मशहूर कथा पत्रिका हंस ने 31 जुलाई 2018 को होने वाली अपने वार्षिक व्याख्यान माल’ विमर्ष का विषय चुना है लोकतंत्र की नैतिकता उर्फ नैतिकता का लोकतंत्र। हंस एक बड़ी बौद्धिक विरासत का नाम है। प्रेमचंद से शुरू होकर राजेन्द्र यादव तक। हर पीढ़ी के सर्वश्रेष्ठ लेखक, विद्धान इसके पृष्ठों पर शिरकत करते रहे हैं। नयी से नयी पीढ़ी संस्कारित और प्रेरणा पाती रही है। ऐसे संस्थान में विमर्श का शीर्षक ऐसा खींचतान करके बनाना कुछ अटपटा सा लगता है। मानो हरियाणा की किसी रागिनी को गढ़ा जा रहा हो। क्यों नहीं सीधा, संक्षिप्त रखते ‘लोकतंत्र और नैतिकता।‘ याद दिला दें दिल्ली में यही एक गोष्ठी बची है जिसमें प्रेमचंद के जन्मदिन 31 जुलाई के बहाने सारे शहर के समझदार इकटठे होते हैं। ऐसे प्रबुद्ध जमाबडे में विषय की हल्केपन से खींचतान पूरे विषय को बोदा करती है।
तुरंत दिमाग स्मृतियों की सड़क पर दौड़ने लगता है- हंस की कुछ पुरानी गोष्ठियों की ओर। कुछ बेहद सार्थक, विचार- प्रस्फुटित करती तो कई रीतिबद्ध निष्प्राण विश्वविद्यालयी. बासे नोटस का सा बाचन। कई बार विषय अच्छा चुना गया लेकिन वक्ताओं की वारात-स्त्री ,दलित, संघ के चिंतकों का जबरन प्रतिनिधित्व देने की कोशिश में सब कुछ वेसिर पैर। ज्यादातर ऐसा कि विषय के करीब तक पहुंचने और जमीनी सचाइयों को जनता को बताने की बजाये मुद्दे से भटक कर किसी ओजोन सतह पर ही वक्ता तलवार भांजते रहे। क्योंकि नास्ता और गिफ्ट का स्तर पिछले वर्षों से निरंतर ऊंचा होता गया है तो श्रोता दस बीस मिनट बैठने की औपचारिकता के बाद या तो वहां से खिसक लिया या बाहर यार वासी –चाय वासी का मौका निकालते नजर आये।
इस बार के संभावित वक्ता प्रसिद्ध शिक्षाविद कृण कुमार जी से मुझे विशेष अपेक्षा है क्योंकि दिल्ली के इधर के चिंतकों में विशेषकर हिन्दी विमर्शकारों के बीच वे अकेले प्रभावी और मौलिक वक्ता हैं। पूरी संवेदनशीलता के साथ उन बिन्दुओं को छूने वाले जो दशकों से हमारे सामने दिखते तो हैं लेकिन विमर्श में शामिल नहीं होते। आंखों से विकलांग प्रसिद्ध लेखिका हेलनकीलर के शब्दों में ‘जो देखकर भी नहीं देखते।‘ कृष्ण कुमार जी ने न पूरे बौद्धिक शैक्षिक विमर्श को भाषा, बोली, पाठयक्रम शिक्षण पद्धतियों के संदर्भ में नयी दिशा दी है ठेठ साहित्य में भी सुभद्रा कुमारी चौहान, श्रीकांत वर्मा, महादेवी वर्मा से लेकर रघुवीर सहाय, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना के साहित्य कर्म को विश्वविद्यालय के प्रोफेसर, विद्वानों से बेहतर समझा–समझाया है। साहित्य और समाज उनके रग रग में समाया है।
इसलिए उनसे अपेक्षा है कि विषय के लय- छन्द में न उलझते हुए बतायें कि लोकतंत्र की नैतिकता की आखिर सीमाएं क्या हैं और क्यों है। और क्या आश्य है लोकतंत्र और नैतिकता से ?क्यों संसद, चुनाव, प्रधानमंत्री, कांग्रेस-भाजपा लालू, ममता मुख्यमंत्रियों के कार्यकाल, कारनामों की फेहरिस्त मीमांशा ही नैतिकता के पैमाने पर आंकी जाये? क्या इसमें ‘लोक’ की भी कोई भूमिका है? जब लोक परत दर परत अनैतिकताओं में डूवा है तो लेाकतंत्र की ऐसी जमीन पर नैतिकता का कोई पौधा कैसे फूल, फल देगा। या सिर्फ ताड की तरह लम्बा- दुनिया का सबसे विशाल लोकतंत्र जैसे जुमलों तक ही सिमट कर रह जाएगा? वक्तेओं से अपेक्षित हाल के कुछ जमीनी उदाहरणों से मेरे अंदर कुछ प्रश्न पैदा हो रहे हैं।
हाल ही में लोकतंत्र के एक पाये नौकरशाही के साक्षात्कार बोर्ड शामिल होने का मौका मिला। बहुत छोटे 2-3 दिन के नोटिस पर। पूरी पारदर्शिता, ईमानदारी थी। निष्पक्षता की खातिर इतनी गोपनीय कि उम्म्ीदवार को अपना नाम पिता का नाम, जाति धर्म, क्षेत्र बताने की भी सख्त मनाही थी। लगभग चकित और अभूतपूर्व प्रेरणादायक अनुभव-विशेषकर साक्षात्कारों के बहाने पिछले दरवाजे से भर्ती के संदर्भ में। चयन बोर्ड में शामिल दिल्ली से और मध्य प्रदेश से आये विश्वविद्यालय के प्रोफेसरों को देखते भालते भी यकीन नहीं आ रहा था इतनी पारदर्शिता पर ।
सुबह की चाय पर वे जरूर बोलते ‘अरे ! कुछ न कुछ हेराफेरी जरूर होगी’ इतना सीधा मामला है नहीं ये। हमने बहुत इंटरव्यू देखे हैं। हाथी के दांत दिखाने के और खाने के और।‘ उनकी बात को काटने का मेरे पास कोई हथियार, तथ्य अनुभव भी नहीं था। अत: हा हा करनी पड़ती। खैर साक्षात्कार खत्म हुए और तीन दिन में ही परिणाम। उम्मीद के अनुकूल मेधावी बच्चे ही चुने गए। लेकिन ‘नैतिकता’ का प्रश्न इसके बाद शुरू होता है। एक प्रोफेसर का फोन आया-अरे आप वहां गये थे आपने बताया नहीं? दूसरा-अरे मेरे विद्यार्थी ने मेरा नाम भी बोल दिया था फिर नम्बर क्यों कम दिए? आप क्या जबाव देंगे-ऐसी नैतिकता का। या इन बातों को नैतिकता से परे रखकर देंखें?
ये विश्वविद्यालय के प्रोफेसर हैं। भर्ती बोर्ड में शामिल प्रोफेसरों को इस बात पर यकीन नहीं और शेष सरेआम बईमानी की मांग कर रहें हैं कि ‘बताते तो अपने चेलों का कुछ भला हो जाता। ये सब उस बुद्धिजीवी जमात के लोग हैं जो दिन रात पारदर्शिता, नैतिकता, मूल्यों की दुहाई देते हैं। हर मंच पर। जंतर मंतर से लेकर अखवार, मीडिया सेमीनार सब जगह। दुहाई देनी भी चाहिए- इस संतोष के लिए कि कुछ तो कर रहे हैं, चुप बैठने के बजाये। इनके निशाने पर विशेष तौर पर संसद, राजनैतिक तंत्र- नौकरशाही हर समय रहती है। पिछले दिनों यह न्यायपालिका, सुप्रीम कोर्ट को भी अपने निशाने पर ले आये है। यों भी कह सकते हैं क्योंकि मौजूदा सुपर सक्रियता के मौसम में परस्पर नैतिकता के तीर सभी खम्बों से आ रहे हैं। एक दूसरे तीसरे के खिलाफ। विमर्श को समझने के लिए इतना कहना पर्याप्त है कि जिस विश्वविद्यालय में भर्ती, विद्यार्थियों के साथ भेदभाव, नम्बर घटाने-बढ़ाने की अनंत गाथाएं है वे भी कभी रावड़ी देवी की शिक्षा, कभी मोदी, स्मृति ईरानी की डिग्री पर रोज नैतिकता के वैनर से हमला करते हैं।
ऐसा नहीं कि यह अनैतिकताएं सिर्फ विश्वविद्यालय, शिक्षकों तक ही सीमित है। यह चावल की हांडी का एक नमूना भर है। नौकरशाही जिसके पास सत्ता का ढांचा है नेता जिनके पास सत्ता की चाबी है उतने ही गुणनफल में अनैतिक है। लेकिन इसका मतलब पूरे लोक का अनैतिक होना नहीं है। ‘लोक’ तो जैसा बनाओगे वैसा बनेगा। अनैतिकता उसको नियंत्रित करने वाली सैंकड़ों मलाईदार परतें है। दुखद आश्चर्य यह कि लोकतंत्र, नैतिकता की दुहाई दे देकर यह वर्ग लोक को इस कद्र भरमा देता है कि सही गलत का चुनाव भी उसके लिए मुश्किल हो जाता है।
एक और उदाहरण से बात स्पष्ट की जा सकती है। भारतीय समाज की जाति व्यवस्था असमानता, अमानवीयता, अताकिर्कता का बहुत क्रूर ढांचा है। लगभग अपरिवर्तनशील इसी से निजात पाने या कहें बराबरी लाने के लिए संविधान में आरक्षण की व्यवस्था की गई है। नैतिकता की कसौटी पर सही कदम । लेकिन व्यवहार में? दिल्ली विश्वविद्यालय या नौकरशाही की सर्वोच्च सेवाओं में दलित प्रतिनिधत्व, आरक्षण के तहत दलित पिछड़े के नाम पर उपराष्ट्रपति, संसद सदस्य या सैक्रेटरी, न्यायाधीश का बेटा, बेटी ही ज्यादातर नियुक्त होते हैं और संविधान में जिस गांव, आदिवासी क्षेत्र के सदियों से अस्पृश्यता भेदभाव का देश झेलते दलित के उत्थान की बात की गयी थी वह कभी नहीं आ पाता। यहां इन ढोल पीटी नैतिकताओं के लिए जाति सूचक बनावटी नाम महत्वपूर्ण है, नैतिक हो जाता है. बराबरी, गरीबी, बंचित सब गौड़, वेमतलव। यहां तक ये क्रीमी लेयर को हटाने की बात से भी बचते हैं। लेकिन इन्हें अपना यह कर्म कभी अनैतिक नहीं लगता. उसके लिए ये नए से नए तर्क गढ़ लेते हैं। सब का अपना अपना कुतर्क लेकिन नाम नैतिकता का।
तो पूरे देश में लोकतंत्र के नाम पर यही हो रहा है। सैंकड़ो, करोड़ों स्तरों पर। इसलिए इतने बारीक स्तरों पर नैतिकता को गढ़ने, बनाने की जरूरत है। सिर्फ सत्ता-विमर्श की नैतिकता को जांचने, उलट पलटने से काम नहीं चलने वाला और न रागिनी-नुमा विमर्शों से। नैतिकता को एक तर्क के साथ लोक में रोपित करना होगा अपने निजी और सार्वजनिक दोनों परिधियों में।
कभी कभी लगता है इस देश के हर व्यक्ति के हाथ में एक लाठी है और उस पर नैतिकता का डमरू लटका है। जब चाहे तब, बजाने को आज़ाद और सभी बजाने को आतुर। पार्टी से लेकर हर स्तर पर। नतीजा नैतिकताओं का तांडव। स्कूलों से तर्कशीलता की बात करो तो कुछ नैतिकतावादी मूल्यों का डमरू बजाने लगेंगे और पारदर्शिता व्यवस्था की बात करो तो दूसरे प्रतिबद्धता ,विचार के डमरू से उसे खारिज करने पर आमादा। ज्यादातर वे जो स्वयं लोकतंत्र के नाम पर या आड़ में अनैतिक दुरभि संधियों के चुह -बच्चे हैं। अगड़े, पिछड़े, दलित, सवर्णों में विभाजित हर वर्ग। जो जितनी ऊंची क्रीमी लेयर में उतना ही अनैतिक।
इस परिदृश्य को बदलने की जरूरत है। ‘मैं ही श्रेष्ठ हूं नैतिक हूं’ या मेरी पार्टी, संगठन ही शुद्ध नैतिक है इस सोच को भी। और इसे केवल बुनियाद से ही बदला जा सकता हे जिसका नाम शिक्षा है। लेकिन नैतिकता के तांडव में शिक्षा की तो बात ही नहीं होती। न राज्य के स्तर पर, न राजनीति के सांचे में। शायद शिक्षा के आइने में हम सभी अपनी तस्वीर देखने से डरते हैं।
संभवत: लोक की सामूहिक नैतिकता ही लोकतंत्र की नैतिकता का निर्माण करेगी और उसे दिशा देगी। लोक को अलग रखकर लोकतंत्र की नैतिकता पर बात करना बेमानी है।
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