जिस शिक्षा के जरिये हम आजादी के बाद संविधान में प्रदत्त समानता की तरफ बढ़ सकते थे आज वही शिक्षा समाज में असमानता पैदा कर रही है । आजादी के शुरूआती वर्षों में समानता लाने की ऐसी कोशिश हुई भी लेकिन पिछले बीस वर्षों में मानो शिक्षा एक ऐसा समाज बना रही है जो सब कुछ हो सकता है समान नहीं ।
यहॉं इस असमानता के सबसे बड़े औजार यानि कि भाषा के मुद्दे पर विस्तार से बात करेंगे क्योंकि कोई भी शिक्षा भाषा के जरिये ही दी जाती है और आज वही सबसे विध्वंसकारी भूमिका मौजूदा वक्त में निभा रही है । सूत्र वाक्य में कहा जाए तो अपनी भाषा की कीमत पर अंग्रेजी के आतंक ने समाज को गरीब-अमीर में नहीं बल्कि अंग्रेजी जानने वाले और न जानने वालों में बदल दिया है । यों असमानता की और बातें भी हैं जिन्हें आधारभूत सुविधाएं कहा जा सकता है । हम सब ऐसे स्कूलों को जानते हैं जहां एक कमरा और पांच क्लासें चलती हैं । बच्चे भी ठसाठस भरे हुए । न टायलेट की सुविधा, न पीने का पानी और आजाद भारत में ऐसे स्कूल हजारों में हैं । कहीं एक कमरे से ज्यादा भी हैं तो पंखा एक ही है । इसकी वजह से सभी शिक्षक एक पंखें के नीचे आकर बैठ जाते हैं और बच्चे मनमर्जी इधर-उधर । लड़कियों के स्कूलों में टायलेट की कमी एक महत्वपूर्ण कारण है कि बच्चियां स्कूल नहीं जा पा रहीं ।
इस तस्वीर के बरक्स दिल्ली जैसे महानगरों के उन स्कूलों को देखिए जिन पर मोटे-मोटे शब्दों में लिखा होता है ‘पूर्णत: वातानुकूलित’ । और यह दावा भी कि ‘वर्ष में एक बार बच्चे विदेश जरूर जाते हैं ।’ जैसी फीस वैसी सुविधाएं । कुछ शूटिंग, घुड़सवारी की भी व्यवस्था करते हैं । स्कूल में डॉक्टर से लेकर मनोवैज्ञानिक तक का इंतजाम । यह सब देश के पांच-दस प्रतिशत बच्चों के लिए है और बाकी नब्बे प्रतिशत इन सबसे वंचित ।
क्या दुनिया का कोई देश ऐसा होगा जो शिक्षा के नाम पर असमानता के ऐसे धुर्वान्तों पर जीता हो ?
संविधान में शिक्षा के मूल अधिकार और नीति-निर्देशक तत्वों की जो बात की गई थी तो उनके जेहन में यही था कि हर बच्चा स्कूल तक पहुंचेगा और उसे समान शिक्षा मिलेगी । कम-से-कम सन् अस्सी तक सरकारी स्कूलों को बढ़ाने और सबको एक-सी शिक्षा देने की तरफ कदम भी बढ़ाए गये । शिक्षा-आयोग (कोठारी आयोग 1964-66) की रपट में सरकार ने पूरे जोर से इस बात को स्वीकारा कि ‘कॉमन स्कूल सिस्टम’ यानि समान शिक्षा की तरफ कदम बढ़ाए जाएंगे । और उसी की एक और महत्वपूर्ण सिफारिश कि न केवल स्कूली शिक्षा बल्कि उच्च शिक्षा भी अपनी मातृभाषा में देने की कोशिश की जाएगी । सन् 80 के आसपास तक हम सब इसके प्रति आशान्वित थे कि न केवल इतिहास, राजनीति शास्त्र, अर्थ शास्त्र जैसे विषय अपनी भाषा में पढ़ाए जाएंगे बल्कि विज्ञान और चिकित्सा की शिक्षा भी । 1974 में जब कोठारी समिति ने अपनी सिफारिशें की थीं तब दिल्ली विश्वविद्यालय के कॉलेजों में अर्थशास्त्र, राजनीति शास्त्र आदि में बीस से तीस प्रतिशत छात्र हिंदी माध्यम में पढ़ते थे । पैंतीस वर्षों के बाद आज बिहार, उत्तर प्रदेश से आने वाले हजारों छात्र अपनी भाषा हिंदी माध्यम से वंचित किए जा रहे हैं और आश्चर्य न वे खुद आंदोलन कर रहे और न उनके शिक्षक संगठन । यानि कि समान अधिकारों को मांगने की आवाज भी ठंडी पड़ रही हैं ।
आधारभूत सुविधाएं जैसे- कमरे, शिक्षक, टायलेट से हजार गुना कहर अंग्रेजी ने किया है । इतना कि बच्चे न सीख पाने के कारण मानसिक रूप से आत्महत्या तक कर रहे हैं । पिछले कुछ दिनों के दिल्ली के उदाहरणों से ही यह बात साफ हो जाएगी ।
याद कीजिये एम्स में मेडिकल के छात्र अनिल मीना द्वारा आत्महत्या की घटना । उसने जो अपना लिखित नोट छोड़ा उसमें लिखा था ‘मैंने बहुत कोशिश की लेकिन मुझे क्लास में जो अंग्रेजी में पढ़ाया जाता है कुछ समझ में नहीं आता । मैं हताश हूँ ।’ ऐसे ही शब्द थे । बाद में जॉंच-पड़ताल में यह भी पता लगा कि वह अपने दोस्तों से भी अंग्रेजी में पढ़ाई न समझ पाने के कारण बहुत चिंतित और अकेला रहने लगा था । गॉंव से चलकर आये एक गरीब बच्चे को अंग्रेजी का आतंक लील गया । क्या इसके बावजूद भी हम अंग्रेजी के प्रति अपने मोह को नहीं छोड़ सकते ?
एक और बच्ची सरकारी स्कूल की । उम्र नौ साल । टीचर उसे अंग्रेजी के कुछ वाक्य सुनाने की जिद पर अड़ी थी । बच्ची के मॉं-बाप मजदूर, न घर में अंग्रेजी किसी को आती, न आसपास के बच्चों को । न सुना पाने के कारण उसे धूप में खड़ा कर दिया गया । बेहोश हो गई और अस्पताल जाते तक खत्म । ऐसे कितने ही किस्से देश भर से सुनने को मिलते हैं ।
इतना ही नहीं समस्या की जड़ में जाने के बजाए कि बच्चे स्कूल छोड़कर क्यों भागते हैं कभी शिक्षकों पर दोष मढ़ दिया जाता है, कभी उनकी आर्थिक स्थितियों पर । यदि सबसे बड़ी खामी है तो ऐसी शिक्षा की भाषा न बच्चे भाषा समझते हैं, न जिसकी सामग्री से जुड़ाव अनुभव करते हैं । दिल्ली के प्राइमरी सरकारी सकूलों में भी अंग्रेजी शुरू कर दी गई है । शिक्षक भी हताश हैं और बच्चे भी । क्या ऐसी असमानता के लिए सरकारी ढॉंचा जिम्मेदार नहीं है ?
और तो और तीस वर्ष पहले कोठारी समिति की सिफारिशों के अनुसार सिविल सेवा परीक्षा में अपनी भाषा में लिखने की जो छूट दी गई थी उसकी भी उल्टी गिनती शुरू हो गई है ?
आपकी सूचना के लिए कोठारी समिति की सिफारिशों के अनुसार पहली बार सिविल सेवा परीक्षा में वर्ष 1979 से हिंदी समेत अपनी भाषाओं में लिखने की छूट दी गई थी । भाषा के लिए आजाद भारत में सबसे महत्वपूर्ण और क्रांतिकारी कदम । इसकी सफलता या समावेषी मानक का अंदाजा इस बात से लग सकता है कि जहां 1970 में आई एस परीक्षा देने वाले सिर्फ ग्यारह हजार थे, 1979 में उनकी संख्या एक लाख से भी अधिक हो गई । यानि कि दस गुना वृद्धि । जब कि 1950 में यह संख्या सिर्फ तीन हजार थी और 1970 तक केवल तीन गुना बढ़ी । यानि की पहली बार देश के गरीब पहली पीढ़ी के वे लोग आई एस परीक्षा में बैठ पाए जो सिर्फ अंग्रेजी की वजह से नहीं बैठ पाते थे । सफलता के आंकड़े सामने हैं । पिछले तीस वर्षों में दलित, आदिवासी या गरीब तबके के लगभग पचास प्रतिशत से अधिक बच्चे मात्रभाषाओं के बूते ही सिविल सेवाओं में आ पाए हैं । इनमें सभी भाषाओं के मुकाबले हिंदी भाषी सबसे अधिक है । यानि कि कुल सफल छात्रों का पंद्रह प्रतिशत से अधिक । वर्ष 2011 में अचानक प्रारंभिक परीक्षा में फिर अंग्रेजी आ गई है । और ‘इंडियन एक्सप्रेस’ की रपट पर यकीन किया जाए तो 2012 में ही पिछले वर्ष के मुकाबले ग्रामीण उम्मीदवारों की संख्या उनचास से घटकर उनतीस प्रतिशत रह गई है । हम देश के हर नागरिक को उसकी भाषा के आधार पर मुख्य धारा में शामिल करना चाहते हैं या उसे बाहर करना ।
चलो थोड़ी देर के लिए मान भी लिया जाए कि अंग्रेजी के बिना काम नहीं चल सकता और पिछले बीस-तीस साल से तो निजी स्कूल, सरकार और उसके आयोग, ज्ञान आयोग अंग्रेजी की प्रशंसा करते थक ही नहीं रहे फिर स्कूलों का स्तर, कॉलेजों का स्तर क्यों गिरावट की तरफ बढ़ रहा है ? पीसा नाम की एक परीक्षा हुई है जिसमें एशिया के ज्यादातर देश शामिल थे और भारत का नंबर उसमें सबसे पीछे रहा है । सितंबर 2012 के शुरू में एक और अंतर्राष्ट्रीय संस्था की रपट सामने आई है जिसे क्यू एस आंकलन के नाम से जानते हैं । इस रपट के अनुसार दुनिया के पहले दो सौ विश्वविद्यालयों में भारत का एक भी विश्वविद्यालय या संस्थान नहीं है । न आई.आई.टी., न एम्स ।यानि कि जैसे-जैसे पिछले वर्षों में अंग्रेजी बढ़ रही है बच्चों का ध्यान रटंत पर तो है, मौलिकता और रचनात्मकता गायब हो रही है । यह सिर्फ पूरी पीढ़ी को समानता से वंचित करने का ही नहीं, देश को उनके मौलिक शोध और रचनात्मकता का जो योगदान मिल सकता था वह भी गायब । यदि देश भर के संस्थान, विश्वविद्यालयों का स्तर गिर रहा है तो अपनी भाषा में शिक्षा न दिये जाने के कारण । और इससे सामाजिक असमानता और बढ़ी है ।