शुभ-अशुभ जैसे शब्दों को न मानते हुए भी आज मुझे लग रहा है कि इस देश में इस विषय पर बात करने की इससे बेहतर शुभ घड़ी नहीं हो सकती । यों मैं पहले स्पष्ट कर दूं कि मेरे लिए हर पल, हर दिन शुभ होता है जैसे कि इस पृथ्वी पर रहने वाला हर व्यक्ति, हर जीव अच्छा । लेकिन इस गोष्ठी का इस समय होने पर मैं अपनी खुशी का बयान नहीं कर सकता । पिछले कुछ महीनों में अंधविश्वास और उसकी पोल खोलती खबरों की सुनामी सी आई हुई है । जैसे पाप का घड़ा भरने ही वाला हो और कुछ चमत्कारिक ढंग से सब कुछ ठीक हो जाएगा । अंधविश्वास के खिलाफ बात तो विज्ञान प्रसार, निस्केयर, ज्ञान विज्ञान जत्था, एकलव्य और केरल, गुजरात आदि राज्यों में ढेर सारे ज्ञात अज्ञात संगठन नौजवान साथी उठाते ही रहे हैं (यदि नहीं उठाते तो पता नहीं कितना अंधेरा होता) लेकिन पिछले दिनों जब बात सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश मारकंडेय काटजू ने उठाई तो थोड़ी और दूर तक सुनी गई । यह बड़ी सहज बात है । जितनी ऊंचाई से बात की जाती है पहुंचती भी उतनी ही दूर तक है ।
हमें फख्र है कि आजादी के बाद देश की बागडोर जिस प्रधानमंत्री के हाथों में आई वे वैज्ञानिक सोच से भरे स्वप्नदर्शी राजनेता थे । डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ में वे लिखते हैं कि यह अजीब लगता है कि हम परम्पराओं से इतने क्यों चिपटे रहते हैं कि मनुष्य की विश्लेषणात्मक बुद्धि काम करना बंद कर देती है । उन्होंने उम्मीद जताई कि केवल राजनीतिक और आर्थिक रूप से आजाद होने पर ही हमारा मन मस्तिष्क सामान्य और तर्कपूर्ण ढंग से काम करने लगेगा ।
हम आजाद भी हो गये । नेहरू ने अपने शासन के दौरान विज्ञान नीति भी बनाई जिसको रूप देने में उन दिनों के सर्वश्रेष्ठ वैज्ञानिक डॉ. होमी जहांगीर भाभा, डॉ कोठारी, विश्वरैया के साथ-साथ हुमायूं कबीर, मौलाना अबुल कलाम आजाद और आजादी के दूसरे तपे हुए नेता भी शामिल थे । स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान सभी ने समाज को बहुत नजदीक से देखा था और वे मानते थे यदि दुनिया के राष्ट्रों के साथ हिन्दुस्तान को पहुंचना है तो सबसे पहले यहां के अंधविश्वासों और पोंगापंथी को दूर करना है । महात्मा गांधी स्वयं इस अंधविश्वास के खिलाफ लगातार लिखते और कहते रहे ।
गांधी को हिन्दू धर्म की वर्ण व्यवस्था का हिमायती कहना वैज्ञानिक सोच पर खरा नहीं उतरता । उन्होंने कई जगह सार्वजनिक रूप से यह कहा है कि कोई भी परम्परा कितनी भी पुरानी हो उसका कोई धर्मग्रंथ कितना ही पूज्य हो यदि वह आज की जरूरतों के हिसाब से कसौटी पर खरा नहीं उतरता तो उसे छोड़ने में ही भलाई है । किस धर्म का कौन सा मसीहा अपने धर्म ग्रंथों के खिलाफ इतनी कठोर बात कह सकता है ? यहां तक कि अस्पृश्यता को लेकर भी उन्होंने दो टूक कहा कि ‘यह रावण जैसे राक्षस से भी ज्यादा खतरनाक है । मनु स्मृति का सहारा लेकर इन बुराइयों को जायज नहीं ठहराया जा सकता । किसी धर्मग्रंथ में लिखे श्लोक की बातें मेरे तर्कों से ऊपर नहीं हो सकतीं ।’
क्या प्रमाण चाहिए देश को अंधविश्वासों और सड़ी-गली परम्पराओं से मुक्ति के लिए जिसका आधार गांधी, नेहरू जैसे तर्कशील महापुरुषों ने रखा हो । होना तो यह चाहिए था कि निरंतर वैज्ञानिक चेतना लोगों में आती, अच्छे बुरे को तर्क की कसौटी पर कसा जाता तो शायद हम उन राष्ट्रों के समक्ष पहुंच सकते थे, जिनकी कल्पना नेहरू ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ में करते हैं । लेकिन साठ वर्ष की राजनैतिक और आर्थिक आजादी के बाद भी वैज्ञानिक चेतना के स्तर पर हम औंधे मुंह गिरे पड़े हैं ।
सैंकड़ों महापुरुषों की वैज्ञानिक बातें मेरे दिमाग में उभर रही हैं । विवेकानंद से लेकर डॉ.जाकिर हुसैन और राष्ट्रपति अबुल कलाम तक । राष्ट्रपति रहे कलाम की एक बात मेरे दिमाग में अभी भी टंगी हुई है और वह यह कि जब राष्ट्रपति पद की शपथ लेने के लिए उनसे कहा गया कि अमुक दिन और समय ज्यादा शुभ रहेगा तो उन्होंने पहले ही झटके में उसे नकार दिया और कहा कि ‘नहीं ! मेरे लिए हर क्षण पवित्र हैं ।‘ कितने राजनीतिज्ञ या नौकरशाह या मध्यवर्ग के पढ़े-लिखे लोग ऐसा कर पाते हैं ? आखिर आजादी के साठ वर्ष के बाद भी जिसे नेहरू जी राजनैतिक, आर्थिक आजादी का नाम लेते है, यह जकड़न टूटने के बजाय और बढ़ती क्यों जा रही है ? मैंने जिस ‘शुभ घड़ी’ की बात शुरूआत में कही उसका एक कारण यह भी है कि पिछले दिनों ‘निर्मल आकाश’ में निर्मल बाबा का नाम गूंज रहा है । आपने उनका अंदाज देखा होगा । एक बड़े सोफे पर पसरे हुए जाने क्या-क्या कहता हुआ और गौर कीजिये उसके पास आने वालों में गरीब, रिक्शे वाले या श्रमजीवी वह तबका नहीं है जो रात-दिन मेहनत करने के बावजूद दो जून की रोटी भी नहीं खा पाता । उसके आस-पास उमड़ती भीड़ में सब पैसे वाले हैं और निर्मल बाबा इस नस को पकड़ता है किपैसे वालों को मूर्ख इनकेअंधविश्वासों के रास्ते ही बनाया जा सकता है । जो मध्यवर्ग का डॉक्टर अपनी नौकरानी बच्ची को बंद करके सिंगापुर चला जाए वो निर्मल बाबा के आगे बड़ी-बड़ी फीस देकर हाथ जोड़े खड़ा है । कोई पुत्र कामना के लिए, कोई पति के प्रमोशन के लिए, तो कोई बेटे को विदेश भेजने के लिए । सभी बाबा रूपी ठग अंदर-ही-अंदर मुस्कुरातेहोंगे मध्य वर्ग के इन खूबसूरत, इत्र लगे चेहरों को देखकर और इसीलिए सलाह के नाम पर कुछ भी कह देते हैंजिसे यहां दोहराना भी मुझे अपराध लगता है । पति के प्रमोशन के लिए निर्मल बाबा की सलाह है कि पचास रुपये जिस मंदिर में चढ़ाए थे वहां दो सौ चढ़ा दो तो किसी को सलाह कि गोल गप्पे खूब खाओ और चार पड़ोसियों को भी खिला दो । तो बिजनेस की तरक्की के लिए ढोंगी कहते हैं कि शताब्दी में यात्रा करो उसी रफ्तार से बिजनेस दौड़ने लगेगा । देश भर में फैले ये सब हजारों बाबा ऐसी ही ठगी कर रहे हैं और उस सारी ठगी को बढ़ावा दे रहे हैं हमारे सैंकड़ों चैनल । चैनल का मालिक कहता है कि मैंने पैसा लगाया है और उसकी वसूली विज्ञापन से ही संभव है और विज्ञापन तब मिलेगा जब मेरे दर्शक होंगे और जब दर्शक तीन देवियों को ही देखना चाहते हैं, झूठी आस्था और प्रवचन के नाम पर ऐसे ही ऊल-जलूल सुझावों को चाहते हैं तो हम क्यों न दिखाएं ? इसी फार्मूले से अंधविश्वास इतना घना होता जा रहा है जिसे तुरंत हटाने की जरूरत है ।
कुछ और उदाहरण देकर मुझे तसल्ली मिलेगी । भारतीय मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है । पिछले दिनों शहरी परिवारों में एक और समस्या इसी अंधेरे ने बढ़ा दी है और वह है शादी के लिए लड़की-लड़के की कुंडली, नाड़ीऔर न जाने क्या-क्या मिलाना । शिक्षित खाये-पीये वर्ग का ऐसा वीभत्स, भीरू रूप मैंने नहीं देखा । वे स्मृतियों में जा-जाकर उस घड़ी और सैकंड का पता करते हैं कि उनके पुत्र रत्न का जन्म दोपहर के बारह बजकर तीन मिनट पर हुआ था या बारह बजकर पांच मिनट पर । क्योंकि उनकी मूर्खता के चलते यह शादी तभी सफल होगी जब सही समय का पता चल जायेगा । पंडित या दलाल कहा जाए वे भी कम शातिर नहीं हैं । कुछ दान पुन्य ले दे के काम बनवा देते हैं । यानि ठगी के सैंकड़ों रास्ते । अफसोस या तकलीफ तब और बढ़ती जाती है जब बच्चों को अमेरिका, इंग्लैंड, कनाड़ा भेजते वक्त जहाज का नंबर या दिन भी ऐसी ही मूर्खता से चुना जाता है । और अफसोस यूरोप, अमेरिका में चार-छह सालदेश का पैसाबहाने के बावजूद लौटकर शादी के लिएफिर वही जन्मपत्री गौत्र और जाति की तलाश होती है । न अमेरिका, इंग्लैंड की पढ़ाई इन्हें बदल पायी, न नये जमाने का विज्ञान । आखिर चूक कहां हुई ? और कहां हो रही है ? ये कैसा मनुष्य या उसकी चेतना हम बना रहे हैं ?
कुछ दृश्य गांव के । शिक्षा थोड़ी सी बढ़ी है लेकिन कुशिक्षा ज्यादा क्योंकि वहां टेलीविजन पढ़ना-लिखना सीखने से पहले तीन देवियां, निर्मल छाप बाबाओं के साथ पहले पहुंच गया । मरता क्या नकरता । गॉंव के गरीब, किसानी जीवन में तो पहले ही कुछ नहीं है तो वे और भी जल्दी चमत्कारों की चपेट में आ जाते हैं । गांव जाना हुआ तो पता लगा कि सारा गांव भगवती जागरण के नाम पर हुए जमावड़े में शामिल है । शहर में रहने वाला और पैसे के दम पर मध्य वर्ग में शामिल हो चुका व्यक्ति गांव में पैसा बहाता है भगवती जागरण के लिए । स्कूल के लिए नहीं, सड़क के लिए नहीं, अस्पताल के लिए नहीं । एक वक्त की दावत और प्रसाद के लालच में गांव वाले अपने रोजाना के कामों को छोड़कर खींचे चले आते हैं । तीस वर्ष पहले जब मैंने गांव छोड़ा था तो मंदिर को कोई नहीं पहचानता था । आज हर जाति के अपने-अपने मंदिर हैं । शहरों में रहने वाले पढ़े-लिखे लोग गांव में अपनी-अपनी जाति के मंदिर बनाकर पुण्य लूट रहे हैं ।
इस बीच और भी दुखद घटनाएं सुनने को मिलती हैं जो बताती हैं कि वैज्ञानिक सोच के अभाव में कैसे परिवारों में अंधेरा छा गया । बच्चे को सांप ने काट खाया । बजाय डॉक्टर के पास ले जाने के या और छोटा-मोटा उपचार करने के पड़ौस के बाबा के मंत्र गूंजने लगे । बेटा खत्म । आपके अन्दर गुस्से की ज्वाला भी फटती है तो रोना भी आता है । क्या स्कूली शिक्षा इतना भी नहीं कर सकती ? आंकड़ों पर यकीन करें तो सांप काटने से ही इस देश में हजारों की मौत हो जाती है । दिल्ली की भी कुछ घटनाएं हैं । अस्त-व्यस्त लेकिन आधुनिक परिधानों मेंमस्त महिला मेट्रो की शीट परबैठे-बैठे या खड़े-खड़े भी हनुमान चालीसा का पाठ किये जा रही है । वो क्यों न करे जब एक राज्य का मुख्यमंत्री सारी तैयारी के बावजूद मंच पर एक बजकर तीन सैकंड पर प्रवेश करता है और वह भी उस राज्य में जहां तीस साल उनका राज रहा जिनसे ज्यादा उम्मीद थी । उसे दूसरे दल की सरस्वती पूजा में तो साम्प्रदायिकता नजर आती है लेकिन अपनी काली पूजा जन-जन तक पहुंचने का रास्ता । तो साहित्यकार भी पीछे क्यों रहे ? वह सबको इन टोटकों से दूर रहने की सलाह देता है। लेकिन सर्प यज्ञ करा कर लौटता है विंध्याचल से । हाथों या गले में पड़े हुए धागे सारी पोल पट्टी खोल देते हैं ।
अब एक घटना सरकारी कायार्लय की । शायद यह घटना दुनिया के चमत्कारों में शामिल की जा सकती है । सरकार की कुर्सी किसे प्यारी नहीं है । लेकिन सरकारी कर्मचारी चाहता है वह और उसकी कुर्सी अमर हो जाए । पहले रिटायरमेंट की उम्र अट्ठावन वर्ष थी । वर्ष 1998 में साठ हो गई । अब भी जब-तब बासठ तक करने की बात खालीपीली बैठे हुऐ मंत्रालयों के बाबू करते रहते हैं । क्या कभी कामवाली, सफाई कर्मचारी, सब्जी बेचने वाले या रिक्शे वाले से रिटायरमेंट जैसे शब्द सुने हैं ? तो संक्षेप में दास्तां ये कि नीचे से ऊपर तक वातानुकूलित उस भव्य मंत्रालय के एक कमरे में दफ्तर खुलते ही चुपके-चुपके रोज हवन होने लगा । हवन कर्ता मंत्रालय के ही एक एम.बी.बी.एस. डॉक्टर थे । उनका मुखिया भी रिटायर हो रहे थे और वे डॉक्टर भी । उन्हें किसी ने सलाह दी कि हवन करने से केबिनेट से मंजूरी हो सकती है । हाय रे ये देश, इसके एम.बी.बी.एस. डॉक्टर और सरकारी मंत्रालय । तरह- तरह के अनुभवों के बीच एक और अनुभव । उस भव्य मंत्रालय में जैसे ही नया अफसर किसी कमरे में आता या जाता कोई मेज को वास्तु के हिसाब से पश्चिम की तरफ करता तो कोई पूर्व की ओर । कोई फैंगसूई लटकाता तो कोई अमुक रंग के फूल की मांग करता । खर्च तो प्रशासन को ही भुगतना पड़ेगा और इसी के चलते न तो छत्तीसगढ़ के आदिवासियों के लिए पैसा बचता, न पहाड़ों पर रेल बिछाने के लिए । यह सब एक ऐसे अतार्किक, अवैज्ञानिक सोच का ही फल या प्रतिफल है ।
एक खबर की ओर आपका ध्यान और खींचना चाहता हूं । पिछले ही महीने की खबर थी और यहां इसका संदर्भ बहुत जरूरी है । मार्च 2012 में स्वीडन की संस्था इंटरनेशनल पीस इंस्टीट्यूट ने कहा है कि चीन को पीछे छोड़ते हुए भारत दुनिया का सबसे बड़ा हथियार देश बन गया है । गांधी की मूर्ति चप्पे-चप्पे पर लगी है । दुनिया जानती है कि हमने आजादी अहिंसक आंदोलन से जीती है । और उसका हश्र ये कि जो पैसा गांव देहात के पानी, स्कूल, सड़कों के लिए जाना चाहिये था उससे हम पैटन टैंक, तोप, बन्दूक, राडार खरीद रहे हैं । मैं अपनी आपत्तियों को यहीं विराम देता हूँ । लेकिन काश ! मेरे नौजवान ऐसा विज्ञान पढ़ते, ऐसे तर्कसंगत ढंग से आगे बढ़ते कि कम-से-कम हथियार तो वे खुद ही बना सकते थे ।पांच हजार इंजीनियरिंग कॉलेज और कई हजार दूसरे कॉलिज । और कुछ भी ऐसा अपने बूते न कर पाएं कि अपनी सीमाओं को भी सुरक्षित रख सकें । हथियार खुद बनाते तो इन्हीं को रोजगार मिलता । कम-से-कम रोजी-रोटी के लिए हमें विदेश तो नहीं भागना पड़ता । चीन की बात बार-बार की जाती है और चीन का नंबर हथियार निर्यात करने वाले देशों में छठे नंबर पर है । मेरा कहना यहाँ यह है कि एकतर्कसंगत वैज्ञानिक सूझ-बूझ वाला समाज अपनी समस्याओं को बेहतर सुलझा सकता है । संसद में इस बात पर चर्चा नहीं होती । संसद निर्मल बाबा पर भीचुप्प रहती है और तीन देवियों पर भी । क्योंकि उन सबके अपने-अपने बाबा हैं । कोई पेड़ पर रह रहे देवराह बाबा का पंजा चूमता है तो कोई साईं बाबा का । खोज-खोज कर पहाड़ों में छिपे बाबाओं के साथ तस्वीर खिंचवाते हैं । इलेक्शन से पहले भी और इलेक्शन के बाद भी । विज्ञान ने कंप्यूटर का आविष्कार किया लेकिन हमारे राजनेताओं और पिछले दिनों हार्बर्ड, इंग्लैंड और आई.आई.एम. से पढ़े हुए नौजवानों ने साथ मिलकर उन कंप्यूटरों का इस्तेमाल क्षेत्रवार, जातियों, धर्मों के आंकड़ों के लिए किया है । न्याय मूर्ति काटजु ने यह बात पूरे जोरों से उठाई कि क्या ऐसी सोच के चलते हम जाति और धर्म से मुक्त हो सकते हैं ? यानि कि अगर वैज्ञानिक सोच नहीं हुई तो क्या पूरा लोकतंत्र ही खतरे में नहीं है ?
क्या 11 मई 2012 को संसद में घटी घटना इसका संकेत नहीं है ? मैं घटना का संक्षेप में ब्यौरा बता दूं कि 1949 में मशहूर कार्टूनिस्ट शंकर का कार्टून उन दिनों के सभी अखबारों में प्रमुखता से छपा । कार्टून सिर्फ इतना है कि संविधान बनने में देरी हो रही है तो नेहरू पर भी कार्टूनिस्ट की तिरछी नजर है और संविधान निर्माता बाबा साहिब अम्बेडकरपर भी । ग्यारहवीं की किताब में छपा हुआ विवरण भी यह बता रहा है । कार्टून विधा ही ऐसी है कि जिसमें संकेतों और प्रतीकों से बात की जाती है । साठ साल के बाद हम प्रगतिशील होने के बजाय इसी अवैज्ञानिक सोच के चलते उस कार्टून को पुस्तक से बाहर निकालने का फैसला लेते हैं बावजूद इसके कि राजनीति शास्त्र की जो किताब प्रसिद्ध समाजशास्त्री योगेन्द्र यादव, सुहास पालशीकर जैसे विद्वानों ने बनाई है उसे अभूतपूर्व ही कहा जाएगा । देखा जाए तो पहली बार प्रोफेसर योगेन्द्र यादव और उनकी टीम ने डॉक्टर बाबा साहेब अम्बेडकर को गांधी और नेहरू के समकक्ष माना है और उनके योगदान की भूरि-भूरि प्रशंसा की है । लेकिन नहीं एक तथाकथित चिंतक का कहना है कि हमारे लिए अम्बेडकर का वही स्थान है जो मुसलमानों के लिए मोहम्मद साहिब का । इस सब का मुकाबला एक वैज्ञानिक सोच सेही संभव है। और वैज्ञानिक सोच तभी पैदा होगी जब हम परंपरा के नाम पर धर्म की गलियों से यथासंभव दूर रहें ।
जो दिल्ली में हैं वे जमुना नदी के पुलों से अवश्य गुजरें होंगे । सुबह कार, स्कूटर रोककर मालाएं और पूजा के नाम पर दूसरी वस्तुएं नदी में फैंकते हुए । हजारों की तादाद में कि नदी का बहाव भी रूकने लगा । हारकर प्रशासन को पुल के दोनों तरफ लोहे की जालियां लगानी पड़ीं लेकिन इन जालियों पर लटकी मालाएं इस महानगर के नागरिकों की अंधी आस्था का पर्याप्त बयान हैं कि नदी में फूल चढ़ाना पुन्य होता है । यह पुन्य है या पाप ? देश भर की नदियों को हमारी नासमझी और अंधविश्वासों ने नाले में बदल दिया । पीढ़ी-दर-पीढ़ी यह हो रहा है । पचास बरस पहले के पूर्वजों को तो चलो उनकी अशिक्षा नासमझी के लिये माफ कर दें लेकिन इन इंजीनियर, एम.बी.ए., वकील, अफसरों का क्या करें जो डिग्रियों के बावजूद भी बैल बने हुए हैं ।
धर्म, रीति-रिवाजों के नाम पर ज्यादातर बातें स्त्री विरोधी हैं । उन्हें गुलाम बनाये रखने की साजिश सरीखी । लेकिन इतने चुपके से इनके दिमाग में धर्म, परंपरा के नाम पर बैठा दिया गया है कि लगे यह सब वे अपने कल्याण, आनंद, पुन्य के लिये कर रही हैं । हिन्दू धर्म से चंद उदाहरण पर्याप्त रहेंगे । करवा चौथ महिला ही क्यों रखती हैं ? यदि सुदीर्घ दांपत्य जीवन चाहिये तो दोनों को समान रूप से व्रत रखना चाहिए । लेकिन नहीं उत्तर भारत में विशेषकर पंजाब के आस-पास विवाहिता पूरे दिन भूखी-प्यासी रहकर रात को चंद्रमा दिखने पर भोजन करती हैं । क्यों ? पति की दीर्घायु के लिये । ऐसा ही एक और व्रत बड़ अमावश अभी हाल ही में 20 मई 2012 को था । दान-पुन्य किये जाते हैं । क्यों ? पति की उम्र भी बड़ (बरगद) के पे़ड़ की तरह खूब लम्बी तो भी रहे । मजेदार मगर अफसोसजनक इस वार का अनुभव । एक बड़े अफसर की पत्नी ने हाल में अमेरिका गयी अपनी बहू को कहा कि इंटरनेट पर बरगद का पेड़ देखकर पूजा कर लो । जून की तपती दोपहरी में मैंने अपने परिवार की महिलाओं को निर्जला व्रत करते हुए कई बार बीमार और बेहोश होते देखा है । मुस्लिम धर्म के बारे में ज्यादा नहीं पता लेकिन महिलाओं की स्थिति वहां भी अच्छी नहीं है । इसलिये जब तक महिलाओं, लड़कियों को धर्म, रीति-रिवाजों को आधुनिक समाज की जरूरतों, समानता की बातों को तर्क से नहीं बताया जाता, लड़ाई अधूरी रहेगी ।
क्या आप एक सभ्य नागरिक के नाते यह सब टुकुर-टुकुर देखते रहेंगे कि आंध्र प्रदेश में एक दम्पत्ति शिव की पूजा के पंडाल में यह घोषणा करते हुए आग लगा ले कि शिव भगवान का आदेश है या दिल्ली के आस-पास के गांव में साल में सैंकड़ों बच्चों की बलि बेटे की उम्मीद या धंधे में फायदे के लिये दे दी जाए । कुछ अखबारों में नियमित रूप से ऐसे विज्ञापन छपते हैं कि हमारे ताबीज से रूठी प्रेमिका वापस आ जायेगी या बेटा डॉक्टर बन जायेगा । क्या इन अखबारों के खिलाफ कार्रवाई नहीं होनी चाहिये ?
यह सब देश के महान अतीत और दुनिया में अपनी पहचान की तरफ कदम बढ़ाते देश उसकी शिक्षा व्यवस्था, उसके लोकतंत्र का अपमान है ।
आखिर एक सामान्य समझ जिसे वैज्ञानिक चेतना कहते हैं,आये कैसे ?यह संभव कैसे हो ?
मुझे लगता है कि इसकी शुरूआत हमारे स्कूली पाठ्यक्रम और संस्थानों से करनी होगी । मैं फिर गांव की तरफ लौटना चाहता हूँ । मुझे यहां देवेन्द्र मेवाड़ी की हाल में पढ़ी किताब विज्ञान डायरी की याद आ रही है । विज्ञान डायरी में एक जिक्र है इंद्रासन धान का । बहुत अच्छा लगा कि इंद्रासन किसान के नाम पर एक धान की किस्म का नाम रखा गया है । एक सामान्य किसान लेकिन वैज्ञानिक सूझ-बूझ विशलेषण, निरीक्षण-परीक्षण से उसने देखा कि धान की फसल के बीच धान का एक पौधा सबसे स्वस्थ है । दाना भी मोटा, बाली भी मोटी । उसने उसे अलग कर और उगाया और बढ़ाया और कई गुना पैदावार करके दिखाई । अच्छा हुआ कि उसके नाम पर उसका नाम इंद्रासन रखा गया । इसी रोशनी में मैं लौटता हूँ अपने पश्चिम उत्तर प्रदेश के कॉलेजों की तरफ जहां मैं पढ़ा हूँ । गांव में जब भी पिछले दिनों जाना हुआ तो एक के बाद एक दुखद खबर मिली । पिछले वर्ष करीब पचपन मौतें मलेरिया से हुईं । बारिश के महीनों से लेकर नवंबर तक । उसके बाद भी । मलेरिया से इतनी मौतें क्यों ? क्योंकि पिछले दिनों वहां किसानी के काम बदल गये हैं । ज्यादातर खेतों में या तो धान बोया जाता है या गन्ना । दस साल पहले वहां एक शुगर मिल साबितगढ़ नाम के गांव में लग गई है । आपको पता है धान, गन्ने की दोनों ही फसलें लगातार पानी मांगती हैं । जब पानी भरा रहता है तो उसमें मच्छर और दूसरे कीट, मच्छर पनपेंगे ही । बस मलेरिया और दूसरी बीमारियों का एकछत्र राज्य । लेकिन न उपचार, न डॉक्टर, न दवाएं । शुगर मिल ने चारों तरफ के गांवों को बेहद प्रदूषित भी किया है । सुबह उठते हैं तो छतों पर हल्की राख की परत होती हैं । सॉंस की बीमारियां बढ़ी हैं । इन समस्याओं के लगातार बढ़ने के बावजूद भी आस-पास के कॉलेज, स्कूल या एन.आर. ई. सी. कॉलेज में कहीं कोई हलचल नहीं । क्या इन कॉलेजों के प्रोफेसर, अध्यापकों को विद्यार्थियों के साथ मिलकर इन समस्याओं की जड़ों में नहीं जाना चाहिए ? क्या उस गांव में डॉक्टर की टीम भेजकर मलेरिया की रोकधाम के उपाय नहीं कर सकते ? लेकिन उसके बजाय या तो किसी मंदिर में प्रार्थना होती है या बीमारी से मुक्ति के लिए खप्पर निकाला जाता है । भगवती जागरण भी होता है । क्या ये 21वीं सदी के पढ़े-लिखे डॉक्टर, शिक्षकों की तस्वीर कही जा सकती है ?
डॉक्टर रोनाल्ड रॉस कब तक इंग्लैंड से आकर हिन्दुस्तान में मलेरिया के जीवाणुओं की खोज या उसका उपाय करते रहेंगे ? क्या अपनी बीमारियों, समस्याओं को हम उस शिक्षा व्यवस्था, अस्पतालों के साथ नहीं जोड़ सकते ? अंधेपन से लेकर कुपोषण, लकवा, टीबी, पीलिया सारी बीमारियां क्षेत्र विशेष के इन संस्थानों में रास्ता, समाधान पा सकती हैं । इसलिए बहुत जरूरी है कि शिक्षा संस्थानों में वैज्ञानिक सोच की ऐसी प्रवृतियों को बढ़ाया जाए । मैं स्वयं विज्ञान या बॉयोलाजी का विद्यार्थी रहा हूँ । अफसोस होता है कि इतने मेढक, केंचूए, कॉकरोच क्यों मारे काटे ? मनुष्य के शरीर उसकी प्रतिरक्षा क्षमता, बीमारियों पर तो शायद ही कोई पाठ रिसर्च, हमें विस्तार से पढ़ाया गया हो । डॉक्टर बनने और डॉक्टरी पढ़ाने के लिए नहीं । क्या जीवित रहने के लिए हमें मनुष्य के शरीर को और ज्यादा बेहतर जानने, समझने की जरूरत नहीं ? कई अनुभव मेरे दिमाग में तैर रहे हैं जब मेरे सामने ही मेरे एक मित्र ने सीने पर हाथ रखा और हार्ट फेल से मृत्यु हो गई । और मैं या आस-पास के सभी लोग देखते रह गये । क्या हमें किसी ने यह समझाया, शिक्षा व्यवस्था में फर्स्ट ऐड जैसी बातें भी बताई जिससे हम किसी के जीवन को बचा सकते हैं ? आमूल-चूल परिवर्तन की जरूरत है शिक्षा संस्थानों में और मुझे लगता है कि यदि विज्ञान प्रसार और निस्केयर सरकार के हिस्से हैं तो उन्हें पाठ्यक्रम या स्कूली शिक्षण में साधिकार हस्तक्षेप की जरूरत है । शिक्षा मंत्रालय का काम शिक्षा जरूर है लेकिन क्या पढ़ाया जाए यह भी तो सरकार का दायित्व है । स्कूल, कॉलिजों में विज्ञान शोध के बारे में सोचते हुए मुझे स्टेनले मिलर की याद आ रही है । वही मिलर जिन्होंने इस धरती पर सृष्टि, जीवन के शुरू होने का अनौखा प्रयोग करके दिखाया था कि लाखों बरस पहले जब पृथ्वी आग का गोला रही होगी तो कैसे बार-बार बादल, बारिश, नाइट्रोजन, ऑक्सीजन के चक्रों में पहली बार अमीनो अम्ल अस्तित्व में आया होगा । वही अमीनो अम्ल जो टिशू (ऊतकों) की संरचना का आधार है । मिलर उस समय एक कॉलिज के विद्यार्थी थे और यह युगांतकारी प्रयोग उन्होंने शिकागो विश्वविद्यालय की प्रयोगशाला में किया था जिस पर आगे चलकर नोबल पुरस्कार मिला । आइन्सटाइन ने भी प्रसिद्ध फार्मूला E=MC2 बहुत कम उम्र में ही खोज डाला था । सौ बरस पहले यूरोप, अमेरिका के विश्वविद्यालयों में जो हो रहा था क्या हमारे यहां आज भी संभव है ?निष्कर्ष ! नौजवान कॉलिज, स्कूलों में ज्यादा बड़ा काम कर सकते हैं बशर्ते कि उनको सही दिशा मिले शिक्षण संस्थानों में ।
एक और कदम और वह बहुत महत्वपूर्ण बन सकता है और वह है महिलाओं के बीच या लड़कियों के बीच वैज्ञानिक सोच को ज्यादा-से-ज्यादा ले जाना । दुनिया तब जल्दी बदलती है जब वहां की महिलाएं बदलती हैं । उन्हें घूंघट और बुरके से बाहर लाने की जरूरत है । और यह भी वैज्ञानिक सोच केजरिये ही संभव होगा । कब तक हम 15वीं और 16वीं शताब्दी के घूंघट और बुरके की सोच में जिंदा रहेंगे ? दिल्ली, उत्तर प्रदेश, हरियाणा का समाज यदि आज देश के बाकी हिस्सों से पीछे है तो इसलिए कि वहां महिलाओं को ऐसी शिक्षा या वैज्ञानिक सोच-समझ, से जान-बूझकर दूर रखा जाता है । खाप पंचायतें सिर्फ महिलाओं पर ही अंकुश क्यों रखना चाहती है ? हरियाणा, राजस्थान या इस क्षेत्र में लड़कियों की संख्या लगातार गिरती जा रही है । उन्हें वहां के नौजवानों की शादियां बर्दाश्त नहीं जबकि आसाम, पूर्व बंगाल से किसी भी उम्र की लड़की या महिला को खरीदने या उनका शोषण करने पर उनको कोई शर्म नहीं । महात्मा गांधी की बातों को याद किया जाए तो महिलाएं हमारी सीमाओं पर लड़ने वाले सैनिकों से भी अधिक काम करती हैं ।
यदि हमारी महिलाएं तर्कसंगत ढंग से सोचने लगे तो पूरी पीढि़यां ही बदल सकती हैं । मैं यहां एक व्यक्तिगत अनुभव को कुछ संकोच के साथ बांटना चाहता हूँ । मेरी मॉं बिल्कुल अनपढ़ थीं । अनपढ़ यानि कि निरक्षर । लेकिन सही शब्दों में कहूं तो वैज्ञानिक चेतना से ओतप्रोत । ये मैं आज सोच पाता हूं जब पीछे मुड़कर देखता हूँ । गॉंव में आए दिन भूत-प्रेत की बातें उड़ती रहती थीं । कभी पड़ोस की चाची के सिर पर चंडी आ जाती थी, तो कभी सामने रहने वाली बड़ी भाभी पर पीपल वाला भूत । और फिर तमाशा चलता जूता सूंघाने, गंगा जल छिड़कने, बालों को बिखेरने, देवी रूप धरने का । देखा-देखी हम भी तमाशा देखने भीड़ में शामिल हो जाते । अचानक मॉं की आवाज आती और एक झटके से वे हमें वहां से दूर ले जातीं यह कहते हुए कि ‘यह सब नाटक है । चलो यहां से। या तो खेत पर काम करो या अपनी पढ़ाई करो । ये सब नौटंकी है ।‘
वाकई उनके अंदर एक तर्कपूर्ण विश्वास था जो धीरे-धीरे हम सबके जीवन का भी हिस्सा बना और हम पॉंच भाईयों में शायद ही कोई अंधविश्वास या भूत-प्रेत की बातों पर यकीन करता है । धर्म, पूजा की भूमिका भी उनके जीवन में एक संकेत मात्र से आगे नहीं थी जिसमें सूर्य को याद करते हुए एक लोटा पानी उडे़लना भर जैसी एकाध बातें थीं । ? घंटों पूजा, नमाज में बैठे भक्तों से कोसों दूर । पिताजी की बेबाक अनीश्वरवादी बातों का भी इसमें पूरा योगदान था । बाबा, पंडितों के ढोंग तमाशों पर उनका गुस्सा टपका पड़ता था । मुझे लगता है कि हमारी पीढ़ी के जिन बच्चों को ऐसी माएं नहीं मिलीं वे धीरे-धीरे धर्म, अंधविश्वास के अंधेरे में डूबते गये और आज तक डूबे हुए हैं ।
एक महत्वपूर्ण कदम शिक्षा का प्रसार है । मौजूदा दसवीं, बारहवीं,बी.ए., इंजीनियर की डिग्रियों से आगे ले जाकर उन्हें जीवन जगत, वैज्ञानिक जीवनियों तक ले जाना और यह तभी संभव है जब शिक्षा, पाठ्यक्रम से अतिरिक्त किताबें पढ़ने, पढ़ाने के बारे में भी स्कूल, समाज सोचें । मौजूदा टी.वी., मीडिया के सहज उपलब्ध मनोरंजन के आतंक के आगे बच्चों को किताबों तक लाना आसान नहीं रहा । लेकिन उन्हें किताबों, पुस्तकालयों की दुनिया से जोड़ना ही होगा । अच्छी बात यह है कि कुछ महीने पहले मानव संसाधन मंत्रालय और शिक्षा मंत्रालय ने भी यह फैसला किया है कि देश के कम-से-कम सात हजार गॉंवों में पुस्तकालय शुरू किये जाएंगे । यों सत्तर के दशक में सिंहा समिति की सिफारिशों को लागू करते हुए केंद्र ने सभी राज्य सरकारों को गांव-गांव में पुस्तकालय खोलने के आदेश जारी किये थे लेकिन केरल जैसे राज्यों को छोड़कर इस ओर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया । केंद्र ने फिर राज्य सरकारों से आग्रह किया है कि गॉंव-गॉंव में पुस्तकालयों की श्रृंखला खोली जाए । गौरतलब पक्ष यह है कि केरल जैसे राज्यों में जहां पुस्तकालय और ऐसा साहित्य आसानी से उपलब्ध है वहां लोगों में वैज्ञानिक चेतना और जागरुकता भी उतनी ही ठीक-ठाक है । हर स्कूल में पुस्तकालय नियमित रूप से खोलने चाहिए और यदि संभव हो तो इन सभी पुस्तकालयों में विज्ञान प्रगति, साइंस रिपोर्टर, ड्रीम, चकमक, शैक्षणिक संदर्भ, स्रोत जैसी किताबें, पत्रिकाएं नि:शुल्क भेजी जाए । इसके बाद समय-समय पर वैज्ञानिको के जन्मदिन, वैज्ञानिक घटनाओं जैसे- चंद्रग्रहण, सूर्यग्रहण, भूकंप, सुनामी, बाढ़ के बहाने कार्यक्रम भी हों । जैसे हाल ही में जीवन के आरम्भ को समझने के प्रयास में लार्ज हैड्रोन कोलाइडर उर्फ बिग बैंग का जो प्रयोग स्विटजरलैंड में चल रहा था उस समय हमारे कॉलिजों, स्कूलों के सामने एक मौका था पूरी पीढ़ी को इस महान वैज्ञानिक घटना से रूबरू कराने का । लेकिन हुआ उल्टा । स्कूलों, कॉलिजों में चुप्पी रही और समाज में प्रलय की आशंका में यज्ञ, हवन होने लगे । बाबाओं, धार्मिक दलालों की बन आयी। काम कठिन जरूर है लेकिन इसकी शुरूआत युद्ध स्तर पर करनी ही होगी । कंप्यूटर, नोट बुक, आकाश ये सब बाद की बातें हैं । सबसे जरूरी है पुस्तक और ऐसा साहित्य उनकी भाषा में उपलब्ध कराना जिससे गरीब-से-गरीब बच्चा मनमर्जी आसानी से जुड़ सके । वैज्ञानिक चेतना को बढ़ाने के लिये अपनी भाषा को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता । अपनी भाषा ही समझ का विस्तार करती है प्रश्न पूछने को प्रेरित करती है और यही सही शिक्षा का पहला कदम है। क्या बढ़ती अंगेजी रटन्त और बाबाओं के बढ़ते प्रभाव के बीच कोई सूत्र ढूंढा जा सकता है ? यदि पढ़ाई समझ के तर्क का विकास नहीं करेगी तो ऐसी पीढ़ी को कोई भी गुमराह कर सकता है ।
जैसाकि मैं बार-बार कहता रहा हूँ कि वैज्ञानिक चेतना फैलाने, बढ़ाने का काम न अकेले विज्ञान प्रसार का है और न यह किसी एक धर्म तक सीमित । इसमें हर धर्म की कूपमंडुकता के खिलाफ लड़ना होगा । कम-से-कम भारतीय महाद्वीप में तो हर धर्म के नाम पर दकियानूसी और अंधविश्वासों ने नागरिक जीवन को भी बंजर बना डाला है । इस पर भी विचार करना होगा कि क्या मंदिर, मस्जिदों, गिरजाघरों का इस्तेमाल वैज्ञानिक उपलब्धियों,रोजाना के जीवन में इनके फायदों के प्रचार-प्रसार के लिये नहीं किया जा सकता ? टी.वी., मोबाईल से लेकर आधुनिक दवा-दारू का इस्तेमाल तो मौलवी, पंडित भी करते हैं । फिर क्यों आधुनिक ज्ञान, शिक्षा के प्रसार को ये धर्म विरोधी मानते हैं ?
काश ! मीडिया, टेलीविजन में भी विज्ञान प्रसार, निस्केयर जैसी संस्थाएं सार्थक हस्तक्षेप कर पाएं । यह मीडिया के अधिकारों, स्वतंत्रता में दखल देने का मामला नहीं है लेकिन उन्हें इस बात के प्रति तो सचेत किया ही जा सकता है कि वे देश की विज्ञान नीति या वैज्ञानिक चिंतन के साथ कदम मिलाकर चलें । सिर्फ लोकप्रियता की आड़ में राष्ट्रीय हितों का बलिदान नहीं किया जा सकता ।
मुझे याद आ रहा है । 1998 में मैं बड़ौदा में था । वहां के स्थानीय अंग्रेजी अखबार ‘इंडियन एक्सप्रैस’ ने बड़ी अच्छी शुरूआत की । हर दिन पहले ही पृष्ठ पर दुनिया के एक जाने-माने वैज्ञानिक का फोटो, उसका संच्छिप्त जीवन और उपलब्धियां, योगदान छपता था । लगभग 500 शब्दों में । बच्चों में विज्ञान और वैज्ञानिकों के प्रति रूचि जगाने के लिए प्रतियोगिता की भी घोषणा कर दी । इस क्रम में पूरे दो सौ वैज्ञानिकों का परिचय छपा । घर-घर स्कूली बच्चों ने अखबार की कटिंग रखी । फोल्डर, रजिस्टर बनाये । काश ! हिंदी क्षेत्र या दूसरी भाषाओं में भी ऐसे प्रयासों की शुरूआत हो । रोज-रोज वही राजनीति, चुनावों की खबरों के बीच विज्ञान की खबरों को पहले पन्ने पर दिये जाने की जरूरत है । विज्ञान के संवाददाता,लेखक भी तभी पैदा होंगे ।
अंतिम बात यह कि यह सब करने से हमारा और हमारी पीढि़यों का जीवन ही बेहतर बनेगा । वैज्ञानिक चेतना फैलाकर कोई एहसान नहीं कर रहे हैं । यह शिक्षा की सबसे जरूरी शर्त है और यह राष्ट्र, समाज, दुनिया की जरूरत भी । दुनिया आज जहॉं पहुँची है वह इसी चेतना के समानान्तर ।
आइये हम सब एक साथ मिलकर कोशिश करें ।
दिनांक 22/ 5 / 12