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माला और मलाला की मुश्किलें (kalptaruexpress.com)

Dec 08, 2012 ~ Leave a Comment ~ Written by Prempal Sharma

Malala Closeupकौन होते हैं तालिबान हमें पढ़ने से रोकने वाले ? तेरह- चौदह वर्ष की मलाला यूसुफ जई ने तालिबानी गुंडों को इन्हीं शब्दों में ललकारा था। पाकिस्तान में स्वात वैली की रहने वाली 14 वर्षीय छात्रा मलाला को यह इसलिए कहना पड़ा कि तालिबान एक के बाद एक लड़कियों के स्कूलों को बंद कराते जा रहे थे। समाज चुप, सरकार चुप। लेकिन मलाला पढ़ना चाहती थी और इसी का अंजाम हुआ कि 9 अक्तूबर, 2012 को स्कूल से लौटते वक्त मलाला की हत्या के लिए उस पर गोली दागी गई । मलाला फिलहाल खतरे से बाहर जरूर हैं, लेकिन तालिबान के फरमानों के आगे लड़कियों के स्कूल अभी भी नहीं खुले हैं। गोली मारने के बाद जो छुट-पुट विरोध में आवाजें उठीं तालिबानों ने उनको भी धमकाया कि यदि कोई मलाला के पक्ष में खड़ा हुआ तो उनके पूरे के पूरे परिवार समाप्त कर दिए जाएंगे ।

यह थी खबर पाकिस्तान की, लेकिन क्या हिन्दुस्तान में माला और मलाला की स्थिति बहुत ज्यादा अलग है ? हरियाणा की खाप पंचायतें बलात्कार की लगातार बढ़ती खबरों के आगे फरमान देती हैं कि लड़कियों की शादी की उम्र कम कर दी जाए तो ऐसी घटनाओं में कमी आएगी ।

मानो ऐसे वहशी कामों के लिए लड़कियां जिम्मेदार हों ।

पुरुषों के मुकाबले लड़कियों की संख्या तो पहले ही हरियाणा, पंजाब में पूरे देश के मुकाबले न्यूनतम हो चुकी है। बागपत भी हरियाणा की तरह देश की राजधानी दिल्ली से बहुत दूर नहीं है। यहां माला और मलाला दोनों समुदायों के मुल्ला और प्रधान फैसला करते हैं कि लड़कियों और महिलाओं को चालीस की उम्र तक मोबाइल नहीं दिए जाने चाहिए । यह जोड़ते हुए कि उन्हें अकेले बाजार न जाने दें, जब तक कि उनके साथ कोई मर्द, भाई या पिता न हो । पाकिस्तान की मलाला जैसी बच्ची ने तो आवाज उठाई भी है और संयुक्त राष्ट्र से लेकर दुनिया भर में यह सुनी भी गई है। पता नहीं बागपत में जो पाबंदियां लगाई गई हैं, उनका क्या हश्र होगा? विरोध की आवाजें कुछ उठीं जरूर लेकिन वोट बैंक पर नजर रखे नेता इन प्रश्नों से बचने की कोशिश करते रहे हैं। मलाला के बहाने दुनिया के कई संगठन और नामी हस्तियां लड़कियों की शिक्षा को बढ़ाने के लिए सामने आए हैं। भूतपूर्व ब्रिटिश प्रधानमंत्री गोर्डन ब्राउन ने तो दुनिया भर में संदेश देने के लिये एक नया नारा भी दिया है-मैं मलाला हूं और मैं चाहती हूं कि 2015 तक दुनिया का कोई भी बच्चा स्कूल से बाहर न रहे । मलाला के साथ जो घटा यदि उससे हमने सबक नहीं सीखा तो जो आज पड़ोसी पाकिस्तान और अफगानिस्तान में हो रहा है, उसे हिन्दुस्तान पहुंचने में देर नहीं लगेगी। पिछले दिनों उत्तर प्रदेश के नेता ने कहा कि लड़कियों को मोबाइल कतई नहीं दिया जाना चाहिए । वे कुतर्क में यह भी कहते हैं कि हमारी मां के पास कौन से मोबाइल थे । यानी समाज वहीं बना रहे जहां सौ-दो सौ साल पीछे था । अर्थात घूम-फिर कर सारा दोष महिलाओं का ही है । कोई कह सकता है कि दुनिया के इस हिस्से में समाज इक्कीसवीं सदी में प्रवेश कर गया है ? इतिहास पर नजर डालें तो निराश होने की जरूरत नहीं है। 100 वर्ष पूर्व प्रसिद्ध शिक्षाविद् मारिया मांतेश्वरी ने जब डॉक्टरी पढ़ने की इच्छा प्रकट की तो उसका चौतरफा विरोध हुआ था। वे इटली की पहली महिला डॉक्टर थीं, लेकिन आज इटली समेत दुनिया भर के राष्ट्रों में ऐसे किसी प्रतिबंध की कल्पना भी नहीं की जा सकती।

यहां तक कि डॉक्टर, नर्स जैसे पेशे में महिलाएं पुरुषों के मुकाबले और भी ज्यादा हैं। यहां मलेशिया जैसे राष्ट्रों से भी सीखने की जरूरत है । मलेशिया मुस्लिम देश है लेकिन वहां के दञ्जतरों और सामाजिक जगहों पर आधे से ज्यादा मुस्लिम महिलाएं काम करती नजर आएंगी। यह संभव हुआ है उनको बराबरी की शिक्षा देने और अवसरों में समानता के कारण। यह पूछने पर कि पाकिस्तान और अफगानिस्तान में क्यों महिलाओं पर इतनी पाबंदियां थोपी जाती हैं। एक बुजुर्ग मलेशियाई महिला का जवाब था कुरान में ऐसा कोई प्रतिबंध नहीं है । यदि ऐसा है तो फिर भारत जैसे देश के प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में हाल फिलहाल तक लड़कियों को पुस्तकालय में बैठकर पढ़ने से वंचित क्यों रखा जा रहा था ? विश्वविद्यालय में पढ़ने वाली लड़कियों की लगातार मांग के बाद यह सुविधा दी गई। जानकर धक्का भी लगा कि देश ही नहीं दुनिया भर में मशहूर अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में ऐसे किसी नियम का विरोध क्यों नहीं हुआ, जहां लड़कियों के पुस्तकालय में आने और बैठकर पढ़ने पर प्रतिबंध था ।

आश्चर्यजनक यह भी है कि जहां इरफान हबीब जैसे प्रगतिशील इतिहासकार रहे हों, हिंदी के जाने-माने कम्युनिस्ट साहित्यकार कुंवर पाल सिंह और दूसरे साहित्यकार रहे हों वहां महिलाओं की आवाज को इतना दबा कर क्यों रखा गया? जो अलीगढ़ और उसके आसपास के क्षेत्र से परिचित हैं वे जानते हैं कि महिलाओं को कितनी कड़ी पाबंदियों में यहां रहना पड़ता है। पिछले दिनों शिक्षा को समर्पित एकलव्य संस्थान ने एक कैलेंडर छापा था, जिसमें महिला वैज्ञानिकों के चित्र थे। अपने अंतर्मन को टटोलने पर पाया कि शायद ही हमारे समाज में महिलाओं को वैज्ञानिक बनने की तरफ प्रेरित किया जाता हो। कारण बहुत स्पष्ट हैं । विज्ञान की स्नातक या स्नातकोत्तर शिक्षा के लिए प्रयोगशाला जाना जरूरी होता है । ऐसा भी हो सकता है कि किसी प्रयोग को पूरा करने के लिए आपको देर तक प्रयोगशाला में रहना पड़े । यदि शाम या रात हो गई तो लड़कियां या बेटियां लौटेंगी कैसे ? न वे महानगरों में सुरक्षित हैं, न गांवों में । यानी बिना किसी कानूनी प्रतिबंध के भी उन्हें वह आजादी हासिल नहीं जो यूरोप या पिछले दिनों दक्षिण-पूर्व एशिया के मुल्कों में वे हासिल कर चुकी हैं। क्या देश की आधी आबादी को ऐसे नियंत्रण में रखने से देश प्रगति कर सकता है ? वक्त आ गया है कि हमारी अपनी माला और मलाला मुल्लाह, पंडितों और खाप के मुखियाओं को चुनौती दें।

वे कहें कि हमें संसद और विधान सभाओं में आरक्षण नहीं चाहिए ।

हमें चाहिए ऐसी आजादी जिसमें हम मनमर्जी से स्कूल-कॉलिज चुन सके, पुस्तकालय में बैठ सकें, मोबाइल रख सकें, जैसे दुनिया की बाकी औरतें कर रही हैं । किसी समाज या देश की नब्ज जानना हो तो आप महिलाओं के साथ उनके सलूक से अंदाजा लगा सकते हैं । दिल्ली में शाम होने के बाद महिलाएं पूरी तरह से असुरक्षित अनुभव करती हैं जबकि मुंबई, केरल या हैदराबाद में अपेक्षाकृत नहीं । पिछले दिनों उत्तर-पूर्व की महिलाओं को उनकी विशेष पहचान के कारण दिल्ली में और भी परेशानियों का सामना करना पड़ा। महिलाओं के प्रति यह क्रूरता अधिकतर मामलों में उनके धर्म का प्रतिबिम्ब है और जब से धर्म और जाति वोट बैंक की तरह देखी जा रही है, तब से राजनीतिक सत्ताएं इसमें दखलअंदाजी नहीं करना चाहतीं । कुलदीप नैयर की बायोग्राफी में इस बात का जिक्र है कि साठ के दशक में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के एक कुलपति बहुत प्रगतिशील विचारों के पक्षधर थे। वे कुछ नए सुधार करना चाहते थे। जैसे ही यह बात तत्कालीन दिल्ली की सत्ता तक पहुंची, उन्हें संकेत दिया गया कि धर्म के मामलों से दूर रहें । इसके पीछे कारण था कि उत्तर प्रदेश के चुनाव बहुत नजदीक थे और किसी भी कारण से वे अल्पसंख्यक वोट बैंक को नाराज नहीं करना चाहते थे। जब तक अल्पपसंख्यक या बहुसंख्यक वोट बैंक की तरह देखे जाते रहेंगे तब तक माला और मलाला दोनों की मुश्किलें बनी रहेंगी ।

लेखक शिक्षाविद हैं प्रेमपाल शर्मा पाकिस्तान की मलाला जैसी बच्ची ने तो आवाज उठाई भी है और संयुक्त राष्ट्र से लेकर दुनिया भर में यह सुनी भी गई है। पता नहीं बागपत में जो पाबंदियां लगाई गई हैं उनका क्या हश्र होगा? विरोध की आवाजें कुछ उठी जरूर लेकिन वोट बैंक पर नजर रखे नेता इन प्रश्नों से बचने की कोशिश करते रहे हैं। मलाला के बहाने दुनिया के कई संगठन और नामी हस्तियां लड़कियों की शिक्षा को बढ़ाने के लिए सामने आए हैं।

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Prempal Sharma

प्रेमपाल शर्मा

जन्म:
15 अक्टूबर 1956, बुलन्द शहर (गॉंव-दीघी) उत्तर प्रदेश

रचनाएँ:
कहानी संग्रह (4)
लेख संग्रह (7)
शिक्षा (6)
उपन्यास (1)
कविता (1)
व्यंग्य (1)
अनुवाद (1)


पुरस्कार/सम्मान :
इफको सम्मान, हिन्दी अकादमी पुरस्कार (2005), इंदिरा गांधी राजभाषा पुरस्कार (2015)

संपर्क:
96 , कला कला विहार अपार्टमेंट्स, मयूर विहार फेस -I, दिल्ली 110091

दूरभाष:
011 -22744596
9971399046

ईमेल :
ppsharmarly[at]gmail[dot]com

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