विज्ञान प्रसार और वैज्ञानिक सोच को बढ़ाने के लिए हाल ही में दिल्ली में एक अंतर्राष्ट्रीय गोष्ठी संपन्न हुई है । अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ऐसी गोष्ठी सरकारी छत्रछाया में ही संभव है । लेकिन यह एक महत्वपूर्ण कदम है सरकारी सोच की यात्रा में । तीन दिन के जमावड़े में, जिसमें देश-विदेश के विज्ञान और विज्ञान के प्रसार से जुड़े दूसरे क्षेत्रों के विद्वान भी शामिल थे, ने मिलकर एक घोषणा पत्र या संकल्प भी जारी किया है। इस घोषणा पत्र को इससे पहले विज्ञान प्रसार द्वारा 2011 में पारित पालनपुर संकल्प का अगला पड़ाव माना जा सकता है ।
नेहरू एक वैज्ञानिक सोच से भरे स्वप्नदर्शी राजनीतिज्ञ थे । ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ में वे लिखते हैं कि यह अजीब लगता है कि हम परम्पराओं से इतने क्यों चिपटे रहते हैं कि मनुष्य की विश्लेषणात्मक बुद्धि काम करना बंद कर देती है । उन्होंने उम्मीद जताई कि केवल राजनीतिक और आर्थिक रूप से आजाद होने पर ही हमारा मन मस्तिष्क सामान्य और तर्कपूर्ण ढंग से काम करने लगेगा ।
हम आजाद भी हो गये । नेहरू ने अपने शासन के दौरान विज्ञान नीति भी बनाई जिसको रूप देने में उन दिनों के सर्वश्रेष्ठ वैज्ञानिक डॉ. होमी जहांगीर भाभा, डॉ कोठारी, विश्वरैया के साथ-साथ हुमायूं कबीर, मौलाना अबुल कलाम आजाद और आजादी के दूसरे तपे हुए नेता भी शामिल थे । स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान सभी ने समाज को बहुत नजदीक से देखा था और वे मानते थे यदि दुनिया के राष्ट्रों के साथ हिन्दुस्तान को पहुंचना है तो सबसे पहले यहां के अंधविश्वासों और पोंगापंथी को दूर करना है । महात्मा गांधी स्वयं इस अंधविश्वास के खिलाफ लगातार लिखते और कहते रहे । गांधी को हिन्दू धर्म की वर्ण व्यवस्था का हिमायती कहना वैज्ञानिक सोच पर खरा नहीं उतरता । उन्होंने कई जगह सार्वजनिक रूप से यह कहा है कि कोई भी परम्परा कितनी भी पुरानी हो उसका कोई धर्मग्रंथ कितना ही पूज्य हो यदि वह आज की जरूरतों के हिसाब से कसौटी पर खरा नहीं उतरता तो उसे छोड़ने में ही भलाई है । किस धर्म का कौन सा मसीहा अपने धर्म ग्रंथों के खिलाफ इतनी कठोर बात कह सकता है ? यहां तक कि अस्पृश्यता को लेकर भी उन्होंने दो टूक कहा कि ‘यह रावण जैसे राक्षस से भी ज्यादा खतरनाक है । मनु स्मृति का सहारा लेकर इन बुराइयों को जायज नहीं ठहराया जा सकता । किसी धर्मग्रंथ में लिखे श्लोक की बातें मेरे तर्कों से ऊपर नहीं हो सकतीं ।’
और क्या प्रमाण चाहिए देश को अंधविश्वासों और सड़ी-गली परम्पराओं से मुक्ति के लिए जिसका आधार गांधी, नेहरू जैसे तर्कशील महापुरुषों ने रखा हो । होना तो यह चाहिए था कि निरंतर वैज्ञानिक चेतना लोगों में आती, अच्छे बुरे को तर्क की कसौटी पर कसा जाता तो शायद हम उन राष्ट्रों के समक्ष पहुंच सकते थे, जिनकी कल्पना नेहरू ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ में करते हैं । लेकिन साठ वर्ष की राजनैतिक और आर्थिक आजादी के बाद भी वैज्ञानिक चेतना के स्तर पर हम औंधे मुंह गिरे पड़े हैं । गोष्ठी में शामिल प्रसिद्ध वैज्ञानिक पी.एम. भार्गव ने बहुत अच्छा उदाहरण दिया । भार्गव जाने-माने मॉलीकुलर जीवविज्ञानी हैं । अनेकों वैज्ञानिक उपलब्धियां और शोध उनके नाम रहे हैं । साथ ही सरकार द्वारा तैनात राष्ट्रीय ज्ञान आयोग के उपाध्यक्ष भी । उन्होंने बताया कि एक गोष्ठी में उन्होंने प्रश्न उछाला कि यदि दफ्तर के लिए निकलते वक्त कोई काली बिल्ली आपका रास्ता काट दे तो आप क्या करेंगे ? सच्चाई जो सामने आई उसका लब्बो-लुबाव यह है कि सत्तर प्रतिशत जिन लोगों ने कहा कि वे रास्ता बदल देंगे वे उस सभा के ज्यादा पढ़े-लिखे डिग्रीधारी कहे जा सकते हैं । उनमें विश्वविद्यालयों के प्रोफेसर, वैज्ञानिक, डॉक्टर, इंजीनियर ज्यादा थे बजाय आम गरीब आदमी के । और शेष तीस प्रतिशत में शामिल जो अधिकतर गरीब थे उनका साफ कहना था कि रास्ता नहीं बदलेंगे । बदलने से रास्ता लम्बा होगा और हम देर से पहुंचेंगे तो हमारी नौकरी खतरे में पड़ जाएगी । यानि कि उस गरीब को अपने काम और समय की चिंता हर अंधविश्वास से ऊपर है । ऐसे आंकड़े पिछले दिनों और भी सामने आए हैं । विज्ञान प्रसार में पूरी उम्र लगे रहे प्रसिद्ध वैज्ञानिक जयंत नर्लीकर भी बार-बार ऐसे तथ्यों को सामने लाते रहे हैं । उनके सर्वे भी बताते हैं कि तीस या पचास वर्ष पहले आजादी के वक्त इतनी कुंडलियां, जनमपत्री नहीं मिलाई जाती थीं जितनी कि आज । यहां तक कि वे पढ़े-लिखे अमीर जो आज अच्छी स्थिति में हैं और जिन्होंने अपनी शादियां बिना ऐसे ज्योतिष और अंधविश्वासों के कीं, दुर्भाग्य से वे अपने बच्चों की शादियां कुंडली मिलाकर अधिक कर रहे हैं ।
पूरे देश के अखबारों को आप टटोलें विशेषकर हिन्दी पट्टी की पत्रिकाओं और अखबारों को तो आप पाएंगे कि सैंकड़ों आपराधिक हादसे इन ज्योतिषियों, पंडितों, मुल्लाओं के बहकावे में आकर हो रहे हैं । अपने नजदीकी रिश्तेदारों या उनके बच्चों की बलि तक ली जा रही है । कभी पुत्र प्राप्ति के लोभ में तो कभी रातों-रात मालामाल होने के लिए । 15 जनवरी 2012 को मध्य प्रदेश के रतलाम शहर में चहल्लुम पर्व के अवसर पर हुई भाग-दौड़ में दस से ज्यादा लोगों के मरने की घटना कोई नई बात नहीं है । कभी हरिद्वार और कुंभ की भीड़ में सैंकड़ों मरते हैं तो कभी हिमाचल में नैनां देवी मंदिर में । वर्ष 2011 में केरल के सबरीमाला मंदिर में सौ से अधिक भक्तों की जान चली गयी थी । आखिर कब तक हम इन सारी दुर्घटनाओं के मूक गवाह बने रहेंगे । क्या भारतीय जन मानस इतना, असंवेदनशील या मूर्ख है कि मृत्यु, बलि जैसे जघन्य अपराध भी इनकी आत्मा को नहीं हिला पाते । यह सिर्फ जीने मरने का प्रश्न नहीं है । हमारे लोकतंत्र का भविष्य भी अंधविश्वास के इस अंधेरे में सुरक्षित नहीं है ।
गोष्ठी में सुप्रीम कोर्ट से सेवानिवृत्त न्यायाधीश काटजू ने अपने खिलंदड़ अंदाज में प्रश्न उठाया कि क्या ऐसा अंधविश्वास समाज का सही प्रतिनिधि चुन सकता है ? यदि वैज्ञानिक सोच को बढ़ावा देकर जनता को भले-बुरे के बारे में तैयार किया जाता तो उसे जाति या धर्म के झुंडों के रूप में नहीं हांका जा सकता था । राजनेता क्यों ऐसी सोच को बढ़ावा देंगे जिससे जनता अपने विवेक से काम करना शुरू करे ? उनकी तो पूरी खेती ही चौपट हो जाएगी । काटजू ने कहा कि यहां सभागृह में बैठे नब्बे प्रतिशित लोग किसी न किसी भविष्य फल, ज्योतिष को मानते होंगे । उन्होंने भी इस बात पर चिंता जताई कि शिक्षा के प्रचार-प्रसार के बावजूद भी समाज में कूपमंडुकता और अंधविश्वास भयानक रूप से बढ़ा है । रोज नये बाबा जन्म ले रहे हैं । और उनमें शामिल हैं अमीर, पढ़े- लिखे, इंजीनियर, डॉक्टर । आखिर इतनी शिक्षा, विज्ञान की ऐसी डिग्रियों के बावजूद ऐसा क्यों हुआ ?
इसका बहुत कुछ कारण इस पूरी शिक्षा पद्धति को भी दिया जा सकता है जो सिर्फ रटंत पर आधारित है । तर्क से शिक्षा की बुनियाद यदि अपनी भाषा, बच्चे की भागीदारी, उसके अपने वातावरण के साथ प्रश्न करने और पूछने की आजादी के साथ होती तो बड़े होकर इन इंजीनियरों की उंगलियों में न इतनी अंगूठियां होतीं और न दूसरे ताबीज । दिल्ली अपेक्षाकृत अमीरों का शहर कहा जा सकता है । आप गौर कीजिए हर तीसरे नहीं तो हर पांचवे आदमी की कलाई में पिछले दिनों एक लाल धागा दिखाई देता है । कभी-कभी गला हुआ बदबू मारता हुआ । उनके पंडित, मुल्लाओं ने शायद उन्हें समझा दिया है कि यदि तोड़ के फैंका तो कयामत आ जाएगी । कयामत या अनिष्टता का डर ही तो ज्ञान के प्रसार में सबसे अधिक बाधक है । सरकार केन्द्र की हो या राज्य की शिक्षा में ऐसे किसी वैज्ञानिक पाठ्यक्रम को नहीं ला पाई जो किसी भी देश की बुनियाद कही जा सकती है । विज्ञान नीति अलग चलती रही और शिक्षा नीति अलग । होना तो यह चाहिए था कि आजादी के शुरू के दशकों में एक मजबूत संवाद दोनों पक्षों में रहता और फिर उसका कड़ाई से पालन किया जाता । निश्चित रूप से शुरू के बीस-तीस वर्षों में कई ऐसे कामों की शुरूआत हुई जैसे राष्ट्रीय एन.सी.ई.आर.टी. का गठन, सी.एस.आई.आर. की स्थापना, देश भर में अनेकों साईंस अकादमियां आदि । उसके बाद एन.सी.ई.आर.टी. के पाठ्यक्रम तो बने लेकिन सरकार उनको उस मुस्तैदी से स्कूलों में नहीं लगा पाई । पिछले दिनों शिक्षाविद कृष्णकुमार की अगुवाई में बहुत अच्छे पाठ्यक्रम तैयार किए गये हैं । विशेषकर सामाजिक विषयों में । बहुत सहज, तर्कपूर्ण शैली और सामग्री । लेकिन अफसोस ठीक इसी समय शिक्षा निजीकरण की तरफ बढ़ रही है । और निजी स्कूलों के मालिक कौन हैं ? भट्टे वाले, डेरी वाले या दूसरे व्यवसायी । ये धंधेबाज शिक्षा में किसी वैज्ञानिक चेतना के लिए नहीं आए । उनके लिए यह कई धंधों में से एक नया धंधा है जो सबसे आसान है । जिसमें रुतबा भी अच्छा और कमाई भी । अमीरों से पैसा उनके लाडलों के बहाने ही लिया जा सकता है । स्कूल का यह धंधा धर्म के धंधे के साथ जुगलबंदी करके खूब बढ़ रहा है । वे मदरसे हों या दूसरे अंग्रेजी हिन्दी संतों के नाम पर चलने वाले स्कूल । उनकी किताबें यदि आप देखें तो आप कांप जाएंगे । सत्तर अस्सी के दशक तक अपेक्षाकृत वैज्ञानिक पाठ्यक्रम के बावजूद भी जब देश वैज्ञानिक सोच और चेतना से इतना दूर चला गया तो इन किताबों को पढ़ने के बाद यह पीढ़ी और देश किस कुएं में गिरेगी ? क्या मंदिरों में बढ़ती भीड, कलाइयों में बंधे धागे, पत्र-पत्रिकाओं की भीड़ में पचास प्रतिशत से अधिक पत्रिकाओं में ज्योतिष, राशिफल का आना इसके पर्याप्त लक्षण नहीं है ? यह चौतरफा है लेकिन शिक्षा के क्षेत्र में और भी भयानक ।
शिक्षा के क्षेत्र में एकलव्य जैसी सरकारी संस्थाओं ने अच्छे काम की शुरूआत मध्य प्रदेश में की थी । चकमक, स्रोत, संदर्भ पत्रिकाओं के साथ-साथ विज्ञान क्या है ? इतिहास क्या है ? गणित के प्रयोग से संबंधित सैंकड़ों किताबें । विज्ञान प्रसार भी पिछले दिनों इन प्रयासों में जुटा है । लेकिन यह सब गर्म तवे पर पानी की बूंदों से अधिक नहीं माना जा सकता ।
देखा जाए तो इस अपराध के लिए राजनैतिक सत्ता ज्यादा जिम्मेदार हैं क्योंकि हर नीति शिक्षा हो या मीडिया, राजनीति के ग्लेशियर से ही निकलती है । जो राजनैतिक सत्ता लोकतंत्र के नाम पर जाति और धर्म के एक-एक आंकड़े के आधार पर मैदान में उतरती हो क्या वे पूरी निष्ठा से वैज्ञानिक सोच को आगे बढ़ने देंगे ? शायद ही कोई दल हो जिन्होंने कंप्यूटर और आई.टी. का दुरुपयोग करते हुए हर चुनाव क्षेत्र के जाति और धर्म के आंकड़े इकट्ठे न किये हों । संविधान में इसे भले ही अपराध घोषित किया गया हो । लेकिन भारतीय लोकतंत्र इन्हीं आंकड़ों से आगे बढ़ रहा है । क्या नजदीक के राज्य हरियाणा और उत्तर प्रदेश में खांप पंचायतों द्वारा विवाह संबंधों में गोत्र, कुल के आधार पर दखलअंदाजी कम अवैज्ञानिक है ? क्या धर्म के दूसरे समुदाय भी परस्पर ऐसे ही अंधकार में नहीं डूबे ? वक्त आ गया है वैज्ञानिक सोच का दायरा बढ़ाने का और यह काम केवल वैज्ञानिकों के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता । देश के हर नागरिक को, माता-पिता, शिक्षक, समाज सेवी, सरकारी कर्मचारी को इसमें शामिल होना है । विज्ञान पढना एक बात है और वैज्ञानिक सोच रखना दूसरी । खुशी की बात यह है कि जयंत नर्लीकर, सुबोध मोहंती, गौहर रजा, विमान वसु, यतीश अग्रवाल, देवेन्द्र मेवाड़ी, डॉ. डी.बालासुब्रहम जैसे वैज्ञानिकों के साथ-साथ सुशील जोशी, अरविंद गुप्त जैसे सैंकड़ों लोग इस आंदोलन को आगे ले जा रहे हैं । महेश भट्ट, न्यायाधीश काटजू, भार्गव जैसे कुछ नामों का और जुड़ना एक उम्मीद जगाता है । देश और दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की खातिर अब इसे और स्थगित नहीं किया जा सकता । वरना वैज्ञानिक सोच और चेतना के अभाव में लोक और लोकतंत्र दोनों के डूबने का खतरा है ।
दिनांक 06/02/2012
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