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शादी का समाज शास्त्र

Dec 14, 2011 ~ Leave a Comment ~ Written by Prempal Sharma

शादी के समारोह, आयोजन स्‍थल का लेखा-जोखा रखने वाला वह बाबू कोई बहुत ज्‍यादा पढ़ा-लिखा नहीं था लेकिन उसने शादी की तारीखों के इर्द–गिर्द बड़ी मजेदार बातें बताईं । बोला हमारे पास मुसलमान भाई आते हैं, पूछते हैं कि कौन सा दिन खाली है ? बस हो गयी बुकिंग । कभी–कभी इतना जरूर पूछते हैं कि मंगलवार को छोड़ दो क्‍योंकि मंगलवार को हमारे कुछ हिन्‍दू दोस्‍त मॉंस-मछली नहीं खाते तो हम ऐसा दिन क्‍यों न चुने जिसमें सब लोग हँसी-खुशी से खाएं-पीएं । सिख भाई आते हैं उनका भी ऐसा ही अंदाज होता है शादी की तारीख चुनने का । बल्कि एक कदम आगे ‘क्‍यूं जी ! क्‍या हम दिन में नहीं कर सकते ?’ सबसे ज्‍यादा समय लेते हैं हिन्‍दू भाई । एक-एक तारीख और उसके शुभ मुहुर्त के लिए । आपस में लड़ते-झगड़ते तक हैं । हर आदमी चाहता है कि वही दिन सबसे शुभ है । देखिये जी ! अल्‍लाह मियॉं या ईश्‍वर, ने सभी दिन अच्‍छे बनाये हैं तो जब मुसलमान, सिख, ईसाई कभी भी शादी कर सकते हैं तो हिन्‍दुओं के पंडित और ज्‍योतिषी उनको क्‍यों डराए रहते हैं । ऐसा लगता है जैसे हिन्‍दू देवी-देवता फरसा लेकर उनके आस-पास घूमते रहते हों और धमकाते रहते हों कि अगर तुमने इस मुहुर्त में शादी नहीं की तो फिर देखना । वरना कौन सा कारण है कि ये अपने दूसरे धर्मों के भाइयों से कुछ नहीं सीखते ।

मजे की बात तो यह है कि हिन्‍दू धर्म के ये पंडित, ज्‍योतिषी दूसरे धर्मावलंबियों को भी बरगला लेते हैं । दफ्तर में मेरे एक मुसलमान दोस्‍त थे मोहम्‍मद अरसद । बहुत मेहनती, मेधावी, सुंदर व्‍यक्तित्‍व वाले । फिल्‍मों में काम करते तो उनके सामने दिलीप कुमार और देवानंद की फिल्‍में पिट जातीं । लेकिन शादी का निर्णय, चुनाव नहीं कर पाए । बीसियों वर्षों के अनुभव से भी मैं नहीं जान पाया कि आखिर कौन-सी आदर्श मूर्ति की तलाश उन्‍हें थी । उम्र के पचपनवे वर्ष में एक लड़की के साथ उनकी बात बनती लगी । मैं भी प्रसन्‍न था । लेकिन शादी की तारीख की जब बात हुई तो बोले कि अमुक तारीख को लड़की वाले करना चाहते हैं लेकिन हमारे पंडित जी मना कर रहे हैं । मैं चौंका कि हमारे पंडित जी उनके घर कैसे पहुँच गये ? बोले कि ‘नहीं ! मैं सारी सलाह उन्‍हीं से लेता हूँ ।’ मैंने समझाया, भड़काया भी कि हिन्‍दू पंडित की बात आप क्‍यों मानते हैं ? आप भी मुसलमान, लड़की भी मुसलमान । उन्‍हें इस बात पर थोड़ा एतराज हुआ । ‘किसी की भी अच्‍छी बातें मानने में हर्ज क्‍या है ?’ बात बिगड़ती लगती देख मुझे एक तरकीब आई । मेरे एक रिश्‍तेदार बहुत विद्वान पंडित हैं । मैंने उनको पहले से ही पटाया-रटाया कि आप इस तारीख की हॉं कर  दीजिए । सुयोग या संयोग जो भी कहो इन रिश्‍तेदार पंडित ने बिना कहे ही उस तारीख पर शादी करने पर कोई एतराज नहीं जताया । मैंने दफ्तर से उन्‍हें फोन मिलाया और अरसद भाई को दे दिया । अरसद जी ने सारी दास्‍तान कहीं-सुनी लेकिन पतनाला वहीं गिरा । उस तारीख को तैयार नहीं हुए और परिणाम वही कि आखिर शादी नहीं हुई ।

शादी का दूसरा पक्ष देश के अलग-अलग हिस्‍सों में अलग रीति-रिवाजों का है । मराठी, गुजराती एक ही दिन में सब कुछ कर डालते हैं तो केरल की शादी पांच–सात मिनट में । वहॉं फेरे भी नहीं होते । दोपहर को तथाकथित पूजा, उसके बाद वरमाला खाना-पीना, रात्रिभोज । बहुत बड़े ताम-झाम भी नहीं । तमिल पंडित जरूर पूरी कार्रवाई घंटों खींचते हैं । गुजरातियों के बीच पॉंच साल रहा हूँ । अमीर से अमीर शादियों में भी वही फाफड़ा, ऊँधियॉं, ढोकला, दाल । कभी-कभी जब हम गुजरातियों को बताते कि उत्‍तर भारत की शादियॉं ऐसी भव्‍य होती हैं तो उन्‍हें यकीन नहीं होता । ऐसा ही यकीन दक्षिण भारतीय एक महिला को नहीं हुआ जो पिछली ही रात दिल्‍ली वालों की एक शादी से लौटी थीं । कान पर हाथ रखकर बोले –हे भगवान ! बीस तरह की तो रोटियॉं थीं और सब्‍जी ? मुझे तो याद ही नहीं कि कितनी थीं ? जूस, चाट, भल्‍ले, कोल्‍ड ड्रिं‍क, हॉट, डोसा, वड़ा,चाउमीन । हम दिल्‍ली में रहने वालों के लिए इसमें से कुछ भी नया नहीं था लेकिन वो लगभग सदमे में थीं । कहती ही जा रही थीं ‘लड़की ने जो लहंगा पहना हुआ था उसमें इतने सारे डायमंड  थे । रात के बारह बजे तक शादी की कोई रस्‍म हमने देखी ही नहीं ।’  वहीं बैठे एक और दोस्‍त ने जोड़ा कि मैंने तो दिल्‍ली में ऐसी शादी अटेंड की है जिसमें बाकायदा उन्‍होंने ड्रेस डिजाइनर लगाया हुआ था कि लगन के दिन लड़का–लड़की पक्ष कौन से रंग की ड्रेस पहनेगा । हर कार्यक्रम की अलग-अलग ड्रेस और साडियां । शादी के दिन लड़की वाले पक्ष के लिए एक रंग,लड़के वालों के लिए दूसरे रंग । कई बार शादी में शरीक होने वालों के लिए ऐसे-ऐसे महंगे रिटर्न गिफ्ट कि आप दांतों तले अँगुली दबा दें । कई बार कुछ लोग तो इतनी सजावट करवाते हैं कि हम फूलों को साफ करते-करते भी परेशान हो जाते हैं । खाना तो टनो में बचता ही है जिसे आसपास के होटलों में भेज दिया जाता है । गांधी का देश सादगी सिखा रहा है या ऐश्‍वर्य का प्रदर्शन । 

कम-से-कम हिन्‍दी भाषी राज्‍यों में तो यह स्‍पष्‍टत: वैभव का भोंडा प्रदर्शन है । शादी के कार्डों की कीमत कभी-कभी सौ-सौ रुपये तक और वजन भी आधा-आधा किलो । अब तो कुरियर आ गया है वरना भारतीय डाक व्‍यवस्‍था ऐसे कार्डों को पहुँचाने में ही चरमरा जाए । पिछले दिनों बाजार में महंगे कार्डों के साथ बांटने के लिए ड्राई फ्रूट, चॉकलेट या और महंगी विदेशी चीजों के गिफ्ट पैक भी मिलने लगे हैं । केरल, तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश के बारे में सुना है कि वहॉं दहेज में पचास-सौ तोला सोना देना आम रिवाज है । क्‍या यह कम बड़ी बुराई है ?

इन बातों को सुनकर, देखकर कोई कह सकता है कि यह वह गरीब देश है जहॉं देश के आधे स्‍कूलों में न ब्‍लैक बोर्ड है, न टायलेट और जिसकी अस्‍सी प्रतिशत जनता आधे पेट भूखी सो जाती  है ।

भारतीय समाज को समझने के लिए शादियां भी किसी समाज शास्‍त्र की किताब से कम नहीं है ।

दिनांक : 14/12/2011

Posted in Lekh, Samaaj
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Prempal Sharma

प्रेमपाल शर्मा

जन्म:
15 अक्टूबर 1956, बुलन्द शहर (गॉंव-दीघी) उत्तर प्रदेश

रचनाएँ:
कहानी संग्रह (4)
लेख संग्रह (7)
शिक्षा (6)
उपन्यास (1)
कविता (1)
व्यंग्य (1)
अनुवाद (1)


पुरस्कार/सम्मान :
इफको सम्मान, हिन्दी अकादमी पुरस्कार (2005), इंदिरा गांधी राजभाषा पुरस्कार (2015)

संपर्क:
96 , कला कला विहार अपार्टमेंट्स, मयूर विहार फेस -I, दिल्ली 110091

दूरभाष:
011 -22744596
9971399046

ईमेल :
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