दिनों जब से निजी स्कूलों और कॉलेजों की भरमार हुई है और विश्वविद्यालयों में प्रवक्ता के पद के लिए पी.एच.डी. अनिवार्य हुई है तब से ऐसी किराये पर लिखी जाने वाली डिग्रियों में भीषण बढ़ोतरी हुई है । ये कुछ कारण हैं जिनकी वजह से हमारी साख शिक्षा के क्षेत्र में दुनिया भर में गिरी है । डॉक्टरी से लेकर दूसरे क्षेत्रों में भी भारतीय डिग्रियों पर यकीन न करके उन्हें अलग से परीक्षा देनी पड़ती है । इसमें गलत भी कुछ नहीं है । इस हेराफेरी के बूते बिना कोई दंड पाए आप इस देश में तो प्रोफेसर और वाइस चांसलर बन सकते हैं लेकिन दुनिया के दूसरे विश्वविद्यालय आपकी डिग्री से क्यों आतंकित हों ?
‘समकालीन जनमत’ के प्रधान संपादक और सामाजिक, राजनैतिक कार्यकर्त्ता रामजी राय ने उत्तर प्रदेश की राजधानी के एक प्राध्यापक का बड़ा जोरदार अनुभव सुनाया । हिन्दी के ये प्राध्यापक अपने पिता के प्रति बहुत कटु बने रहते थे । कारण कि पिता की वजह से उन्हें पढ़ने-पढ़ाने के काम में आना पड़ा । इनके पिताश्री भी वहीं प्राध्यापक थे । उन्होंने बेटे का भविष्य बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी । पहले विश्वविद्यालय में प्रथम श्रेणी दिलवाई फिर पी.एच.डी. खुद लिखी और प्राध्यापक बनवा दिया । लेकिन प्राध्यापक बनने के बाद छात्रों के बीच तो जाना ही पड़ेगा । क्लास में घुसते ही उन्हें तनाव होने लगता । कुछ आता हो तो पढ़ायें । बताते हैं कि सीनियरटी की सीढि़यॉं चढ़ते हुए जब वे विभाग के अध्यक्ष बन गये तब उन्हें शांति मिली कि अब पढ़ाने से तो मुक्ति मिली । जिन छात्रों को उन्होंने पढ़ाया होगा उनके भविष्य का अंदाजा आप लगा सकते हैं ।
इस प्रकरण से विश्वविद्यालय के दलित और सवर्ण सभी विमर्शकार बहुत कुछ सीख सकते हैं । आखिर क्यों आज तक दिल्ली समेत ज्यादातर विश्वविद्यालयों में भर्ती के लिये समान परीक्षा भर्ती बोर्ड की व्यवस्था नहीं की गयी ? ऐसा होगा तो गुरू-चेले या राजनैतिक गुटों, गठबंधनों के गिरोहों को कौन पूछेगा ?
पिछले दिनों प्राध्यापक बनने की कतार में खड़े शोधरत दिल्ली विश्वविद्यालय के कुछ छात्रों से बात करके और निराशा पैदा हुई । कुछ दिनों से शिक्षा के नाम पर ऐसे सभी शोध छात्रों को विश्वविद्यालय अनुदान आयोग से अच्छी रकम प्रतिमाह मिलती है । राजीव फेलोशिप के अंतर्गत पच्चीस हजार के आसपास तक । यानि कि उतना पैसा जितना कि एक बैंक अधिकारी को मिलता है दिन भर काम करने और कई परीक्षाओं के दौर से गुजरने के बाद । लगभग पांच वर्षों तक मुफ्त मिले पैसे ने इन्हें और भी आलसी बना दिया है । वे शायद ही समकालीन सृजन विचार, लेखन या उपन्यासों से परिचित हैं । शोध के विषय लौट-फिर कर वही या तो दलित चेतना या स्त्री विमर्श के आसपास या व्यक्ति और कृतित्व की खोज । इस वजीफे की वजह से उनके सामने वे चुनौतियां भी नहीं रही जो अस्सी के दशक में दिल्ली में जीवित रहने के आर्थिक संकट के चलते लिखने-पढ़ने की तरफ अग्रसर हुए थे । हर युग का यह सत्य है कि संघर्ष ही आपको मांजता है ।
एक और खतरनाक पक्ष रेखांकित करने लायक है । बिहार, उत्तर प्रदेश से आए इन छात्रों को स्त्री और दलित विमर्श की ऐसी राजनैतिक बहसों में जरूरत से ज्यादा उलझा लिया है कि कुछ और बनने-समझने, सोचने की उनकी संभावना ही समाप्ति की तरफ है । इन विषयों की जरूरत इनके गुरू, प्राध्यापक, नेताओं को हो सकती है शोध छात्रों के लिए तो यह राजनीति विश्वविद्यालयों के शैक्षिक माहौल को बर्बाद ही कर देगी या कर रही है ।
कथाकार संजीव के शब्दों में- हिन्दी के कई प्राध्यापक आपके ऊपर शोध कराने को एक अहसान की तरह देखते हैं । कई बार वे एक के बाद एक मामूली फेरबदल के साथ कराते रहते हैं जिसमें पुनरावृत्ति ज्यादा होती है । हर पक्ष खुश- गाइड भी, विद्यार्थी भी और लेखक भी । आदिवासी कविता के नाम पर दुकान चलाने वाले एक कवि ने तो अपने ऊपर चालीस पी.एच.डी. करा ली हैं । हिन्दी शोध के ये घोटाले कोयला, टेलीफोन घोटाले से कम दु:खद नहीं है ।
जकारिया और नकल के दूसरे उदाहरणों से हम इतना तो सीख ही सकते हैं कि हमारी शिक्षा में रटंत और नकल की बजाय मौलिकता को तरजीह दी जाए । शोध के नाम पर बड़े-बड़े सैंकड़ों, हजारों पृष्ठों के जिल्द उत्पादन के बजाए मौलिकता पर कुछ पृष्ठ भी पर्याप्त होंगे । कंप्यूटर की नयी तकनीकों का उपयोग करते हुए ऐसे सभी शोध पत्र की जॉंच होनी चाहिए जिनमें ऐसी चुराई हुई बातों या विचारों का विस्तार न हुआ हो ।
विश्वविद्यालय के प्रोफेसर, शिक्षक तो बुद्धिजीवियों की पहली कतार में आते हैं । उनके यहॉं यह हो रहा है तो देश का तो फिर भगवान ही मालिक है ।
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