राजभाषा : कुछ नोट्स
भारतीय संविधान में 14 सितंबर, 1949 को हिन्दी को राजभाषा का दर्जा प्राप्त हुआ । यह सारी भारतीय मनीषा का सम्मिलित फैसला था । क्योंकि स्वाधीनता की लड़ाई में सभी इस अनुभव से गुजरे थे कि केवल हिन्दी या हिन्दुस्तानी ही सारे देश में बोली-समझी जाती है और जनता का शासन केवल ऐसी जनभाषा में ही संभव है । उसे और व्यवस्था देने के लिए आगे चलकर राजभाषा विभाग भी गठित हुए । इससे बाकी भाषा-भाषियों में सरकारी सरंक्षण में हिन्दी के साम्राज्यवाद का संकेत भी गया, जिसे हमारी नीतियों और व्यवहार ने और पुष्ट ही किया । कारण और भी हैं । नतीजतन हर सरकारी काम की तरह भाषा भी वहीं खड़ी है जहां पिछले पचास साल पहले थी ।
क्यों ? कैसे ? क्या रास्ता है ? गलती कहां हुई है या हो रही है ? इसी का ब्योरा है डायरी के ये अंश :
भाषा
अप्रैल 1994
पिछले दिनों से मैं एक अभूतपूर्व संकट से गुजर रहा हूँ । गुजर आप भी रहे होंगे लेकिन संकट महसूस नहीं हुआ होगा जैसा मुझे अभी तक नहीं हुआ था । संकट है बोलने का । आप इससे तो सहमत होंगे ही कि जिस समय में ‘संवाद’ या ‘सूचना’ धरती की सबसे ताकतवर चीज बन चुकी है, जब उस पर संकट आ जाए तो कौन नहीं घबड़ा उठेगा ?
मसलन मैं भारत सरकार के एक दफ्तर में काम करता हूँ । ‘राजभाषा’ के इतने सारे परिपत्रों के बावजूद फाइलों पर जो काम होता है वह सब अंग्रेज़ी में होता है । देखा जाए तो ‘काम’ ही अंग्रेज़ी लिखना है । जो जितनी अच्छी लिख देता है उतना कार्यकुशल माना जाता है । इस बात की कभी कोई पड़ताल नहीं हुई कि इतनी अच्छी अंग्रेज़ी वाले ड्राफ्ट से सिमसिम का कौन-सा दरवाजा खुला । हां, प्रमोशन की कतार में अक्सर वे जरूर आगे आ गए जिन्होंने इसी अंग्रेज़ी को लिखने में थोड़ी मेहनत की, महारत हासिल की ।
मैं बात से भटक नहीं रहा हूँ । पिछले दिनों मैंने यह गंभीरता से सोचा (यदि आप सरकारी आदमी की गंभीरता पर न हँसें तो)कि बातचीत में या तो हिन्दी बोलूँगा अथवा अंग्रेज़ी । खिचड़ी से बचूँगा । आप सच मानिए कि जितनी देर मुझे अपनी यह प्रतिज्ञा याद रही, मैं कोई वाक्य सही या कहिए प्रभावी ढंग से नहीं बोल पाया । हिन्दी बोलते वक्त यह रहता है कि पता नहीं ये शब्द उनकी समझ में आ रहे हैं या नहीं और मिलते-जुलते शब्द उगलने लगता हूँ । आखिर बात शून्य में तो न हो । कुछ तो सामने वाले तक पहुँचे ! और फिर यह डर भी रहता है कि कहीं मेरे जाते ही वह यह कहकर ऐनासिन न खा ले कि ये हिन्दी का पंडित जाने क्या कहता है, ज़रा तुम बताओ ।
लगभग ऐसी ही स्थिति अंग्रेज़ी बोलने पर होती है । पहले अधिकांश हिन्दी भाषी लोगों के बीच शुद्ध अंग्रेज़ी में वार्तालाप हो ही नहीं पाता । दो-चार वाक्यों के बाद वे अपनी-अपनी पर उतरने लगते हैं और यहीं ऐसा भाषायी महायुद्ध छिड़ जाता है कि बात तो खूब होती है, मगर उसमें काम की बात शायद ही हो पाती है ।
सरकारी कार्यालय में ही नहीं घर, मुहल्ले, बसों में, या बच्चों के साथ बातचीत में भी यही भाषायी संकरता लगातार बनी हुई है । भाषा संवाद के लिए है, अत: किसी अन्य भाषा के किसी शब्द पर आपत्ति का कोई प्रश्न नहीं है । पर प्रश्न अनावश्यक प्रयोग या प्रचार का है । विशेषकर जब अंग्रेज़ी और फैंच मुहावरों का धकाधक रौब मारने के लिए प्रयोग किया जाता है ।
अंग्रेज़ी के बजाय यदि इस बातचीत में अपनी देशी भाषाओं के शब्द बढ़ें तो यह कहीं सुखद स्थिति होगी । किंतु ऐसा कुछ पंडिताऊ किस्म के लोग नहीं होने देते । वरना ‘उर्दू’ जबान के शब्दों से हिन्दी -भाषाविद इतना बचकर न निकलते । अंग्रेज़ी की वर्णसंकरता मंजूर है उन्हें , भारतीय भाषाओं की नहीं ।
दरअसल, इसकी जड़ें उसी भाषायी गुलामी में हैं, आजादी के बाद जिसकी पकड़ हमारे समाज पर और मजबूत हुई है । हमारे समाज का कोई भी हिस्सा ऐसा नहीं है जो अंग्रेज़ी सीखने-सिखाने के लिए लालायित न हो । यहां तक कि पिछले दिनों लालू प्रसाद यादव द्वारा बिहार के स्कूलों में अंग्रेज़ी की शुरआत और मुख्यमंत्री ज्योति बसु द्वारा प. बंगाल में पांचवीं से अंग्रेज़ी शिक्षा की शुरुआत रही-सही उम्मीद पर भी पानी फेर देती है । सिर्फ कांग्रेस ही नहीं, किसी भी राजनैतिक दल के पास इसका व्यावहारिक विकल्प नहीं है और न यह उसकी भविष्य की किसी चिंता में शामिल है ।
इस संकट से मुक्ति का श्रेय मैं अपने एक वरिष्ठ लेखक मित्र (कृष्ण कुमार, शिक्षा-शास्त्री)को देना चाहूँगा । पिछले दिनों एक भाषण में उन्होंने जिस रवानगी से हिन्दी में भाषण दिया वह मेरे लिए आंखें खोल देने वाला था । यह एकदम गलत है कि हमारी बात के लिए हमारी भाषा में शब्द नहीं हैं । गलत हम स्वयं हैं जो कभी ऐसा प्रयास ही नहीं करते और ‘कामचलाऊ’ के तहत सरकारी किस्म की अंग्रेज़ी की बैसाखी लेकर दौड़ने की कोशिश करने लगते हैं । नब्बे प्रतिशत जनता को छोड़ो, पेशेवर लेखक तक इस भाषायी मिश्रण के शिकार हैं, विशेषकर हिन्दी -भाषी लेखक । वैसे इसमें आश्चर्य की बात नहीं है । जो सांचा समाज ने हमें दिया है वहां यह उसकी स्वाभाविक परिणति है। दिल्ली आने के शुरू के दिनों की बात है । बातचीत के बीच में ही कोई टिप्पणी करता—‘हिन्दी बड़ी अच्छी बोलते हो । कभी-कभी तो अपने सिर के ऊपर से निकल जाती है ।’ आगे चलकर दूसरों के सिर को बचाने के चक्कर में और कुछ अंग्रेजियत का तड़का लगाने के प्रयास में मेरी और मेरे मित्रों की भाषा की यह दुर्गति हुई है । भाषा-विवाद या कहो भाषा-नीति का भी इसमें उतना ही योगदान है। राजभाषा-नीति के चलते उर्दू शब्दों को धीरे-धीरे बहिष्कृत करने और विदेशी, खासकर अंग्रेज़ी शब्दों की सहज स्वीकार्यता ।
भाषा की दरिद्रता या कहो अपनी भाषा-दरिद्रता का इससे बड़ा खोखलापन क्या हो सकता है कि जिस भाषा का लेखक होने का दम हम भरते हैं उसमें दस मिनट तक धारावाहिक अपनी बात भी न कह पाएं।
पुस्तक की मौत : कारण और निदान
मई 1994
प्रमुख सरकारी और गैर-सरकारी संस्थान भी इसके प्रमुख कारण हैं । पहला है सरकार की राजभाषा-नीति । वैसे ऐसा नहीं है कि सरकार की बाकी नीतियॉं सोच-समझकर बनाई गई हैं कि उससे देश दुनिया का नेतृत्व करने में सक्षम हो गया है । पर राजभाषा-नीति के जरिए साहित्य व संस्कृति के क्षेत्र में सरकार का दिवालियापन नजर आता है । राजभाषा-नीति न केवल अपने बुनियादी लक्ष्य में असफल रही है बल्कि इसने साहित्य की, विशेषकर हिन्दी -साहित्य की भी अपूरणीय क्षति की है । पुस्तक-खरीद के अर्थशास्त्र से इसे ज्यादा आसानी से समझा जा सकता है । मार्च के महीने में अचानक देश भर में राजभाषा के उद्धारक सक्रिय होने लगते हैं । सारे वर्ष पुस्तक की ओर नजर उठाकर न देखने वाले हिन्दी अधिकारी, अफसर, प्रकाशक समाप्ति की तरफ बढ़ते वित्तीय वर्ष (मार्च) के प्रति ऐसे चिंतित दीख पड़ते हैं कि यदि पैसा बच गया तो पाकिस्तान सरकार के पास चला जाएगा । अफरा-तफरी में जो भी कूड़ा-करकट सामने परोसा जाता है, हिन्दी -अधिकारी उसी में सरकारी खरीद के नाम पर पूरे वर्ष का बजट झोंक देते हैं । पैसा पूरा इसलिए भी खर्च करना पड़ता है जिससे कि अगले साल मिलने वाली ग्रांट इससे अधिक ही हो ।
यह सिर्फ सिक्के के एक पहलू का एक कोना-भर है । राजभाषा-अधिकारी शुरू में तो सिर्फ इतने से ही संतुष्ट हो जाते थे कि प्रकाशक उन्हें बँधा-बँधाया कमीशन दे देते हैं और वैसे भी बतौर इनकी समझ पुस्तक, पुस्तक है; उसमें अच्छी क्या, बुरी क्या ? धीरे-धीरे इन अधिकारियों को यह समझ में आने लगा कि यह कमीशन तो कुछ भी नहीं। क्यों न स्वयं ही किताब लिखी जाए ? बस, अगले दिन हाजिर । राजभाषा में हिन्दी -प्रयोग कैसे बढ़े, क्यों नहीं बढ़े, राजभाषा शब्दावली, कवितावली आदि । सरकार के लगभग 50 सरकारी, गैर-सरकारी विभाग होंगे । उतनी ही होंगी शब्दावलियॉं और सभी की कीमतें डॉ.बुल्के की किताब से भी दो गुनी । अब वे लेखक भी हो गए ताल ठोक कर कहने के लिए 10-10 कविता-संग्रह भी छपवाए और कुछ ने इससे भी आगे जाकर अपनी पत्नियों, सहेलियों की गजलें, थीसिस भी छपवा डालीं । कोई भी प्रकाशक तैयार हो जाएगा, बल्कि वे तो हैं ही इसी तलाश में । कुछ अधिकारियों ने इसी रोल को एजेंट के रूप में निभाया । नगर राजभाषा समिति से लेकर राजभाषा विभाग तक फैले इस जाल के जरिए रातों-रात सैंकड़ों अधिकारी किताबों में लेखक की श्रेणी में आ गए ।
इस सरकारी खरीद का एक दर्दनाक पहलू और भी है । कुछ लब्ध-प्रतिष्ठित लेखकों की किताबें भी इससे नहीं बच पाईं । ऊँची रिश्वत के भरोसे प्रकाशक ने 10 गुना ज्यादा कीमत रखी और हिन्दी -अधिकारी के कविता-संग्रह के साथ थोक में सरकारी पुस्तकालयों में चली गई । इनमें से बहुत-से पुस्तकालय हिन्दी प्रचार-प्रसार के नाम पर ऐसे हिन्दी तर क्षेत्रों में हैं जहॉं वर्षों हिन्दी की कोई पुस्तक नहीं पढ़ी जाती । प्रकाशक खुश कि उसकी सारी प्रतियॉं बिक गईं । कोई-कोई राजभाषा-लेखकनुमा व्यक्ति भी खुश, इस दावे के साथ कि उसकी पुस्तक की एक भी प्रति अब उपलब्ध नहीं है । पिटा तो बेचारा लेखक जिसे न माया मिली न राम । जब पुस्तक सही पाठक के पास तक पहुँची ही नहीं तो वह लेखक को कैसे जानेगा ? या जानेगा तो उन्हीं दोयम, तृतीय दर्जे के लेखक को जिसे पढ़कर वह निराशा में सारी हिन्दी भाषा को गाली देगा और अंग्रेजी की तरफ बढ़ जाएगा । प्रकाशक कहता है सारी बिक गई (वैसे यह सच कभी-कभी ही बोलता है और वह भी विरला प्रकाशक) लेकिन लेखक की सूनी ऑंखें शायद ही कहीं पुस्तक देख पाती हैं । दिल्ली के कॉफी हाउस में एक जाने-माने लेखक की ताजा प्रकाशित पुस्तक के बारे में जब एक अन्य लेखक ने पूछा तो उन्होंने बड़ी निराशा में बताया कि मैंने स्वयं पुस्तकें मॉंगी हैं, पर प्रकाशक कहता है कि सारी बिक गईं । क्या कोई भी लेखक चंद सिक्कों के लिए सरकारी गोदाम या रद्दी के टोकरे में जाने के लिए लिखता है ?
राजभाषा के मकड़जाल ने ऐसे सरकारी संरक्षण पाए लेखक की ऐसी स्थिति कर दी है कि दूसरे भाषा-भाषी भी उसे संदेह से देखते हैं – ‘आपको छपने की क्या चिंता ? आपकी किताब तो सरकार खरीद लेगी ।’ कितना जहरीला घूँट पीना पड़ता है राजभाषा के पहरेदारों की हरकतों की वजह से !
ज्यों-ज्यों सरकारी प्रयोग में हिन्दी के प्रति निराशा बढ़ रही है, राजभाषा-अधिकारियों ने विशुद्ध रूप से हिन्दी प्रकाशकों के एजेंटों के रूप में कार्यभार सँभाल लिया है ।
हिन्दी पत्रकारों की जिम्मेदारी भी इसमें कम नहीं है । जहॉं अंग्रेजी व अन्य भाषाओं में पत्रकारिता करने वाले इस पेशे को सर्वोच्च अकादमिक योग्यता के बावजूद पहली प्राथमिकता, मिशनरी अंदाज में अपनाते हैं, वहीं हिन्दी पत्रकारिता में अधिकतर वे लोग आए हैं जो सरकारी, गैर-सरकारी किसी भी संस्थान में नौकरी नहीं ले पाए । बस, यही कुंठा उनके ऊपर ऐसी हावी रहती है कि ‘ऐसी कविता तो वे दिन में एक बोरी लिख दें; ऐसी कहानी तो वे दर्जनों लिखते हैं’ यानि कि साहित्यकार भी हमीं, पत्रकार तो हैं ही । यह आश्चर्य नहीं कि जितने कवि-लेखक हिन्दी पत्रों में हैं, उतने किसी भी अन्य भाषा में नहीं ।’
ऐसी स्थितियॉं किस पुस्तक को जीवित रख सकती हैं ?
सरकारी समाधान यही है कि खरीद तुरंत बंद कर दी जाए ।
राजभाषा का चरखा
जून 1995
कुछ वर्ष पहले राजभाषा-भक्तों की एक नुक्कड़-सभा में मैं यह सुझाव दे बैठा कि सरकार को एक समयबद्ध कार्यक्रम के अनुसार कार्य करना चाहिए । मसलन, 2000 वर्ष तक सभी सरकारी कार्यों को हिन्दी में होना चाहिए । साल 2000-हिन्दी में करने का अंतिम वर्ष । अन्यथा राजभाषा-विभाग को बंद कर देना चाहिए, क्योंकि यही एक रास्ता है जो पिछले 40 सालों से टलते कामों को पूरा कर सकता है । मेरी बात पूरी भी नहीं हुई थी कि राजभाषा का पिछले 30 वर्षों का नमक खाए अधिकारी लाल-सुर्ख हो बैठे- ‘क्या कहा ? फिर से कहना ! बड़े आए बंद कराने वाले ! आपकी एन.डी.एम.सी. वाले क्या कर रहे हैं ? आप उसे क्यों नहीं बंद कर देते ? पब्लिक त्राहि-त्राहि कर रही है और एन.डी.एम.सी. वाले मौज से बंसी बजा रहे हैं ।’ उनका धमकी-भरा अंतिम वाक्य था- ‘ये ही गद्दार राजभाषा के विरोधी हैं और चाहते नहीं कि हिन्दी में पोस्ट बढ़ें । इनका वश चलता तो ये राजभाषा विभाग बनने ही न देते ।’
मैं सहमकर चुप हो गया कि क्या वाकई मैंने भाषा-विरोधी बात कह दी है ? मेरा मंतव्य साफ था । यह नाटक जल्द से जल्द बंद होना चाहिए । गरीब का पैसा भी और फिर भी उसकी भाषा गायब !
लेकिन मेरे मित्र चाहते हैं कि भाषा जाए भाड़ में ! पद बढ़ने चाहिएं और यह चरखा अनंतकाल तक चलना चाहिए । देशभक्ति भी और मौज भी ।
मई 1997;
राजेंद्र यादव ने ठीक ही लिखा है : ‘राजभाषा या कहिए सरकार द्वारा हिन्दी को राजभाषा बनाने से जितना नुकसान हिन्दी -लेखक को हुआ है, उतना किसी को नहीं । उसे किसी परजीवी, पराश्रित प्राणी की तरह गिना जाता है और बाकी भाषाओं के लेखकों का कोपभाजन बनना पड़ता है वह अलग ।’
एक अनुभव बताता हूं । एक नए सहयोगी के साथ बैठा । बोले, ‘सुना है आप भी कविता लिखते हैं ? पता नहीं क्यों, लिखने के नाम पर हिन्दी में कवि का चित्र ही क्यों उभरता है । इससे पहले कि मैं कुछ कह पाता, बोले ‘मुझे भी यह वह डिमका, टुमका पुरस्कार मिले हैं हिन्दी में काम करने के लिए ।’ मुझे उनका प्रभाव स्वीकार करना पड़ा- ‘यह तो बहुत अच्छी बात है कि आप हिन्दी -प्रेमी हैं । हिन्दी में काम करते हैं और पुरस्कार भी मिले ! मैं आपको स्पष्ट कर दूं कि अंतिम शब्द को जोड़ने में मेरा इशारा स्पष्ट मजाक था ।’ पर वह नहीं समझे । वैसे भी स्वयं को मिले पुरस्कार की बात तो मजाक में कोई भी नहीं लेना । फिर कूदने लगे कि ‘चौबे साहब भी फिर तो जरूर लिखते होंगे । वे तो हिन्दी -अधिकारी भी हैं ।’ बातचीत के अंत तक आते-आते उन्होंने हिन्दी न जानने की अपनी दे ही डाली। इस अंदाज में कि ठीक से अंग्रेजी ही ज्यादा जानता हूं पर हिन्दी भी हिन्दी -लेखकों से कम नहीं । तभी तो पुरस्कृत होता रहता हूं ।
ये प्रश्न लगभग रोज ही बेचैन करते हैं । मैं हिन्दी -विभाग से नौकरी की तरह नहीं जुड़ा, पर मेरेनाम के आगे कितनी ही बार पद-नाम ऐसा लिखा जाता है । यह स्थिति बिल्कुल उसी के समान है जैसा कि हिन्दी -अधिकारी को लेखक मान लेना ।
मेरा मानना है कि ‘लेखक, मात्र लिखने से नहीं होता । लेखन तो सामाजिक, राजनैतिक समझ या कहिए उस बौद्धिक ऊष्मा का विकिरण है जो आपको लेखक बनाती है । उसका भाषा-विशेष में एम.ए. अथवा पी.एच.डी. होना कतई जरूरी नहीं है । यहां तक कि अन्य विषयों का ज्ञान ज्यादा बेहतर समझ पैदा करता है । लेखन का पहला और अंतिम उद्देश्य इसी समझ को बढ़ाना है । कुछ भाषा की नौकरी का दबाव, कुछ कानूनों की खोखली बॉंसूरी और बाकी हीनग्रंथि की पीड़ा लगातार उनकी इस समझ को और भी कम करती जाती है और वे एक ऐसे विदूषक में परिवर्तित होते जाते हैं कि जरूरत के बावजूद भी, हिन्दी से कटना लोगोंको एक संतोष देता है । इसमें गाज गिरती है असली लेखक पर, क्योंकि उन सभी को राजभाषा के इसी कठमुल्लापन, बेवकूफी का प्रचारक मान लिया जाता है ।’
हिन्दी अधिकारियों ने एक काम और किया है । जैसे सौ बार झूठ बोलने से वह बात स्वयं को भी सच लगने लगती है, वैसे ही ‘लिखने के प्रश्न’ से बार-बार टकराने से कई हिन्दी -अधिकारियों ने कलम उठा ली । अधिकतर ने या तो कविता लिखी या राजभाषा की टॉंग, ऑंख, राजभाषा का पेड़, बगीचा, जैसे विषय पर भारी-भरकम कीमत के साथ पुस्तकें छपवा डालीं । अब तो कोई नहीं कहेगा कि वे लेखक नहीं हैं । पुस्तकों की खरीद का तो (हिन्दी की ) काम उन्हें सरकार ने सौंप ही दिया है । हर मंत्रालय और प्रतिष्ठान तक उनकी किताबों के कई-कई संस्करण तक बिकते हैं ।
तो बाकी जनता के हाथ लगती हैं यही पुस्तकें । सच्चा लेखक माथा पीटकर भाग खड़ा होता है, हिन्दी की पूरी दुनिया से । कुछ चालाक भी होते हैं । उन्हें पता है कि साहित्य के आस-पास भी नहीं गिने जाने वाले इस सरकारी लेखकों को प्रशंसा सुनने की बड़ी बेताबी रहती है । वे बस उनकी किताब का नाम-भर ले लें, हिन्दी का सरकारी पुस्कार पक्का । एक विभाग के ऐसे ही एक अधिकारी ने जीवन में पहली और अंतिम कहानी लिखी । उसे छपना ही उन्हीं के मातहत कर्मचारी की सरकारी पत्रिका में था । छपने के बदले उन्होंने उसे न केवल पदोन्नति में मदद की, बल्कि कहा कि ‘तुम भी लिखो और किताब छपवाओं । अम अपनी लाइब्रेरी में लगवा देंगे ।’
सबसे बड़ी कोफ्त होती है जब इस कुचक्र को पोषते ये अधिकारी भाषा की आड़ में यह कहते हैं कि अंग्रेजी से देश का नैतिक पतन हो चुका है । आपका योगदान क्या कम हैं ?
भाषा-समस्या
जून 1997
दुनिया में हर आदमी उस काम को करता है जो उसे सबसे सरल और आरामजनक लगता है । सारे वैज्ञानिक आविष्कार तक इसी दर्शन से आगे बढ़े हैं । क्योंकि मनुष्य एक चिंतनशील प्राणी है, अत: वह लगातार उन तकनीकों की तलाश में लगा रहता है जो उसे कम-से-कम समय और परिश्रम से मंजिल पर पहुंचा सकें ।
मौजूदा भारतीय समाज और भाषा के क्षेत्र में भी यही सिद्धांत लागू है । अंग्रेजी राज की विरासत में उसे बने-बनाए कानून, प्रविधियॉं या अन्य प्रशासनिक औजार मिले हुए हैं । पचास वर्षों की आजादी के बाद भी इन्हें बदलने की कोई वास्तविक कोशिश नहीं की गई । जो सतही तौर पर बदला है वह सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक टकराव से बचने के इसी सरल रास्ते की तलाश में । जैसे संघ की भाषा रहेगी तो हिन्दी पर प्रयोग में अनिवार्य नहीं । पहले 15 वर्ष तक हिन्दी -अंग्रेजी दोनों । फिर समीक्षा होगी । इस बीच में अमुक कार्य किए जाएंगे । वरना…. देश टूट जाएगा आदि, आदि । यह डर सही भी है क्योंकि पूरे ढॉंचे को बदलने के बजाय एकाध जगह बदलाव, उसमें आबंटित दरार या झोल ही लाएगा ।
जब देश के कर्णधारों में ही बदलाव की यह इच्छा सिरे से गायब हो तो नौकरशाही जो उसी की छाया होती है, उसमें दम कहॉं से होगा ? विशेषकर ऐसी सुविधाजीवी कौम जो आज तक सुविधाओं के लिए अंग्रेजी समय से ही तुलना कर करके रोती रहती है और समाज के प्रति जिम्मेदारी का कोई पाठ उसे किसी भी शिक्षण-प्रशिक्षण में पढ़ने को न मिला हो । उसके सामने सबसे आसान रास्ता होता है बने-बनाए ढॉंचे पर अपने दिन, वर्ष और कार्यकाल पूरे करते जाना । जब अंग्रेजी टाइपिंग, टाइपराइटर आसानी से उपलब्ध हैं तो क्यों हिन्दी में सिर-खपाई की जाए ? उससे मिलेगा क्या ? सिवाय ‘हिन्दी वाला का संबोधन’ । मौजूदा शिक्षा-व्यवस्था में किसी एक तिनके का सहारा तो हो जिस पर चढ़कर हिन्दी में काम करना उसके लिए सार्थकता दे । जब लकीर पर चलना आसान हो और इज्जत भी मिले तो क्यों कठिन रास्ता चुना जाए ? ऐसा नहीं है कि इन अधिकांश को अंग्रेजी में काम करना कोई सुख देता है, पर निश्चित रूप से मौजूदा स्थितियों में यह आसान रास्ता है और सम्मानदायी भी ।
ग्लोबलाइजेशन के बाद तो स्थिति और भी गंभीर होती जा रही है । जैसे-तैसे तो अभी हमने हिन्दी टाइपराइटर सभी कार्यालयों में उपलब्ध कराए थे और अभी काम शुरू करने की सोच रहे थे कि विंडो-95, 96 और 97 ने आकर सब कुछ उलट-पुलट डाला । कम्प्यूटर आपके काम को गति देने का सही, प्रबल अस्त्र है जो 20वीं सदी के कायाकल्प में एक विशेष अहमियत रखता है । इसकी भाषा भी सांकेतिक है, लेकिन वह भी अंग्रेजी में है । नतीजतन राजभाषा के सारे नियमों, व्यय-अपव्यय के बावजूद अंग्रेजी के कम्प्यूटर पर काम करना फिर उसी सरल रास्ते की तलाश है । भाषा के प्रश्न पर जितना बड़ा आक्रमण कम्प्यूटर ने किया है, उसका अंदाजा नहीं लगाया जा सकता । बड़े-बड़े भाषा-विज्ञानी और समाज-विज्ञानी तक ऐसी भयावह भविष्यवाणियॉं तक कर रहे हैं कि अगले 50 वर्षों में ज्यादातर भाषाओं की जगह सिर्फ अंग्रेजी या कम्प्यूटर की भाषा ले लेगी ।
तब क्या किया जाए ? निश्चित रूप से ऐसे महायुद्ध के लिए हमारा राजभाषा-विभाग किसी भी रूप में सक्षम नहीं है । अपनी कार्यशैली, प्रभाव अथवा कोई छोटा-मोटा आंदोलन तक शुरू करने में भी वह नाकाम रहा है । लोगों को भाषा से जोड़ने के बजाय उसने दूर फेंकने में ही मदद की है । मद्रास जैसे राज्य में जहॉं उसने पूरे देश को ही भड़काने का काम किया है । हिन्दी भाषी राज्यों तक में उसकी सार्थकता संदेहास्पद है । सरकारी संरक्षण में इसमें सहज रूप से पलती-बढ़ती हिन्दी में तिरस्कार ही मिला है और यही विडंबना उसने लेखक को दी है । वैसे भी इतिहास की समाप्ति की तरह सरकार की समाप्ति का वक्त अब आ गया है ।
तो विकल्प क्या हो ? विकल्प है पूरी शिक्षा-व्यवस्था को नया रूप देने का । पिछले दिनों दिल्ली सरकार ने एक नया, अच्छा कदम उठाया है- पॉंचवी कक्षा तक अंग्रेजी की अनिवार्यता समाप्त करने का । इससे न केवल हिन्दी या मातृभाषा-आंदोलन जड़ पकड़ेगा । शिक्षा के नाम पर, अंग्रेजी के नाम पर जो ‘बाजार’ चल निकला है उसे भी समाप्त किया जा सकेगा । ऐसे कदमों का परिणाम भले ही अगले 15-20 वर्षों में मिले, लेकिन यह सतही नहीं होगा । भाषा-समस्या का समाधान उसी के भविष्य के बाद जुड़ा है ।
भाषा जब तक सांस्कृतिक हलचल का अनिवार्य हिस्सा नहीं बनती, उसकी सफलता संदेहास्पद रहेगी ।
अक्टूबर 97
राजभाषा के सरकारी चरखे की दुर्दशा पर मुझे कुछ व्यक्तिगत अनुभव याद आ रहे हैं । जिस सरकारी विभाग में मैंने विधिवत् नौकरी शुरू की, इसमें आधारिक पाठ्यक्रम (फाउंडेशन कोर्स) प्रशिक्षण का अनिवार्य हिस्सा होता है । हिन्दी या राजभाषा का प्रशिक्षण भी उसका अभिन्न अंग था । वह दृश्य मुझे भुलाए नहीं भूलता । गर्मी में राजभाषा-प्रोफेसर को कैम्पस में बिना टाई शायद ही किसी ने देखा हो, शर्ट आधी हो या पूरी, अथवा किसी भी रंग की । वे रिटायरमेंट के करीब थे अत: चेहरे की झुर्रियों के बीच टाई भी अटपटी लगती । उससे भी अटपटा लगता उनका फ्रेंच स्वर में हर तीसरा वाक्य ‘नो टेंशन नो वरी’ यानि कि पढ़ो या न पढ़ो, न मेरी सेहत पर कोई फर्क पड़ेगा न तुम्हारी पर । नतीजतन दो घंटे हा हा-ही ही में गुजरते और बाद में यही बच्चे तरह-तरह के मजाक बनाते । हिन्दी या राजभाषा के प्रति पहले से ही पूर्वाग्रह या अनादर रखने वाले अधिकांश नौजवानों को जो संदेश जाता वो यही था कि भाषा वाशा के चक्कर में मत पड़ो, इससे कुछ होने वाला नहीं है ।
मैं वर्षों तक इस राजभाषा-शिक्षक के इस बहरूपियेपन के बारे में सोचता रहा । यहां तक कि एक दिन मुझे भी उसी प्रशिक्षण-संस्थान में प्रबंधन पढ़ाने के लिए भेज दिया गया । कॉलेज के प्रांगण में कदम रखते ही मेरी स्मृतियों में सबसे ताजा राजभाषा-शिक्षक की टाई ही थी और उनक गुँजगुँजाते वाक्य ?‘नो टेंशन नो वरी’ । मैंने इसकी तुलना मौजूदा प्रोफेसर शिक्षक से की तो वाकई रूसी जिमनास्टिकों की तरह कला खा गया-पतले, पीले, सुते हुए, नारदनुमा । माथे पर हर समय दस झुर्रियॉं डाले- ‘सालों की टॉंग तोड़ दूंगा ! साले समझते क्या हैं ? मेरा अपमान ! सालों को फेल कर दूंगा ! मुझे गुडमार्निंग कहा ? देखता हूं इंक्रीमेंट कैसे लगता है ? सालों से नाक रगड़वा दूंगा । मेरा कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता ।’ बात वाकई सच थी । न ये आधारिक पाठ्यक्रम वालों का कुछ बिगाड़ पाते, न वे इनका । इनका शीतयुद्ध-सा चलता रहता ।
प्रशिक्षार्थी सामने पड़ जाते तो ‘अरे ! गुरुजी, प्रणाम ।’ गुरुजी नकली दुर्वासा-मुद्रा बनाए कुछ और फूल जाते । ‘देखो, सभी से प्रणाम कहलवा दिया’ प्रोफेसर आते ही कहते । प्रशिक्षु टकरा जाते तो उनके जाते ही कहते,‘सर, क्या बताएं ! इनकी वार्निंग सुन-सुनकर तो आंध्र, कर्नाटक वाले रही-सही हिन्दी भी भूलते जा रहे हैं । एक-एक बिंदु, मात्रा पर सरेआम बेइज्जती कर देते हैं । और तो और, हिन्दीभाषी भी कहते हैं – इससे अच्छा तो तमिल सीखना है ।’ भाषा और संस्कृति का क्या महत्व है- यह दोनों प्रोफेसरों के फोकस से गायब था ।
उससे भी महान आत्मा थे उस विभाग के तत्कालीन निदेशक । क्योंकि विभाग परिवहन का था जिसमें पूरे देश में वातानुकूलित में घूमने का सुयोग था, अत: मौजूदा निदेशक ने उस पद पर आने में जमीन-आसमान एक कर दिया था । उनकी प्राथमिकता में था-लगातार घूमते रहो । मुख्य व्यक्ति को यह जताने के लिए कि देखिए मैं कितनी रुचि ले रहा हूं काम में । इसमें फायदा दोनों पक्षों का ही था । सचिव सोचते – ‘अच्छा है टले रहेंगे तो कुछ काम में दिक्कत नहीं आएगी । कौन दो-दो भाषाओं में टाइपिंग, स्टेंसिल काटे ! कागज की और इतनी बरबादी और पढ़ना है सभी को उन्हीं हाकिमों की भाषा ही ।’ निदेशक का टी.ए. का मीटर चलता रहता और साथ-ही-साथ देश के दूर दिगंत में कार्य कर रहे लोगों के तोहफे । उनकी प्राथमिकता का दूसरा कार्य था पुरस्कार बॉंटना । मेरे लिए यह आठवें आश्चर्य से कम की बात नहीं थी । हमारे निदेशालय में 60 लोगों को पुरस्कृत किया गया था राजभाषा में काम करने के लिए और ये कितने कर्मचारी ?– 58 । दो का इस बीच तबादला हो गया था, यानि कि शत-प्रतिशत । जबकि कइयों ने तो हिन्दी का कभी एक शब्द भी नहीं लिखा था । खैर, मैंने देखा कि राजभाषा-प्रगति की यह प्रतिशत 97-98 प्रतिशत लगातार बनी रही, बावजूद इससे कि काम शायद कहीं भी न हो । उनका कहना बहुत साफ था – ‘मेरी जेब से क्या जाता है ? करो तो भला, न करो तो भला । यह प्रतिशत उन्हें राजभाषा-शील्ड भी दिलवाता था ।’
इसी से मिलता-जुलता आयाम है ‘राजभाषा सप्ताह’, समारोह की रस्म-अदायगी का । शुरू में जब मुझे बैंक या किसी सरकारी उपक्रम में बुलाया गया और यह कहकर कि जज बनाया गया है ‘हिन्दी वाक् प्रतियोगिता’ का तो अपने भी पैर जमीन पर नहीं थे, मानो सुप्रीम कोर्ट के जज बन गए हों । लेकिन वहॉं का नजारा और भी अद्भुत था । मेरे जैसे तीन जज, एक उस कंपनी का आला अफसर, वरिष्ठ, गरिष्ठ मिलाकर दो राजभाषा-अधिकारी और उनकी फौज के चार-छ: सदस्य । 5-6 प्रतियोगियों की मिलाकर कुल 10-12 । मैं बार-बार गर्दन मोड़-मोड़कर देख रहा था कि श्रोता आएं तो कार्यक्रम शुरू हो । पहली बार जज बना था तो कुछ ज्यादा गंभीर था, जबकि बाकी दो पुराने अनुभवी जज थे इसलिए उन्होंने श्रीगणेश करने की घोषणा कर डाली-श्रोता और जज दोनों की जिम्मेदारी ओढ़ते हुए । कहने की जरूरत नहीं कि प्रतियोगियों में कंपनी के आला अफसरान की पी.ए. आदि ही थे । नतीजा यहां भी शत-प्रतिशत पुरस्कार । सभी ने गुलाबजामुन खाए, कोल्ड ड्रिंक पी । गुलाबजामुन के वक्त तक अवश्य कुछ भीड़ बढ़ गई थी ।
जनवरी 98
राजभाषा-विभाग में काम करने वाले अधिकांश लोगों में जितनी असहजता है उतनी दूसरों में नहीं । यह बड़ा मनोवैज्ञानिक प्रश्न है जिसकी गहराई में जाने की जरूरत है । या तो वे लगातार आक्रमण करने के अंदाज मं रहते हैं या बचाव की मुद्रा में । आक्रमण इसलिए कि उन्हें हर समय यह अहसास रहता है कि सरकार के जिस विभाग में वे काम करते हैं, वहां उन्हें वह अपेक्षित सम्मान नहीं मिल रहा जिसके वे हकदार है । न केवल अपने, बल्कि सरकार के दूसरे विभाग भी उन्हें कोई अहमियत नहीं देते । ‘अपेक्षा’ करना परेशानी की पहली शुरूआत है । उन्हें पे-स्केल भी ठीक-ठाक मिल गए हैं, लेकिन बावजूद इसके सरकार के हर अंग की धारणा उन्हें फालतू मानने की है । इसके भी गहरे सामाजिक कारण हैं । हिन्दी भाषा समझते हैं कि जितना राजभाषा वाले जानते हैं उससे ज्यादा वे जानते हैं और अंग्रेजी भी कई गुना ज्यादा । अत: दूसरे किसी भी विभाग के मुख्य कार्य में राजभाषा की भूमिका को ‘बाधक’ के रूप में देखा जाता है । नतीजतन आक्रमण-प्रत्याक्रमण की स्थिति इन कर्मचारियों के मनोविज्ञान को एकदम विरूपित करती जाती है । पदोन्नति आदि के मामले में भी राजभाषा की पिछलग्गू स्थिति ने इनको निराश, हताश या फिर लुंजलुंज प्राणी में बदल दिया है कि सामान्य बात पर भी वे असामान्य प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं ।
एक उदाहरण याद आ रहा है । वे प्रशिक्षण कॉलेज में थे । उन्होंने एक सुझाव को मानकर एक विभागीय पत्रिका की 200 कापी प्रतिमाह मंगानी शुरू कर दीं । बड़ी विचित्र स्थिति थी । उनसे कहा कि कहां दो-चार और कहॉं दो सौ ! उनका तर्क था कि जब अंग्रेजी के नाम पर कितना भी पैसा बहाया जा सकता है, हिन्दी पर क्यों नहीं ? जबकि तथ्य यह है कि उस संस्थान में अंग्रेजी पत्रिका की भी दो ही प्रतियॉं आती थीं । खैर, एकाध बार तो उन्होंने सभी आने वाले प्रशिक्षार्थियों को ये पत्रिकाएं बँटवा दीं, पर फिर अचानक बँटवानी बंद कर दिया और साथ ही यह आदेश निकाल दिया कि जिसको भी चाहिए वह उनके कमरे से स्वयं आकर ले लें । जैसी कि प्रत्याशा थी, वही हुआ । शायद ही कोई लेने आया । 2-4 महीने में ही उनका कमरा गोदाम बन गया । वे हताशा में भी इस बात के लिए तैयार नहीं हुए कि या तो वे पत्रिकाएं पुस्तकालय में रख दी जाएं या पुस्तकालय इनके वितरण की व्यवस्था कर दे । उनका मंतव्य था कि लोग उन्हें पूछें पत्रिका के बहाने, जब कि उस पत्रिका में ऐसा कुछ था ही नहीं । यह एक नमूना है मनोवैज्ञानिक ग्रंथि का । 200 प्रतियॉं वैसे ही आती रहीं और एक गोदाम में भरती रहीं । बताते हैं कि शाम को सफाई-कर्मचारी इन पत्रिकाओं का कुछ किलो वजन लेकर निकलते हैं और देशी शराब के अड्डे पर अद्धा लेते हैं । कैसा अनोखा उपयोग है सरकारी पत्रिका का ।
फरवरी 1998
सबसे ज्यादा पुस्तक-विरोधी राजभाषा-विभाग है । इसमें शत-प्रतिशत वे लोग हैं जो हिन्दी में एम.ए. हैं । हमारे विश्वविद्यालयों में साहित्य पढ़ने-पढ़ाने का जो दर्जा है, उसमें समाज, संस्कृति को साहित्य के जरिए शायद ही समझने की कोई गुंजाइश बचती है । ले-देकर तुलसी, कबीर और मैथिली शरण गुप्त या प्रेमचंद पर समाप्ति । दुनिया से कटे एक टापू पर पले-बढ़े हिन्दी छात्र को इन सीमाओं में और भी जकड़ते हैं इन्हें पढ़ाने वाले प्राध्यापक ।
उस प्रशिक्षण-संस्थान में मैं नया आया था । सरकार भी बड़ी विचित्र चीज का नाम है । राजभाषा-विभाग बन गया तो हिन्दी साहित्य-संस्कृति के जैसे सारे अधिकार राजभाषा-विभाग को मिल गए या सौंप दिए गए । कम-से-कम इस मामले में दूसरी भाषाएं और साहित्य किस्मत वाले निकले, क्योंकि उनके चुनाव में हर व्यक्ति का योगदान रहता था और इसलिए अच्छे साहित्य के संवर्धन का मौका भी बेहतर मिला । फरवरी का महीना था और नई-नई दोस्ती में राजभाषा-अधिकारी ने मुझसे सहयोग मांगा था । हम दोनों उन दिनों एक ही गेस्ट हाउस में रहते थे, अत: मेरी बार-बार की टोका-टोकी, सुझावों के बदले में उन्होंने मुझे लिखित में अच्छी, नई पुस्तकों के नाम देने को कहा । मुझे फख्र का अहसास हुआ । मैं जी-जान से जुट गया और मैंने बजट को देखते हुए किताबों की सूची बनाई उन महत्वपूर्ण किताबों की, जो लाइब्रेरी में थीं भी नहीं ।
लेकिन इन्हें एक भी लेखक या पुस्तक स्तर की नहीं लगी । न हजारी प्रसाद द्विवेदी, न शरतचंद, न अज्ञेय । उन्हें पसंद आई बनारस की ….वेद, पुराण…. जिन्हें लेने वे स्वयं गए किताबों की कीमत से ज्यादा खर्च पर – बेटी की शादी और बच्चों के दाखिले की तलाश में डी.ए.-टी.ए. बनाते हुए ।
सरकारी संदर्भ में एक बात और उल्लेखनीय है । हिन्दी -साहित्य उतना दरिद्र नहीं है जितना उसे प्रचारित किया जा रहा है । अफसोसजनक सत्य यह है कि इतने समृद्ध साहित्य को स्तरहीन वे राजभाषा-अधिकारी कहते हैं जो लगभग सांस्कृतिक शून्यता में जिंदा हैं । साहित्य का कंबल जो एम.ए. करते ही छोड़ आए हैं । लेकिन अधिकाधिक रूप से उन्हें ही हिन्दी का प्रतिनिधि मान लिया जाता है । नतीजतन लोग केवल उनसे ही नहीं बचते, समूचे हिन्दी -साहित्य से ही रास्ता बचाकर निकलते हैं ।
सिर्फ नामपट्ट बदलने से काम नहीं चलेगा । उसमें विचार का प्रवेश जरूरी है । यह ‘विचार’ जहां उन्हें बाकी भाषा-भाषियों के प्रति संवेदनशील बनाएगा, वहीं कुछ गहराई से उन कारणों की पड़ताल करेगा जो भाषा-आंदोलन में बाधक हैं । यह मानते हुए भी कि कारणों के समाधान पूरी शिक्षा-व्यवस्था को बदलने से पहले नहीं समाप्त होने वाले । विचार के बूते ही इन समस्याओं पर प्रहार किया जा सकता है ।
अगस्त 98
राजभाषा-विभाग ने भाषा के उत्थान में कोई योगदान भले ही न दिया हो, हिन्दी कविता को खूब बढ़ाया – सरकारी दफ्तरों में । आधुनिक कविता के सॉंचे में हर सरकारी कर्मचारी कुंठाएं, हताशाएं, रूमानियत, शौर्य, संस्कृति ने मनचाहे रूप लिये और राजभाषा ने इसी को अपनी सिद्धि मान लिया । यह दोनों पक्षों को माकूल भी है । बदले में सरकारी कर्मचारियों को कवि की प्रतिष्ठा, पुरस्कार और राजभाषा-विभाग को एक छोटी-सी भीड़ जिससे कि वे कह सकें कि उनका प्रोग्राम सफल रहा । इसका एक आयाम और भी अच्छा रहा । ऊंचे अधिकारी जो वैसे प्राय: राजभाषा-अधिकारी या इस कैडर को फूटी आंख नहीं देखते थे, उन्होंने अपनी कविता के साथ अपनी चोटी भी राजभाषा को सौंप दी । आखिर कोई तो पकड़ में आया । दोनों को परस्पर मान्यता । भड़ास भी बाहर और कालिदास समझने का सुख भी । राजभाषा-विभाग की पत्रिकाओं में छप जाए तो इतिहास में भी नाम दर्ज । और यह सब सरकारी व्यस्तता के चलते । हर्र लगी न फिटकरी – रंग चोखा । अध्यक्षता भी यही करेंगे और गोष्ठी के लिए पैसा भी देंगे । इसके बाद अंग्रेजी में काम करना और भी उत्साह से चलता रहा । यही कारण है कि ज्यादातर (95%) हिन्दी -दिवस या हिन्दी के नाम पर ज्यादातर विभाग जब मन चाहा तब ‘काव्य प्रतिभा के धनी सरकारी कर्मचारियों के लिये’ कवि गोष्ठी आयोजित कर अपनी इतिश्री कर लेते हैं ।
‘विचार’ के लिए न सरकार में जगह है न राजभाषा में ।
राजभाषा की स्वर्णजयंती
सितम्बर 99
वरिष्ठ कथाकार असगर वजाहत जी ने एक और दास्तान बताई । बोले – ‘सभी मित्र आजकल बहुत बिजी हो गए हैं । मैंने फोन किया । मित्र की पत्नी थी । बोली, आजकल वे घर पर कहां रहते हैं । सीजन है न ! सीजन यानि कि राजभाषा सप्ताह, पखवाड़े, या महीने का । जिसकी जितनी श्रद्धा है उतनी मनवा लेता है । आर्थिक तंगी के इस दौर में भी बड़ी-से-बड़ी सरकारी संस्था, कंपनी, उपक्रम का चीफ भी राजभाषा के नाम पर तुरंत धनराशि मंजूर कर देता है । लंदन में हुए हाल के अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन के बाद तो ये चीफ भी डरने लगे हैं हमारे राजभाषा – अधिकारियों से । प्रधानमंत्री तक नाम न पहुंचा दें । बोले,‘क और ख आए थे ।’ बोले, हजार-हजार मिले हैं, कविता-पाठ में । दावत और आने-जाने के लिए गाड़ी । उनके चेहरों की खुशी बता रही थी मानो लूट में हिस्सा मिला हो ।’
स्वर्णजयंती- वर्ष तो राजभाषा की रही-सही प्रतिष्ठा भी गिरा देगा । चला गया एक कार्यक्रम में । वहां देखा तो हिन्दी में समाचार पढ़ने की प्रतियोगिता थी । उनकी जज एक ऐसी परकटी तितली जो भाषा से ज्यादा अपने श्रृंगार को दिखाने आई थी । दूसरी जगह फिल्मों की अंताक्षरी थी । चलते वक्त कहने लगे, हफ्ते-भर बाद होटल वैलकम में काव्य-संध्या है और फिर डिनर । मैं डर गया । सरकारी कर्मचारी जो ठहरा । ‘अरे बैंकों के पास बहुत पैसा है । इनकी समझ में नहीं आ रहा कि क्या करें उस पैसे का । इस बहाने हिन्दी वालों को तो कुछ मिलेगा । वरना इन्हें कोई नहीं पूछता ।’
खाने के लिए हरेक को बहाना चाहिए – कवियों को भी, क्लर्कों को भी, कामरेडों को भी ।
क्या फिर भी देश के कुशासन के लिए राजनेताओं को दोषी ठहराना अपराध नहीं है ?
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