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शुभ घड़ी का सम्मान

Jan 23, 2012 ~ Leave a Comment ~ Written by Prempal Sharma

कुछ आदतें हैं कि खुद से ही बाज नहीं आतीं । जैसे शादी के कार्ड पर लिखे समय पर पहुँचना मेरी ढीठ आदत है, तो ज्‍यादातर भारतीय शादियों की वक्‍त से दो-चार घंटे पीछे शुरू होना ।

 

दिल्‍ली में शुरू के अनुभवों में ही यह सीखा कि कार्ड में दिए हुए समय का कोई मतलब नहीं  है ।  कई बार पहुंचकर पाया कि पंडाल में सिर्फ अकेले आप ही बैठे हैं । फिर मन में पैर फैलाये बैठे  कई सिद्धांतो को उखाड़ते हुए थोड़ा लेट पहुँचना शुरू   किया । लेकिन उसका भी कोई अर्थ नहीं । एक रिश्‍तेदार की सगाई का टाईम पॉंच बजे था, जब हम पहुँचे तो वहॉं झाडू लग रही थी तथा घरवाले रिश्‍तेदारों को लेकर पार्लर गए हुए थे ।  दो-तीन घंटे बाद वे पहुँचे ।  लेकिन उनके चेहरे पर दूर-दूर तक किसी अफसोस की छाया नहीं थी कि कोई विलंब उनकी ओर से हुआ है । बस इतना बोले भई ! दिल्‍ली की जिंदगी में इतना तो आगे-पीछे हो ही जाता है ।

 

सर्दियों की एक और कोहरे भरी शादी का अनुभव भुलाए नहीं भूलता ।  जब वहॉं पहुँचे तो पंडाल के अंदर कोहरे में लिपटी खाली कुर्सियां थीं, आदमी एक भी नही ।  ऐसी शादियों से लौटने के बाद आप अगली शादी में जाने की हिम्‍मत मुश्‍किल से ही जुटा पाते हैं । क्‍या महँगे, चमचमाते कार्ड पर समय लिखते वक्‍त उसके पालन के बारे में थोड़ी भी सजगता से नहीं सोचा जाता ?  भारतीय शादियों में अगर समय की किसी सूई पर ध्‍यान रखा जाता है तो सिर्फ उस घड़ी का जो उनके ज्‍योतिष या पंडित जी ने शादी के मुहुर्त के लिये बताई है । बाकी मेहमान, दोस्‍तों के लिये समय की कोई जगह नहीं होती । लगता है सिर्फ दुल्‍हा ही खुशी में नहीं बौराया होता, बल्कि पूरा परिवार     भी । घडी, समय सब भूलकर ।

 

यहॉं तो दिमाग में नियत समय से एक मिनट ज्‍यादा होते ही घंटी बजने लगती है  और इसके बदले में मिलता है विशेषकर पत्‍नी से प्रताड़ना और बेवकूफी के जुमले ।  समय के मामले में वे भी कम समझदार नहीं है, इतनी ज्‍यादा कि उन्‍होंने घर के चप्‍पे-चप्‍पे पर घडि़यॉं लगा रखी हैं ।   बरामदा, ड्रॉइंग रूम, बेडरूम यहां तक कि रसोई में भी । अलग-अलग  मॉडल । कईयों को उन्‍होंने सही समय से दस-बीस मिनट आगे-पीछे कर रखा है । उनका तर्क ‘पहले तो भी तैयार हो जाती हूँ ।’  अब आप सोचते रहिए कि किस घड़ी में कितना घटा, जोड़कर सही समय आएगा ।  नतीजा फिर भी   वही । शायद ही कभी वक्‍त पर दफ्तर निकलती हों । और एक सुबह की बाई है जिसके पास कोई घड़ी नहीं है, पैदल आती है लेकिन वह शायद ही कभी लेट होती   हो । यदि घड़ी का मतलब निष्‍ठा या लगन से है तो उसे सिर्फ दीवारों पर टॉंगने से नहीं लाया जा सकता ।   सरकारी दफ्तरों में अपने कर्मचारियो को समय पर पहुँचने के हजार नुस्‍खें अपनाए हैं ।  दफ्तर में घुसते ही घड़ी है लेकिन कर्मचारी इन्‍हें बिराते हुए दफ्तर में प्रवेश करते हैं ।

 

जिस तंत्र के अफसर और मंत्री समय पर पहुँचना अपनी तौहीन या अपने महत्‍व को कम होना ऑंकते हों वहॉं का समाज भी वैसा करे तो क्‍या आश्‍चर्य । इंतजार कराने वाले कब यह समझेंगे कि समय पर पहुँचना परस्‍पर एक-दूसरे को सम्‍मान देना है । विनोद मेहता अपनी आत्‍मकथा ‘लखनऊ बॉय’ में वी.एस.नॉयपाल के बारे में लिखते हैं कि समय के वे ऐसे पाबंद कि इंटरव्‍यू में पन्‍द्रह मिनट भी देरी हो जाये तो वे उखड़कर भाग सकते हैं । गांधी जी के बारे में समय पालन के सैंकड़ों किस्‍से आते हैं । समय का पालन तो होना ही चाहिये चाहे आप संतरी हों या मंत्री ।

 

राष्‍ट्रीय स्‍तर पर भी यही हो रहा है घड़ी, कैलेंडर सब फेल हो गए हैं ।  शुरू के दस सालों में ही हमें सौ प्रतिशत साक्षर होना था, राजभाषा हिन्‍दी अगले पंद्रह वर्षों में आनी थी लेकिन सब   बेमानी । आपको नहीं लगता कि हमारे विकास की घड़ी दो सौ, तीन सौ वर्ष पीछे चल रही है ।  ऐसे अंधे समय में कभी-कभी समय पर काम होना या वक्‍त से पहले होना एक उम्‍मीद से भर देता है । दिल्‍ली मेट्रो इसका साक्षात उदाहरण  है । पैंसठ किलोमीटर के पहले चरण को पूरा होना था दस बरस  में । श्रीधरन ने कर दिखाया सात बरस में ।  दूसरे चरण के एक सौ पच्‍चीस किलोमीटर को उससे भी पहले सिर्फ साढ़े चार में ।  भारतीय रेल के अधिकारियों के प्रशिक्षण के दौरान दिल्‍ली मेट्रो के दफ्तर में उनसे कई मुलाकातें याद आ रही हैं ।  सत्‍तर साल से अधिक की उम्र में श्रीधरन नौ बजने में तीन मिनट पहले ही हाजिर थे ।  जबकि प्रशिक्षु अधिकारी   गायब ।  किसी का बहाना था कि मैं रोहिणी में रहता हूं और किसी का कुछ और ।  शायद इन सारे अधिकारियों, कर्मचारियों को सरकार में आने से पहले ही संदेश मिल जाता है कि यही एक जगह है जहॉं घडि़यॉं, समय का कोई वजूद नहीं है । यह सरकार कालातीत समयातीत है ।

 

कसूर इन अधिकारियों, मित्रों या पत्‍नी का नहीं है बल्कि पूरे ढॉंचे का है जिसमें प्रसाद की पवित्रता, पूजनीयता पर तो बल है,  मंदिर के खुलने के समय पर नहीं ।  पिछले दिनों द्वारिका के एक मंदिर के सामने हम खड़े थे । मंदिर खुलने का समय लिखा था सुबह के नौ बजे ।  लोग चुपचाप लाईन में खड़े थे लेकिन आधे घंटे के बाद भी कोई नहीं आया । पुजारी वहीं थे, बराबर के चबूतरे पर अपनी नंगी, दिव्‍य, बड़ी-बड़ी देहों को देखते, दिखाते । कुछ चिरौरी तकरार करने के बाद उन्‍होंने मंदिर खोला । परमशांति से यह कहते हुए कि भगवान के दर्शन करने में कोई जल्‍दबाजी नहीं होनी चाहिए ।  पता नहीं स्‍टीफन हॉकिंग का ऐसे लोगों से पाला पड़ा है या नहीं वरना जिस ‘समय का संक्षिप्‍त इतिहास’ लिखने में उन्‍होंने अपनी पूरी उम्र खपा दी, उसकी रेड़ पिटती देखकर वे खुद अपना सिर पीट लेते ।

 

क्‍या कोई घड़ी, कम्‍प्‍यूटर या विज्ञान इसे बदल सकता है ?

 

दिनांक : 23/01/2012

Posted in Lekh, Samaaj
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Prempal Sharma

प्रेमपाल शर्मा

जन्म:
15 अक्टूबर 1956, बुलन्द शहर (गॉंव-दीघी) उत्तर प्रदेश

रचनाएँ:
कहानी संग्रह (4)
लेख संग्रह (7)
शिक्षा (6)
उपन्यास (1)
कविता (1)
व्यंग्य (1)
अनुवाद (1)


पुरस्कार/सम्मान :
इफको सम्मान, हिन्दी अकादमी पुरस्कार (2005), इंदिरा गांधी राजभाषा पुरस्कार (2015)

संपर्क:
96 , कला कला विहार अपार्टमेंट्स, मयूर विहार फेस -I, दिल्ली 110091

दूरभाष:
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