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मेरे जीवन में धर्म – आत्म चिंतन

Jan 08, 2013 ~ 2 Comments ~ Written by Prempal Sharma

आज पचपन साल की उम्र तक पहुंचते-पहुंचते तो मुझे लगने लगा है कि क्याक वाकई धर्म जैसी किसी चीज की जरूरत है भी विशेषकर तब जब धर्म आपको अलग-अलग खाँचों और सॉंचों में विभाजित करते हों; मनुष्यप, मनुष्यि के बीच दूरी पैदा करते हों और कभी-कभी आपस में राष्ट्रों को भी लड़ाते हों । हिन्दू धर्म अपने को बहुत सहिष्णुऔ होने का दावा करता है । ‘वसुधैव कुटुम्ब कम’ उसका नीति वाक्यि है लेकिन आचरण में अस्पृ श्यवता, भेदभाव, स्त्रियों के प्रति देवी या दासी की भावना से सराबोर । बहुत मुश्चिकल है इससे पार पाना । तब लगता है कि धर्म के इस भवन में जिसमें करोड़ों ऐसे देवी-देवता रहते हों उससे दूर रहना ही बेहतर है । मुस्लिम धर्म के बारे में मेरी बहुत जानकारी नहीं लेकिन जो कट्टरता इस धर्म के नागरिकों में दिखाई देती है उसकी जड़ें भी तो उसी धर्म में होंगी । पश्चिम एशिया में दिन-रात सुलगते युद्ध, पाकिस्तासन का सनातन जेहाद, अफगानिस्ताहन के तालिबानी और सभी जगह स्त्रियों के प्रति एक बेहद क्रूर व्यतवहार । तीसरा क्रिश्चियन- लोभ लालच देकर अलग-अलग देशों में लोगों की आस्थातओं को प्रभावित करना, उन पर अपनी भाषा, संस्कृतति लादना किस धर्म के मूल्यत कहे जा सकते हैं ? क्यान ऐसे धर्मों से मुक्ति में ही जन्न्त नहीं है ?

हालॉंकि कभी-कभी मुझे लगता है कि भारत जैसे गरीब देश में जहॉं सदियों से दलित, गरीबों को मुक्ति का कोई रास्ताै नजर न आए वहॉं कम-से-कम एक ऐसी अदृश्यि शक्ति के प्रति एक उम्मी्द भरी आस्थाआ से जीवन जीने का तर्क तो ढूंढा ही जा सकता है । आप चाहें तो इसे ‘हारे को हरिनाम’ कहिए या कुछ और लेकिन कई बार गॉंव देहात में किसी बूढ़े या वृद्ध महिला को किसी माला या भजन-कीर्तन के सहारे एक निश्चित अंदाज में जीवन को सहन करने की ताकत का नाम धर्म भी है । तब लगता है कि मेरे लिए न सही उनके लिए तो धर्म की जरूरत है ही ।

कई बार यह भी लगता है कि क्याह उस उम्र में मैं भी धर्म की तरफ मुड़ जाउंगा ? प्रश्नग खुला रखना चाहता हूँ । यदि ऐसा हो तो भी क्या हर्ज । बस यही कहूंगा कि हर उम्र का एक धर्म होता है । जैसे पिछले हफ्ते एक आठ-दस बरस के बच्चेस को रोज-रोज मंदिर जाते देखकर मुझे कहना पड़ा कि बेटा ! मम्मीस-पापा को जाने दीजिए मंदिर । तुम शाम को फुटबॉल खेला करो । अभी तुम्हा री समझ में क्याम आएंगी मुक्ति, मोक्ष और परलोक की बातें । उनके माता-पिता को भी समझाया कि अपने धर्म को क्यों बच्चेप पर लाद रहे हो ।
अब मैं उधर मुड़कर देखना चाहता हूँ जिस रास्तेद से मैं जीवन के इस दर्शन तक पहुंचा । पश्चिमी उत्तनर प्रदेश का एक ग्रामीण किसान परिवार । थोड़ी-सी जमीन, खेती का काम, खाने भर की स्थितियॉं थीं । शायद पढ़ने-पढ़ाने भर की भी नहीं वरना मेरे पिता जी जो बेहद मेधावी थे और छियासी वर्ष की उम्र तक लगातार पढ़ने में व्यरस्त रहे क्याी सिर्फ मिडिल क्लारस तक ही पढ़ पाते । यह भी सच है कि पूरा देश ही गरीब था इसलिए इस गरीबी का कोई गुणगान या गर्व करने की बात मैं नहीं समझता ।

गॉंव में छोटे-छोटे व्रत, त्यौयहार मनाए जाते हैं । हम सब भाई भी मनाते थे क्योंमकि मॉं ऐसा करती थीं । दो व्रत तो मुझे याद हैं जो निश्चित रूप से किए जाते थे । एक शिवरात्रि का जिसमें गॉंव से बाहर सड़क पर बने मंदिर में बने शिवजी पर जल चढ़ाते थे । बेर वगैरह भी । बस एक कवायद की तरह । कुछ खाने को तब मिलेगा जब पहले नहाकर और एक लोटा शिवजी पर चढ़ाओगे । दूसरा व्रत कृष्ण जन्मााष्ठामी का होता था । इन व्रतों को रखने के पीछे कारण यह भी था कि उस दिन घर में सामान्यक खाना बनता ही नहीं था । इसलिए व्रत रखने के अलावा कोई विकल्प नहीं था । इतना जरूर था कि कोई कट्टरवाद घर में नहीं था । यदि भूख लगे तो व्रत कभी भी तोड़ा और जोड़ा जा सकता था । पिताजी को कभी भी पूरा व्रत करते याद नहीं ।

इस कट्टरवाद के न पनपने का कारण यह भी था कि पिताजी जिनको दिल्लीी पहुंचने के बाद, उनके साथ रहकर नजदीक से जाना, उनकी भी धर्म की किसी कट्टरता या रस्मी रीति रिवाजों में दूर-दूर तक जगह नहीं थी । एक अर्थ में कह सकता हूँ कि मॉं धार्मिक जरूर थीं लेकिन वैसी धार्मिक नहीं जैसी गॉंव की ज्या दातर दूसरी औरतें । यों वे व्रत बहुत ज्याकदा रखती थीं । बृहस्‍पतिवार को केले का पूजन से लेकर आए दिन कुछ-न-कुछ ऐसा करती थीं । लेकिन उनका हम पॉंच-सात भाई बहनों का पालन करते हुए और खेती क्याकरी, गाय, भैंस का काम करते हुए हमने कभी नहीं सुना कि व्रत या ना खाने से उनकी दैनंदिन जिंदगी पर कोई असर पड़ा हो । एक अशिक्षित महिला का धर्म के प्रति थोड़ा-सा मोह लेकिन रीति रिवाजों के प्रति उतनी ही निष्ठु रता की अनूठी मिशाल मॉं कही जा सकती है । एक और अनौखा पक्ष उनका था भूत, प्रेतों, डायनों, में यकीन न करना और पंडित, पुजारियों से भी दूर रहना । ऐसा विवेक उनमें शायद इसलिए आया कि उन्हेंन बच्चों। की देखभाल और खेती का काम इन टोटकों से सदैव ज्यालदा महत्वंपूर्ण लगा । भैंस के ब्याोने पर गॉंव के बाहर बने मुकुन्दीं मैया पर दूध चढ़ाने जरूर जाती थीं । हम जब बहुत छोटे-छोटे थे तो हम भी साथ लग लिया करते थे और देखते कि उस दूध चढ़ाने वाले पत्थमर के आसपास अनगिनत चीटियां, चींटे मंडरा रहे होते थे । एक हल्कीी सी बदबू भी ।
वक्तो ऐसे ही बढ़ता रहा । स्कूीलों में भी ऐसी कवायदें रोज होती थीं । कभी-कभी उस दुष्च‍क्र में आ भी जाते थे । गॉंव में हमारे मोहल्लेव के एक दामाद अक्सदर आया करते थे । खूब मोटे-ताजे । फूले हुए गाल, हनुमान के प्रतिरूप । हम सब उन्हेंर हनुमान जी के रूप में ही श्रद्धान्व त देखते थे । वैसे तो मैंने आज तक किसी भी पंडित पुजारी को दुबला पतला नहीं देखा । दिल्लीख जैसे शहर में समृद्धि बढ़ रही है तो पंडित, पुजारी भी उतने ही मोटे होते जा रहे हैं । उनकी भी मस्तर जिंदगी थी । रास्तेि में मिलते तो सीताराम, सीताराम जैसा कुछ बुदबुदाते रहते । हमें उनका ऐसा आभा मंडल बताया गया था कि जीवन की सार्थकता इसी में है वरना देखा जाए तो ऐसा नाकारा नागरिक जो अपनी ससुराल में मुफ्त की रोटी पेलता हो उससे दूर रहने की सलाह दी गई होती । आसपास बिखरी किताबों का भी असर रहा होगा । जैसे भक्तल ध्रुव की कथा कि वे कैसे एक पैर पर खड़े होकर तपस्या करते रहे और अंत में इंद्र भगवान खुश हो गये । ऐसा वरदान दे दिया । प्रह्लाद की कथा हो या कोई और सारी कथाओं का एक ही निचोड़ या असर था कि बच्चू् पढ़ने-लिखने, मेहनत करने से उतनी ऊचाइयां हासिल नहीं होंगी जितनी कि राम का नाम जपने से ।
इसी माहौल में परीक्षा शुरू होने से पहले और परिणाम आने से पहले अचानक बच्चोंी की टोली पास की बड़ी नहर के जंगल में रहने वाले बंदरों को चने और गुड़ खिलाने निकल पड़ती । यह जंगल गंगावली नाम के गॉंव के पास था । ब्राह्मण परिवारों के ऐसे दर्जनों नौजवान मेरे जेहन में उतर रहे हैं जो अपने बचपन से लेकर पढ़ाई पूरी होने तक इन्हींज बंदरों को चुगाने के भरोसे पढ़ाई करते रहे और नतीजा जो होना था वही हुआ । न बंदरों ने मदद की, न भगवान ने । इनमें से ज्यातदातर खेती का काम करने में भी सक्षम नहीं हुए । कुछ भांग तम्बानकू, दारू के नशे की तरफ मुड़ गए तो कुछ दूसरी अपराधी प्रवृत्तियों की तरफ । होड़ा-होड़ी एक आध बार तो मैं भी अपने भाइयों के साथ गया हूंगा इन बंदर भगवानों के पास । लेकिन शायद मॉं का ही असर रहा होगा कि गॉंव के बच्चों की तरह उस नियमितता के साथ नहीं जा पाया । लेकिन एक बात से नहीं बच पाया । पांचवी क्लारस तक पहुंचने तक हमारे नियमित काम में कक्षा के बाद पशुओं यानि भैंस को चराने ले जाना होता था । हम भैंस की पीठ पर बैठे होते । हमें एक छोटी सी किताब दे दी गई थी या पता नहीं कैसे मिल गई थी जिसमें सीताराम, सीताराम लिखा था । सीताराम का नाम जो कुछ लिया होगा वो उन्हींत दिनों का होगा भैंस पर बैठे । पता नहीं भगवान के पास वो रजिस्टहर अब सु‍रक्षित भी होगा या उसने फैंक दिया होगा । दिल्ली मेट्रो या दूसरी रेल यात्राओं में मैंने कथाकथित शिक्षित मध्यग वर्ग को आज भी वैसे ही हनुमान चालीसा या ऐसी किताब और माला को फेरते, बुदबुदाते देखा है । हे राम ! हे राम !

मैं तो बचपन की अज्ञानता में यह करता था लेकिन ये ज्ञानी पुरुष किस उम्‍मीद में ऐसा कर रहे हैं ? मेरी धर्म से रुचि या अरुचि ऐसे ही लोगों से प्रभावित हुई है । गॉंव की स्‍मृतियां हों या शहर की, अक्‍सर ज्यासदातर मामलों में मैंने उन लोगों को मंदिर की तरफ ज्‍यादा भागते देखा है जो अपने व्‍यक्तिगत जीवन में उतने पवित्र नहीं हैं । दिल्लीर के मेरे दोस्त विजय कोहली जैसे एकाध को छोड़कर । एक दूर के चाचा जी थे । उनके बारे में कई शादियां और बेईमानी के अंनत किस्‍से थे । लेकिन जिस भव्‍यता और विश्‍वास से वे मंदिर जाते, लौटते, भगवती जागरण कराते उसे देखकर लगता था कि ऐसे ज्ञानी ध्‍यानी पुरुष तो धरती पर कम ही पैदा हुए होंगे । मेरे कुछ नजदीकी आए दिन भागवत पूजा और मंदिरों की दौड़ लगाए रहते हैं । उन्‍होंने कामाख्‍या देवी से लेकर उज्‍जैन, वैष्‍णो देवी, पुरी कुछ नहीं छोड़ा । चार धाम पूरे हुए तो पॉंच साल बाद फिर से चल दिए कलेंडर देखकर । लेकिन झूठ है कि उनकी जिंदगी में एक पल के लिए भी साथ नहीं छोड़ता । वे पूर्व जा रहे होंगे तो पश्चिम बताएंगे । न मॉं की चिंता उन्हेंड करते देखा, न पिता या परिवार की । उनकी चिंता में पंडित पुजारी, खांटू बाबा, मुरारी बाबा से लेकर सब हैं । कई को तो इस ‘धंधे में धुत’ की बदौलत जीवन के वैभव भी मिल रहे हैं । साल में दो-चार बार पैसा इकट्ठा करके दफ्तर से छुट्टी बोलकर भगवती जागरण में व्य।स्तो रहना और यथासंभव बचत भी कर लेना । धर्म के धंधे में यदि यह जन्मा भी सुधर जाए और परलोक भी तो क्यार बुराई है !

शायद धर्म जब पाप मुक्ति का रास्ताह बन जाए तो उस धर्म से दूर रहना ही अच्छाध । महात्माक गांधी अपनी बायोग्राफी में लिखते हैं कि दक्षिण अफ्रीका पहुंचते ही उनकी दोस्तीब कुछ ईसाई परिवारों से हुई । गांधी जी उन सब से बहुत प्रभावित थे । गांधी जी इनके साथ चर्च जाते और उन्हेंस अच्छाी लगता । कुछ दिनों बाद उन्हेंर अहसास हुआ कि उनके एक ईसाई मित्र उनके ईसाई धर्म के प्रेम से बड़े प्रभावित हैं और इसीलिए उन्होंकने गांधी जी को ईसाई धर्म मानने के लिए प्रेरित करना चाहा । ईसाई धर्म की प्रेरणा के पीछे उनका मासूमियत भरा तर्क था कि हम से जो कुछ भी गलती हो जाती हैं, पाप हो जाते हैं तो ईसा के पास गिरजाघर में जाने से प्रभू ईसा उन सब को माफ कर देते हैं । गांधी जी ने विचार किया कि इस माफी का तो यह मतलब हुआ कि मनुष्यत और गलती करेगा, और पाप करेगा क्योंतकि प्रभू तो उन सब पापों को अपने ऊपर ले लेंगे । गांधी जी लिखते हैं कि मुझे गिरजाघर, मंदिर जाने का यह तर्क पसंद नहीं आया । गांधी जी की जीवन गाथा की रोशनी में हमारे मंदिर, मस्जिद, तीर्थस्थाीनों के आसपास बढ़ती भीड़ से क्याे निष्कअर्ष निकाला जाए ?

धर्म की इस जकड़न से मुक्ति ने मुझे अंधविश्वाासों, ज्यो तिषियों, वास्तुउ या सभी से दूर रखा है जो बिना कुछ किए हुए रातों-रात मालामाल होना चाहते हैं । मैंने कभी जिंदगी में न लॉटरी की टिकट खरीदी और न कभी यह चाहा कि कोई कुबेर का धन मुझे अचानक मिल जाए । धर्म से दूरी शायद कर्म सिद्धांत को मजबूत भी करती है । मेरे पिताजी भी इसके जीते-जागते उदाहरण थे । शायद यही असर धीरे-धीरे अगली पीढ़ी में भी गया है । मेरा छोटा बेटा सात-आठ साल की उम्र में जब दादी के साथ मंदिर गया तो उसने पूछा कि अम्माे जी ! ये मूर्ति तो नॉन लिविंग है । ये प्रसाद थोड़े ही खाएगी । इसे इस मूर्ति पर क्योंा चढ़ा रही हो ? पता नहीं वे इस धर्म को कब तक निभाएंगे लेकिन जिस धर्म की शिक्षा देता रहा हूँ वह यदि आपको गरीबों के प्रति संवेदनशील बनाती है तो फिर किसी और धर्म की जरूरत नहीं है ।

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2 Comments

  1. SAJJAN SINGH's Gravatar SAJJAN SINGH
    January 21, 2013 at 5:12 pm | Permalink

    सर गूगल पर आपकी एक पुस्तक खोजते हुए आपके ब्लॉग तक पहुँचा हूं। मैं आपसे पिछले साल जयपुर में लगे एन बी टी के पुस्तक मेले में मिला था। आपको याद होगा उन तीन छात्रों के बारे में, उनमें एक मैं भी था । आपसे कुछ देर शिक्षा और भाषा के मुद्दे पर बात भी हुई थी। नेट पर आपका ब्लॉग पाकर खुशी हुई। धर्म हमारे देश की और पूरी दुनिया की भी एक बड़ी समस्या रहा है। इसके सकारात्मक पक्षों में भी नकारात्मकता की मात्रा ही अधिक है। आज जिन समस्याओं का हमारा देश सामना कर रहा है उनके ऐतिहासिक संदर्भों को देखा जाए तो उनका कारण भी धर्म ही रहा है। देश को जातिवाद का कोढ़ भी इस धर्म की ही देन है। ऊपरी तौर पर देखने पर ये आस्थांए बहुत ही निर्दोष और पवित्र लगती है। जिनसे मुग्ध होकर बहुत से जागरुक लोग भी यह कहते हुए मिलते हैं कि धर्म कभी गल़त हो ही नहीं सकता जो गलत होता है वो साम्प्रदायिकता है, धर्म ग्रन्थों की गलत व्याख्याएं हैं। लेकिन अगर कोई अपने पूर्वाग्रहों को एक तरफ रख कर धर्म की वर्तमान और ऐतिहासिक भूमिका का अध्ययन करे तो पाएंगे की हमारे समाज की ज्यादातर बीमारियां का स्त्रोत ये धर्मग्रन्थ ही है। अतीत में भी इन धर्मों ने मानव समाज का बहुत नुकसान किया है। वर्तमान समस्याओं का समाधान वैज्ञानिक सोच को अपनाकर ही किया जा सकता है। जिस बात का जिक्र आपने भी अपने लेख में किया है, यूरोप भी धर्म की जकडन से मुक्त होकर आज इतना सामाजिक और वैज्ञानिक विकास कर सका है। शिक्षा को भी अगर इसके कर्मकाण्डी स्वरूप से मुक्त करके तार्किक चिंतन को भी शिक्षा की विषय वस्तु में शामिल किया जाए तो अब तक शिक्षितों की जैसी अंधविश्वासी जमात तैयार होती रही है उसमें बदलाव लाया जा सकता है। वैज्ञानिक सोच के प्रसार के उद्धेश्य से ही मैंने भी अपना एक ब्लॉग बनाया है समय मिले तो पधारें- संशयवादी विचारक

    Reply
  2. prempalsharma's Gravatar prempalsharma
    January 22, 2013 at 9:29 am | Permalink

    Aabhar dost

    Reply
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Prempal Sharma

प्रेमपाल शर्मा

जन्म:
15 अक्टूबर 1956, बुलन्द शहर (गॉंव-दीघी) उत्तर प्रदेश

रचनाएँ:
कहानी संग्रह (4)
लेख संग्रह (7)
शिक्षा (6)
उपन्यास (1)
कविता (1)
व्यंग्य (1)
अनुवाद (1)


पुरस्कार/सम्मान :
इफको सम्मान, हिन्दी अकादमी पुरस्कार (2005), इंदिरा गांधी राजभाषा पुरस्कार (2015)

संपर्क:
96 , कला कला विहार अपार्टमेंट्स, मयूर विहार फेस -I, दिल्ली 110091

दूरभाष:
011 -22744596
9971399046

ईमेल :
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