छत्तीसगढ़ से लौटे ब्रह्मदेव शर्मा की प्रेस कांफ्रेंस में मेरी भी दिलचस्पी थी । उसी दिन सुकमा के कलेक्टर एलेक्स पॉल मेनन की रिहाई के बाद लौटे थे उन्होंने बहुत संक्षेप में अपनी बात रखी । बड़बोलेपन से कोसों दूर, कुछ कहते हुए तो कुछ बचते हुए । झूलते संशय के बीच । जैसे कि मेनन ने कहा है कि अब वे ‘लोकहित’ में आगे बढ़ेंगे । लोकहित की क्या परिधि और प्रारूप होगा और कैसे यह लोकहित सरकार बहुराष्ट्रीय कम्पनियों और आदिवासियों के त्रिकोण में फिट होगा कम-से-कम मेरे लिऐ तो बातें अबूझ ही रहीं । लगातार चालीस वर्षों से इतने बड़े राष्ट्र के सामने और इतने करोड़ लोगों के लिए यह समस्या अबूझ पहेली बनी हुई है । हर बार की तरह उस दिन भी यही कहा गया कि समस्या की जड़ वहां सही विकास का नहीं पहुंचना और उल्टे आदिवासियों को उनके ईश्वर प्रदत्त संसधानों में हिस्सेदारी से वंचित करना है । कम-से-कम सन् अस्सी से तो मैं भी यही बात हर जगह सुन रहा हूँ ।
सन् 1980 की बात है । मेरी आंखों में तैर रहा है संजीव की कहानी ‘अपराध’ का एक-एक शब्द । सारिका में पुरस्कृत इस कहानी से ही पहली बार सैद्धांतिक भाषण बाजी से परे मानवीय स्तर पर जाना नकसलवाद का अर्थ और असर । यदि रसूख वाले हैं तो उसी अपराध के लिए वे बच सकते हैं और गरीब सलाखों के पीछे । ‘दीदी तुमी बूझबेना ! यह पूंजीवादी सामंतोवादी—-ब्योवस्था—–‘ जैसे शब्द और भी विकराल बन कर मेरे सामने खड़े हैं । कहानी का असर था कि इस समस्या पर और और पढ़ता गया । पाश, सुरजीत पातर, गोरख पांडे——- । इस समस्या पर तीन दशकों से अखबार की कतरने धड़ी भर से कम तो क्या होंगी लेकिन पत्रकार आशुतोष भारद्वाज, पुन्य प्रसून वाजपेई की डायरी जो बयान कर रही हैं उससे एक बार फिर नसें तड़कने लगती हैं ।
पिछले चालीस सालों में हम महानगर के शहरियों की जिंदगी में सुख-ही-सुख बढ़ते गये हैं । न मिट्टी के तेल की लाइनों में लगना पड़ता है, न बिजली का संकट रहा, जाने के लिए कार, मैट्रो हैं और गाल बजाने के लिए इंडिया इंटरनेशनल जैसी जगहें । शुरू में जरूर इस मुद्दे पर ढेरों कहानियां आईं । धीरे-धीरे वे भी कम हो गई हैं लेकिन आदिवासियों की पीड़ा उर्फ लाल रंग का दायरा उसी अनुपात में बढ़ता जा रहा है । उनके बच्चे अभी भी चार-छह किलोमीटर चलकर उसी झोड़ से पानी पी रहे हैं जिससे उनके गाय बकरी । अस्सी के दशक में तो इस हिंसा में साल में दस-बीस ही मारे जाते थे अब सैंकड़ों, हजारों में । दोनों पक्ष लहू-लुहान हैं । बताते हैं कि जिन सिपाहियों की तैनाती वहां होती है उनकी जिंदगी भी आसान नहीं है । पचास हजार तो अब तब वहां के तनावों के चलते स्वेच्छिक अवकाश ले चुके हैं । तपते जंगल, न रहने का ठिकाना, न सोने का, पानी पीने तक से डर कि कहीं जहर न मिला हो और रात को मच्छर, सांप, बिच्छू । कौन सिपाही कितने दिन अपने ही लोगों से इन स्थितियों में लड़ना चाहेगा ? बाल बच्चे तो इन सिपाहियों के भी होते हैं । तो दूसरी तरफ इनके अत्याचारों से पीडि़त आदिवासी भी उसी बर्बरता से गुजर रहे हैं । उनकी झोपड़ी में यदि कोई दवा की शीशी मिल जाए तो इस शक पर कि कोई नक्सलवादी वहां रहा होगा, वे जेल में ढूंस दिये जाते हैं स्त्री, बच्चों समेत ।
ब्रह्मदेव शर्मा उसी क्षेत्र में अफसर रहे हैं और यह अच्छा लगा कि आदिवासी सत्ता के शीर्ष पर बैठे मंत्री, प्रधानमंत्री पर यकीन करने के बजाय ब्रह्मदेव शर्मा पर यकीन करते हैं । इससे एक बात फिर सिद्ध होती है कि देश की जनता को अभी भी गांधी जैसी सादगी और ईमानदारी पर यकीन है । जिन आदिवासियों को नक्सलवादी या हिंसा का पर्याय माना जाता है उन्हें भी बार-बार ऐसे ही चेहरों की मध्यस्तता मंजूर है और सचमुच यहीं उम्मीद की किरण नजर आती है । पॉल मेनन की भी तारीफ करनी चाहिए कि वे सच्चे मन से उन आदिवासियों के घर गये और उन आदिवासियों की भी जिन्होंने उसी विश्वास के बल पर उन्हें कोई नुकसान नहीं पहुंचाया । लेकिन इस यकीन को कायम कैसे रखा जाए ? मेरे दिमाग में संशय उभरता है । यदि फिर आदिवासियों के साथ धोखा हुआ तो उसका दंड अगले किसी क्लैक्टर या उसके अंगरक्षकों को मिलेगा । पकड़े, छोडे़ जाने या विश्वास, अविश्वास की शतरंज कब तक चलेगी ? इस संशय से बाहर निकलकर विकल्प के सूत्र तुरंत खोजने में ही देश की भलाई है ।
क्या एक विकल्प यह हो सकता है कि कोई ऐसा सरकारी, गैर सरकारी स्तर पर संगठन बनाया जाए जो नक्सल प्रभावित सभी राज्यों में उस वांछित विकास को मॉनीटर कर सके । वार्षिक और पंचवर्षीय योजनाओं के साथ । सूचना का अधिकार, शिक्षा का अधिकार, मनरेगा जैसी व्यापक पवित्र योजनाएं ऐसे ही शुभचिंतकों के प्रयासों से सामने आई हैं । तो फिर उस समस्या को जिसे सत्ता देश की सबसे बड़ी समस्या मानती है उस पर अब बातों से आगे जमीन पर कोई काम क्यों नहीं ? दिल्ली में सेमीनार बहुत हो चुकें । राजेन्द्र सच्चर, ब्रह्मदेव शर्मा, हर्ष मंदर, मेधा पाटेकर, अरुण रॉय, निर्मला बुच, राजेन्द्र यादव—– संभावित टीम में शामिल किये जा सकते हैं बशर्ते कि यहां भी शुभारम्भ करने से पहले आरक्षण आदि का पेच नहीं आए ।