मैं प्रेमचंद साहित्य का न तो विशेषज्ञ हूँ और न ही समीक्षक, आलोचक, प्राध्यापक, जो प्रेमचंद की रचनाओं में ऐसा आकाश-कुसुम खोज लाए, जिससे अभी तक आप परिचित न हों, लेकिन एक छोटे-मोटे पाठक, लेखक के रूप में (वैसे, प्रेमचंद की मूर्ति के आगे मुझे अपने लिए लेखक शब्द लिखने में भी संकोच होता है) मेरे लिए वे एक ऐसे प्रेरणा स्रोत हैं, जिनसे मैं न केवल साहित्य में बल्कि जीवन के हर कदम पर प्रेरणा लेता हूँ । 100 वर्ष के बाद भी यदि वह लेखक या उसका साहित्य इस रूप में प्रभावित करता है तो समकालीन कथा साहित्य में प्रेमचंद की प्रासंगिकता के एक नहीं सैंकड़ों बिंदु हैं, जो मुझे झकझोरते हैं ।
मैं जल्दी ही 50 की उम्र छूने जा रहा हूँ और इसका लगभग आधा हिस्सा यानी कि बचपन से लेकर कॉलेज की पढ़ाई पूरी होने तक 22 वर्ष की उम्र तक गांव में रहा । बी।एस।सी। के दिनों में भी गांव से ही 11-12 किलोमीटर आना-जाना होता था । कभी साइकिल तो कभी बस । यहॉं मेरा मतलब अपनी आत्मकथा सुनाना नहीं । मैं जो कहना चाहता हूँ, वो यह है कि जब आप गांव में रहे होते हैं तो एक ऐसा लेखक जिसका एक-एक शब्द गांव के किसान, मज़दूर, महाजन के ऐसे कुछ आख्यानों से भरा हुआ हो तो आपको बार-बार अपना अक्स उसमें झलकता दिखाई पड़ता है । प्रेमचंद के यहां ग्रामीण बोली है, पग-पग पर मुहावरे, लोकोक्तियां हैं । कथा बढ़ती ही इन्हीं के सहारे है । इसलिए सबसे ज्यादा पढ़े भी जाते हैं प्रेमचंद । जनता को अपना जीवन उसमें दिखाई देता है । यूं शहर और महानगर में रहने वाले लोग भी और वे भी जो एकाध-बार नानी, दादी के गांव पिकनिक पर जाते हैं, प्रेमचंद के उतने ही मुरीद होते हैं, लेकिन पूस की रात में हलकू किसान का सर्दी में ठिठुरते हुए जबरा कुत्ते के साथ सोने का अहसास उसी तीव्रता के साथ वही कर सकता है, जिसने खुद पूस की सर्दी में रातें काटी हों । 30 साल पहले उस कहानी को पढ़ते हुए और आज भी लगता था कि जबरा कुत्ता हलकू का नहीं मेरा झब्बू कुत्ता है, जो बिल्कुल उसी अंदाज़ में मेरे साथ रात में खेतों पर पानी लगाने में साथ-साथ होता था । पूस की रात में नील गाय खेत को तबाह कर जाती है । मुझे याद आता है वो वाकया जब कभी-कभार आने वाले भेडि़ए के डर से झब्बू भौंकता-भौंकता अचानक डर से कूँ-कूँ करता हुआ मेरी चारपाई के नीचे आ छिपता था । दो बैलों की कथा मानो मेरे ही बैलों की कथा है । दो दिन पहले जुलाई, 2005 में दुनिया के परदे पर हैरी पॉटर का छठा संस्करण रिलीज़ हुआ है । भारत में पहले ही दिन एक लाख प्रतियां बिक गईं । मीडिया इसी रफ्तार से प्रचार करता रहा तो रोज एक लाख और बिकेंगी/करोड़ों तक । पश्चिम की यही कार्य-प्रणाली है । आप इसे षडयंत्र कहें या अंग्रेज़ी संस्कृति का वर्चस्व । अंग्रेज़ी साम्राज्य या संस्कृति हर दो-चार साल में ऐसे तमाशे करती रहती है, जिसमें तीसरी दुनिया विशेषकर पूर्व कॉलोनियल राष्ट्र अपनी पूरी जनता को झोंक देते हैं । विदेशी न्यूज़ चैनलों के बाद तो सारी लगाम उनके पास है । दस वर्ष पहले जुरासिक पार्क या एनाकोंडा था तो उसके बाद ग्लैडियेटर जैसी ही कुछ फिल्में । अंग्रेज़ी प्रबंधन गुरुओं की कुछ ‘हल्ला-बोल’ किताबें भी उसी का हिस्सा हैं । यानी कि बच्चे से लेकर बूढ़े तक, संगीत से लेकर फिल्म तक, सभी के लिए मूर्ख बनाने को कुछ न कुछ । इसी के नशे में तो कभी-कभी यह सुनने को मिलता है, हिंदी में क्या है, न पॉटर, न पिज्जा । प्रेमचंद की दो बैलों की कथा में क्या किसी भी हैरी पॉटर से कम आकर्षण है ? मुझे लगता है कि मेरी पीढ़ी ने दो बैलों की कथा को घर-घर तक न पहुंचा कर प्रेमचंद की विरासत का अपमान किया है । तभी ये पीढ़ी प्रेमचंद की बजाय हैरी पॉटर खरीद रही है । खुद मेरे बच्चों को किसी ने गिफ्ट दी थी, वो आज भी रखी है । खुशी है कि मेरे बच्चों ने उसे सूंघ कर एक तरफ रख दिया है । अंग्रेज़ी भाषा हो या कोई भी दूसरी विदेशी भाषा, बच्चों की अपनी निजी फैंटेसी में मुश्किल से ही प्रवेश कर पाती हैं ।
दो बैलों की कथा सिर्फ बैलों की कथा नहीं । आप याद कीजिए, उसमें मानवीयता है, करुणा है । उसमें आजादी की प्रतिध्वनियॉं हैं । अपने मालिक के प्रति जो प्रेम है, ऐसा मानवीकरण दुनिया के साहित्य में बिरले ही मिलेगा । मोती बदला लेना चाहता है, उस मालिक से जो उसे झूरी के यहां से जबरदस्ती ले आया है, लेकिन उसके मन में तुरंत ख्याल आता है, इससे तो वो बालिका अनाथ हो जाएगी, जो उसे रोटी खिलाती है । अपने समय की सच्चाई को एक बड़ा लेखक कितने प्रतीकों से कहता है । आप विद्वान खुद समझ सकते हैं कि इस कथा के इतने आयाम हैं कि दर्जनों पृष्ठ भरे जा सकते हैं । ‘ईदगाह’ कहानी को याद कीजिए—मैं जब भी दशहरे के मेले में गया, चिमटा तो मैं कभी नहीं खरीद पाया लेकिन हर बार चिमटे वाले की दुकान में ज़रूर गया था । दफ्तर में फाइलों को निपटाते वक्त ऐसा कभी नहीं हुआ कि मुझे पंच ‘परमेश्वर’ की याद न आई हो । किसी के लिए कोई अवांछित सिफ़ारिश या लोभ देता है, पंच परमेश्वर तुरंत आपके अंदर प्रवेश कर जाता है । लोग कहते हैं कि साहित्य से कुछ नहीं होता, लेकिन मेरा पक्का यकीन है कि सिर्फ ऐसा साहित्य ही मनुष्य को बदलता है और एक मनुष्य को बदलना पूरे समाज को बदलना है क्योंकि यह श्रृंखला पीढ़ी दर पीढ़ी ऐसे साहित्य से ही आगे बढ़ सकती है ।
एक और मशहूर कहानी है—‘मंत्र’, यदि मैं सच्चाई बयान करूँ तो यह कहानी मुझे हर सफ़ेदपोश, अमीर के प्रति इस पूर्वाग्रह से भर देती है कि एक अमीर एक गरीब से बेहतर इंसान कभी भी नहीं हो सकता । मंत्र कहानी में उस बूढ़े का बेटा मर जाता है क्योंकि डॉक्टर साहब गोल्फ खेलने जा रहे हैं और देखने से मना कर देते हैं, लेकिन जब उन्हीं डॉक्टर के इकलौते बेटे को सांप डस लेता है और यही बुजुर्ग भगत, जो सांप का जहर उतारना जानते हैं, सुनते हैं तो चुपचाप बिना बुढि़या को बताए कशमकश में वहां पहुंचते हैं और जहर को उतार देते हैं और बिना किसी को बताए या पुरस्कार का इंतजार किए चुपचाप खिसक लेते हैं । मेरी “वर्ग दृष्टि” अगर कुछ है तो मंत्र जैसी कहानियों की देन है, जिससे मुझे लगता है कि हर अमीर अपनी सर्वश्रेष्ठ मानवीयता में भी उतना मानवीय नहीं हो सकता, जितना कि गरीब, फटेहाल । ज़रा ‘बड़े भाई साहब’ कहानी को याद करें, क्या मौजूदा स्थिति में बड़े भाई साहब का काम मां-बाप, पड़ोसी, छोटे-बड़े भाई-बहन मिलकर नहीं कर रहे हैं ? क्या हमारे मौजूदा समसामयिक लेखन में उसकी ऐसी तीव्र अभिव्यक्ति कहीं सुनने को मिलती है ? कहीं ऐसा तो नहीं कि हम सभी ने ऐसी व्यवस्था के साथ समझौता कर लिया है ? ‘जुलूस’ कहानी मुझे याद है । कहानी पढ़ते-पढ़ते आँखें डबडबा जाती हैं । कितनों का नाम लिया जाए ! पूरी तीन सौ से अधिक कहानियां, इतने बड़े-बड़े 5-6 उपन्यास, नाटक, कहानी-परिमाण और गुणवत्ता दोनों में इतनी विराटता ।
यह तो रही उनके लेखन में अपनी जिंदगी के अक्स देखने की कुछ मोटी-मोटी बातें । उनके जीवन पर गौर करें तो पाते हैं कि यह शख्स शुरू से ही सामाजिक रूप से कितना सचेत और सक्रिय था । विधवाओं के प्रति क्रूरता हिंदी साहित्य से लेकर बंगला साहित्य सभी में चित्रित की गई है । प्रेमचंद ने सचेतन रूप से एक विधवा शिवरानी देवी से शादी की । 1913 में आर्य समाज के सुधार आंदोलन में शिरकत की । स्वतंत्रता आंदोलन पिछली सदी की शुरूआत में ही परवान चढ़ने लगा था । उनका पहला कहानी संग्रह ‘सोजे वतन’ देशभक्ति की कहानियों से भरा पड़ा है, जिसे जब्त कर लिया गया । 1921 में जब गांधी जी गोरखपुर पहुंचे और असहयोग आंदोलन में सहयोग देने के लिए छात्रों/शिक्षकों और सभी देशवासियों से स्कूल-कॉलेज छोड़ने की अपील की तो 1921 में प्रेमचंद सरकारी नौकरी से बाहर आ गए । आप लोग जानते हैं कि बाहर आने के बाद उन्होंने खादी बनाने के करघा का कारखाना लगाया । यानी कि जो उनकी लेखनी में है, वह उनके जीवन में भी है । यदि इसे मेरी गांधी जी और प्रेमचंद के प्रति अंध-भक्ति न माना जाए तो कथनी और करनी का जितना कम अंतर गांधी जी में है तो उनके चेले प्रेमचंद में भी उतना ही है । ‘ठाकुर का कुआं’ या ‘मोटे राम शास्त्री का सत्याग्रह’ या दूसरी कहानियों में जिन रूढि़यों, अंधविश्वासों, जातिवाद का वे विरोध करते हैं, उनके जीवन में भी वह उतना ही है । 1928 में बेटी कमला का विवाह किया लेकिन कन्यादान करने को तैयार नहीं हुए । कहना था “जानवरों का दान किया जाता है, बेटी का नहीं” । साम्प्रदायिकता के मुद्दे पर चतुरसेन शास्त्री की पुस्तक इस्लाम का विष वृक्ष प्रकाशित हुई । प्रेमचंद ने तुरंत इसके खिलाफ लिखा कि यह साम्प्रदायिकता को बढ़ाने वाली पुस्तक हो सकती है । आगे चलकर जब मुहम्मद इक़बाल ने पाकिस्तान का नारा दिया तो उन्होंने उसका भी विरोध किया । उनके प्रसिद्ध उपन्यास ‘रंगभूमि’ में ईसाई सांप्रदायिकता के विरोध का भी वर्णन है ।
मैं यहां यह कहना चाहता हूँ कि सामाजिक रूप से सक्रिय व्यक्ति ही इतना खरा स्टैंड ले सकता है । ऐसे कितने ही बिम्ब मेरे दिमाग में घूम रहे हैं । एक शख्स है, जो आजादी की लड़ाई में भी साथ है, उपन्यास भी लिख रहा है, पत्रिकाएं भी निकाल रहा है जैसे-मर्यादा, माधुरी और 1930 में हंस । यही कारण था कि 1936 में उनकी पहल पर ही भारतीय साहित्य परिषद के पहले अधिवेशन में गांधी, नेहरू, राजागोपालाचार्य, पुरषोत्तम दास टंडन, राजेंद्र प्रसाद, बालकृष्ण शर्मा नवीन सभी उपस्थित थे । पहली बार खुलकर हिंदुस्तानी भाषा की वकालत की । न उर्दू, फारसी और न संस्कृतनिष्ठ हिंदी । क्या आप सबको नहीं लगता कि हिंदुस्तानी ही आज के अंग्रेज़ी माहौल को चुनौती दे सकती है ? यह उनकी राजनैतिक, सामाजिक, साहित्यिक स्वीकृति और हैसियत का परिणाम था कि जब जवाहर लाल नेहरू ने अपनी पुस्तक ‘पिता के पत्र पुत्री के नाम’ हिंदी में निकलवाई तो उसके अनुवाद के रूप में प्रेमचंद को चुना और 1931 में प्रकाशित इस पुस्तक में नेहरू जी ने प्रेमचंद के प्रति बाक़ायदा आभार व्यक्त किया है ।
‘सोज़े वतन’ को अंग्रेज़ी सरकार ने ज़ब्त कर लिया था, इस चेतावनी के साथ कि मुगलों का राज होता तो दोनों हाथ काट लिए जाते । यानी कि भविष्य में भी ऐसा न लिखने के लिए सख्त चेतावनी । लेकिन क्या प्रेमचंद जी रुके ? हमारी पीढ़ी तो जार-जार रो-रोकर कई ऑडिटोरियम और सभागारों को भर देती । लेकिन इस लेखक ने धनपतराय नाम के बजाय प्रेमचंद नाम से लिखना शुरू किया, अपने शस्त्र बदले, मैदान नहीं छोड़ा, उर्दू के साथ-साथ हिंदी में भी । उनके योगदान का हिंदी साहित्य खुद गवाह है । यह किसी भी पीढ़ी के लिए कम प्रेरणादायक नहीं कि वो ऐसा लिखे, जिससे सत्ता डरे । कम से कम आज़ाद भारत के लेखन में बहुत कम ऐसे लेखक हैं, जो सत्ता को सीधे-सीधे चुनौती दे सके। यहां मुझे अंग्रेज़ी के जाने-माने पत्रकार, लेखक और राजनीतिज्ञ राजमोहन गांधी के भाषण का वह वाक्य याद आता है, जो उन्होंने साहित्य अकादमी के सभागार में आज से 10 साल पहले दिया था । शीर्षक था ‘शत्रुता में एकता’। राजमोहन गांधी का कहना है, इस देश का इतिहास ही यह है कि जब उसका शत्रु सामने रहता है, तो उसे मारने, हटाने के लिए हम सभी एकजुट हो जाते हैं लेकिन उसको मारने के बाद, शत्रु को खत्म करने के बाद, क्या करेंगे ऐसा खांचा या सांचा हम लोग बनाकर नहीं रखते । सन् सैंतालीस में अंग्रेज़ों को भगाकर आज़ादी तो ले ली, आज़ादी के बाद क्या करेंगे, इसके बारे में वे बहुत साफ़ नहीं थे । 1977 में भी यही हुआ । मैं अपनी बात पर लौट कर आता हूँ । आजादी के बाद क्या असमान भूमि वितरण, जमींदारी प्रथा, अंधविश्वास, जाति प्रथा, शिक्षा, सामाजिक समानता । क्या ये कम बड़ी चुनौतियां थीं ? ज्यादातर भारतीय आज भी उतने ही गरीब हैं, उतने ही जातिवाद में उलझे हैं, जितने कि प्रेमचंद के समय में थे । उतनी ही शैक्षिक अव्यवस्था से गुजर रहे हैं, जितने कि प्रेमचंद का भारत । समसामयिक कथा साहित्य में इन समस्याओं को और भी गंभीरता और मिशन के साथ लाने की ज़रूरत है ।
लेकिन कभी-कभी तो उलटे प्रेमचंद पर भी जातिवादी आरोप लगाए जा रहे हैं । इन आरोपों की भी एक सधी हुई राजनीति है । उन राजनेताओं की जिनके हाथ प्रेमचंद जैसे लेखकों की पुस्तकों को जलाते हुए नहीं कांपते । शिक्षा शास्त्री कृष्ण कुमार के शब्दों का सहारा लूँ तो आज की ज्यादा पढ़ी हुई पीढ़ी जितनी सांप्रदायिक है, उतनी गरीब, बिना पढ़ी हुई नहीं ? इसका कारण है उनको पढ़ाया जाने वाला वो इतिहास जो दोनों देशों में एक पक्षधरता के साथ पढ़ाया जा रहा है । मुझे लगता है कि प्रेमचंद साक्षात कबीर हैं । आजादी के बाद हरिशंकर परसाई के अलावा मुझे तो कोई दूसरा याद नहीं पड़ता । ‘कफ़न’ में चमार शब्द का इस्तेमाल उस गरीब की स्थिति का बखान है । रंगभूमि में प्रेमचंद का एक वाक्य देखिए, ‘शहर के आस-पास गरीबों की बस्तियां होती हैं, उन्हीं में एक गरीब और अंधा चमार है, जिसे लोग सूरदास कहते हैं” । पूरी समग्रता में समझने की ज़रूरत है, यहां प्रेमचंद को उनकी निष्ठा के प्रति शक कोई मूर्ख ही कर सकता है । समाज के इस वर्ग के प्रति उनकी करुणा और सहानुभूति का नाम ही प्रेमचंद है । मैं किसी के प्रति पूजाभाव में यकीन नहीं रखता । दरअसल पूजाभाव ही हमारे समाज को यथास्थिति में रखने के लिए एक बहुत बड़ा कारण है । यूरोप में रेनेसॉं से पहले पूजाभाव रहा, लेकिन उसके बाद जो धर्म, परंपरा, समाज के प्रति वैज्ञानिक संशय, संदेह बढ़ा, उसी से यूरोप वैज्ञानिक उपलब्धियों की तरफ बढ़ता जाता है और हम वहीं के वहीं खड़े रह जाते हैं। अमेरिका, यूरोप भागने के लिए, कभी-कभी पनडुब्बियों के पेंदे में छिपकर भी । दोस्तो हमें असहमति ज़ाहिर करने का पूरा हक है, लेकिन ऐतिहासिक दृष्टि के साथ, एक संयम के साथ । इस देश को दुनिया का सबसे बड़ा जनतंत्र/लोकतंत्र कहा जाता है तो क्या यही लोकतंत्र की निशानी है ? यह नहीं कि असहमति की रस्सी से आप प्रेमचंद को भी फांसी पर लटका दें ।
जब अमेरिका की याद आई है और अमेरिका भागने की, तो इस संबंध में प्रेमचंद की जीवनी भी टटोली जाए । आप सबने प्रेमचंद की जीवनी पढ़ी होगी ‘कलम का सिपाही-प्रेमचंद’ । उनके बेटे अमृतराय की लिखी हुई । मुझे इसे पढ़ते हुए 15 वर्ष पूर्व अनुभव हुआ कि प्रेमचंद की जीवनी उनके बेटे को ही क्यों लिखनी पड़ी । क्या उनकी जीवनी सात-आठ राज्यों में फैली हिंदी भाषा का कोई और लेखक नहीं लिख सकता था ? और यदि ऐसा होता तो वाकई यह प्रेमचंद के प्रति हमारी सच्ची श्रद्धांजलि होती । कुछ छोटे-मोटे प्रयास हुए हैं लेकिन इतना अच्छा काम नहीं हुआ, जितना अमृतराय ने किया है । दुनिया भर के साहित्य में सैकड़ों ऐसे उदाहरण हैं जिन पर सौ, दो सौ, चार सौ साल बाद भी जीवनी लिखी गई हैं । यहां तक कि कई बार दूसरी भाषा के लेखकों द्वारा भी लिखी गई है । हाल ही में स्टीफन स्वाइग की ‘वो गुज़रा ज़माना’ (हिंदी अनुवाद : ओमा शर्मा) पढ़ते वक्त लगा कि स्टीफन ने अपनी लेखनी से महत्वपूर्ण काम तो जीवनी लिखने का किया है । टॉलस्टॉय, बालज़ाक, दोस्तोवस्की की जीवनियां जर्मन लेखक स्टीफन स्वाइग ने लिखी हैं । खुद महात्मा गांधी पर जितनी अच्छी जीवनियां विदेशियों ने लिखी हैं, उतनी हमने नहीं । गांधी पर 1905 के आसपास पहली बायोग्राफी एक विदेशी ने लिखी थी ।
हां तो, मैं कलम के सिपाही की बात कर रहा था । यहां एक लेखक है, जिसका नाम है प्रेमचंद । रात-दिन अपनी लेखनी को छोड़कर शांति निकेतन तक भी जाने में जिसकी रुचि नहीं है । मन कर रहा है कि कलम का सिपाही के कुछ पृष्ठ आपके सामने पढूँ—“बनारसी दास चतुर्वेदी ने प्रेमचंद को उलझाने के ख्याल से तुलसी जयंती के साथ नत्थी करना चाहा, मगर प्रेमचंद उससे भी निकल भागे (पृष्ठ 570-71) । “जहां तक तुलसी जयंती की बात है, मैं इस काम के लिए सबसे कम योग्य हूँ । एक ऐसे समारोह का सभापतित्व करना, जिसमें मुझे कभी कोई रुचि नहीं रही, बिल्कुल मज़ाक की बात होगी । मुझे बड़ा डर लगता है । सच तो यह है कि मैंने रामायण आद्योपांत पढ़ी भी नहीं । यह एक लज्जा की बात है, मगर सच बात है ।”
तीन महीने बाद फिर किसी प्रसंग में शांति निकेतन का निमंत्रण मिला । वह भी निष्फल हुआ और 18 मार्च, 1936 को मुंशी जी ने चतुर्वेदी जी को लिखा—
“मैं शांति निकेतन न जा सका । मेरे लिए उसमें कोई आकर्षण नहीं है । वे लोग मुझसे विद्वतापूर्ण व्याख्यान की आशा करेंगे, और वह मेरे बस का रोग नहीं । मैं कोई विद्वान आदमी नहीं हूँ । तो भी अगर वह लोग मुझे पहले से आमंत्रित करें तो मैं आने का प्रयत्न करूंगा । तार से दी गई एक मिनट की सूचना पर मैं तैयारी नहीं कर सकता ।”
एक रोज़ उन्होंने पत्नी से कहा, “इच्छा होती है कि नौकरी छोड़-छाड़कर कहीं एकांत में बैठकर लिखता-पढ़ता । क्या करूँ, मेरा दुर्भाग्य है कि मेरे पास थोड़ी-सी जमीन भी नहीं । अपने खाने भर का गल्ला पैदा कर लेता और चुपचाप एकांत में बैठकर साहित्य की सेवा करता ।”
कितना साम्य है गांधी जी और प्रेमचंद के इन विचारों और जीवन में । महात्मा गांधी को अमेरिका जाने के कितने आमंत्रण मिले लेकिन हर बार वे उसे उतनी ही विनम्रता से मना करते रहे क्योंकि उनका कुरुक्षेत्र, रणक्षेत्र, युद्धक्षेत्र जो भी कहो तो यहीं इस देश में था । यहां से भागने का नहीं । इसके विपरीत जब अपने दर्जनों दोस्तों को अमेरिका, फ्रांस की तरफ दौड़ते देखता हूँ तो अफसोस होता है । दिल्ली विश्वविद्यालय के जाने-माने प्रोफेसर जो अमेरिकी विरोध में लिखते-लिखते ही इन पदों पर पहुंचे, अगले दिन पता लगता है कि वो अमेरिका चले गए और ज्यादा अफ़सोस तब होता है, जब उन्होंने न आने का मन बना लिया है । देश-भक्ति का राग अलापना एक बात है, उस पर अमल करना दूसरी बात है । लेकिन कर्म और जीवन में कुछ तो साम्य रखना चाहिए ।
अगर उनकी लेखकीय जिंदगी जाननी हो तो इस पुस्तक के पृष्ठ 345 से 347 ज़रूर पढ़ें । कुछ लाइनें उद्धृत करने का लोभ नहीं छोड़ पा रहा हूँ—“दूसरी किसी चीज़ में न तो उन्हें मज़ा मिलता था और न उसके लिए उनके पास वक्त ही था । जैनेन्द्र को बड़ी हैरानी हुई थी, जब मुंशी जी ने सन् 31 की अपनी दिल्ली-यात्रा के समय उनको बतलाया था कि अपनी जिंदगी में पहली बार वह दिल्ली आए हैं । इक्यावन-बावन साल की उम्र में पहली बार उन्होंने दिल्ली का मुँह देखा । और फिर उतनी ही हैरानी जैनेंद्र को यह जानकर हुई थी कि उस प्रवास के वह सात दिन उनकी जिंदगी के पहले सात दिन हैं (बीमारी के दिनों के अलावा) जबकि उन्होंने कुछ नहीं लिखा ।”
ऊपर से देखने पर भले लगे लेकिन दोनों दो अलग चीजें नहीं, एक ही चीज़ के दो पहलू हैं । या तो घूम फिर ही लो या काम ही कर लो । कुछ लोग दोनों को एक साथ निभा ले जाते हैं । मुंशी जी उनमें नहीं थे, न स्वभाव से और न अपनी सांसारिक स्थिति से, लिहाज़ा उन्होंने ख़ामोशी से एक कोने में बैठकर बराबर और अनथक काम करने की जिंदगी ही अपने लिए चुन ली थी और जिंदगी शुरू करते समय ही चुन ली थी, जिससे फिर कभी इधर-उधर नहीं हुए । जैसाकि उसी ख़त में उन्होंने इंद्रनाथ मदान को लिखा था—
“मैं रोमॉ रोलां के समान, नियमित रूप से काम करने में विश्वास करता हूँ ।”
तो यह था हमारे हिंदी साहित्य के अब तक के सबसे बड़े लेखक का जीवन । न केवल अमेरिका बल्कि किसी भी समझौते के लिए हमारी समकालीन पीढ़ी तैयार है । वह पुरस्कार हो या किसी भी तरह अमेरिका, इंग्लैंड जाना । कहीं भी एक दिन के लिए भी जाने के लिए हर समझौता करने के लिए तैयार । कभी-कभी तो लगता है कि ऐसी पीढ़ी को क्या प्रेमचंद को याद करने का अधिकार है ? बड़े से बड़े बुजुर्ग सम्माननीय लेखक भी पुरस्कारों की लाइन में खड़े होकर बधिया होने को तैयार हैं । हाल ही में प्रसिद्ध कथाकार संजीव घर आए हुए थे । उन्होंने एक लेखक की पुरस्कार लिप्सा की दास्तां बयान की । लेखक मुख्यमंत्री के घर पहुंचे, एक साहित्यिक दलाल के साथ । मुख्यमंत्री कभी बाथरूम में, कभी टॉयलेट में । घंटे दो घंटे बाद गमछे में बाहर आते हैं और पूछते हैं क्या चाहिए ? लेखक और दलाल मिनमिनाते हैं । पूछते हैं 5 हजार चलेगा ? वे और गिड़गिड़ाते हैं और राशि 11 हजार कर दी जाती है । यह रोज़ हो रहा है ।
यह प्रेमचंद की 125वीं जयंती मनाने का वर्ष है । सचमुच अच्छा लगता है कि इस बहाने ही सही प्रेमचंद, उनके मूल्य, उनकी भाषा की ओर कुछ ध्यान तो जाएगा । पिछले दिनों कई कोनों से स्मारक बनाने की आवाज उठी है । मुझे लगता है कि इन आवाज़ों को तुरंत कार्यान्वित करने की ज़रूरत है । साहित्य अकादमी के भवन का नाम रवींद्र भवन है । वहीं पास में एक और गली लेखक सफ़दर हाशमी के नाम से भी है । लेकिन पूरी दिल्ली में प्रेमचंद के नाम से शायद ही कोई मार्ग या भवन होगा । होना चाहिए, लेकिन यह कहां हो, इस पर सोचने की जरूरत है । मंडी हाउस की एक सड़क का नाम कोपरनिकस मार्ग है । यदि मैं गलत नहीं हूँ तो यह कोपरनिकस वही हो सकते हैं, जिन्होंने गैलिलियों से पहले खगोल विज्ञान में प्रसिद्धि पाई—लगभग चार सौ साल पहले । अच्छा हो इसी का नाम प्रेमचंद मार्ग कर दिया जाए । साहित्य संस्कृति के सूचक भवन साहित्य अकादमी, श्री राम सेंटर, नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा, दूरदर्शन भवन और कई थिएटर सभागार यहां हैं । एक सुझाव यह भी हो सकता है कि प्रेमचंद 1931 में दरियागंज में प्रसिद्ध उपन्यासकार जैनेन्द्र के यहां रुके थे । उसके आस-पास भी कोई मार्ग खोजा जा सकता है । स्मारक बनाना कोई प्रेमचंद पर अहसान नहीं है । नई पीढ़ी को हिंदी और प्रेमचंद की विरासत से जोड़ना है । दरियागंज के पास राजघाट भी है । महात्मा गांधी जी का प्रेमचंद के ऊपर असर सर्वविदित है । क्यों न राजघाट को जोड़ने वाली सड़क का नाम प्रेमचंद मार्ग रख दिया जाए । मुझे लगता है कि यदि इस बार भी हम चूके तो यह प्रेमचंद के प्रति नाइंसाफी ही होगी । हाल ही में दो हफ्ते पहले दिल्ली प्रेस एरिया की एक सड़क का नाम महाशय श्रीकृष्ण मार्ग रखा गया है । परसों की ख़बर थी, उत्तर प्रदेश के लखनऊ विश्वविद्यालय का नाम भी बदला जा रहा है । मेरी जानकारी में प्रेमचंद परिवार की ही और जानी-मानी लेखिका सारा राय जरूर प्रेमचंद मेमोरियल स्कूल चलाती हैं । वरना हर स्कूल ‘हार्वर्ड एकेडमी’ के नाम से ही चलता है ।
मित्रो, कोई कहे कि प्रेमचंद की इस गोष्ठी में समसामयिक कथा साहित्य पर क्या कहा गया ? मैं समझता हूँ कि समसामयिक कथा में एक कथाकार के नाते प्रेमचंद को याद करने का और उनकी प्रासंगिकता को बनाए रखने के लिए, इससे बेहतर रास्ता हो ही नहीं सकता ।
मैं फिर से दोहराना चाहूंगा कि न केवल साहित्य बल्कि जीवन के हर पन्ने के ऊपर प्रेमचंद मेरे आदर्श हैं ।
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