मोदी सरकार द्वारा गठित पांच सदस्यीय सुब्रहमनियन समिति ने अपनी लगभग दौ सौ पृष्ठों की रिपोर्ट मानव संसाधन विकास मंत्रालय को सोंप दी है। कुल मोटामोटी तैंतीस विषयों पर समिति को विचार करना था और इस समिति के अध्यक्ष थे पूर्व केबिनेट सचिव टी.एस.आर.सुब्रहमनियन जो प्रशासनिक दक्षता के साथ साथ अपने प्रखर विचारों, लेखों और सामाजिक सक्रियता के लिए भी जाने जाते हैं। उम्मीद के मुताबिक समिति ने कुछ महत्वपूर्ण सिफारिशें की हैं जिनमें एक सिफारिश अभूतपूर्व ही कही जाएगी। यह है विश्वविद्यालयी शिक्षकों के लिए एक अखिल भारतीय शिक्षा सेवा का गठन जिसकी नियुक्तियां भी संघ लोक सेवा आयोग द्वारा सिविल सेवा परीक्षा की तर्ज पर हों। विश्वविद्यालयी शिक्षा सुधार के लिए यह बहुत जरूरी और दूरगामी कदम होगा। यों शिक्षा समवर्ती सूची में है लेकिन विश्वविद्यालयों के निरंतर गिरते स्तर को रोकने के लिए यह तुरंत किया जाना चाहिए। विश्वविद्यालयों में शिक्षकों की भर्ती में राजनीति, भाई- भतीजावाद, जातिवाद् और पिछले दिनों अन्य भ्रष्टाचार का ऐसा बोलबाला हुआ हैकि पंसारि कि दुकन कि नौकरि और विस्व्विद्यय कि नौक्रि मे अंतर नहीं बचा। रोज रोज बदलती नेट परीक्षा, पी.एच.डी में उम्र के मापदंडों ने पूरी पीढ़ी का विश्वास खो दिया है। फल फूल रहें हैं तो राजनैतिक शोधपत्र लाइनों पर खड़े शिक्षक संगठन और उनके नेता। नतीजन बावजूद इसके कि इनके वेतनमान,पदोन्नति और अन्य सुविधाएं अखिल भारतीय केन्द्रीय सेवाओं के समकक्ष है, न इनकी रूचि पढ़ाने में है न शोध में। सिफारिश, भ्रष्टाचार के जिस पिछले दरवाजों से इनकी भर्ती हुई है पूरी उम्र ये शिक्षक और इनके संगठन उन्हीं के इशारों पर नाचते रहते हैं। इसीलिए न शोध का स्तर बचा है न अकादमिक माहौल का । यही कारण है कि प्रतिवर्ष अमेरिका, आस्ट्रेलिया से लेकर पूरे योरप में पढ़ने के िलए भारतीयों की संख्या लगातार बढ़ रही है। एक तरफ विदेशी मुद्रा का नुक्सान, देश से प्रतिभा पलायन और दूसरा अपने संसाधनोंका बेकार होते जाना- बेरोजगारी का बढ़़ना। क्या हमारे विश्वविद्यालयों को उस पैमाने पर विश्वविद्यालय कहा जा सकता है जहां कुछ संख्या विदेशी छात्रों की हो या मेधावी विदेशी विश्वविद्यालय के प्रोफेसरों, शिक्षकों की? उत्तर भारत में तो स्थिति यह है कि दक्षिण भारत का भी शायद ही कोई छात्र मिले। केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में जरूर उम्मीद बची है लेकिन पतन वहां भी तेजी से जारी है। अखिल भारतीय सेवा का गठन भर्ती की बुनियादी कमजोरी को दूर करेगा। कम से कम यू.पी.एस.सी. जैसी संस्था की वस्तुस्थिकता, ईमानदारी, प्रगतिशील रूख पर पूरे देश को फख्र है। उम्मीद की जानी चाहिए कि मोदी सरकार ऐसी ही भर्ती प्रणाली न्यायिक सेवा में भी लायेगी। यही कदम सिद्द करेंगे कि क्यों यह पूववर्ती सरकारों से भिन्न है।
दूसरी महत्वपूर्ण मगर उतनी ही विवादास्पद सिफारिश आठवीं तक बच्चों को फेल-पास न करने की नीति को उलटना और बदलना है। शिक्षा अधिकार अधिनियम में यह व्यवस्था की गई जो कि किसी भी बच्चे को आठवीं तक फेल नहीं किया जाएगा। उदेश्य परिणाम पवित्र था जिससे कि जो बच्चे स्कूल छोड़ देते हा उनको एक स्तर तक पढा़ई के लिए स्कूल में रोका जा सके। मगर कार्यान्वयन की खामियों की वजह से स्कूली शिक्षा की गुणवत्ता में भयंकर गिरावट आई है और इसलिए देश के अधिकांश राज्य इसके खिलाफ हैं। अठारह राज्यों में इसे हटाने का अनुरोध केन्द्र सरकार से किया है जिसमें कर्नाटक, केरल, हरियाणा से लेकर दिल्ली जैसे राज्य भी शामिल हैं। क्योंकि शिक्षा का अधिकार कानून केन्द्र सरकार का बनाया हुआ है अत: वही इसमें राज्यों के सुझावों और अब सुब्रहमनियन समिति की सिफारिशों के मद्देनज़र परिवर्तन कर सकती है। किसी भी तर्क से केवल स्कूल में रोकना ही शिक्षा का मकसद नहीं हो सकता। बच्चे को कुछ ज्ञान, जानकारी, लिखना-पढ़ना भी आना चाहिए।
एन.सी.ई.आर.टी. असर प्रथम और दूसरी वीसा संस्थाओं द्वारा समय समय पर किए सर्वेक्षणों, अध्ययनों में यह सामने आा है कि अकेली इस नीति ने शिक्षा का नुक्सान ज्यादा किया है। हाल के परिणाम भी इसके गवाह हैं। दिल्ली के दो स्कूलों में कक्षा नौ में लगभग नब्बे प्रतिशत बच्चे फेल हो गए। कारण आठवीं तक कोई परीक्षा न होने की वजह से उन्होंने कुछ सीखने की जहमत ही नहीं उठाई। अधिकांश मामलों में तो वे स्कूल भी नहीं आते। सुब्रहमनियन समिति ने पांचवी कक्षा के बाद परीक्षा की अनुशंसा की है और यह भी कि फेल होने वाले छात्र को तीन मौके दिए जाएं और स्कूल ऐसे कमजोर बच्चों को पढ़ाने के लिए अतिरिक्त व्यवस्था, सुविधाएं जुटाएं। केवल स्कूल प्रशासन ने ही नहीं अभिभावकों ने भी इन सिफारिशों का स्वागत किया है। पुरानी नीति में थोड़ा सा बदलाव भी तस्वीर बदल देगा।
समिति की कुछ और सिफारिशें पुरानी बातों की पुनरावृत्ति माना जा सकता है जैसे विश्वविद्यालय अनुदान आयोग, ए.आई.सी.टी.ई का पुर्नगठन जिससे ये संस्थाएं और प्रभावी बनाई जा सकें। देश में विदेशी विश्वविद्यालयों को अनुमति भी पुरानी सरकार देना चाहती रहीं है। देखना यह है कि इन मसलों पर जमीन पर राष्ट्रीय हित में परिवर्तन संभव होगा। तीन भाषा फामूर्ले पर भी समिति उसी पुरानी नीति पर चलने के लिए कह रही है जो वर्ष 1968 और वर्ष 1986 की शिक्षा नीति में शामिल था।
भाषा के मसले पर इस समिति से पूरे देश को ज्यादा उम्मीदें थी और नयी मोदी सरकार ने सिविल सेवा परीक्षा में भारतीय भाषाओं के पक्ष के संदर्भ में इसे लागू भी किया था। वर्ष 2011 में यूपीए सरकार ने मनमाने ढंग से सिविल सेवा परीक्षा के प्रथम चरण में अंग्रेजी लाद दी थी जिससे भारतीय भाषा और सफल उम्मीदवारों की संख्या पन्द्रह प्रतिशत से घटकर पांच प्रतिशत से भी कम हो गयी थी। मोदी सरकार ने वर्ष 2014 में इसे उलट दिया था। यों एक और समिति वी.एस. पासवान पूर्व सचिव की अध्यक्षता में संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षाओं का जायजा ले रही है और उम्मीद है कि यह समिति दूसरी अखिल भारतीय सेवाओं जैसे वन सेवा, चिकित्सा, इंजीनियरिंग आदि में भी भारतीय भाषाओं की शुरुआत करेगी। लेकिन सुब्रहमनियम समिति जैसी सर्वोच्च स्कूली और विश्वविद्यालयी दोनों स्तरों पर शिक्षा अपनी भाषाओं में देने की सिफारिश करती तो अच्छा रहता। सुब्रहमनियम उत्तर प्रदेश कैडर के अधिकारी रहे हैं तमिल भाषी हैं और अपनी ताजा किताब टनिंग पांइट में अपने बचपन को याद करते हुए उन्होंने भारतीय भाषाओं में शिक्षा देने की तारीफ और वकालत की है। विद्वानों की इतनी बडी़ समिति से ऐसे राष्ट्रीय मुद्दे पर तो देश को उम्मीद रहती ही है। इलाहाबाद हाई कोर्ट के सरकारी स्कूलों में सुधार और सरकारी अगस्त, 2015 में कर्मचारियों को पढ़ाने की अनिवार्यता पर भी समिति और सरकार को दखल देना चाहिए।
समिति की सिफारिशें मानव संसाधन मंत्रालय के पास हैं। उम्मीद है समिति की सिफारिशों और जनाकाक्षाओं को मूर्तरूप देने में मंत्रालय विलंब नहीं करेगा। न बार बार ऐसी समितियां ऐसे क्रांतिकारी सुझाव देती न तुरंत कार्यान्वयन करने वाली सरकारें ही सत्ता में आतीं। यथास्थितिवाद को ऐसे ही कदम तोड़ेगे।
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