मैं कई मायनों में दिल्ली का ऋणी हूं, लेकिन सबसे ज्यादा हूं यहां के सांस्कृतिक संस्थानों, विश्वविद्यालयों, पुस्तकालयों, अकादमियों का । दिल्ली होती या न होती मेरी बला से, लेकिन ये पुस्तकालय, संस्थान न होते तो मैं अपने अंधेरे भविष्य की कल्पना से ही सिहर उठता हूं । क्योंकि पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जिन खूंखार अनपढ़ संस्कारों में स्कूली जीवन चलने को अभिशप्त था, वह रास्ता ज्यादातर मामलों में बीहड़ों की तरफ ही खुलता है ।
स्कूल-कॉलेजों के दिनों को याद करूं तो मुझे दूर-दूर तक भी ऐसा शिक्षक नहीं याद आता, जिसने मुझे सच्चे मायनों में पढ़ने-लिखने की प्रेरणा दी हो । मुझे ऐसा कहते वक्त कुछ लोग कृतघ्नी मान सकते हैं, लेकिन मैं शिद्दत से यह महसूस करता हूं कि पश्चिम उत्तर प्रदेश के उस पूरे माहौल में ऐसा कुछ भी नहीं था, जो आपको एक बेहतर इन्सान बनने की प्रेरणा से भर सके । रोज वही स्कूल जाने की कवायद, लौटना, खेती का काम, कुछ विज्ञान के विद्यार्थी होने के नाते फिजिक्स, कैमिस्ट्री, बायोलॉजी के प्रयोग और कॉपी पर चित्र बनाना । प्रयोगशाला के नाम पर मुझे याद पड़ता है कि कुछ परखनलियां हम जरूर बजाते थे । उन सबको सोचकर अफसोस होता है कि उन सब करतबों की खानापूर्ति के वास्ते विज्ञान की यह पढ़ाई इस ढंग से की, कराई जाती थी और आज भी कराई जाती है कि वैज्ञानिक चिंतन के लिए शायद ही कोई जगह उपलब्ध रहे । मैं बार-बार एक और अफसोस से भर उठता हूं, जब सोचता हूं कि दसवीं की कक्षा के बाद ख्वाबों में एम.बी.बी.एस. बनने की तमन्ना के चलते न जाने कितने मेढकों की हत्या की होगी । दसवीं क्लास में अपने स्कूल में अव्वल क्या आए कि बायोलॉजी पढ़ने के लिए धकेल दिया गया । यह धकेलना गांव-देहात में ही नहीं, शहरों में भी आज तक जारी है । गांव-देहात में बायोलॉजी का पढ़ना यानी कुछ मेढ़क, केंचुओं का डिसेक्शन (चीड़-फाड़) । मेढ़क भी आसानी से मिल जाते थे । हम और बेहतर जानने-सीखने से ज्यादा गांव वालों को यह दिखाने के लिए कि बस हम डॉक्टर अब बने और तब बने के अंदाज में घर पर ही मेंढ़कों को पकड़कर उनकी चीर-फाड़ में लग जाते । उन्हें बेहोश करने के लिए हमने एक नई तरकीब ईज़ाद की थी । रसायन विज्ञान के लैब में नीला थोथा उपलब्ध होता था । हम उसे कागज़ की पुडि़या में घर ले जाते, पानी में घोलते और मेंढक के मुंह में डाल देते । वह बेहोश भी नहीं होता था कि हम चीर-फाड़ शुरू कर देते । आप समझ सकते हैं ऐसी चीर-फाड़ या परखनलियों की आवाज हमारे अंदर कितनी नकली वैज्ञानिक उत्तेजना पैदा कर सकती है ।
घर से तीन-चार किलोमीटर दूर करौरा इंटर कॉलेज में लाइब्रेरी का एक कमरा तो था, उसके अंधेरे कमरे में कुछ पुस्तकें भी लगी हुई थीं, लेकिन हमें याद नहीं कि कभी उसमें गए हों या जाने दिया गया हो । अक्सर ये किताबें अध्यापक या तो अपने बच्चों को देते थे या अपने चहेतों को और ज्यादातर मामलों में ये उपभोगकर्त्ता बेहतर आर्थिक स्थिति के थे । स्कूल के स्तर पर कैसा भेदभाव का साम्राज्य था, जिसमें शिक्षा के बुनियादी उसूलों के खिलाफ हवा बहती थी । लाइब्रेरियन का पद तब भी था और अब भी हैं, एक आदमी को तनख्वाह भी मिलती है, लेकिन शिक्षा संस्थानों में उसका रोल न तब था, न अब । यह किसी के नोटिस में भी नहीं आता कि लाइब्रेरी शिक्षा की कितनी बुनियादी जरूरत है, विशेषकर भारत जैसे गरीब देश में ।
खैर, मैं उस बिंदु पर आता हूं, जहां लोग मुड़-मुड़ कर अपने उन अध्यापकों को याद करते हैं, जिन्होंने अपने विद्यार्थियों में कोई स्वप्न रोपित किया । 11वीं, 12वीं, के दिनों में तो कम-से-कम एक-दो शिक्षक थे भी- जैसे अंग्रेज़ी के लिए श्री शांति स्वरूप गंगल या भौतिकी के सत्येन्द्र कुमार । बी.एस.सी. के दिनों में तो यह भी नहीं था । वहां का एक और कुयथार्थ था और वह यह कि ‘प्रयोग’ के नंबर थोड़े ज्यादा होते थे । अब उन नंबरों को पाने की खातिर जो विज्ञान के विद्यार्थी खुर्जा शहर में कमरा लेकर रहते थे या वहीं के रहने वाले और निश्चित रूप से कुछ अमीर थे और उन प्रोफेसरों (लेक्चरर, लेकिन तब भी और आज भी सब उन्हें प्रोफेसर ही कहते हैं) को जानते थे, उन्हें प्रयोग के कुछ अच्छे नंबर मिलना स्वाभाविक था । मेरे जैसे बच्चे, जो सुबह गांव से 17-18 किलोमीटर साइकिल या बस से पहुंचते थे, न उनका शिक्षकों के प्रति कोई विशेष संबंध बनता था, न बनने की गुंजाइश थी । बस एक रिचुअल था, हमें कॉलेज जाना था और क्लास में हाजिरी देनी थी, प्रयोगशाला में कुछ परखनलियां बजानी थीं और तुरंत घर वापिस लौटना था । खेल या अन्य किसी भी गतिविधि के लिए न कोई अवकाश, न अवसर ।
बस एक शुरूआत जरूर कॉलेज के दिनों में हो गई थी और वह थी एन.आर.ई.सी. कॉलेज खुर्जा के पुस्तकालय में जाने की शुरूआत । इसके भी स्पष्ट कारण आर्थिक ज्यादा थे । बी.एस.सी. के दिनों में विज्ञान की किताबें और भी महंगी । तो इन पुस्तकों को वहीं बैठकर पढ़ लेते, टीप लेते थे या कुछ किताबें घर के लिए भी इश्यू कर दी जाती थीं । मैं सही-सही याद करूं तो लाइब्रेरी में बैठना मुझे क्लास रूम से ज्यादा तब भी अच्छा लगता था और आज भी । मानो एक आज़ादी के साथ आप पुस्तकों के साथ हैं और मनमर्जी से पढ़-लिख सकते हैं । शायद उन्हीं दिनों मुझे बाकी अंग्रेज़ी, हिन्दी की पत्रिकाओं का चस्का भी लग गया था, जिसमें दिनमान, धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान, नवनीत और दूसरी दर्जनों पत्रिकाएं शामिल थीं । यह समय था-1973-1975 । बी.एस.सी. के दिनों में मैंने अधिकांश किताबें पुस्तकालय से लेकर ही पढ़ीं । इसीलिए मेरे पास उन दिनों की शायद ही कोई पुस्तक हो ।
खुर्जा के कॉलेज पुस्तकालय के संदर्भ में एक वाकया मैं भूले नहीं भूलता । वार्षिक परीक्षा में बैठने से पहले प्रवेश-पत्र चाहिए और प्रवेश-पत्र के लिए पुस्तकालय से क्लियरेंस । हमारे गांव का एक लड़का, जो दो वर्ष तक ग्रेजुएशन में था, पूछने लगा- ये लाइब्रेरी किधर है यानी कि शिक्षा के संस्कारों में इस क्षेत्र की स्थिति का मुकम्मल बयान है यह वाकया ।
इस माहौल ने मेरे अंदर पुस्तकों के प्रति एक ऐसी भूख जगाई, जो आज तक भी वैसी ही बनी हुई है । गांव में न कोई विरासत में मिली किताबें थीं और न ही आसपास दूर-दूर तक पढ़ने-लिखने की पुस्तक । इसलिए पढ़ने की इस भुक्खड़ हालत में 1976-77 में जब मैं दिल्ली पहुंचा तो यहां आ के तो मुझे लगा जैसे कुबेर का खजाना मिल गया हो ।
हम उन दिनों जमुनापार कृष्णा नगर में रहते थे । एक साथ कई काम जारी थे । मैं दिल्ली प्रशासन की नौकरी में आ गया था । इसके साथ-साथ और भी कई काम चल रहे थे, जैसे सुबह-शाम ट्यूशन पढ़ाना, आई.ए.एस. आदि प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी के सिलसिले में इधर-उधर की किताबें पढ़ना आदि । इस यात्रा की विधिवत् शुरुआत हुई पुस्तकालयों से । सबसे नज़दीक थी, शाहदरा मंडी की दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी । अनाज मंडी के पीछे स्थित इस लाइब्रेरी की मैं जितनी प्रशंसा करूं, कम है । चारों तरफ निम्न, मध्यम वर्ग या बनियों, व्यापारियों की बस्तियों से घिरे इस पुस्तकालय में ऐसी-ऐसी बेजोड़ किताबें मौजूद थीं- जैसे इमरजेंसी के तत्काल बाद कुलदीप नैयर की ‘द जजमेंट’, सी.एस. पंडित और अरुणा वासुदेव की इमरजैंसी पर लिखी मशहूर किताबें, चन्द्रशेखर की जेल डायरी, जो अभी-अभी आपातकाल के खत्म होते ही छपकर आई थी, वे सभी इस लाइब्रेरी में उपलब्ध थीं ।
लाइब्रेरी घर के नजदीक थी, इसलिए जब मर्जी हो जाओ और किताबें ले आओ । एक कार्ड पर दो किताबें । दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी ने यदि मैं कहूं कि मानसिक तौर से दिल्ली में जमने में मेरी जितनी मदद की, उतनी किसी और चीज़ ने नहीं । अपनी जड़ों से सभी को प्यार होता है । महानगर के छोटे से किराए के मकान में मन उचटता तो तुरंत गांव के उस उन्मुक्त वातावरण की तरफ जाने लगता, जहां कुछ न होते हुए भी मैं राजा था । राजा इस अर्थ में कि अपने खेत, अपना घर, अपने जंगल । निश्चित रूप से यह सब चीजें भविष्योन्मुखी नहीं थीं और वह माहौल कम-से-कम शिक्षा और विचार के मद्देनजर तो पूरी तरह से बंजर था ही, लेकिन उसका वर्तमान तो किसी भी नौजवान को वापिस गांव बुलाने के लिए पर्याप्त था ही । दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी का सहारा नहीं मिला होता तो शायद यह भटकाव जीवन की दिशा ही बदल सकता था । दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी की खोज में पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन के सामने स्थित ‘मुख्य लाइब्रेरी’ तक पहुंच गया । यहां पहुंचना और भी आसान था । दिल्ली प्रशासन के जिस दफ़्तर में मैं काम करता था, वह बस अड्डे के करीब शामनाथ मार्ग पर था । स्टेशन से दफ़्तर तक पैदल जाना होता था । इसलिए लौटने के बाद दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी दफ़्तर की थकान से मुक्ति तो देती ही थी, वहां अनंत किताबों के बीच पढ़ने की भूख और बढ़ जाती थी । यदि याद करूं तो उस पुस्तकालय में क्या नहीं था । इतिहास, राजनीति शास्त्र और साहित्य की इतनी किताबें, जो सारी उम्र पढ़ने के बाद भी खत्म न हों । सिर्फ किताबें ही नहीं, 30-40 वर्ष पुरानी पत्रिकाओं धर्मयुग, दिनमान, सारिका के पुराने अंक भी सजिल्द मौजूद थे । ‘क्या पढूं और छोडूं’ वाले अंदाज में जितना पढ़ता, पढ़ने की भूख उससे और तेज़ हो जाती । लाइब्रेरी के कार्ड बनने में भी कोई परेशानी नहीं हुई तो कुछ किताबें घर भी ले जाता । यहीं सरकते-सरकते मैंने दिल्ली के कुछ नौजवानों, बुजुर्ग साहित्यकारों के साथ दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी के एक कक्ष में साहित्य, राजनैतिक और सामाजिक बहसों में शरीक होने की शुरुआत भी की यानि कि पुस्तकालय केंद्र सचमुच का सांस्कृतिक केंद्र था । सभी के लिए खुला और आमंत्रित करता हुआ ।
काश ! दिल्ली के विकास में फ्लाई ओवरों की संख्या, प्राइवेट स्कूलों की संख्या और सबसे ज़्यादा कारों की संख्या के साथ-साथ दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी जैसी संस्थाओं का विकास भी होता ।
दिल्ली विश्वविद्यालय लाइब्रेरी मेरे पुस्तकालय जीवन का सबसे महत्वपूर्ण पड़ाव साबित हुई। मुझे याद नहीं पड़ता कि मैं वहां सबसे पहले कब और किसके साथ पहुंचा, लेकिन एक बार पहुंचा तो आज तक नहीं निकल पाया । आज 2008 में जब रेल भवन से दिल्ली विश्वविद्यालय तक सीधी मेट्रो जाती है तो मेरा मन रोज यही सोचता है कि महीने-दो-महीने में एक बार तो विश्वविधालय के उस खुशनुमा माहौल में शरीक हुआ ही जाए । हालांकि विश्वविद्यालय में जहां कभी नीरव शांति थी, विवेकानंद चौक के पास गजब के हरे पार्क थे, पिछले कुछ दिनों से दिल्ली के कार वालों ने उस सारे माहौल को एक व्यापारिक केंद्र के रूप में बदल दिया है । खैर, मैं 30 साल पहले 1977-78 के उन दिनों की तरफ लौटता हूं, जब मैं कुछ तलाश के साथ विश्वविद्यालय लाइब्रेरी यानी आर्ट फैकल्टी गया हूंगा । जैसा सभी जानते हैं कि दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ने वाले विद्यार्थियों के लिए डीटीसी पास की बेशकीमती सुविधा होती थी । कुछ सरकारी नौकरी और अन्य कुछ आर्थिक कारणों की वजह से मैं नियमित विद्यार्थी तो बन नहीं सकता था, लेकिन ‘सायंकालीन पाठ्यक्रम’ के बारे में मुझे कुछ जानकारी मिल गई थी । सायंकालीन पाठ्यक्रम जैसे हिन्दी-अंग्रेज़ी अनुवाद पाठ्यक्रम, उर्दू, रूसी भाषा, लॉ आदि थे । मैंने अंग्रेज़ी-हिन्दी अनुवाद पाठ्यक्रम की प्रवेश परीक्षा दी और दाखिला हो गया यानी कि फोकटिया पास की सुविधा । दिल्ली में कहीं-से-कहीं जाओ । क्या एक शहर को जानने-समझने और उसकी रफ़्तार से आगे बढ़ने के लिए किसी भी नौजवान के लिए यह कम बड़ी सुविधा थी ?
बस शुरू हो गया विश्वविद्यालय आना-जाना । शामनाथ मार्ग से विश्वविद्यालय पास ही पड़ता था, इसलिए दफ़्तर खत्म होते ही, जहां पहले दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी की तरफ रुख करता था, अब दिल्ली विश्वविद्यालय में शाम गुजरने लगी । मैं उन लोगों को बड़ा सौभाग्यशाली मानता था, जो दिन भर दिल्ली विश्वविद्यालय की लाइब्रेरी में पढ़ते नज़र आते थे और मैं सोचता भी था, काश ! मुझे भी पूरे दिन ऐसे ही लाइब्रेरी में पढ़ने को मिले । यों मेरा यह सपना आज तक बना हुआ है । कभी होस्टल में नहीं रहा, लेकिन अपने बच्चों को जब आई.आई.टी. या अन्य होस्टल में रहते देखता हूं, तब भी मुझे यह अफसोस रहता है कि मुझे ऐसे दिन क्यों नहीं मिले ? दिल्ली विश्वविद्यालय के होस्टल ही नहीं, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के होस्टल में रहना तो मुझे अब भी धरती पर स्वर्ग जैसा लगता है । प्राकृतिक पहाडि़यों से घिरे हरे-भरे पेड़ों के बीच ऐसी कलात्मकता से यह होस्टल बनाए गए हैं कि आप महीने में एक बार भी चक्कर लगा आएं तो ऑक्सफोर्ड को भूल जाएं । जे.एन.यू. होस्टल और उसका पूरा वैचारिक माहौल मुझे अब भी उतना ही ललचाता है, जितना 20-30 साल पहले । 4-5 साल पहले सुनील खिलनानी की एक किताब बड़ी मशहूर हुई थी ‘द आइडिया ऑफ इंडिया’ (भारतनामा)। बहुत बेजोड़ किताब है । 1947 में पैदा हुए भारत और उसके बाद एक राष्ट्र के रूप में उसके विकास, राजनीति, समाज, भाषा, संस्कृति, नगर, शहर के उत्थान-पतन के पीछे कौन-सी ताकत सक्रिय रही है, इन प्रश्नों पर इतना संक्षिप्त, मगर स्पष्ट उत्तर जितना मुझे इस किताब में मिला, मुझे याद नहीं किसी दूसरी किताब में है ।
सुनील खिलनानी के परिचय के बारे में जब पढ़ा कि वे कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में राजनीति पढ़ाते हैं और इस किताब को लिखने के लिए उन्होंने दो साल का अध्ययन अवकाश लिया था तो मुझे लगा कि ‘विचार’ के ऐसे बड़े कामों को करने के लिए शायद ऐसा ही माहौल और अवकाश चाहिए । कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में प्रोफेसर ! उसमें भी अध्ययन अवकाश ! मुझे लगता है काश मुझे भी कैम्ब्रिज नहीं तो जे.एन.यू. के हॉस्टल में रहने के साथ ऐसा अवकाश मिल पाता । अब तक न सही, आगे भी ऐसे किसी संस्थान में जाने की इच्छा रखता हूं ।
1979 में मैं पहली बार सिविल सर्विसिज़ परीक्षा में बैठा था । कोठारी आयोग के बाद यह पहली परीक्षा थी, जिसमें अपनी भाषा में लिखने की सुविधा संघ लोक सेवा आयोग ने दी थी । तैयारी के सिलसिले में मुझे याद है कि जब दफ़्तर के बाद ट्यूशन मैंने बंद किए तो पिताजी का विरोध तुरंत सामने आ गया- यह कहते हुए कि कलेक्टरी का एग्ज़ाम क्या कोई आसान बात है । शाम को दफ़्तर से छूटने के बाद जब मैं विश्वविद्यालय पहुंचता तो हमारे कुछ दोस्त लाइब्रेरी से बाहर निकल रहे होते थे । मैं आज तक उनकी दरियादिली का आभारी हूं कि वे थोड़ी देर चाय के बहाने रुक जाते, गपशप होती और मैं इधर लाइब्रेरी में घुसता और वे अपने घरों की तरफ । हिन्दी साहित्य और उसके आसपास कुछ लिखने-पढ़ने की मानसिकता में मैं रहने जरूर लगा था, लेकिन कहीं-न-कहीं मैं था, अब भी विज्ञान विषयों की चपेट में । यही कारण था कि उन दिनों जो भी दोस्त थे या जिनमे बीच बैठकर सिविल सर्विसिज़ परीक्षा की तैयारी की, वे ज्यूलॉजी, बॉटनी, फिजि़क्स, कैमिस्ट्री आदि के थे । बलविन्दर, भारत भूषण वर्मा, दिवाकर मिश्र, दिनेश, अनूप मुदगल, राकेश, अनुराग चौधरी, अश्विनी हैलेन, मनोज शप्रा, त्यागी, के.सी. गुप्ता, प्रदीप सक्सेना, प्रमोद भटनागर, अरविन्द शर्मा, गांधी, चड्डा, असीम श्रीवास्तव, अंजू, जौहरी उसी कारवां के हिस्से थे, जो एक साथ फारेस्ट सर्विस से लेकर सिविल सर्विस और अन्य परीक्षा दे रहे थे । लगभग सभी अखिल भारतीय परीक्षाओं में पास हुए । यह कारवां एक-दूसरे की मदद के लिए हर समय तत्पर रहता था । बलविन्दर आई.ए.एस. में यू.पी. गया तो उसके नोट्स आगे दिनेश आदि के काम आए । दिनेश आई.ए.एस. में गया तो कुछ नोट्स अनुराग चौधरी को मिले तो कुछ के.सी. गुप्ता को । अनूप मुदगल के ज्यूलॉजी, बॉटनी के नोट्स मुझे आज भी याद हैं । इतने संक्षिप्त और सुंदर भाषा में ।
अनूप मुदगल इंडियन फॉरेन सर्विस में गया और इस समय विएना में भारतीय दूतावास में है । इन सभी का यह पक्ष मुझे हमारी शिक्षा-व्यवस्था, अनुसंधान और नौकरी के समीकरण की तरफ उंगली उठाने के लिए विवश कर रहा है । ये सभी अपने-अपने विषयों के मेघावी छात्र थे । एम.एस.सी. करने के बाद अधिकांश दिल्ली विश्वविद्यालय में आसपास, फैले विभागों में एम.फिल. कर रहे थे, लेकिन उन्हें जल्दी ही यह अहसास हो गया था कि एम.फिल. या पी.एच.डी. करने के बाद भी यूनिवर्सिटी में पढ़ाने या अनुसंधान का मौका नहीं मिलेगा और यदि मिलेगा भी तो उनकी अच्छी तनख्वाहों पर नहीं, जो आई.ए.एस. या पी.सी.एस. या दूसरी केंद्रीय सेवाओं में मिलती हैं । तो यह नौजवान घर से तो निकलते थे अपनी-अपनी प्रयोगशालाओं के लिए, जाते भी थे, लेकिन चुपके-चुपके, चोरी-चोरी सिविल सेवाओं की परीक्षाओं में लगे हुए थे । सभी विभागाध्यक्षों के आदेश थे कि आई.ए.एस. परीक्षा नहीं देने देंगे, लेकिन स्थितियां इनको मजबूर किए हुए थीं । जे.एन.यू., दिल्ली यूनिवर्सिटी समेत ज़्यादातर विश्वविद्यालयों में स्थिति आज भी यही बनी हुई है यानि कि जो नौजवान अनुसंधान की तरफ जाने चाहिए थे, उनकी पहली प्राथमिकता आई.ए.एस. आदि परीक्षाएं होती हैं । अनुसंधान दूसरी-तीसरी प्राथमिकता में आता है । खैर, इस कारवां के साथ कभी लगा ही नहीं कि आई.ए.एस. परीक्षा कोई बड़ी चीज है । एक-दूसरे के साथ समझते-समझते हम सभी को सफलताएं मिली । सामूहिक सहयोग का अनोखा उदाहरण ।
यहां भी यह सब कुछ संभव हो सका था तो दिल्ली विश्वविद्यालय पुस्तकालय की बदौलत । ये वे दिन थे, जब विज्ञान के ये विद्यार्थी रिसर्च फ्लोर से या दूसरी अलमारियों से मनमर्जी हिन्दी-अंग्रेज़ी या दूसरे विषयों की किताबें अपनी मेज पर ले आते और फिजि़क्स, कैमिस्ट्री की किताबों की मोनोटनि के बीच में अपने को रिलेक्स करने के लिए कभी हरिशंकर परसाईं पढ़ लेते तो कभी प्रेमचंद । पुस्तकालय के इसी माहौल का अंजाम था कि विज्ञान के ये वि़द्यार्थी हिन्दी साहित्य के भी उतने ही रसिक बन गए थे । अपनी भाषा-संस्कृति ऐसे ही सहज रूप से पनपती है । वैसे भी शिक्षा का अर्थ अपने आसपास के समाज अध्ययन विमर्श, विनिमय का ऐसा मिलाजुला काढ़ा है । बाद के दिनों में जब मैं बड़ौदा रेलवे स्टॉफ कॉलेज में था तो मुझे स्पष्ट रूप से यह लगा कि साहित्य में एम.ए. के हिन्दी अधिकारियों से बेहतर समझ तो साहित्य-संस्कृति-भाषा के मामले में उनकी थी, जो एम.ए. हिन्दी से इतर विषयों के थे । हिन्दी भाषा और साहित्य की प्रगति में इस पक्ष पर विशेष ध्यान देने की जरूरत है । विश्वविद्यालय लाइब्रेरी के इस लचीलेपन की बदौलत ही सबको सभी विषयों को पढ़ने की आजादी रही । मैं इस बात को इसलिए रेखांकित कर रहा हूं कि पिछले 10-15 सालों में दिल्ली विश्वविद्यालय लाइब्रेरी में ऐसी पाबंदियों लगा दी गई हैं कि न कोई रिसर्च फ्लोर पर जा सकता है और न किसी दूसरे विषयों की पुस्तकें लाकर पढ़ सकता है । ‘आउट साइडर नॉट अलाउड’ जगह-जगह चिपका दिया गया है । मानो लाइब्रेरी में लोग तफरीह के लिए आते हैं । ये सारे प्रतिबंध इसलिए शुरू हुए, क्योंकि पुस्तकालय में काम करने वालों को ये पुस्तकें वापस उन्हीं अलमारियों में पहुंचाने का कष्ट भी न करना पड़े । आप समझ सकते हैं इस परिवर्तन का दुष्परिणाम । एक वक़्त था कि पुस्तकालय और उसके कर्मचारी आपको पढ़ने के लिए प्रोत्साहित करते थे और आज यह स्थिति कि ये पुस्तकें सिर्फ अलमारी में बंद रहें । कोई उन्हें बिना अनुमति छू भी न सके ।
इस उदाहरण से ज़्यादातर ऐसे संस्थानों के पतन का अंदाजा भी मिलता है ।
ऐसा ही मिलता-जुलता अनुभव केंद्रीय विद्यालय में पढ़ रहे मेरे छोटे बेटे का रहा है । वैसे तो सभी विद्यालयों में लाइब्रेरी नाम की संस्था का पतन बहुत तेजी से हो रहा है । बहुत जगह, बहुत स्कूलों में या तो हैं ही नहीं और यदि हैं भी तो उनमें विद्यार्थियों का जाना मना है । व्यवस्था यह मानती है कि ये उद्दंड बच्चे आएंगे तो किताबों, पत्रिकाओं को इधर-उधर करेंगे और इससे हमारी व्यवस्था खराब हो जाएगी । क्या पुस्तकों, लाइब्रेरी का चुपचाप, खामोश, करीने की व्यवस्था में बने रहना महत्वपूर्ण है या बच्चे को ज्ञान के उस विविध संसार में खींचकर लाना, प्रेरित करना ? लेकिन हकीकत यही है और रईसी की तरफ बढ़ते मध्यम वर्ग की चिंताओं में महंगे पब्लिक स्कूल, उनके स्वीमिंग पूल, घुड़सवारी या ड्राइविंग की सुविधा आदि तो रहते हैं, यह कभी नहीं कि उनमें कोई व्यवस्थित पुस्तकालय है या नहीं और यदि है भी तो बच्चे उसका फायदा उठा पा रहे हैं या नहीं । यह वर्ग इस मानसिकता का भी शिकार है कि अपने बच्चे को खुद घर पर ही सारी किताबें उपलब्ध करा देंगे । ये अभिभावक, मां-बाप भूल जाते हैं कि पुस्तकालय की जगह आपके लाड़ले की गिनी-चुनी किताबें नहीं ले सकतीं और यह कि बहुत कम खर्चे पर पुस्तकालय की अनंत दुनिया में बच्चे जिस आज़ादी से पढ़ने-लिखने का आनंद लेंगे, वह निजी खर्चे या निजी अलमारी से कभी संभव नहीं हो सकता । निजी पुस्तकालय आप घर पर बनाएं जरूर, लेकिन सार्वजनिक पुस्तकालय को अनदेखा करके नहीं । इन अभिभावकों को चाहिए कि वे अपने बच्चों के पब्लिक स्कूल के ऊपर दबाव डालने की कीमत पर भी लाइब्रेरी व्यवस्था को मज़बूत बनाएं । बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय ऐसे कामों से ही आगे बढ़ेगा ।
नौकरी की अगली यात्रा में सन् 1980 में मेरी पोस्टिंग आई.टी.ओ. पर हुई । आई.टी.ओ. जितना आज व्यस्त है, 20-30 साल पहले भी उतना ही था । विशेषकर डी.डी.ए. की सबसे ऊंची मीनार के कारण । एक दिन देखा तो बगल में मौलाना आजाद लाइब्रेरी थी । भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद की बिल्डिंग के तहखाने में । पत्र-पत्रिकाओं के अलावा इतिहास और समाजशास्त्र की एक-से-एक नई पुस्तकें । कहां तो नई पत्रिकाएं तक मेरे खुर्जा के कॉलेज में उपलब्ध नहीं होती थीं और यहां एक-से-एक महत्वपूर्ण नई पुस्तकें भी तुरंत मिलती थीं । इधर अखबार, बाजार में पुस्तकों की घोषणा और उधर ये पुस्तकें लाइब्रेरी में हाजि़र । विशेषकर इतिहास की पुस्तकों के लिए मुझे यह लाइब्रेरी बहुत अच्छी लगी । मेरी सिविल सेवाओं की परीक्षाओं में इतिहास विषय चुनने में शायद इन सब तत्वों का योगदान रहा होगा । इस लाइब्रेरी की एक विशेषता मैं और कहूंगा कि यहां बहुत कम भीड़ होती थी । इक्का-दुक्का लोग यहां भटकते थे । बाबुओं से घिरे उस महासमुद्र के बीच लंच के समय बड़ी शांति की जगह तलाश ली थी मैंने ।
एक दिन थोड़ा और आगे गया तो वहां प्रौढ़ शिक्षा निदेशालय और विश्व स्वास्थ्य संगठन डब्ल्यू.एच.ओ. की भी लाइब्रेरी थी । इन सभी जगह मैंने बहुत कम लोगों को पुस्तक लेते देखा है । लंच में ज़रूर कुछ लोग अखबार पढ़ते दिखाई देते थे ।
सड़क पार आई.आई.पी.ए. का भी मशहूर पुस्तकालय था । यह आज भी उतना ही अच्छा है । हालांकि, मेरा इसमें जाना बहुत कम ही हो पाया, क्योंकि बिना मेंबरशिप के इसमें जाने की अनुमति नहीं थी और उसकी मेंबरशिप तो उन दिनों मिलने का सवाल ही पैदा नहीं होता । आई.टी.ओ. से मंडी हाउस भी बहुत पास है । अत: शाम को जैसे किसी वक्त दिल्ली विश्वविद्यालय भागना होता था, मैं अक्सर मंडी हाउस पहुंच जाता था । साहित्य संस्कृति के लिए तो मंडी हाउस वाकई खजाना है । साहित्य अकादमी और उसका पुस्तकालय, एक मंजिल ऊपर चले जाइए तो एक तरफ ललित कला अकादमी की लाइब्रेरी और दूसरी तरफ संगीत नाटक अकादमी की । खैर, किताबें, जरनल, अखबार ऐसा माहौल किसको पढ़ने के लिए पागल नहीं कर देगा । थोड़ी दूर पर नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा का पुस्तकालय भी उतना ही अच्छा है और उतना ही केंद्रीय सचिवालय द्वारा संचालित एन.एस.डी. के प्रांगण में ही स्थित पुस्तकालय ।
साहित्य अकादमी के करीब ही आई.सी.एच.आर. का और आई.सी.एस.एस.आर. का पुस्तकालय भी है । 35 फिरोजशाह रोड पर यहां जे.एन.यू. सिटी सेंटर का सुंदर सभागार भी है, जिसमें उन दिनों शाम को अक्सर कुछ विचार-गोष्ठी आदि का आयोजन होता था । अब तो शायद वह सभागार भी टूटने के कगार पर है । मंडी हाउस चौराहे के पास सप्रू हाउस की मशहूर लाइब्रेरी है । मुझे आज का तो नहीं पता, लेकिन उन दिनों दिल्ली की बहुत सारी जनता के लिए सप्रू हाउस पंजाबी के कुछ अश्लील, भद्दे नाटकों जैसे ‘कुड़ी जवान तो बुड्ढा परेशान’ आदि के लिए जरूर जाना जाता था, लेकिन इन सब के बीच सामाजिक विज्ञानों की पुस्तकों और उन्हें पढ़ने के लिए बेहद शालीन व्यवस्था थी पुस्तकालय के अंदर । ज्ञान बावरे बहुत सारे बुजुर्गों को मैंने पूरे-पूरे दिन चश्मा चढ़ाए इस पुस्तकालय में बैठे देखा है । बराबर में सस्ती कैंटीन की सुविधा भी । इन सभी पुस्तकालयों के साथ एक और विशेष आकर्षण था । आप घर से बिना चाय पिए भी चले हैं, तब भी काम चल जाएगा और पढ़ने में कोई रुकावट नहीं आएगी । जमीन पर जन्नत का मजा-किताबों के साथ ।
दिल्ली में शोधार्थियों और विद्यार्थियों के लिए एक और महत्वपूर्ण पुस्तकालय हरी-भरी दिल्ली के बीच तीन मूर्ति भवन में है, जिसे तीन मूर्ति लाइब्रेरी कहते हैं । शायद दुनिया के चुनिंदा पुस्तकालयों में इसकी गिनती हो, विशेषकर भारत के आज़ादी और इतिहास के संदर्भ में । इस पुस्तकालय की एक खास विशेषता उन दिनों थी और शायद आज भी है कि समय-समय पर वहां देश की आज़ादी से संबंधित इतिहास जैसे ‘भारत छोड़ो आंदोलन’, ‘1930 का डांडी मार्च’, ‘असहयोग आंदोलन’, नेहरू, सुभाष चंद्र बोस, गांधी, पटेल की जीवनियों से संबंधित प्रदर्शनियों से इतिहास की एक मुकम्मिल समझ बनती है ।
दिल्ली विश्वविद्यालय के ही श्यामलाल कॉलेज का उल्लेख भी यहां इतना ही जरूरी है । घर के पास था और अर्थशास्त्र के प्रोफेसर शशि प्रकाश और विनय पुरी की वजह से कितनी भी किताबें लेने की सहूलियत ।
मेरे रेल भवन की लाइब्रेरी भी कम महत्वपूर्ण नहीं है । हिंदी, अंग्रेज़ी की जितनी पत्रिकाएं यहां उपलब्ध हैं, कई विश्वविद्यालयों की लाइब्रेरी में नहीं हैं । नई पुस्तकें भी तुरंत हाजि़र और श्रीमती आदर्श शर्मा, उषा सहगल की मुस्कराहट, स्वागत के साथ । मैंने कई रेल अधिकारियों को हिंदी की नायाब पत्रिकाओं के पते, विवरण नोट करते देखा है रेल भवन की लाइब्रेरी में ।
पिछले दिनों साहित्य अकादमी के वाचनालय में बड़े उत्साह के साथ जाना हुआ, लेकिन वाचनालय में कोई पत्रिका नहीं । जो पुरानी-धुरानी थीं भी, वे वही थीं, जो शायद फोकट में वहां पहुंच जाती हैं । आत्मप्रचार या दानवश जो भी वहां रख जाए । कारण जानना चाहा तो कोई संतोषजनक उत्तर नहीं था । किसी ने कहा, रखने की जगह नहीं है । दूसरे बोले, अकादमी के पास बजट नहीं है । एक ने कहा, पत्रिकाओं की वजह से फालतू की भीड़ रहती थी यानी कि अकादमी जिस उद्देश्य के लिए बनाई गई है-लोगों में पुस्तक-संस्कृति के प्रचार-प्रसार के लिए, अकादमी के कर्मचारी उस भीड़ को देखकर डरते हैं । और भी खर्चे चल ही रहे हैं तो क्या पत्रिकाओं की कटौती से ही अकादमी मुनाफे में आ जाएगी ? अखबारों को बंद करना समझ में आ सकता है, लेकिन पत्रिकाओं को हरगिज नहीं । हममें से किसकी आर्थिक क्षमता इतनी है कि वह एक साथ ‘आलोचना’, ‘बहुवचन’, ‘हिंदी’, ‘पूर्वग्रह’, ‘साक्षात्कार’, ‘रंग-प्रसंग’ ‘समकालीन भारतीय साहित्य’, ‘इंडियन लिटरेचर’, ‘इकनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली’, ‘टी.एल.एस.’, ‘बुक रिव्यू’, ‘हंस’, ‘कथादेश’, ‘समयांतर’, ‘वागर्थ’, ‘कथन’, ‘पहल’, ‘ज्ञानोदय’, ‘शैक्षिक संदर्भ’, ‘स्रोत’, ‘चकमक’, ‘शिक्षा विमर्श’ सभी को नियमित रूप से खरीद सके ? कुछ पत्रिकाएं सभी मंगाते भी हैं, अपने-अपने चुनाव के अनुसार, लेकिन यह पुस्तकालय का विकल्प नहीं है, विशेषकर अकादमी-पुस्तकालय का । इनमें से कई पत्रिकाएं इतनी महंगी भी हैं कि विद्यार्थी-शोधार्थी इनको खरीदने की हिम्मत नहीं कर सकते, विशेषकर तब जबकि हिंदी का विद्यार्थी-शोधार्थी समाज में सबसे कमजोर वर्ग से आता हो । यदि व्यक्तिगत प्रतिष्ठा के तहत आप खरीद भी लें तो क्या महानगरों के घर में उन्हें रखने की जगह है ? वैसे भी प्रश्न व्यक्तिगत रुचियों के बोझ का उतना नहीं है, जितना ऐसी संस्थाओं को मज़बूत करने का है, जहां ज्यादा-से-ज्यादा लोग आकर पुस्तक-संस्कृति से जुड़ सकें, विशेषकर उस दौर में जब पाठक प्रिंट-मीडिया से लगातार दूर भाग रहा हो । कभी इसी अकादमी में किसी भी महत्वपूर्ण पत्रिका के पुराने अंकों को टटोला जा सकता था । पुस्तकालय संदर्भ-स्रोत की तरह था । साहित्य का ‘खुल जा सिम सिम’ सरीखा । पत्रिका पढ़ ली तो उसी से सटी पुस्तकों के रैक में नई किताबें भी देख लीं । केवल शोधार्थी ही नहीं, मेरे जैसा पाठक भी रेल भवन से नियमित शाम को बाबूगिरी की गर्द से अकादमी के वाचनालय में पहुंचकर ही मुक्ति पाता था । अब मंजर बंजर बनने की तरफ बढ़ रहा है । यदि साहित्य की अकादमी है तो साहित्य में जो कुछ हो रहा है, उस सबकी गवाह बने तो क्या नुकसान है ? यहां तक कि साहित्य-संस्कृति के अलावा तकनीकी साहित्य भी वहां मिले तो सोने में सुगंध । राष्ट्रीय स्तर की अकादमी के लिए फख्र की बात होगी, लेकिन, फिलहाल तो अफसोस ही ज़ाहिर किया जा सकता है ।
वाकई यह समय यदि संकट का है तो सबसे ज्यादा पठन-पाठन के लिए ही है । दिल्ली विश्वविद्यालय के कला संकाय पुस्तकालय का पत्रिका-कक्ष भी अस्सी के दशक में दुनिया भर की पत्रिकाओं से भरा रहता था । गाज सबसे पहले इसी पर गिरी । कम ही जानते होंगे कि विश्वविद्यालय में पढ़ाने वाले शिक्षकों के वेतनमान वही हो गए हैं, जो नौकरशाही की किसी भी प्रशासनिक सेवा के हैं । इसमें कोई बुराई नहीं है, लेकिन विश्वविद्यालय के इन बुद्धिजीवियों को इस ओर भी देखने की जरूरत होनी चाहिए कि पुस्तकालयों की क्या दशा-दिशा बनी हुई है । अच्छे पुस्तकालय तो उनके शिक्षण में मदद ही करेंगे । इस शीर्ष विश्वविद्यालय के पत्रिका-कक्ष/जगह तो अभी उतनी ही बड़ी है, लेकिन पत्रिकाएं वहां पुरानी ही रखी हुई हैं । नई के लिए बजट यहां भी घट चुका है । कुछ लोग पठनीयता के तर्क में अच्छी पत्रिका की बजाय सरिता, मुक्ता मंगाने का तर्क देते हैं । मेरा इन पत्रिकाओं से विरोध नहीं है, लेकिन ये तो बाजार में बिखरी पड़ी हैं । पुस्तकालय में इनकी तलाश के लिए कोई नहीं आता । पुस्तकालय विशिष्ट और विरासत में रखने लायक चीजों के लिए जाने जाते हैं । बहुत सारी अकादमियों की स्थापना पचास-साठ के दशक में हमारे तत्कालीन दूरदर्शी नेताओं ने इसी विरासत के सांस्कृतिक पक्ष को मजबूत करने के लिए की थी । यूरोप, अमेरिका आज शोध और शिक्षा के लिए सर्वश्रेष्ठ जगह हैं तो इन्हीं पुस्तकालयों, संस्थानों की बदौलत ।
जिस दिल्ली को इन्हीं संस्थानों के बूते मैं कहता था कि यदि आपने पुस्तकालयों-विश्वविद्यालयों समेत इन सांस्कृतिक संस्थानों का फायदा नहीं उठाया तो क्या धूल-धुआं पीने के लिए दिल्ली में डटे हुए हो ? क्या मैं अब भी यह कह सकता हूँ ?
पुस्तकालय के प्रति अपनी श्रद्धा से मैं इतना अभिभूत रहता हूँ कि उसी ऋण से मुक्ति की तलाश में अपने क्षेत्र दीधी, जिला-बुलंदशहर में एक छोटे पुस्तकालय को चलाने की कोशिश कर रहा हूँ । कहीं-न-कहीं मेरे अंदर यह विश्वास है कि सैकड़ों बच्चों में से कुछ बच्चे ऐसे अवश्य होंगे, जो पुस्तकों की तलाश में इधर-उधर भटकते होंगे । मुझे उन दिनों कोई भी किताब अगर मिलती थी तो बहुत बड़ा उपहार लगता था । मुझे पता है कि वक्त बहुत बदल चुका है । टी.वी., मॉल और दूसरे प्रचार माध्यमों ने बच्चों के हाथ से किताब छीन ली है और वे एक अलग अपसंस्कृति की तरफ बढ़ रहे हैं, लेकिन यदि इस परिदृश्य को बदला जा सकता है तो सिर्फ एक पुस्तकालय आंदोलन से ही । आखिर इन्हीं पुस्तकों से तो उन्हें एक सही नागरिक बनने की समझ बनेगी । ऐसा नागरिक जो जाति, धर्म, लिंग, प्रांत, ऊंच-नीच से परे हों ।
देखते हैं हम सब पुस्तकालयों के माध्यम से इसमें कितना सफल होते हैं ?
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