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रेल: काया कल्प का इंतज़ार

Jul 28, 2017 ~ Leave a Comment ~ Written by Prempal Sharma

यकीन  मानिए रेल मंत्रालय में पिछले दो बरस से एक कायाकल्प समिति भी काम कर रही है जिससे प्रशिद्ध उद्योगपति रतन टाटा भी जुड़े हुए हैं .इस बात के लिए तो पिछले तीन साल जरुर याद किये जायेंगे इतनी ताबड़तोड़ समितिया , इतने बड़े बड़े नामों-काकोडकर ,विनोद राय ,विवेकदेव राय,श्रीधरण आदि के साथ कभी गठित नहीं हुई .कोई हर्जा नहीं बशर्ते उनकी सिफारशों पर कम हो .लगातार बढ़ती रेल दुर्घटनाओं ने रेल विभाग की ही नहीं पूरे देश को हिला दिया है। मानवीय चूकों से हुई ये दुर्घटनाएं इक्‍कीसवी सदी की रेलवे के लिए कलंक है। विवरण जानकर लगता है मानो रेल उन्‍नीसवी सदी में चल रही है। पटरी का टुकड़ा निकल गया ता उसकी मरम्‍मत तक की व्‍यवस्‍था नही हो रही। स्‍टॉफ की कमी का रोना अफसर, यनियनें क तक रोयेंगी? जो डयूटी पर थे उनकी कार्यशैली का बयान उस टेप में है जो एक गेंगमैन बताता है कि कोई मुकम्मिल निगरानी पटरियों की नहीं होती। गेंगमैन की आत्‍मा का बयान गौर करने लायक है कि आटे में नमक के बराबर भी काम कर लें तो बहुत है।’ कार्य संस्‍कृति में इतनी गिरावट? वह भी तक जब पांचवे, छठे और सातवें पे कमीशन ने सरकारी कर्मचारियों तनख्‍वाहें सातवें आसमान पर पहुंचादी है। स्‍कूल भत्‍ता, मकान, मेडिकल, चाइल्‍ड केयर लीव, यात्रा सुविधाएं नि‍यमित डीए और भारी पेंशन। लेकिन वस काम न करना पडे़। नतीजा तीन साल में 27 प्रमुख घटनाओं को मिलाकर ज्‍यादा दुर्घटनाएं। यह सब तंत्र की बड़ी गिरावट का संकेत है।

इस अंधरे की उम्‍मीद जागती है तो पहली बार रेलवे के उच्‍च अधिकारियों की खबर लिया जाना और चौतरफा संवेदनशीलता। अध्‍यक्ष, रेलवे बोर्ड का इस्‍तीफा मेंबर, जी.एम., डीआरएम का छुट्टी पर जाना और चार अधिकारियों का निलंबन भले ही विवशता में ही सही। बड़े पदों पर बैठे अधिकारियों की गर्दन इससे पहले इस स्‍तर पर कभी नहीं नपी। बताते हैं कि रेल मंत्री जी ने इस्‍तीफे की पेशकश की है। पूरे देश की जनमानस फिलहाल रेल विभाग की अकर्मयता से निराश और दुखी है। हो भी क्‍यों न, देश की जीवन रेखा है रेलवे।

आनन् –फानन नये अध्‍यक्ष लोहानी की नियुक्ति भी हो गयी है। रेल विभाग में मैकेनिकल इंजीनियर, लोहानी एक सक्षम अधिकारी के रूप में जाने जाते हैं। एअर इंडिया को भले ही उनके समय में निजी हाथों में सोंपने का निर्णय हुआ हो लेकिन उनकी क्षमताओं और नेतृत्‍व पर सबको यकीन है। रेल के अलावा भी केन्‍द्रीय पर्यटन मंत्रालय और मध्य प्रदेश सरकार में उन्‍होंने नाम कमाया है। उनके सामने मौका है पूरी ताकत झोंकने का पिछले तीन सालों में दर्जनों समितियां गठित हुई हैं जिनमें प्रमुख हैं। परमाणु वैज्ञानिक अनिल काकोडकर समिति, विवेक देवराय, विनोद राय, श्रीधन और उससे पहले राकेश मोहन आदि। संरक्षा क्षेत्र में भी दर्जनों रिपोर्ट धूल खा रही है। वक्‍त आ गया है इन पर कार्रवाई का और उम्‍मीद है जिस केबिनेट ने उन्‍हें नीचे से लाकर सबसे ऊपर अध्‍यक्ष पद पर बिठाया है उनका बरद हस्‍तभी इनका साथ देगा। एक साथ कई मोर्चों पर शुरआत की जरूरत है जिसमें सबसे पहले कार्य सिद्धांत को बदलने की। यह शर्म की बात है कि रेलवे की नब्‍बे प्रतिशत दुर्घटनाओं का कारण मानवीय भूल, लापरवाही है। सभी स्‍तरों पर भर्ती, प्राशिक्षण को दुरस्‍त करने की जरूरत है। साथ ही दंड और पुरस्‍कार भी। मशहूर कहावत है युद्ध बंदूकों से नहीं उन कंधों से जीते जाते हैं  जो उन्‍हें चलाते हैं। अभी से नयी तकनीक को हमारा निकम्‍मापन फेल कर देता है। बिना किसी राजनैतिक, जातीय, क्षेत्रीय हस्‍तक्षेप की परवाह किये बड़े अफसरों को भी तुरंत अपने सामंती, अंग्रेजी सरकार  के से व्यवहार को बदलने की जरूरत है। अनावश्‍यक फूलमालाओं स्‍वागत, प्रोटोकॉल पर तुरंत रोक लगे। सरकारी नौकरियां कोई अय्यासी जमीदारी की जगह नहीं है। कब तक रेल मंत्रालय सामाजिक न्याय , कल्याणकारी योजनाओं के नाम पैर सिर्फ नौकरी देने के उपक्रम बने रहेंगे .एक तरफ प्रतिवर्ष लगभग पांच सो गंग्मेनो की दुर्घटनाओ में मौत तो दूसरी ओर सुस्ती और काहिली की अनगिनत दास्ताने. प्रशासनिक सुधार आयोग और पे कमीशन भी कई सिफारिशें रेल के बाहर की प्रतिभाओं को मौका देने की बात कही है। सुधार की उम्‍मीद में आजमाने में क्‍या हर्ज है? अनुशासन परियोजनाओं को पूरा करने और कार्य संस्‍कृति के मामले में दिल्‍ली में मैट्रो और श्रीधरन से भी सीखा जा सकता है। क्‍या निजी क्षेत्र, बैंक और दूसरे विभाग नहीं सीख रहे हैं? सबसे सुस्‍त लापरवाह सरकारी विभाग ही क्‍यों है?तकनीक और आर्थिक पक्ष से भी ज्यादा जरुरी है तेरह लाख कर्मचारियों की कार्य संस्कृति में बदलाव-नयी आकान्छाओं ,उद्देस्यों के अनुरूप .

बावजूद इन खामियों के इस समय रेलमंत्री सुरेश प्रभु को हटाना और नुकसानदेह साबित हो सकता है । निश्चित रूप दुर्घटनाओं के मद्देनजर उनकी जिम्‍मेदारी सबसे ऊपर है और उन्‍होंने नैतिकता के नाते इस्‍तीफा देने की पेशकश भी की है लेकिन उनका इस्‍तीफा स्‍वीकार करना एक बड़ी भूल होगी। दो वर्ष से ज्‍यादा अपने कार्यकाल में उनकी ईमानदारी कार्यक्षमता नेतृत्‍व पर कोई उंगली नहीं उठी। नये जेनेरेशनके प्रबंधनीय गुण, सादगीसादगी, सीखने की क्षमता, नम्रता, कामदेही भी उनमें है। रेलवे में नयी तकनीकों को यथासंभव लाने के प्रयास भी उन्‍होंने किए हैं। वर्ष 2017-18 के बजट में एक लाख करोड़ का सेफ्टी फंड निश्चित कर संरक्षा की तरफ एक बड़ी शुरुआत होने वाली है। मानवरहित क्रोसिंग का साठ प्रतिात काम पूरा हो चुका है। काकोडकर समिति की सिफारिशोंमें से 65 मान ली गयी है। खानपान, ट्रैक, स्‍टेशन प्रबंधन कई मोर्चों पर काम शुरू हो चुका है।

निश्चित रूप से इतना पर्याप्‍त नहीं है बल्कि देश की उम्‍मीदों से बहुत कम। रेल टिवटर से नहीं चलायी जा सकत। व्‍यवस्‍थागत परिवर्तन की जरूरत है और इसीलिए मंत्री को थोड़ा और समय दिया जाना चाहिए। विशेषकर, तब जब कोई बोर्ड स्‍तर पर कई अधिकारियों की छुट्टी कर दी गयी हो और चेयरमैन भी नए हैं। दोनों  के सामूहिक अनुभवहीरेल की मौजूदा तस्‍वीर को बदल सकता है। मान लो कोई नया कैबिनेट मंत्री इस मोड़ पर लाया जाता हे तो कई तरह के संकट उभर सकते हं । इतने जटिल और विशाल विभाग को जानने –समझने के लिए कुछ तो समय चाहिए। रेल मंत्रालय बार बार राजनैतिक स्‍वार्थों, संतुलनों के लिए बलि का बकरा बनता रहा है। अंग्रेजों की इतनी बड़ी विरासत बरवाद भी इसीलिए हो रही है। निश्चित रूप से इन ग‍लतियों से सीखें सबकों के कार्यान्‍वयन का वक्‍त आ गया है। नये अध्‍यक्ष की नियुक्ति उसी का पहला प्रभावी कदम है। सुरेश प्रभु का अभी तक का कोई निर्णय किसी मेरे तेरे क्षेत्र विशेष के लिए भी नहीं रहा। रेल का इतिहास ऐसे मंत्रियों से भरा पड़ा है जो अपनी अपने क्षेत्, सूबेसे आगे कभी सोच ही नहीं पाये और कायर चापलूस नौकरशाही ने कभी रोकने की हिम्‍मत भी नहीं की नतीजा रेल की यह दुगर्ति। दशकों की हर स्‍तर की कोताही का परिणाम है रेल की यह दुगर्ति। निश्चित रूप से सुरेश प्रभु एक मंत्री के रूप में वैसे दवंग नहीं साबित हुए जिसकी जरूरत थी। टेन्‍डरिंग से लेकर सारी शक्तियां उन्‍होंने साथी छोटे मंत्रीयों, अफसरों को इस उम्‍मीद में सोंपी जिससे किसी काम में विलंब न हो, निर्णय के स्‍तर कम से कम हों; पर इसके परिणाम अभी तक तो अनुकूल नहीं आये। लेकिन क्‍या इसके लिए पूरा प्रशासनिक तंत्र ज्‍यादा जिम्‍मेदार नहीं है जो हर सही सुझाव, सिफारिश के खिलाफ डिपार्टमेन्‍टल मोर्चेबंदी किये रहता है। व यूनियनें भी जो बात बात पर रेल रोकने की धमकीदेती हैं। सुरेश प्रभु अब तक इन सबकी चालों को समझ गये होंगे। इसलिए उनको एक मौका और दिया जाना चाहिए।

यदि रेल को टेलिफोन, शिक्षा, स्‍वास्‍थ्‍य और एअर इंडिया की तरह निजी हाथों में जाने से रोकना है तो यह शाद अंतिम मौका है। कायाकल्प के कई मोर्चे हिन् .रेल की पटरियों  को बदलना ,उनका रख रखाव ,जर्जर पुलों की मरम्मत ,सिग्नल प्रणाली ,दुर्घटना रोधी नए डिब्बे .यात्री सुरक्षा भी चाहिए और समयपालन भी .इतनी बड़ी आबादी और माल का बोझ .रियायतें भी सभी को चाहिए-बुजर्ग, अपाहिज ,कैंसर  और अन्य रोगी ,खिलाडी ,सैनिक .कल्पना कर सकते हैं इतनी बड़ी गठरी को साधना  और लेकर चलना .वाकई काया कल्प की जरुरत है .

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Prempal Sharma

प्रेमपाल शर्मा

जन्म:
15 अक्टूबर 1956, बुलन्द शहर (गॉंव-दीघी) उत्तर प्रदेश

रचनाएँ:
कहानी संग्रह (4)
लेख संग्रह (7)
शिक्षा (6)
उपन्यास (1)
कविता (1)
व्यंग्य (1)
अनुवाद (1)


पुरस्कार/सम्मान :
इफको सम्मान, हिन्दी अकादमी पुरस्कार (2005), इंदिरा गांधी राजभाषा पुरस्कार (2015)

संपर्क:
96 , कला कला विहार अपार्टमेंट्स, मयूर विहार फेस -I, दिल्ली 110091

दूरभाष:
011 -22744596
9971399046

ईमेल :
ppsharmarly[at]gmail[dot]com

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